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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ द्वाविंशः सर्गः ॥


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राज्ञा स्वस्त्ययनपूर्वकं रामलक्ष्मणयोर्मुनिना सह प्रस्थापनं मार्गे तयोर्विश्वामित्राद् बलातिबलाख्यविद्ययोः प्राप्तिश्च -
राजा दशरथका स्वस्तिवाचनपूर्वक राम-लक्ष्मणको मुनिके साथ भेजना, मार्गमें उन्हें विश्वामित्रसे बला और अतिबला नामक विद्याकी प्राप्ति -


तथा वसिष्ठे ब्रुवति राजा दशरथः स्वयम् ।
प्रहृष्टवदनो रामं आजुहाव सलक्ष्मणम् ॥ १ ॥
कृतस्वस्त्ययनं मात्रा पित्रा दशरथेन च ।
पुरोधसा वसिष्ठेन मङ्‍गलैः अभिमंत्रितम् ॥ २ ॥
वसिष्ठके ऐसा कहनेपर राजा दशरथका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा । उन्होंने स्वयं ही लक्ष्मणसहित श्रीरामको अपने पास बुलाया । फिर माता कौसल्या, पिता दशरथ और पुरोहित वसिष्ठने स्वस्तिवाचन करनेके पश्चात् उनका यात्रासम्बन्धी मंगलकार्य सम्पन्न किया श्रीरामको मंगलसूचक मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित किया गया ॥ १-२ ॥

स पुत्रं मूर्ध्न्युपाघ्राय राजा दशरथः तदा ।
ददौ कुशिकपुत्राय सुप्रीतेनांतरात्मना ॥ ३ ॥
तदनन्तर राजा दशरथने पुत्रका मस्तक सूंघकर अत्यन्त प्रसन्नचित्तसे उसको विश्वामित्रको सौंप दिया ॥ ३ ॥

ततो वायुः सुखस्पर्शो विरजस्को ववौ तदा ।
विश्वामित्रगतं रामं दृष्ट्‍वा राजीवलोचनम् ॥ ४ ॥
पुष्पवृष्टिः महत्यासीद् देवदुंदुभिनिःस्वनैः ।
शङ्‍खदुंदुभिनिर्घोषः प्रयाते तु महात्मनि ॥ ५ ॥
उस समय धूलरहित सुखदायिनी वायु चलने लगी । कमलनयन श्रीरामको विश्वामित्रजीके साथ जाते देख देवताओंने आकाशसे वहाँ फूलोंकी बड़ी भारी वर्षा की । देवदुन्दुभियाँ बजने लगीं । महात्मा श्रीरामकी यात्राके समय शङ्खों और नगाड़ोंकी ध्वनि होने लगी ॥ ४-५ ॥

विश्वामित्रो ययावग्रे ततो रामो महायशाः ।
काकपक्षधरो धन्वी तं च सौमित्रिरन्वगात् ॥ ६ ॥
आगे-आगे विश्वामित्र, उनके पीछे काकपक्षधारी महायशस्वी श्रीराम तथा उनके पीछे सुमित्राकुमार लक्ष्मण जा रहे थे ॥ ६ ॥

कलापिनौ धनुष्पाणी शोभयानौ दिशो दश ।
विश्वामित्रं महात्मानं त्रिशीर्षाविव पन्नगौ ॥ ७ ॥
उन दोनों भाइयोंने पीठपर तरकस बाँध रखे थे । उनके हाथों में धनुष शोभा पा रहे थे तथा वे दोनों दसों दिशाओंको सुशोभित करते हुए महात्मा विश्वामित्रके पीछे तीन-तीन फनवाले दो सौके समान चल रहे थे । एक ओर कंधेपर धनुष, दूसरी ओर पीठपर तूणीर और बीच में मस्तक इन्हीं तीनोंकी तीन फनसे उपमा दी गयी है ॥ ७ ॥

अनुजग्मतुरक्षुद्रौ पितामहं इवाश्विनौ ।
अनुयातौ श्रिया दीप्तौ शोभयंतौ अनिंदितौ ॥ ८ ॥
उनका स्वभाव उच्च एवं उदार था । अपनी अनुपम कान्तिसे प्रकाशित होनेवाले वे दोनों अनिन्द्य सुन्दर राजकुमार सब ओर शोभाका प्रसार करते हुए विश्वामित्रजीके पीछे उसी तरह जा रहे थे, जैसे ब्रह्माजीके पीछे दोनों अश्विनीकुमार चलते हैं । ॥ ८ ॥

तदा कुशिकपुत्रं तु धनुष्पाणी स्वलङ्‍कृतौ ।
बद्धगोधाङ्‍गुलित्राणौ खड्गवंतौ महाद्युती ॥ ९ ॥
कुमारौ चारुवपुषौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ।
अनुयातौ श्रिया दीप्तौ शोभयेतां अनिंदितौ ॥ १० ॥
स्थाणुं देवमिवाचिंत्यं कुमाराविव पावकी ।
वे दोनों भाई कुमार श्रीराम और लक्ष्मण वस्त्र और आभूषणोंसे अच्छी तरह अलंकृत थे । उनके हाथोंमें धनुष थे । उन्होंने अपने हाथोंकी अंगुलियोंमें गोहटीके चमड़ेके बने हुए दस्ताने पहन रखे थे । उनके कटिप्रदेशमें तलवारें लटक रही थीं । उनके श्रीअंग बड़े मनोहर थे । वे महातेजस्वी श्रेष्ठ वीर अद्भुत कान्तिसे उद्भासित हो सब ओर अपनी शोभा फैलाते हुए कुशिकपुत्र विश्वामित्रका अनुसरण कर रहे थे । उस समय वे दोनों वीर अचिन्त्य शक्तिशाली स्थाणुदेव (महादेव) के पीछे चलनेवाले दो अग्निकुमार स्कन्द और विशाखकी भाँति शोभा पाते थे ॥ ९-१० १/२ ॥

अध्यर्धयोजनं गत्वा सरय्वा दक्षिणे तटे ॥ ११ ॥
रामेति मधुरां वाणीं विश्वामित्रोऽभ्यभाषत ।
गृहाण वत्स सलिलं माभूत् कालस्य पर्ययः ॥ १२ ॥
अयोध्यासे डेढ़ योजन दूर जाकर सरयूके दक्षिण तटपर विश्वामित्रने मधुर वाणीमें रामको सम्बोधित किया और कहा—'वत्स राम ! अब सरयूके जलसे आचमन करो । इस आवश्यक कार्य में विलम्ब न हो ॥ ११-१२ ॥

मंत्रग्रामं गृहाण त्वं बलां अतिबलां तथा ।
न श्रमो न ज्वरो वा ते न रूपस्य विपर्ययः ॥ १३ ॥
'बला और अतिबला नामसे प्रसिद्ध इस मन्त्र-समुदायको ग्रहण करो । इसके प्रभावसे तुम्हें कभी श्रम (थकावट) का अनुभव नहीं होगा । ज्वर (रोग या चिन्ताजनित कष्ट) नहीं होगा । तुम्हारे रूपमें किसी प्रकारका विकार या उलटफेर नहीं होने पायेगा ॥ १३ ॥

न च सुप्तं प्रमत्तं वा धर्षयिष्यंति नैर्‌ऋताः ।
न बाह्वोः सदृशो वीर्ये पृथिव्यां अस्ति कश्चन ॥ १४ ॥
'सोते समय अथवा असावधानीकी अवस्थामें भी राक्षस तुम्हारे ऊपर आक्रमण नहीं कर सकेंगे । इस भूतलपर बाहुबलमें तुम्हारी समानता करनेवाला कोई न होगा ॥ १४ ॥

त्रिषु लोकेषु वै राम न भवेत् सदृशस्तव ।
बलां अतिबलां चैव पठतः तात राघव ॥ १५ ॥
'तात ! रघुकुलनन्दन राम ! बला और अतिबलाका अभ्यास करनेसे तीनों लोकोंमें तुम्हारे समान कोई नहीं रह जायगा ॥ १५ ॥

न सौभाग्ये न दाक्षिण्ये न ज्ञाने बुद्धिनिश्चये ।
नोत्तरे प्रतिवक्तव्ये समो लोके तवानघ ॥ १६ ॥
'अनघ ! सौभाग्य, चातुर्य, ज्ञान और बुद्धिसम्बन्धी निश्चयमें तथा किसीके प्रश्नका उत्तर देनेमें भी कोई तुम्हारी तुलना नहीं कर सकेगा ॥ १६ ॥

एतद्विद्याद्वये लब्धे न भवेत् सदृशास्तव ।
बला चातिबलां चैव सर्वज्ञानस्य मातरौ ॥ १७ ॥
'इन दोनों विद्याओंके प्राप्त हो जानेपर कोई तुम्हारी समानता नहीं कर सकेगा; क्योंकि ये बला और अतिबला नामक विद्याएँ सब प्रकारके ज्ञानकी जननी हैं ॥ १७ ॥

क्षुत्पिपासे न ते राम भविष्येते नरोत्तम ।
बलां अतिबलां चैव पठतः तात राघव ॥ १८ ॥
गृहाण सर्वलोकस्य गुप्तये रघुनंदन ।
'नरश्रेष्ठ श्रीराम ! तात रघुनन्दन ! बला और अतिबलाका अभ्यास कर लेनेपर तुम्हें भूख-प्यासका भी कष्ट नहीं होगा; अत: रघुकुलको आनन्दित करनेवाले राम ! तुम सम्पूर्ण जगत्की रक्षाके लिये इन दोनों विद्याओंको ग्रहण करो ॥ १८ १/२ ॥

विद्याद्वयं अधीयाने यशश्चाथ भवेद् भुवि ।
पितामहसुते ह्येते विद्ये तेजःसमन्विते ॥ १९ ॥
'इन दोनों विद्याओंका अध्ययन कर लेनेपर इस भूतलपर तुम्हारे यशका विस्तार होगा । ये दोनों विद्याएँ ब्रह्माजीकी तेजस्विनी पुत्रियाँ हैं ॥ १९ ॥

प्रदातुं तव काकुत्स्थ सदृशस्त्वं हि पर्थिव ।
कामं बहुगुणाः सर्वे त्वय्येते नात्र संशयः ॥ २० ॥
तपसा संभृते चैते बहुरूपे भविष्यतः ।
'ककुत्स्थनन्दन ! मैंने इन दोनोंको तुम्हें देनेका विचार किया है । राजकुमार ! तुम्हीं इनके योग्य पात्र हो । यद्यपि तुममें इस विद्याको प्राप्त करने योग्य बहुत-से गुण हैं अथवा सभी उत्तम गुण विद्यमान हैं, इसमें संशय नहीं है तथापि मैंने तपोबलसे इनका अर्जन किया है । अत: मेरी तपस्यासे परिपूर्ण होकर ये तुम्हारे लिये बहुरूपिणी होंगी— अनेक प्रकारके फल प्रदान करेंगी' ॥ २० १/२ ॥

ततो रामो जलं स्पृष्ट्‍वा प्रहृष्टवदनः शुचिः ॥ २१ ॥
प्रतिजग्राह ते विद्ये महर्षेर्भावितात्मनः ।
तब श्रीराम आचमन करके पवित्र हो गये । उनका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा । उन्होंने उन शुद्ध अन्त:करणवाले महर्षिसे वे दोनों विद्याएँ ग्रहण की ॥ २१ १/२ ॥

विद्यासमुदितो रामः शुशुभे भीमविक्रमः ॥ २२ ॥
सहस्ररश्मिर्भगवान् शरदीव दिवाकरः ।
विद्यासे सम्पन्न होकर भयङ्कर पराक्रमी श्रीराम सहस्रों किरणोंसे युक्त शरत्कालीन भगवान् सूर्यके समान शोभा पाने लगे ॥ २२ १/२ ॥

गुरुकार्याणि सर्वाणि नियुज्य कुशिकात्मजे ।
ऊषुस्तां रजनीं तत्र सरय्वां सुसुखः त्रयः ॥ २३ ॥
तत्पश्चात् श्रीरामने विश्वामित्रजीकी सारी गुरुजनोचित सेवाएँ करके हर्षका अनुभव किया । फिर वे तीनों वहाँ सरयूके तटपर रातमें सुखपूर्वक रहे ॥ २३ ॥

दशरथनृपसूनुसत्तमाभ्यां
    तृणशयनेऽनुचिते तदोषिताभ्याम् ।
कुशिकसुतवचोऽनुलालिताभ्यां
    सुखमिव सा विबभौ विभावरी च ॥ २४ ॥
राजा दशरथके वे दोनों श्रेष्ठ राजकुमार उस समय वहाँ तृणकी शय्यापर, जो उनके योग्य नहीं थी, सोये थे । महर्षि विश्वामित्र अपनी वाणीद्वारा उन दोनोंके प्रति लाड़-प्यार प्रकट कर रहे थे । इससे उन्हें वह रात बड़ी सुखमयीसी प्रतीत हुई ॥ २४ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे द्वाविंशः सर्गः ॥ २२ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें बाईसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ २२ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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