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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ एकत्रिंशः सर्गः ॥


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श्रीरामादिभिः सह विश्वामित्रस्य मिथिलां प्रति प्रस्थानं मार्गे सायंकाले शोणभद्रतटे विश्रामश्च -
श्रीराम, लक्ष्मण तथा ऋषियोंसहित विश्वामित्रका मिथिलाको प्रस्थान तथा मार्ग में संध्याके समय शोणभद्रतटपर विश्राम -


अथ तां रजनीं तत्र कृतार्थौ रामलक्ष्मणौ ।
ऊषतुर्मुदितौ वीरौ प्रहृष्टेनांतरात्मना ॥ १ ॥
तदनन्तर (विश्वामित्रके यज्ञकी रक्षा करके) कृतकृत्य हुए श्रीराम और लक्ष्मणने उस यज्ञशालामें ही वह रात बितायी । उस समय वे दोनों वीर बड़े प्रसन्न थे । उनका हृदय हर्षोल्लाससे परिपूर्ण था ॥ १ ॥

प्रभातायां तु शर्वर्यां कृत पौर्वाह्णिक क्रियौ ।
विश्वामित्रं मुनींश्चान्यान् सहितावभिजग्मतुः ॥ २ ॥
रात बीतनेपर जब प्रात:काल आया, तब वे दोनों भाई पूर्वाह्नकालके नित्य-नियमसे निवृत्त हो विश्वामित्र मुनि तथा अन्य ऋषियोंके पास साथ-साथ गये ॥ २ ॥

अभिवाद्य मुनिश्रेष्ठं ज्वलंतं इव पावकम् ।
ऊचतुः परमोदारं वाक्यं मधुरभाषिणौ ॥ ३ ॥
वहाँ जाकर उन्होंने प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ ! विश्वामित्रको प्रणाम किया और मधुर भाषामें यह परम उदार वचन कहा— ॥ ३ ॥

इमौ स्म मुनिशार्दूल किङ्‍करौ समुपगतौ ।
आज्ञापय मुनिश्रेष्ठ शासनं करवाव किम् ॥ ४ ॥
'मुनिप्रवर ! हम दोनों किङ्कर आपकी सेवामें उपस्थित हैं । मुनिश्रेष्ठ ! आज्ञा दीजिये, हम क्या सेवा करें ?' ॥ ४ ॥

एवमुक्ते तथोर्वाक्ये सर्व एव महर्षयः ।
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य रामं वचनमब्रुवन् ॥ ५ ॥
उन दोनोंके ऐसा कहनेपर वे सभी महर्षि विश्वामित्रको आगे करके श्रीरामचन्द्रजीसे बोले— ॥ ५ ॥

मैथिलस्य नरश्रेष्ठ जनकस्य भविष्यति ।
यज्ञः परमधर्मिष्ठः तत्र यास्यामहे वयम् ॥ ६ ॥
'नरश्रेष्ठ ! मिथिलाके राजा जनकका परम धर्ममय यज्ञ प्रारम्भ होनेवाला है । उसमें हम सब लोग जायँगे ॥ ६ ॥

त्वं चैव नरशार्दूल सहास्माभिर्गमिष्यसि ।
अद्‍भुतं च धनूरत्‍नं तत्र त्वं द्रष्टुमर्हसि ॥ ७ ॥
"पुरुषसिंह ! तुम्हें भी हमारे साथ वहाँ चलना है । वहाँ एक बड़ा ही अद्भुत धनुषरन्त है । तुम्हें उसे देखना चाहिये ॥ ७ ॥

तद्धि पूर्वं नरश्रेष्ठ दत्तं सदसि दैवतैः ।
अप्रमेयबलं घोरं मखे परमभास्वरम् ॥ ८ ॥
'पुरुषप्रवर ! पहले कभी यज्ञमें पधारे हुए देवताओंने जनकके किसी पूर्वपुरुषको वह धनुष दिया था । वह कितना प्रबल और भारी है, इसका कोई माप-तोल नहीं है । वह बहुत ही प्रकाशमान एवं भयंकर है ॥ ८ ॥

नास्य देवा न गंधर्वा नासुरा न च राक्षसाः ।
कर्तुं आरोपणं शक्ता न कथञ्चन मानुषाः ॥ ९ ॥
'मनुष्योंकी तो बात ही क्या है । देवता, गन्धर्व, असुर तथा राक्षस भी किसी तरह उसकी प्रत्यञ्चा नहीं चढ़ा पाते ॥ ९ ॥

धनुषः तस्य वीर्यं तु जिज्ञासंतो महीक्षितः ।
न शेकुः आरोपयितुं राजपुत्रा महाबलाः ॥ १० ॥
'उस धनुषकी शक्तिका पता लगानेके लिये कितने ही महाबली राजा और राजकुमार आये; किंतु कोई भी उसे चढ़ा न सके ॥ १० ॥

तद् धनुः नरशार्दूल मैथिलस्य महात्मनः ।
तत्र द्रक्ष्यसि काकुत्स्थ यज्ञं च परमाद्‍भुतम् ॥ ११ ॥
'ककुत्स्थकुलनन्दन पुरुषसिंह राम ! वहाँ चलनेसे तुम महामना मिथिलानरेशके उस धनुषको तथा उनके परम अद्भुत यज्ञको भी देख सकोगे ॥ ११ ॥

तद्धि यज्ञफलं तेन मैथिलेनोत्तमं धनुः ।
याचितं नरशार्दूल सुनाभं सर्वदैवतैः ॥ १२ ॥
'नरश्रेष्ठ ! मिथिलानरेशने अपने यज्ञके फलरूपमें उस उत्तम धनुषको माँगा था; अतः सम्पूर्ण देवताओं तथा भगवान् शङ्करने उन्हें वह धनुष प्रदान किया था । उस धनुषका मध्यभाग जिसे मुट्ठीसे पकड़ा जाता है, बहुत ही सुन्दर है ॥ १२ ॥

आयागभूतं नृपतेः तस्य वेश्मनि राघव ।
अर्चितं विविधैः गंधैः माल्यैश्चागरुगंधिभिः ॥ १३ ॥
'रघुनन्दन ! राजा जनकके महल में वह धनुष पूजनीय देवताकी भाँति प्रतिष्ठित है और नाना प्रकारके गन्ध, धूप तथा अगुरु आदि सुगन्धित पदार्थों से उसकी पूजा होती है' ॥ १३ ॥

एवमुक्त्वा मुनिवरः प्रस्थानं अकरोत् तदा ।
सर्षिसङ्‍घः सकाकुत्स्थ आमंत्र्य वनदेवताः ॥ १४ ॥
ऐसा कहकर मुनिवर विश्वामित्रजीने वनदेवताओंसे आज्ञा ली और ऋषिमण्डली तथा राम-लक्ष्मणके साथ वहाँसे प्रस्थान किया ॥ १४ ॥

स्वस्ति वोऽस्तु गमिष्यामि सिद्धः सिद्धाश्रमादहम् ।
उत्तरे जाह्नवीतीरे हिमवंतं शिलोच्चयम् ॥ १५ ॥
चलते समय उन्होंने वनदेवताओंसे कहा—'मैं अपना यज्ञकार्य सिद्ध करके इस सिद्धाश्रमसे जा रहा हूँ । गंगाके उत्तर तटपर होता हुआ हिमालयपर्वतकी उपत्यकामें जाऊँगा । आपलोगोंका कल्याण हो' ॥ १५ ॥

इत्युक्त्वा मुनिशार्दुलः कौशिकः स तपोधनः ।
उत्तरां दिशमुद्दिश्य प्रस्थातुं उपचक्रमे ॥ १६ ॥
ऐसा कहकर तपस्याके धनी मुनिश्रेष्ठ कौशिकने उत्तर दिशाकी ओर प्रस्थान आरम्भ किया ॥ १६ ॥

तं व्रजंतं मुनिवरं अन्वयाद् अनुसारिणम् ।
शकटीशतमात्रं च प्रायेण ब्रह्मवादिनाम् ॥ १७ ॥
उस समय प्रस्थानके समय यात्रा करते हुए मुनिवर विश्वामित्रके पीछे उनके साथ जानेवाले ब्रह्मवादी महर्षियोंकी सौ गाड़ियाँ चलीं ॥ १७ ॥

मृगपक्षिगणाश्चैव सिद्धाश्रमनिवासिनः ।
अनुजग्मुः महात्मानं विश्वामित्रं तपोधनम् ॥ १८ ॥
सिद्धाश्रममें निवास करनेवाले मृग और पक्षी भी तपोधन विश्वामित्रके पीछे-पीछे जाने लगे ॥ १८ ॥

निवर्तयामास ततः सर्षिसंघः स पक्षिणः ।
ते गत्वा दूरमध्वानं लंबमाने दिवाकरे ॥ १९ ॥
वासं चक्रुः मुनिगणाः शोणाकूले समाहिताः ।
तेऽस्तं गते दिनकरे स्नात्वा हुतहुताशनाः ॥ २० ॥
कुछ दूर जानेपर ऋषिमण्डलीसहित विश्वामित्रने उन पशु-पक्षियोंको लौटा दिया । फिर दूरतकका मार्ग तै कर लेनेके बाद जब सूर्य अस्ताचलको जाने लगे, तब उन ऋषियोंने पूर्ण सावधान रहकर शोणभद्रके तटपर पड़ाव डाला । जब सूर्यदेव अस्त हो गये, तब स्नान करके उन सबने अग्निहोत्रका कार्य पूर्ण किया । ॥ १९-२० ॥

विश्वामित्रं पुरस्कृत्य निषेदुः अमितौजसः ।
रामोऽपि सहसौमित्रिः मुनीन् तान् अभिपूज्य च ॥ २१ ॥
अग्रतो निषसादाथ विश्वामित्रस्य धीमतः ।
इसके बाद वे सभी अमिततेजस्वी ऋषि मुनिवर विश्वामित्रको आगे करके बैठे; फिर लक्ष्मणसहित श्रीराम भी उन ऋषियोंका आदर करते हुए बुद्धिमान् विश्वामित्रजीके सामने बैठ गये ॥ २१ १/२ ॥

अथ रामो महातेजा विश्वामित्रं तपोधनम् ॥ २२ ॥
पप्रच्छ मिनुशार्दूलः कौतूहल समन्वितम् ।
तत्पश्चात् महातेजस्वी श्रीरामने तपस्याके धनी मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रसे कौतूहलपूर्वक पूछा– ॥ २२ १/२ ॥

भगवन् को न्वयं देशः समृद्धवनशोभितः ॥ २३ ॥
श्रोतुमिच्छामि भद्रं ते वक्तुमर्हसि तत्त्वतः ।
भगवन् ! यह हरे-भरे समृद्धिशाली वनसे सुशोभित देश कौन-सा है ? मैं इसका परिचय सुनना चाहता हूँ । आपका कल्याण हो । आप मुझे ठीक-ठीक इसका रहस्य बताइये ॥ २३ १/२ ॥

चोदितो रामवाक्येन कथयामास सुव्रतः ।
तस्य देशस्य निखिलं ऋषिमध्ये महातपाः ॥ २४ ॥
श्रीरामचन्द्रजीके इस प्रश्नसे प्रेरित होकर उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महातपस्वी विश्वामित्रने ऋषिमण्डलीके बीच उस देशका पूर्णरूपसे परिचय देना प्रारम्भ किया ॥ २४ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे एकत्रिंशः सर्गः ॥ ३१ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें इकतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ३१ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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