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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ चतुस्त्रिंशः सर्गः ॥


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गाधेरुत्पत्तिः कौशिक्याः प्रशंसा विश्वामित्रेण कथां समाप्य निशीथस्य वर्णनं सर्वेभ्यः शयितुमनुज्ञां प्रदाय स्वयमपि तस्य शयनम् -
गाधिकी उत्पत्ति, कौशिकीकी प्रशंसा, विश्वामित्रजीका कथा बंद करके आधी रातका वर्णन करते हुए सबको सोनेकी आज्ञा देकर शयन करना -


कृतोद्वाहे गते तस्मिन् ब्रह्मदत्ते च राघव ।
अपुत्रः पुत्रलाभाय पौत्रीं इष्टिं अकल्पयत् ॥ १ ॥
रघुनन्दन ! विवाह करके जब राजा ब्रह्मदत्त चले गये, तब पुत्रहीन महाराज कुशनाभने श्रेष्ठ पुत्रकी प्राप्तिके लिये पुत्रेष्टि यज्ञका अनुष्ठान किया ॥ १ ॥

इष्ट्यां च वर्तमानायां कुशनाभं महीपतिम् ।
उवाच परमोदारः कुशो ब्रह्मसुतस्तदा ॥ २ ॥
उस यज्ञके होते समय परम उदार ब्रह्मकुमार महाराज कुशने भूपाल कुशनाभसे कहा— ॥ २ ॥

पुत्र ते सदृशः पुत्रो भविष्यति सुधार्मिकः ।
गाधिं प्राप्स्यसि तेन त्वं कीर्तिं लोके च शाश्वतीम् ॥ ३ ॥
'बेटा ! तुम्हें अपने समान ही परम धर्मात्मा पुत्र प्राप्त होगा । तुम 'गाधि' नामक पुत्र प्राप्त करोगे और उसके द्वारा तुम्हें संसारमें अक्षय कीर्ति उपलब्ध होगी' ॥ ३ ॥

एवमुक्त्वा कुशो राम कुशनाभं महीपतिम् ।
जगामाकाशमाविश्य ब्रह्मलोकं सनातनम् ॥ ४ ॥
श्रीराम ! पृथ्वीपति कुशनाभसे ऐसा कहकर राजर्षि कुश आकाशमें प्रविष्ट हो सनातन ब्रह्मलोकको चले गये ॥ ४ ॥

कस्यचित् त्वथ कालस्य कुशनाभस्य धीमतः ।
यज्ञे परमधर्मिष्ठो गाधिरित्येव नामतः ॥ ५ ॥
कुछ कालके पश्चात् बुद्धिमान् राजा कुशनाभके यहाँ परम धर्मात्मा 'गाधि' नामक पुत्रका जन्म हुआ ॥ ५ ॥

स पिता मम काकुत्स्थ गाधिः परमधार्मिकः ।
कुशवंश प्रसूतोऽस्मि कौशिको रघुनंदन ॥ ६ ॥
ककुत्स्थकुलभूषण रघुनन्दन ! वे परम धर्मात्मा राजा गाधि मेरे पिता थे । मैं कुशके कुलमें उत्पन्न होने के कारण 'कौशिक' कहलाता हूँ ॥ ६ ॥

पूर्वजा भगिनी चापि मम राघव सुव्रता ।
नाम्ना सत्यवती नाम ऋचीके प्रतिपादिता ॥ ७ ॥
राघव ! मेरे एक ज्येष्ठ बहिन भी थी, जो उत्तम व्रतका पालन करनेवाली थी । उसका नाम सत्यवती था । वह ऋचीक मुनिको ब्याही गयी थी ॥ ७ ॥

सशरीरा गता स्वर्गं भर्तारं अनुवर्तिनी ।
कौशिकी परमोदारा प्रवृत्ता च महानदी ॥ ८ ॥
अपने पतिका अनुसरण करनेवाली सत्यवती शरीरसहित स्वर्गलोकको चली गयी थी । वही परम उदार महानदी कौशिकीके रूपमें भी प्रकट होकर इस भूतलपर प्रवाहित होती है ॥ ८ ॥

दिव्या पुण्योदका रम्या हिमवंतं उपाश्रिता ।
लोकस्य हितकार्याथं प्रवृत्ता भगिनी मम ॥ ९ ॥
मेरी वह बहिन जगत्के हितके लिये हिमालयका आश्रय लेकर नदीरूपमें प्रवाहित हुई । वह पुण्यसलिला दिव्य नदी बड़ी रमणीय है ॥ ९ ॥

ततोऽहं हिमवत् पार्श्वे वसामि नियतः सुखम् ।
भगिन्यां स्नेहसंयुक्तः कौशिक्यां रघुनंदन ॥ १० ॥
रघुनन्दन ! मेरा अपनी बहिन कौशिकीके प्रति बहुत स्नेह है; अत: मैं हिमालयके निकट उसीके तटपर नियमपूर्वक बड़े सुखसे निवास करता हूँ ॥ १० ॥

सा तु सत्यवती पुण्या सत्ये धर्मे प्रतिष्ठिता ।
पतिव्रता महाभागा कौशिकी सरितां वरा ॥ ११ ॥
पुण्यमयी सत्यवती सत्य धर्ममें प्रतिष्ठित है । वह परम सौभाग्यशालिनी पतिव्रता देवी यहाँ सरिताओंमें श्रेष्ठ कौशिकीके रूप में विद्यमान है ॥ ११ ॥

अहं हि नियमाद् राम हित्वा तां समुपागतः ।
सिद्धाश्रमं अनुप्राप्य सिद्धोऽस्मि तव तेजसा ॥ १२ ॥
श्रीराम ! मैं यज्ञसम्बन्धी नियमकी सिद्धिके लिये ही अपनी बहिनका सांनिध्य छोड़कर सिद्धाश्रम (बक्सर) में आया था । अब तुम्हारे तेजसे मुझे वह सिद्धि प्राप्त हो गयी है ॥ १२ ॥

एषा राम ममोत्पत्तिः स्वस्य वंशस्य कीर्तिता ।
देशस्य हि महाबाहो यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ १३ ॥
महाबाहु श्रीराम ! तुमने मुझसे जो पूछा था, उसके उत्तरमें मैंने तुम्हें शोणभद्रतटवर्ती देशका परिचय देते हुए यह अपनी तथा अपने कुलकी उत्पत्ति बतायी है ॥ १३ ॥

गतोऽर्धरात्रः काकुत्स्थ कथाः कथयतो मम ।
निद्रामभ्येहि भद्रं ते मा भूद् विघ्नोऽध्वनीह नः ॥ १४ ॥
काकुत्स्थ ! मेरे कथा कहते-कहते आधी रात बीत गयी । अब थोड़ी देर नींद ले लो । तुम्हारा कल्याण हो । मैं चाहता हूँ कि अधिक जागरणके कारण हमारी यात्रामें विघ्न न पड़े ॥ १४ ॥

निष्पंदास्तरवः सर्वे निलीना मृगपक्षिणः ।
नैशेन तमसा व्याप्ता दिशश्च रघुनंदन ॥ १५ ॥
सारे वृक्ष निष्कम्प जान पड़ते हैं इनका एक पत्ता भी नहीं हिलता है । पशु-पक्षी अपने-अपने वासस्थानमें छिपकर बसेरे लेते हैं । रघुनन्दन ! रात्रिके अन्धकारसे सम्पूर्ण दिशाएँ व्याप्त हो रही हैं ॥ १५ ॥

शनैर्विसृज्यते संध्या नभो नेत्रैरिवावृतम् ।
नक्षत्रतारागहनं ज्योतिर्भिरवभासते ॥ १६ ॥
धीरे-धीरे संध्या दूर चली गयी । नक्षत्रों तथा ताराओंसे भरा हुआ आकाश (सहस्राक्ष इन्द्रकी भाँति) सहस्रों ज्योतिर्मय नेत्रोंसे व्याप्त-सा होकर प्रकाशित हो रहा है ॥ १६ ॥

उत्तिष्ठते च शीतांशुः शशी लोकतमोनुदः ।
ह्लादयन् प्राणिनां लोके मनांसि प्रभया स्वया ॥ १७ ॥
सम्पूर्ण लोकका अन्धकार दूर करनेवाले शीतरश्मि चन्द्रमा अपनी प्रभासे जगत्के प्राणियोंके मनको आह्लाद प्रदान करते हुए उदित हो रहे हैं ॥ १७ ॥

नैशानि सर्वभूतानि प्रचरंति ततस्ततः ।
यक्षराक्षससङ्‍घाश्च रौद्राश्च पिशिताशनाः ॥ १८ ॥
रातमें विचरनेवाले समस्त प्राणी-यक्ष-राक्षसोंके समुदाय तथा भयंकर पिशाच इधर-उधर विचर रहे हैं ॥ १८ ॥

एवमुक्त्वा महातेजा विरराम महामुनिः ।
साधु साध्विति तं सर्वे ऋषयो ह्यभ्यपूजयन् ॥ १९ ॥
ऐसा कहकर महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र चुप हो गये । उस समय सभी मुनियोंने साधुवाद देकर विश्वामित्रजीकी भूरि-भूरि प्रशंसा की— ॥ १९ ॥

कुशिकानां अयं वंशो महान् धर्मपरः सदा ।
ब्रह्मोपमा महात्मानः कुशवंश्या नरोत्तमाः ॥ २० ॥
'कुशपुत्रोंका यह वंश सदा ही महान् धर्मपरायण रहा है । कुशवंशी महात्मा श्रेष्ठ मानव ब्रह्माजीके समान तेजस्वी हुए हैं ॥ २० ॥

विशेषेण भवानेव विश्वामित्रो महायशः ।
कौशिकी सरितां श्रेष्ठा कुलोद्योतकरी तव ॥ २१ ॥
"महायशस्वी विश्वामित्रजी ! अपने वंशमें सबसे बड़े महात्मा आप ही हैं तथा सरिताओंमें श्रेष्ठ कौशिकी भी आपके कुलकी कीर्तिको प्रकाशित करनेवाली है' ॥ २१ ॥

मुदितैः मुनिशार्दूलैः प्रशस्तः कुशिकात्मजः ।
निद्रां उपागमत् श्रीमान् अस्तंगत इवांशुमान् ॥ २२ ॥
इस प्रकार आनन्दमग्न हुए उन मुनिवरोंद्वारा प्रशंसित श्रीमान् कौशिक मुनि अस्त हुए सूर्यकी भाँति नींद लेने लगे ॥ २२ ॥

रामोऽपि सहसौमित्रिः किंचिद् आगतविस्मयः ।
प्रशस्य मुनिशार्दूलं निद्रां समुपसेवते ॥ २३ ॥
वह कथा सुनकर लक्ष्मणसहित श्रीरामको भी कुछ विस्मय हो आया । वे भी मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रकी सराहना करके नींद लेने लगे ॥ २३ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे चतुस्त्रिंशः सर्गः ॥ ३४ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें चौंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ३४ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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