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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ सप्तत्रिंशः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] गङ्गायाः कार्तिकेयस्योत्पत्तेः प्रसङ्गः -
गंगासे कार्तिकेयकी उत्पत्तिका प्रसंग - तप्यमाने तदा देवे सेंद्रा साग्निपुरोगमाः । सेनापतिं अभीप्संतः पितामहं उपागमन् ॥ १ ॥ जब महादेवजी तपस्या कर रहे थे, उस समय इन्द्र और अग्नि आदि सम्पूर्ण देवता अपने लिये सेनापतिकी इच्छा लेकर ब्रह्माजीके पास आये ॥ १ ॥ ततोऽब्रुवन् सुराः सर्वे भगवंतं पितामहम् । प्रणिपत्य सुराराम सेंद्राः साग्निपुरोगमाः ॥ २ ॥ देवताओंको आराम देनेवाले श्रीराम ! इन्द्र और अग्निसहित समस्त देवताओंने भगवान् ब्रह्माको प्रणाम करके इस प्रकार कहा— ॥ २ ॥ येन सेनापतिर्देव दत्तो भगवता पुरा । स तपः परमास्थाय तप्यते स्म सहोमया ॥ ३ ॥ 'प्रभो ! पूर्वकालमें जिन भगवान् महेश्वरने हमें (बीजरूपसे) सेनापति प्रदान किया था, वे उमादेवीके साथ उत्तम तपका आश्रय लेकर तपस्या करते हैं ॥ ३ ॥ यदत्रानंतरं कार्यं लोकानां हितकाम्यया । संविधत्स्व विधानज्ञ त्वं हि नः परमा गतिः ॥ ४ ॥ 'विधि-विधानके ज्ञाता पितामह ! अब लोकहितके लिये जो कर्तव्य प्राप्त हो, उसको पूर्ण कीजिये; क्योंकि आप ही हमारे परम आश्रय हैं' ॥ ४ ॥ देवतानां वचः श्रुत्वा सर्वलोकपितामहः । सांत्वयन् मधुरैर्वाक्यैः त्रिदशान् इदमब्रवीत् ॥ ५ ॥ देवताओंकी यह बात सुनकर सम्पूर्ण लोकोंके पितामह ब्रह्माजीने मधुर वचनोंद्वारा उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा — ॥ ५ ॥ शैलपुत्र्या यदुक्तं तन् न प्रजाः स्वासु पत्निषु । तस्या वचनं अक्लिष्टं सत्यमेव न संशयः ॥ ६ ॥ 'देवताओ ! गिरिराजकुमारी पार्वतीने जो शाप दिया है, उसके अनुसार तुम्हें अपनी पत्नियोंके गर्भसे अब कोई संतान नहीं होगी । उमादेवीकी वाणी अमोघ है; अतः वह सत्य होकर ही रहेगी; इसमें संशय नहीं है ॥ ६ ॥ इयं आकाशगङ्गा च यस्यां पुत्रं हुताशनः । जनयिष्यति देवानां सेनापतिं अरिंदमम् ॥ ७ ॥ 'ये हैं उमाकी बड़ी बहिन आकाशगंगा, जिनके गर्भ में शङ्करजीके उस तेजको स्थापित करके अग्निदेव एक ऐसे पुत्रको जन्म देंगे, जो देवताओंके शत्रुओंका दमन करने में समर्थ सेनापति होगा ॥ ७ ॥ ज्येष्ठा शैलेंद्रदुहिता मानयिष्यति तं सुतम् । उमायाः तद् बहुमतं भविष्यति न संशयः ॥ ८ ॥ तत् श्रुत्वा वचनं तस्य कृतार्था रघुनंदन । 'ये गंगा गिरिराजकी ज्येष्ठ पुत्री हैं, अत: अपनी छोटी बहिनके उस पुत्रको अपने ही पुत्रके समान मानेंगी । उमाको भी यह बहुत प्रिय लगेगा । इसमें संशय नहीं है' ॥ ८ १/२ ॥ प्रणिपत्य सुराः सर्वे पितामहं अपूजयन् ॥ ९ ॥ रघुनन्दन ! ब्रह्माजीका यह वचन सुनकर सब देवता कृतकृत्य हो गये । उन्होंने ब्रह्माजीको प्रणाम करके उनका पूजन किया ॥ ९ ॥ ते गत्वा परमं राम कैलासं धातुमण्डितम् । अग्निं नियोजयामासुः पुत्रार्थं सर्वदैवताः ॥ १० ॥ श्रीराम ! विविध धातुओंसे अलंकृत उत्तम कैलास पर्वतपर जाकर उन सम्पूर्ण देवताओंने अग्निदेवको पुत्र उत्पन्न करनेके कार्य में नियुक्त किया ॥ १० ॥ देवकार्यं इदं देव समाधत्स्व हुताशन । शैलपुत्र्यां महातेजो गङ्गायां तेज उत्सृज ॥ ११ ॥ वे बोले- 'देव ! हुताशन ! यह देवताओंका कार्य है, इसे सिद्ध कीजिये । भगवान् रुद्रके उस महान् तेजको अब आप गंगाजीमें स्थापित कर दीजिये' ॥ ११ ॥ देवतानां प्रतिज्ञाय गङ्गां अभ्येत्य पावकः । गर्भं धारय वै देवि देवतानां इदं प्रियम् ॥ १२ ॥ तब देवताओंसे बहुत अच्छा' कहकर अग्निदेव गंगाजीके निकट आये और बोले- देवि ! आप इस गर्भको धारण करें । यह देवताओंका प्रिय कार्य है ॥ १२ ॥ इत्येतद् वचनं श्रुत्वा दिव्यं रूपं अधारयत् । स तस्या महिमां दृष्ट्वा समंताद् अवशीर्यत ॥ १३ ॥ अग्निदेवकी यह बात सुनकर गंगादेवीने दिव्यरूप धारण कर लिया । उनकी यह महिमा यह रूप-वैभव देखकर अग्निदेवने उस रुद्र-तेजको उनके सब ओर बिखेर दिया ॥ १३ ॥ समंततः तदा देवीं अभ्यषिञ्चत पावकः । सर्वस्रोतांसि पूर्णानि गङ्गाया रघुनंदन ॥ १४ ॥ रघुनन्दन ! अग्निदेवने जब गंगादेवीको सब ओरसे उस रुद्र-तेजद्वारा अभिषिक्त कर दिया, तब गंगाजीके सारे स्रोत उससे परिपूर्ण हो गये ॥ १४ ॥ तं उवाच ततो गङ्गा सर्वदेवपुरोगमम् । अशक्ता धारणे देव तव तेजः समुद्धतम् ॥ १५ ॥ दह्यमानाग्निना तेन संप्रव्यथितचेतना । तब गंगाने समस्त देवताओंके अग्रगामी अग्निदेवसे इस प्रकार कहा—'देव ! आपके द्वारा स्थापित किये गये इस बढ़े हुए तेजको धारण करने में मैं असमर्थ हूँ । इसकी आँचसे जल रही हूँ और मेरी चेतना व्यथित हो गयी है ॥ १५ १/२ ॥ अथाब्रवीद् इदं गङ्गां सर्वदेवहुताशनः ॥ १६ ॥ इह हैमवते पार्श्वे गर्भोऽयं संनिवेश्यताम् । तब सम्पूर्ण देवताओंके हविष्यको भोग लगानेवाले अग्निदेवने गंगादेवीसे कहा—'देवि ! हिमालय पर्वतके पार्श्वभागमें इस गर्भको स्थापित कर दीजिये' ॥ १६ १/२ ॥ श्रुत्वा त्वग्निवचो गङ्गा तं गर्भं अतिभास्वरम् ॥ १७ ॥ निष्पाप रघुनन्दन ! अग्निकी यह बात सुनकर महातेजस्विनी गंगाने उस अत्यन्त प्रकाशमान गर्भको अपने स्रोतोंसे निकालकर यथोचित स्थानमें रख दिया ॥ १७ ॥ उत्ससर्ज महातेजाः स्रोतोभ्यो हि तदानघ । यदस्या निर्गतं तस्मात् तप्तजांबूनदप्रभम् ॥ १८ ॥ काञ्चनं धरणीं प्राप्तं हिरण्यं अतुलप्रभम् । ताम्रं कार्ष्णायसं चैव तैक्ष्ण्यात् एवाभ्यजायत ॥ १९ ॥ गंगाके गर्भसे जो तेज निकला, वह तपाये हुए जाम्बूनद नामक सुवर्णके समान कान्तिमान् दिखायी देने लगा (गंगा सुवर्णमय मेरुगिरिसे प्रकट हुई हैं; अत: उनका बालक भी वैसे ही रूप-रंगका हुआ) । पृथ्वीपर जहाँ वह तेजस्वी गर्भ स्थापित हुआ, वहाँकी भूमि तथा प्रत्येक वस्तु सुवर्णमयी हो गयी । उसके आस-पासका स्थान अनुपम प्रभासे प्रकाशित होनेवाला रजत हो गया । उस तेजकी तीक्ष्णतासे ही दूरवर्ती भूभागकी वस्तुएँ ताँबे और लोहेके रूप में परिणत हो गयीं ॥ १८-१९ ॥ मलं तस्याभवत् तत्र त्रपु सीसकमेव च । तदेतद् धरणीं प्राप्य नानाधातुरवर्धत ॥ २० ॥ उस तेजस्वी गर्भका जो मल था, वही वहाँ राँगा और सीसा हुआ । इस प्रकार पृथ्वीपर पड़कर वह तेज नाना प्रकारके धातुओंके रूपमें वृद्धिको प्राप्त हुआ ॥ २० ॥ निक्षिप्तमात्रे गर्भे तु तेजोभिः अभिरंजितम् । सर्वं पर्वतसंनद्धं सौवर्णं अभवद् वनम् ॥ २१ ॥ पृथ्वीपर उस गर्भके रखे जाते ही उसके तेजसे व्याप्त होकर पूर्वोक्त श्वेतपर्वत और उससे सम्बन्ध रखनेवाला सारा वन सुवर्णमय होकर जगमगाने लगा ॥ २१ ॥ जातरूपमिति ख्यातं तदाप्रभृति राघव । सुवर्णं पुरुषव्याघ्र हुताशन समप्रभम् । तृणवृक्षलतागुल्मं सर्वं भवति काञ्चनम् ॥ २२ ॥ पुरुषसिंह रघुनन्दन ! तभीसे अग्निके समान प्रकाशित होनेवाले सुवर्णका नाम जातरूप हो गया; क्योंकि उसी समय सुवर्णका तेजस्वी रूप प्रकट हुआ था । उस गर्भके सम्पर्कसे वहाँका तृण, वृक्ष, लता और गुल्म—सब कुछ सोनेका हो गया ॥ २२ ॥ तं कुमारं ततो जातं सेंद्राः सह मरुद्गणाः । क्षीरसंभावनार्थाय कृत्तिकाः समयोजयन् ॥ २३ ॥ तदनन्तर इन्द्र और मरुद्गणोंसहित सम्पूर्ण देवताओंने वहाँ उत्पन्न हुए कुमारको दूध पिलानेके लिये छहों कृत्तिकाओंको नियुक्त किया ॥ २३ ॥ ताः क्षीरं जातमात्रस्य कृत्वा समयमुत्तमम् । ददुः पुत्रोऽयमस्माकं सर्वासां इति निश्चिताः ॥ २४ ॥ तब उन कृत्तिकाओंने 'यह हम सबका पुत्र हो' ऐसी उत्तम शर्त रखकर और इस बातका निश्चित विश्वास लेकर उस नवजात बालकको अपना दूध प्रदान किया ॥ २४ ॥ ततस्तु देवताः सर्वाः कार्तिकेय इति ब्रुवन् । पुत्रस्त्रैलोक्य विख्यातो भविष्यति न संशयः ॥ २५ ॥ उस समय सब देवता बोले—'यह बालक कार्तिकेय कहलायेगा और तुमलोगोंका त्रिभुवनविख्यात पुत्र होगाइसमें संशय नहीं है' ॥ २५ ॥ तेषां तद् वचनं श्रुत्वा स्कन्नं गर्भपरिस्रवे । स्नापयन् परया लक्ष्म्या दीप्यमानं यथानलम् ॥ २६ ॥ देवताओंका यह अनुकूल वचन सुनकर शिव और पार्वतीसे स्कन्दित (स्खलित) तथा गंगाद्वारा गर्भस्राव होनेपर प्रकट हुए अग्निके समान उत्तम प्रभासे प्रकाशित होनेवाले उस बालकको कृत्तिकाओंने नहलाया ॥ २६ ॥ स्कंद इत्यब्रुवन् देवाः स्कन्नं गर्भ परिस्रवे । कार्तिकेयं महाबाहुं काकुत्स्थ ज्वलनोपमम् ॥ २७ ॥ ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम ! अग्नितुल्य तेजस्वी महाबाहु कार्तिकेय गर्भस्रावकालमें स्कन्दित हुए थे; इसलिये देवताओंने उन्हें स्कन्द कहकर पुकारा ॥ २७ ॥ प्रादुर्भूतं ततः क्षीरं कृत्तिकानां अनुत्तमम् । षण्णां षडाननो भूत्वा जग्राह स्तनजं पयः ॥ २८ ॥ तदनन्तर कृत्तिकाओंके स्तनोंमें परम उत्तम दूध प्रकट हुआ । उस समय स्कन्दने अपने छः मुख प्रकट करके उन छहोंका एक साथ ही स्तनपान किया ॥ २८ ॥ गृहीत्वा क्षीरमेकाह्ना सुकुमारवपुः तदा । अजयत् स्वेन वीर्येण दैत्यसैन्यगणान् विभुः ॥ २९ ॥ एक ही दिन दूध पीकर उस सुकुमार शरीरवाले शक्तिशाली कुमारने अपने पराक्रमसे दैत्योंकी सारी सेनाओंपर विजय प्राप्त की ॥ २९ ॥ सुरसेनागणपतिं अभ्यषिंचन् महाद्युतिम् । ततस्तं अमराः सर्वे समेत्याग्निपुरोगमाः ॥ ३० ॥ तत्पश्चात् अग्नि आदि सब देवताओंने मिलकर उन महातेजस्वी स्कन्दका देवसेनापतिके पदपर अभिषेक किया ॥ ३० ॥ एष ते राम गङ्गाया विस्तरोऽभिहितो मया । कुमारसंभवश्चैव धन्यः पुण्यस्तथैव च ॥ ३१ ॥ श्रीराम ! यह मैंने तुम्हें गंगाजीके चरित्रको विस्तारपूर्वक बताया है । साथ ही कुमार कार्तिकेयके जन्मका भी प्रसंग सुनाया है, जो श्रोताको धन्य एवं पुण्यात्मा बनानेवाला है ॥ ३१ ॥ भक्तश्च यः कार्तिकेये काकुत्स्थ भुवि मानवः । आयुष्मान् पुत्रपौत्रैश्च स्कंदसालोक्यतां व्रजेत् ॥ ३२ ॥ काकुत्स्थ ! इस पृथ्वीपर जो मनुष्य कार्तिकेयमें भक्तिभाव रखता है, वह इस लोकमें दीर्घायु तथा पुत्र-पौत्रोंसे सम्पन्न हो मृत्युके पश्चात् स्कन्दके लोकमें जाता है ॥ ३२ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे सप्तत्रिंशः सर्गः ॥ ३७ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें सैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ३७ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |