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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ पञ्चत्रिंशः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] शोणभद्रमुत्तीर्य श्विवामित्रप्रभृतीनां गङ्गातटं गत्वा तत्र रात्रौ वासः श्रीरामानुयुक्तेन विश्वामित्रेण तस्मै गङ्गोत्पत्तिकथाश्रावणम् -
शोणभद्र पार करके विश्वामित्र आदिका गंगाजीके तटपर पहुँचकर वहाँ रात्रिवास करना तथा श्रीरामके पूछनेपर विश्वामित्रजीका उन्हें गंगाजीकी उत्पत्तिकी कथा सुनाना - उपास्य रात्रिशेषं तु शोणाकूले महर्षिभिः । निशायां सुप्रभातायां विश्वामित्रोऽभ्यभाषत ॥ १ ॥ महर्षियोंसहित विश्वामित्रने रात्रिके शेषभागमें शोणभद्रके तटपर शयन किया । जब रात बीती और प्रभात हुआ, तब वे श्रीरामचन्द्रजीसे इस प्रकार बोले ॥ १ ॥ सुप्रभाता निशा राम पूर्वा संध्या प्रवर्तते । उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते गमनायाभिरोचय ॥ २ ॥ 'श्रीराम ! रात बीत गयी । सबेरा हो गया । तुम्हारा कल्याण हो, उठो, उठो और चलनेकी तैयारी करो ॥ २ ॥ तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य कृत पौर्वाह्णिकक्रियः । गमनं रोचयामास वाक्यं चेदमुवाच ह ॥ ३ ॥ मुनिकी बात सुनकर पूर्वाह्नकालका नित्यनियम पूर्ण करके श्रीराम चलनेको तैयार हो गये और इस प्रकार बोले — ॥ ३ ॥ अयं शोणः शुभजलो अगाधः पुलिनमण्डितः । कतरेण पथा ब्रह्मन् संतरिष्यामहे वयम् ॥ ४ ॥ 'ब्रह्मन् ! शुभ जलसे परिपूर्ण तथा अपने तटोंसे सुशोभित होनेवाला यह शोणभद्र तो अथाह जान पड़ता है । हमलोग किस मार्गसे चलकर इसे पार करेंगे ?' ॥ ४ ॥ एवमुक्तस्तु रामेण विश्वामित्रोऽब्रवीद् इदम् । एष पंथा मयोद्दिष्टो येन यांति महर्षयः ॥ ५ ॥ श्रीरामके ऐसा कहनेपर विश्वामित्र बोले-'जिस मार्गसे महर्षिगण शोणभद्रको पार करते हैं, उसका मैंने पहलेसे ही निश्चय कर रखा है, वह मार्ग यह है' ॥ ५ ॥ एवमुक्ता महर्षयो विश्वामित्रेण धीमता । पश्यंतस्ते प्रयाता वै वनानि विविधानि च ॥ ६ ॥ बुद्धिमान् विश्वामित्रके ऐसा कहनेपर वे महर्षि नाना प्रकारके वनोंकी शोभा देखते हुए वहाँसे प्रस्थित हुए ॥ ६ ॥ ते गत्वा दूरमध्वानं गतेऽर्धदिवसे तदा । जाह्नवीं सरितां श्रेष्ठां ददृशुः मुनिसेविताम् ॥ ७ ॥ बहुत दूरका मार्ग तै कर लेनेपर दोपहर होते-होते उन सब लोगोंने मुनिजनसेवित, सरिताओंमें श्रेष्ठ गंगाजीके तटपर पहुँचकर उनका दर्शन किया ॥ ७ ॥ तां दृष्ट्वा पुण्यसलिलां हंससारस सेविताम् । बभूवुर्मुनयः सर्वे मुदिताः सह राघवाः ॥ ८ ॥ हंसों तथा सारसोंसे सेवित पुण्यसलिला भागीरथीका दर्शन करके श्रीरामचन्द्रजीके साथ समस्त मुनि बहुत प्रसन्न हुए । ॥ ८ ॥ तस्यास्तीरे तदा सर्वे चक्रुर्वासपरिग्रहम् । ततः स्नात्वा यथान्यायं संतर्प्य पितृदेवताः ॥ ९ ॥ हुत्वा चैवाग्निहोत्राणि प्राश्य चामृतवद्धविः । विविशुः जाह्नवीतीरे शुचौ मुदितमानसाः ॥ १० ॥ विश्वामित्रं महात्मानं परिवार्य समंततः । उस समय सबने गंगाजीके तटपर डेरा डाला । फिर विधिवत् स्नान करके देवताओं और पितरोंका तर्पण किया । उसके बाद अग्निहोत्र करके अमृतके समान मीठे हविष्यका भोजन किया । तदनन्तर वे सभी कल्याणकारी महर्षि प्रसन्नचित्त हो महात्मा विश्वामित्रको चारों ओरसे घेरकर गंगाजीके तटपर बैठ गये ॥ ९-१० १/२ ॥ विष्ठिताश्च यथान्यायं राघवौ च यथार्हतः संप्रहृष्टमना रामो विश्वामित्रमथाब्रवीत् ॥ ११ ॥ जब वे सब मुनि स्थिरभावसे विराजमान हो गये और श्रीराम तथा लक्ष्मण भी यथायोग्य स्थानपर बैठ गये, तब श्रीरामने प्रसन्नचित्त होकर विश्वामित्रजीसे पूछा— ॥ ११ ॥ भगवन् श्रोतुमिच्छामि गङ्गां त्रिपथगां नदीम् । त्रैलोक्यं कथमाक्रम्य गता नदनदीपतिम् ॥ १२ ॥ 'भगवन् ! मैं यह सुनना चाहता हूँ कि तीन मार्गोंसे प्रवाहित होनेवाली नदी ये गंगाजी किस प्रकार तीनों लोकोंमें घूमकर नदों और नदियोंके स्वामी समुद्र में जा मिली हैं ? ॥ १२ ॥ चोदितो रामवाक्येन विश्वामित्रो महामुनिः । वृद्धिं जन्म च गङ्गाया वक्तुमेवोपचक्रमे ॥ १३ ॥ श्रीरामके इस प्रश्नद्वारा प्रेरित हो महामुनि विश्वामित्रने गंगाजीकी उत्पत्ति और वृद्धिकी कथा कहना आरम्भ किया— ॥ १३ ॥ शैलेंद्रो हिमवान् नाम धातूनामाकरो महान् । तस्य कन्याद्वयं राम रूपेणाप्रतिमं भुवि ॥ १४ ॥ श्रीराम ! हिमवान् नामक एक पर्वत है, जो समस्त पर्वतोंका राजा तथा सब प्रकारके धातुओंका बहुत बड़ा खजाना है । हिमवान्की दो कन्याएँ हैं, जिनके सुन्दर रूपकी इस भूतलपर कहीं तुलना नहीं है ॥ १४ ॥ या मेरुदुहिता राम तयोर्माता सुमध्यमा । नाम्ना मेना मनोज्ञा वै पत्नी हिमवतः प्रिया ॥ १५ ॥ 'मेरु पर्वतकी मनोहारिणी पुत्री मेना हिमवान्की प्यारी पत्नी है । सुन्दर कटिप्रदेशवाली मेना ही उन दोनों कन्याओंकी जननी हैं ॥ १५ ॥ तस्यां गङ्गेयं अभवत् ज्येष्ठा हिमवतः सुता । उमा नाम द्वितीयाभूत् नाम्ना तस्यैव राघव ॥ १६ ॥ 'रघुनन्दन ! मेनाके गर्भसे जो पहली कन्या उत्पन्न हुई, वही ये गंगाजी हैं । ये हिमवान्की ज्येष्ठ पुत्री हैं । हिमवान्की ही दूसरी कन्या, जो मेनाके गर्भसे उत्पन्न हुई, उमा नामसे प्रसिद्ध हैं ॥ १६ ॥ अथ ज्येष्ठां सुराः सर्वे देवकार्यचिकीर्षया । शैलेंद्रं वरयामासुः गङ्गां त्रिपथगां नदीम् ॥ १७ ॥ कुछ कालके पश्चात् सब देवताओंने देवकार्यकी सिद्धिके लिये ज्येष्ठ कन्या गंगाजीको, जो आगे चलकर स्वर्गसे त्रिपथगा नदीके रूपमें अवतीर्ण हुई, गिरिराज हिमालयसे माँगा ॥ १७ ॥ ददौ धर्मेण हिमवान् तनयां लोकपावनीम् । स्वच्छंदपथगां गङ्गां त्रैलोक्यहितकाम्यया ॥ १८ ॥ 'हिमवाप्ने त्रिभुवनका हित करनेकी इच्छासे स्वच्छन्द पथपर विचरनेवाली अपनी लोकपावनी पुत्री गंगाको धर्मपूर्वक उन्हें दे दिया ॥ १८ ॥ प्रतिगृह्य त्रिलोकार्थं त्रिलोकहितकाङ्क्षिणः । गङ्गामादाय तेऽगच्छन् कृतार्थेनांतरात्मना ॥ १९ ॥ 'तीनों लोकोंके हितकी इच्छावाले देवता त्रिभुवनकी भलाईके लिये ही गंगाजीको लेकर मन-ही-मन कृतार्थताका अनुभव करते हुए चले गये ॥ १९ ॥ या चान्या शैलदुहिता कन्याऽऽसीद् रघुनंदन । उग्रं सा व्रतमास्थाय तपस्तेपे तपोधना ॥ २० ॥ 'रघुनन्दन ! गिरिराजकी जो दूसरी कन्या उमा थीं, वे उत्तम एवं कठोर व्रतका पालन करती हुई घोर तपस्यामें लग गयीं । उन्होंने तपोमय धनका संचय किया ॥ २० ॥ उग्रेण तपसा युक्तां ददौ शैलवरः सुताम् । रुद्रायाप्रतिरूपाय उमां लोकनमस्कृताम् ॥ २१ ॥ 'गिरिराजने उग्र तपस्यामें संलग्न हुई अपनी वह विश्ववन्दिता पुत्री उमा अनुपम प्रभावशाली भगवान् रुद्रको ब्याह दी ॥ २१ ॥ एते ते शैलराजस्य सुते लोकनमस्कृते । गङ्गा च सरितां श्रेष्ठा उमादेवी च राघव ॥ २२ ॥ 'रघुनन्दन ! इस प्रकार सरिताओंमें श्रेष्ठ गंगा तथा भगवती उमा—ये दोनों गिरिराज हिमालयकी कन्याएँ हैं । सारा संसार इनके चरणोंमें मस्तक झुकाता है ॥ २२ ॥ एतत्ते सर्वमाख्यातं यथा त्रिपथगामिनी । खं गता प्रथमं तात गतिं गतिमतां वर ॥ २३ ॥ सैषा सुरनदी रम्या शैलेंद्रतनया तदा । सुरलोकं समारूढा विपापा जलवाहिनी ॥ २४ ॥ 'गतिशीलोंमें श्रेष्ठ तात श्रीराम ! गंगाजीकी उत्पत्तिके विषयमें ये सारी बातें मैंने तुम्हें बता दीं । ये त्रिपथगामिनी कैसे हुईं ? यह भी सुन लो । पहले तो ये आकाशमार्गमें गयी थीं । तत्पश्चात् ये गिरिराजकुमारी गंगा रमणीया देवनदीके रूपमें देवलोकमें आरूढ़ हुई थीं । फिर जलरूपमें प्रवाहित हो लोगोंके पाप दूर करती हुई रसातलमें पहुंची थीं ॥ २३-२४ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे पञ्चत्रिंश सर्गः ॥ ३५ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें पैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ३५ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |