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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ त्रयोविंशः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] मुनिना सह श्रीरामलक्ष्मणयोः सरयूगङ्गासङ्गम समीपे पुण्याश्रमे नक्तं विश्रामः -
विश्वामित्रसहित श्रीराम और लक्ष्मणका सरयू-गंगासंगमके समीप पुण्य आश्रममें रातको ठहरना - प्रभातायां तु शर्वर्यां विश्वामित्रो महामुनिः । अभ्यभाषत काकुत्स्थौ शयानौ पर्णसंस्तरे ॥ १ ॥ जब रात बीती और प्रभात हुआ, तब महामुनि विश्वामित्रने तिनकों और पत्तोंके बिछौनेपर सोये हुए उन दोनों ककुत्स्थवंशी राजकुमारोंसे कहा— ॥ १ ॥ कौसल्या सुप्रजा राम पूर्वा संध्या प्रवर्तते । उत्तिष्ठ नरशार्दूल कर्त्तव्यं दैवमाह्निकम् ॥ २ ॥ 'नरश्रेष्ठ राम ! तुम्हारे-जैसे पुत्रको पाकर महारानी कौसल्या सुपुत्रजननी कही जाती हैं । यह देखो, प्रात:कालकी संध्याका समय हो रहा है; उठो और प्रतिदिन किये जानेवाले देवसम्बन्धी कार्योंको पूर्ण करो' ॥ २ ॥ तस्यर्षेः परमोदारं वचः श्रुत्वा नरोत्तमौ । स्नात्वा कृतोदकौ वीरौ जेपतुः परमं जपम् ॥ ३ ॥ महर्षिका यह परम उदार वचन सुनकर उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरोंने स्नान करके देवताओंका तर्पण किया और फिर वे परम उत्तम जपनीय मन्त्र गायत्रीका जप करने लगे ॥ ३ ॥ कृताह्निकौ महावीर्यौ विश्वामित्रं तपोधनम् । अभिवाद्यातिसंहृष्टौ गमनायाभितस्थतुः ॥ ४ ॥ नित्यकर्म समाप्त करके महापराक्रमी श्रीराम और लक्ष्मण अत्यन्त प्रसन्न हो तपोधन विश्वामित्रको प्रणाम करके वहाँसे आगे जानेको उद्यत हो गये ॥ ४ ॥ तौ प्रयान्तौ महावीर्यौ दिव्यां त्रिपथगां नदीम् । ददृशाते ततस्तत्र सरय्वाः सङ्गमे शुभे ॥ ५ ॥ जाते-जाते उन महाबली राजकुमारोंने गंगा और सरयूके शुभ संगमपर पहुँचकर वहाँ दिव्य त्रिपथगा नदी गंगाजीका दर्शन किया ॥ ५ ॥ तत्राश्रमपदं पुण्यं ऋषीणां भावितात्मनाम् । बहुवर्षसहस्राणि तप्यतां परमं तपः ॥ ६ ॥ संगमके पास ही शुद्ध अन्त:करणवाले महर्षियोंका एक पवित्र आश्रम था, जहाँ वे कई हजार वर्षों से तीव्र तपस्या करते थे ॥ ६ ॥ तं दृष्ट्वा परमप्रीतौ राघवौ पुण्यमाश्रमम् । ऊचतुस्तं महात्मानं विश्वामित्रमिदं वचः ॥ ७ ॥ उस पवित्र आश्रमको देखकर रघुकुलरत्न श्रीराम और लक्ष्मण बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने महात्मा विश्वामित्रसे यह बात कही ॥ ७ ॥ कस्यायं आश्रमः पुण्यः को न्वस्मिन् वसते पुमान् । भगवन् श्रोतुमिच्छावः परं कौतूहलं हि नौ ॥ ८ ॥ 'भगवन् ! यह किसका पवित्र आश्रम है ? और इसमें कौन पुरुष निवास करता है ? यह हम दोनों सुनना चाहते हैं । इसके लिये हमारे मन में बड़ी उत्कण्ठा है' ॥ ८ ॥ तयोस्तद् वचनं श्रुत्वा प्रहस्य मुनिपुङ्गवः । अब्रवीत् श्रूयतां राम यस्यायं पूर्व आश्रमः ॥ ९ ॥ उन दोनोंका यह वचन सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र हँसते हुए बोले—'राम ! यह आश्रम पहले जिसके अधिकारमें रहा है, उसका परिचय देता हूँ, सुनो ॥ ९ ॥ कंदर्पो मूर्तिमानासीत् काम इत्युच्यते बुधैः । तपस्यंतं इह स्थाणुं नियमेन समाहितम् ॥ १० ॥ 'विद्वान् पुरुष जिसे काम कहते हैं, वह कन्दर्प पूर्वकालमें मूर्तिमान् था शरीर धारण करके विचरता था । उन दिनों भगवान् स्थाणु (शिव) इसी आश्रममें चित्तको एकाग्र करके नियमपूर्वक तपस्या करते थे ॥ १० ॥ कृतोद्वाहं तु देवेशं गच्छंतं समरुद्गणम् । धर्षयामास दुर्मेधा हुङ्कृतश्च महात्मना ॥ ११ ॥ 'एक दिन समाधिसे उठकर देवेश्वर शिव मरुद्गणोंके साथ कहीं जा रहे थे । उसी समय दुर्बुद्धि कामने उनपर आक्रमण किया । यह देख महात्मा शिवने हुङ्कार करके उसे रोका ॥ ११ ॥ अवध्यातश्च रुद्रेण चक्षुषा रघुनंदन । व्यशीर्यन्त शरीरात् स्वात् सर्वगात्राणि दुर्मतेः ॥ १२ ॥ 'रघुनन्दन ! भगवान् रुद्रने रोषभरी दृष्टिसे अवहेलनापूर्वक उसकी ओर देखा; फिर तो उस दुर्बुद्धिके सारे अंग उसके शरीरसे जीर्ण-शीर्ण होकर गिर गये ॥ १२ ॥ तत्र गात्रं हतं तस्य निर्दग्धस्य महात्मनः । अशरीरः कृतः कामः क्रोधाद् देवेश्वरेण हि ॥ १३ ॥ 'वहाँ दग्ध हुए महामना कन्दर्पका शरीर नष्ट हो गया । देवेश्वर रुद्रने अपने क्रोधसे कामको अंगहीन कर दिया । १३ ॥ अनङ्ग इति विख्यातः तदाप्रभृति राघव । स चाङ्गविषयः श्रीमान् यत्राङ्गं स मुमोच ह ॥ १४ ॥ . 'राम ! तभीसे वह 'अनंग' नामसे विख्यात हुआ । शोभाशाली कन्दर्पने जहाँ अपना अंग छोड़ा था, वह प्रदेश अंगदेशके नामसे विख्यात हुआ ॥ १४ ॥ तस्यायं आश्रमः पुण्यः तस्येमे मुनयः पुरा । शिष्या धर्मपरा वीर तेषां पापं न विद्यते ॥ १५ ॥ 'यह उन्हीं महादेवजीका पुण्य आश्रम है । वीर ! ये मुनिलोग पूर्वकालमें उन्हीं स्थाणुके धर्मपरायण शिष्य थे । इनका सारा पाप नष्ट हो गया है ॥ १५ ॥ इहाद्य रजनीं राम वसेम शुभदर्शन । पुण्ययोः सरितोर्मध्ये श्वस्तरिष्यामहे वयम् ॥ १६ ॥ 'शुभदर्शन राम ! आजकी रातमें हमलोग यहीं इन पुण्यसलिला सरिताओंके बीचमें निवास करें । कल सबेरे इन्हें पार करेंगे ॥ १६ ॥ अभिगच्छामहे सर्वे शुचयः पुण्यमाश्रमम् । इह वासः परोऽस्माकं सुखं वत्स्यामहे निशाम् ॥ १७ ॥ स्नाताश्च कृतजप्याश्च हुतहव्या नरोत्तम । 'हम सब लोग पवित्र होकर इस पुण्य आश्रममें चलें । यहाँ रहना हमारे लिये बहुत उत्तम होगा । नरश्रेष्ठ ! यहाँ स्नान करके जप और हवन करनेके बाद हम रातमें बड़े सुखसे रहेंगे' ॥ १७ १/२ ॥ तेषां संवदतां तत्र तपोदीर्घेण चक्षुषा ॥ १८ ॥ विज्ञाय परमप्रीता मुनयो हर्षमागमन् । वे लोग वहाँ इस प्रकार आपस में बातचीत कर ही रहे थे कि उस आश्रममें निवास करनेवाले मुनि तपस्याद्वारा प्राप्त हुई दूर दृष्टिसे उनका आगमन जानकर मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए । उनके हृदयमें हर्षजनित उल्लास छा गया । १८ १/२ ॥ अर्घ्यं पाद्यं तथाऽऽतिथ्यं निवेद्य कुशिकात्मजे ॥ १९ ॥ रामलक्ष्मणयोः पश्चाद् अकुर्वन् अतिथिक्रियाम् । उन्होंने विश्वामित्रजीको अर्घ्य, पाद्य और अतिथि-सत्कारकी सामग्री अर्पित करनेके बाद श्रीराम और लक्ष्मणका भी आतिथ्य किया ॥ १९ १/२ ॥ सत्कारं समनुप्राप्य कथाभिः अभिरञ्जयन् ॥ २० ॥ यथार्हमजपन् संध्यां ऋषयस्ते समाहिताः । यथोचित सत्कार करके उन मुनियोंने इन अतिथियोंका भाँति-भाँतिकी कथा-वार्ताओंद्वारा मनोरञ्जन किया । फिर उन महर्षियोंने एकाग्रचित्त होकर यथावत् संध्यावन्दन एवं जप किया ॥ २० १/२ ॥ तत्र वासिभिरानीता मुनिभिः सुव्रतैः सह ॥ २१ ॥ न्यवसन् सुसुखं तत्र कामाश्रमपदे तथा । तदनन्तर वहाँ रहनेवाले मुनियोंने अन्य उत्तम व्रतधारी मुनियों के साथ विश्वामित्र आदिको शयनके लिये उपयुक्त स्थानमें पहुंचा दिया । सम्पूर्ण कामनाओंकी पूर्ति करनेवाले उस पुण्य आश्रममें उन विश्वामित्र आदिने बड़े सुखसे निवास किया ॥ २१ १/२ ॥ कथाभिः अभिरामाभिः अभिरामौ नृपात्मजौ । रमयामास धर्मात्मा कौशिको मुनिपुङ्गवः ॥ २२ ॥ धर्मात्मा मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रने उन मनोहर राजकुमारोंका सुन्दर कथाओंद्वारा मनोरञ्जन किया ॥ २२ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे त्रयोविंशः सर्गः ॥ २३ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें तेईसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ २३ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |