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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ द्वात्रिंशः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] ब्रह्मपुत्रस्य कुशस्य चतुर्णां पुत्राणां शोणभद्रतटवर्ति भूतलस्योपरि वसोरधिकरस्य प्रतिपादनं कुशनाभस्य मन्याशतस्य कोपेन कुब्जत्वम् -
ब्रह्मपुत्र कुशके चार पुत्रोंका वर्णन, शोणभद्र-तटवर्ती प्रदेशको वसुकी भूमि बताना, कुशनाभकी सौ कन्याओंका वायुके कोपसे 'कुब्जा' होना - ब्रह्मयोनिः महान् आसीत् कुशो नाम महातपाः । अक्लिष्ट व्रतधर्मज्ञः सज्जन प्रतिपूजकः ॥ १ ॥ (विश्वामित्रजी कहते हैं-) श्रीराम ! पूर्वकालमें कुश नामसे प्रसिद्ध एक महातपस्वी राजा हो गये हैं । वे साक्षात् ब्रह्माजीके पुत्र थे । उनका प्रत्येक व्रत एवं संकल्प बिना किसी क्लेश या कठिनाईके ही पूर्ण होता था । वे धर्मके ज्ञाता, सत्पुरुषोंका आदर करनेवाले और महान् थे ॥ १ ॥ स महात्मा कुलीनायां युक्तायां सुमहाबलान् । वैदर्भ्यां जनयामास चतुरः सदृशान् सुतान् ॥ २ ॥ उत्तम कुलमें उत्पन्न विदर्भदेशकी राजकुमारी उनकी पत्नी थी । उसके गर्भसे उन महात्मा नरेशने चार पुत्र उत्पन्न किये, जो उन्हींक समान थे ॥ २ ॥ कुशांबं कुशनाभं च असूर्तरजसं वसुम् । दीप्तियुक्तान् महोत्साहान् क्षत्रधर्मचिकीर्षया ॥ ३ ॥ तानुवाच कुशः पुत्रान् धर्मिष्ठान् सत्यवादिनः । क्रियतां पालनं पुत्रा धर्मं प्राप्स्यथ पुष्कलम् ॥ ४ ॥ उनके नाम इस प्रकार हैं—कुशाम्ब, कुशनाभ, असूर्तरजस तथा वसु । ये सब-के-सब तेजस्वी तथा महान् उत्साही थे । राजा कुशने 'प्रजारक्षणरूप' क्षत्रियध मके पालनकी इच्छासे अपने उन धर्मिष्ठ तथा सत्यवादी पुत्रोंसे कहा—'पुत्रो ! प्रजाका पालन करो, इससे तुम्हें धर्मका पूरा-पूरा फल प्राप्त होगा' ॥ ३-४ ॥ कुशस्य वचनं श्रुत्वा चत्वारो लोकसत्तमाः । निवेशं चक्रिरे सर्वे पुराणां नृवरास्तदा ॥ ५ ॥ अपने पिता महाराज कुशकी यह बात सुनकर उन चारों लोकशिरोमणि नरश्रेष्ठ राजकुमारोंने उस समय अपनेअपने लिये पृथक्-पृथक् नगर निर्माण कराया ॥ ५ ॥ कुशांबस्तु महातेजाः कौशांबीं अकरोत् पुरीम् । कुशनाभस्तु धर्मात्मा पुरं चक्रे महोदयम् ॥ ६ ॥ महातेजस्वी कुशाम्बने 'कौशाम्बी' पुरी बसायी (जिसे आजकल 'कोसम' कहते हैं । धर्मात्मा कुशनाभने 'महोदय' नामक नगरका निर्माण कराया ॥ ६ ॥ आसूर्तरजसो नाम धर्मारण्यं महीपतिः । चक्रे पुरवरं राजा वसुनाम गिरिव्रजम् ॥ ७ ॥ परम बुद्धिमान् असूर्तरजसने 'धर्मारण्य' नामक एक श्रेष्ठ नगर बसाया तथा राजा वसुने 'गिरिव्रज' नगरकी स्थापना की ॥ ७ ॥ एषा वसुमती नाम वसोस्तस्य महात्मनः । एते शैलवराः पञ्च प्रकाशंते समंततः ॥ ८ ॥ महात्मा वसुकी यह 'गिरिव्रज' नामक राजधानी वसुमतीके नामसे प्रसिद्ध हुई । इसके चारों ओर ये पाँच श्रेष्ठ पर्वत सुशोभित होते हैं२ ॥ ८ ॥ सुमागधी नदी रम्या मगधान् विश्रुताऽऽययौ । पञ्चानां शैलमुख्यानां मध्ये मालेव शोभते ॥ ९ ॥ यह रमणीय (सोन) नदी दक्षिण-पश्चिमकी ओरसे बहती हुई मगध देशमें आयी है, इसलिये यहाँ 'सुमागधी' नामसे विख्यात हुई है । यह इन पाँच श्रेष्ठ पर्वतोंके बीचमें मालाकी भाँति सुशोभित हो रही है ॥ ९ ॥ सैषा हि मागधी राम वसोस्तस्य महात्मनः । पूर्वाभिचरिता राम सुक्षेत्रा सस्यमालिनी ॥ १० ॥ श्रीराम ! इस प्रकार 'मागधी' नामसे प्रसिद्ध हुई यह सोन नदी पूर्वोक्त महात्मा वसुसे सम्बन्ध रखती है । रघुनन्दन ! यह दक्षिण-पश्चिमसे आकर पूर्वोत्तर दिशाकी ओर प्रवाहित हुई है । इसके दोनों तटोंपर सुन्दर क्षेत्र (उपजाऊ खेत) हैं, अत: यह सदा सस्य-मालाओंसे अलंकृत (हरी-भरी खेतीसे सुशोभित) रहती है ॥ १० ॥ कुशनाभस्तु राजर्षिः कन्याशतमनुत्तमम् । जनयामास धर्मात्मा घृताच्यां रघुनंदन ॥ ११ ॥ रघुकुलको आनन्दित करनेवाले श्रीराम ! धर्मात्मा राजर्षि कुशनाभने घृताची अप्सराके गर्भसे परम उत्तम सौ कन्याओंको जन्म दिया ॥ ११ ॥ तास्तु यौवनशालिन्यो रूपवत्यः स्वलङ्कृताः । उद्यानभूमिं आगम्य प्रावृषीव शतह्रदाः ॥ १२ ॥ गायंत्यो नृत्यमानाश्च वादयंत्यस्तु राघव । आमोदं परमं जग्मुः वराभरणभूषिताः ॥ १३ ॥ वे सब-की-सब सुन्दर रूप-लावण्यसे सुशोभित थीं । धीरे-धीरे युवावस्थाने आकर उनके सौन्दर्यको और भी बढ़ा दिया । रघुवीर ! एक दिन वस्त्र और आभूषणोंसे विभूषित हो वे सभी राजकन्याएँ उद्यान-भूमिमें आकर वर्षाऋतुमें प्रकाशित होनेवाली विद्युन्मालाओंकी भाँति शोभा पाने लगीं । सुन्दर अलंकारोंसे अलंकृत हुई वे अंगनाएँ गाती, बजाती और नृत्य करती हुई वहाँ परम आमोद-प्रमोदमें मग्न हो गयीं ॥ १२-१३ ॥ अथ ताश्चारुसर्वाङ्ग्यो रूपेणाप्रतिमा भुवि । उद्यानभूमिं आगम्य तारा इव घनांतरे ॥ १४ ॥ उनके सभी अंग बड़े मनोहर थे । इस भूतलपर उनके रूप-सौन्दर्यकी कहीं भी तुलना नहीं थी । उस उद्यानमें आकर वे बादलोंके ओटमें कुछ-कुछ छिपी हुई तारिकाओंके समान शोभा पा रही थीं ॥ १४ ॥ ताः सर्वगुणसंपन्ना रूपयौवनसंयुताः । दृष्ट्वा सर्वात्मको वायुः इदं वचनमब्रवीत् ॥ १५ ॥ उस समय उत्तम गुणोंसे सम्पन्न तथा रूप और यौवनसे सुशोभित उन सब राजकन्याओंको देखकर सर्वस्वरूप वायु देवताने उनसे इस प्रकार कहा— ॥ १५ ॥ अहं वः कामये सर्वा भार्या मम भविष्यथ । मानुषः त्यज्यतां भावो दीर्घं आयुः अवाप्स्यथ ॥ १६ ॥ 'सुन्दरियो ! मैं तुम सबको अपनी प्रेयसीके रूपमें प्राप्त करना चाहता हूँ । तुम सब मेरी भार्याएँ बनोगी । अब मनुष्यभावका त्याग करो और मुझे अंगीकार करके देवांगनाओंकी भाँति दीर्घ आयु प्राप्त कर लो । ॥ १६ ॥ चलं हि यौवनं नित्यं मानुषेषु विशेषतः । अक्षयं यौवनं प्राप्ता अमर्यश्च भविष्यथ ॥ १७ ॥ 'विशेषत: मानव-शरीरमें जवानी कभी स्थिर नहीं रहती प्रतिक्षण क्षीण होती जाती है । मेरे साथ सम्बन्ध हो जानेपर तुमलोग अक्षय यौवन प्राप्त करके अमर हो जाओगी' ॥ १७ ॥ तस्य तद्वचनं श्रुत्वा वायोः अक्लिष्टकर्मणः । अपहास्य ततो वाक्यं कन्याशतमथाब्रवीत् ॥ १८ ॥ अनायास ही महान् कर्म करनेवाले वायुदेवका यह कथन सुनकर वे सौ कन्याएँ अवहेलनापूर्वक हँसकर बोलीं — ॥ १८ ॥ अंतश्चरसि भूतानां सर्वेषां त्वं सुरसत्तम । प्रभावज्ञाश्च ते सर्वाः किमर्थं अवमन्यसे ॥ १९ ॥ 'सुरश्रेष्ठ ! आप प्राणवायुके रूपमें समस्त प्राणियोंके भीतर विचरते हैं (अत: सबके मनकी बातें जानते हैं । आपको यह मालूम होगा कि हमारे मनमें आपके प्रति कोई आकर्षण नहीं है । हम सब बहिनें आपके अनुपम प्रभावको भी जानती हैं (तो भी हमारा आपके प्रति अनुराग नहीं है); ऐसी दशामें यह अनुचित प्रस्ताव करके आप हमारा अपमान किसलिये कर रहे हैं ? ॥ १९ ॥ कुशनाभसुताः देव समस्ताः सुरसत्तम । स्थानाच्च्यावयितुं देवं रक्षामस्तु तपो वयम् ॥ २० ॥ 'देव ! देवशिरोमणे ! हम सब-की-सब राजर्षि कुशनाभकी कन्याएँ हैं । देवता होनेपर भी आपको शाप देकर वायुपदसे भ्रष्ट कर सकती हैं, किंतु ऐसा करना नहीं चाहतीं; क्योंकि हम अपने तपको सुरक्षित रखती हैं ॥ २० ॥ मा भूत् स कालो दुर्मेधः पितरं सत्यवादिनम् । नावमन्य स्वधर्मेण स्वयं वरमुपास्महे ॥ २१ ॥ 'दुर्मते ! वह समय कभी न आवे, जब कि हम अपने सत्यवादी पिताकी अवहेलना करके कामवश या अत्यन्त अधर्मपूर्वक स्वयं ही वर ढूँढ़ने लगें ॥ २१ ॥ पिता हि प्रभुः अस्माकं दैवतं परमं च सः । यस्य नो दास्यति पिता स नो भर्ता भविष्यति ॥ २२ ॥ 'हमलोगोंपर हमारे पिताजीका प्रभुत्व है, वे हमारे लिये सर्वश्रेष्ठ देवता हैं । पिताजी हमें जिसके हाथमें दे देंगे, वही हमारा पति होगा' ॥ २२ ॥ तासां तु वचनं श्रुत्वा हरिः परमकोपनः । प्रविश्य सर्वगात्राणि बभञ्ज भगवान् प्रभुः ॥ २३ ॥ अरत्निमात्राकृतयो भग्नगात्रा भयार्दिताः । उनकी यह बात सुनकर वायुदेव अत्यन्त कुपित हो उठे । उन ऐश्वर्यशाली प्रभुने उनके भीतर प्रविष्ट हो सब अंगोंको मोड़कर टेढ़ा कर दिया । शरीर मुड़ जानेके कारण वे कुबड़ी हो गयीं । उनकी आकृति मुट्ठी बँधे हुए एक हाथके बराबर हो गयी । वे भयसे व्याकुल हो उठीं ॥ २३ १/२ ॥ ताः कन्याः वायुना भग्ना विविशुर्नृपतेर्गृहम् । प्रविश्य च संभ्रांताः सलज्जाः साश्रुलोचनाः ॥ २४ ॥ वायुदेवके द्वारा कुबड़ी की हुई उन कन्याओंने राजभवन में प्रवेश किया । प्रवेश करके वे लज्जित और उद्विग्न हो गयीं । उनके नेत्रोंसे आँसुओंकी धाराएँ बहने लगीं ॥ २४ ॥ स च ता दयिता भग्नाः कन्याः परमशोभनाः । दृष्ट्वा दीनास्तदा राजा संभ्रांत इदमब्रवीत् ॥ २५ ॥ अपनी परम सुन्दरी प्यारी पुत्रियोंको कुब्जताके कारण अत्यन्त दयनीय दशामें पड़ी देख राजा कुशनाभ घबरा गये और इस प्रकार बोले— ॥ २५ ॥ किमिदं कथ्यतां पुत्र्यः को धर्मं अवमन्यते । कुब्जाः केन कृताः सर्वा चेष्टंत्यो नाभिभाषथ । एवं राजा विनिःश्वस्य समाधिं संदधे ततः ॥ २६ ॥ 'पुत्रियो ! यह क्या हुआ ? बताओ । कौन प्राणी धर्मकी अवहेलना करता है ? किसने तुम्हें कुबड़ी बना दिया, जिससे तुम तड़प रही हो, किंतु कुछ बताती नहीं हो । ' यों कहकर राजाने लंबी साँस खींची और उनका उत्तर सुननेके लिये वे सावधान होकर बैठ गये ॥ २६ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकाये आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे द्वात्रिंशः सर्गः ॥ ३२ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें बत्तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ३२ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |