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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ अष्टात्रिंशः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] सगरस्य प्रजानामुत्पत्तिस्तेन यज्ञस्यायोजनं च -
राजा सगरके पुत्रोंकी उत्पत्ति तथा यज्ञकी तैयारी - तां कथां कौशिको रामे निवेद्य मधुराक्षराम् । पुनरेवापरं वाक्यं काकुत्स्थं इदमब्रवीत् ॥ १ ॥ विश्वामित्रजीने मधुर अक्षरोंसे युक्त वह कथा श्रीरामको सुनाकर फिर उनसे दूसरा प्रसंग इस प्रकार कहा ॥ १ ॥ अयोध्याधिपतिः वीरः पूर्वं आसीत् नराधिपः । सगरो नाम धर्मात्मा प्रजाकामः स चाप्रजः ॥ २ ॥ 'वीर ! पहलेकी बात है, अयोध्या सगर नामसे प्रसिद्ध एक धर्मात्मा राजा राज्य करते थे । उन्हें कोई पुत्र नहीं था; अत: वे पुत्र-प्राप्तिके लिये सदा उत्सुक रहा करते थे ॥ २ ॥ वैदर्भदुहिता राम केशिनी नाम नामतः । ज्येष्ठा सगरपत्नी सा धर्मिष्ठा सत्यवादिनी ॥ ३ ॥ 'श्रीराम ! विदर्भराजकुमारी केशिनी राजा सगरकी ज्येष्ठ पत्नी थी । वह बड़ी धर्मात्मा और सत्यवादिनी थी ॥ ३ ॥ अरिष्टनेमेर्दुहिता सुपर्णभगिनी तु सा । द्वितीया सगरस्यासीत् पत्नी सुमतिसंज्ञिता ॥ ४ ॥ 'सगरकी दूसरी पन्तीका नाम सुमति था । वह अरिष्टनेमि कश्यपकी पुत्री तथा गरुडकी बहिन थी ॥ ४ ॥ ताभ्यां सह महाराजः पत्नीभ्यां तप्तवांस्तपः । हिमवंतं समासाद्य भृगुप्रस्रवणे गिरौ ॥ ५ ॥ 'महाराज सगर अपनी उन दोनों पत्नियोंके साथ हिमालय पर्वतपर जाकर भृगुप्रस्रवण नामक शिखरपर तपस्या करने लगे ॥ ५ ॥ अथ वर्षशते पूर्णे तपसाऽऽराधितो मुनिः । सगराय वरं प्रादाद् भृगुः सत्यवतां वरः ॥ ६ ॥ 'सौ वर्ष पूर्ण होनेपर उनकी तपस्याद्वारा प्रसन्न हुए सत्यवादियोंमें श्रेष्ठ महर्षि भृगुने राजा सगरको वर दिया ॥ ६ ॥ अपत्यलाभः सुमहान् भविष्यति तवानघ । कीर्तिं चाप्रतिमां लोके प्राप्स्यसे पुरुषर्षभ ॥ ७ ॥ "निष्पाप नरेश ! तुम्हें बहुत-से पुत्रोंकी प्राप्ति होगी । पुरुषप्रवर ! तुम इस संसारमें अनुपम कीर्ति प्राप्त करोगे ॥ ७ ॥ एका जनयिता तात पुत्रं वंशकरं तव । षष्टिं पुत्रसहस्राणि अपरा जनयिष्यति ॥ ८ ॥ 'तात ! तुम्हारी एक पत्नी तो एक ही पुत्रको जन्म देगी, जो अपनी वंशपरम्पराका विस्तार करनेवाला होगा तथा दूसरी पत्नी साठ हजार पुत्रोंकी जननी होगी ॥ ८ ॥ भाषमाणं महात्मानं राजपुत्र्यौ प्रसाद्य तम् । ऊचतुः परमप्रीते कृताञ्जलिपुटे तदा ॥ ९ ॥ 'महात्मा भृगु जब इस प्रकार कह रहे थे, उस समय उन दोनों राजकुमारियों (रानियों)-ने उन्हें प्रसन्न करके स्वयं भी अत्यन्त आनन्दित हो दोनों हाथ जोड़कर पूछा— ॥ ९ ॥ एकः कस्याः सुतो ब्रह्मन् का बहून् जनयिष्यति । श्रोतुमिच्छामहे ब्रह्मन् सत्यमस्तु वचस्तव ॥ १० ॥ ब्रह्मन् ! किस रानीके एक पुत्र होगा और कौन बहुत-से पुत्रोंकी जननी होगी ? हम दोनों यह सुनना चाहती हैं । आपकी वाणी सत्य हो ॥ १० ॥ तयोस्तद् वचनं श्रुत्वा भृगुः परमधार्मिकः । उवाच परमां वाणीं स्वच्छंदोऽत्र विधीयताम् ॥ ११ ॥ एको वंशकरो वाऽस्तु बहवो वा महाबलाः । कीर्तिमंतो महोत्साहाः का वा कं वरमिच्छति ॥ १२ ॥ 'उन दोनोंकी यह बात सुनकर परम धर्मात्मा भृगुने उत्तम वाणीमें कहा 'देवियो ! तुमलोग यहाँ अपनी इच्छा प्रकट करो । तुम्हें वंश चलानेवाला एक ही पुत्र प्राप्त हो अथवा महान् बलवान्, यशस्वी एवं अत्यन्त उत्साही बहुत-से पुत्र ? इन दो वरोंमेंसे किस वरको कौन-सी रानी ग्रहण करना चाहती है ? ॥ ११-१२ ॥ मुनेस्तु वचनं श्रुत्वा केशिनी रघुनंदन । पुत्रं वंशकरं राम जग्राह नृपसंनिधौ ॥ १३ ॥ 'रघुकुलनन्दन श्रीराम ! मुनिका यह वचन सुनकर केशिनीने राजा सगरके समीप वंश चलानेवाले एक ही पुत्रका वर ग्रहण किया ॥ १३ ॥ षष्टिं पुत्रसहस्राणि सुपर्णभगिनी तदा । महोत्साहान् कीर्तिमतो जग्राह सुमतिः सुतान् ॥ १४ ॥ "तब गरुड़की बहिन सुमतिने महान् उत्साही और यशस्वी साठ हजार पुत्रोंको जन्म देनेका वर प्राप्त किया ॥ १४ ॥ प्रदक्षिणं ऋषिं कृत्वा शिरसाभिप्रणम्य तं । जगाम स्वपुरं राजा सभार्यो रघुनंदन ॥ १५ ॥ 'रघुनन्दन ! तदनन्तर रानियोंसहित राजा सगरने महर्षिकी परिक्रमा करके उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया और अपने नगरको प्रस्थान किया ॥ १५ ॥ अथ काले गते तस्मिन् ज्येष्ठा पुत्रं व्यजायत । असमञ्ज इति ख्यातं केशिनी सगरात्मजम् ॥ १६ ॥ 'कुछ काल व्यतीत होनेपर बड़ी रानी केशिनीने सगरके औरस पुत्र 'असमञ्ज' को जन्म दिया ॥ १६ ॥ सुमतिस्तु नरव्याघ्र गर्भतुम्बं व्यजायत । षष्टिः पुत्राः सहस्राणि तुम्बभेदाद् विनिःसृताः ॥ १७ ॥ "पुरुषसिंह ! (छोटी रानी) सुमतिने तूंबीके आकारका एक गर्भपिण्ड उत्पन्न किया । उसको फोड़नेसे साठ हजार बालक निकले ॥ १७ ॥ घृतपूर्णेषु कुंभेषु धात्र्यस्तान् समवर्धयन् । कालेन महता सर्वे यौवनं प्रतिपेदिरे ॥ १८ ॥ 'उन्हें घीसे भरे हुए घड़ोंमें रखकर धाइयाँ उनका पालन-पोषण करने लगीं । धीरे-धीरे जब बहुत दिन बीत गये, तब वे सभी बालक युवावस्थाको प्राप्त हुए ॥ १८ ॥ अथ दीर्घेण कालेन रूपयौवनशालिनः । षष्टिः पुत्रसहस्राणि सगरस्य अभवन् तदा ॥ १९ ॥ 'इस तरह दीर्घकालके पश्चात् राजा सगरके रूप और युवावस्थासे सुशोभित होनेवाले साठ हजार पुत्र तैयार हो गये ॥ १९ ॥ स च ज्येष्ठो नरश्रेष्ठः सगरस्यात्मसंभवः । बालान् गृहीत्वा तु जले सरय्वा रघुनंदन ॥ २० ॥ प्रक्षिप्य प्रहसन् नित्यं मज्जतस्तान् निरीक्ष्य वै । 'नरश्रेष्ठ रघुनन्दन ! सगरका ज्येष्ठ पुत्र असमञ्ज नगरके बालकोंको पकड़कर सरयूके जलमें फेंरुक देता और जब वे डूबने लगते, तब उनकी ओर देखकर हँसा करता ॥ २० १/२ ॥ एवं पापसमाचारः सज्जनप्रतिबाधकः ॥ २१ ॥ पौराणामहिते युक्तः पुत्रो निर्वासितः पुरात् । 'इस प्रकार पापाचारमें प्रवृत्त होकर जब वह सत्पुरुषोंको पीड़ा देने और नगर-निवासियोंका अहित करने लगा, तब पिताने उसे नगरसे बाहर निकाल दिया ॥ २१ १/२ ॥ तस्य पुत्रोंऽशुमान् नाम असमञ्जस्य वीर्यवान् ॥ २२ ॥ संमतः सर्वलोकस्य सर्वस्यापि प्रियंवदः । 'असमञ्जके पुत्रका नाम था अंशुमान् । वह बड़ा ही पराक्रमी, सबसे मधुर वचन बोलनेवाला तथा सब लोगोंको प्रिय था ॥ २२ १/२ ॥ ततः कालेन महता मतिः समभिजायत ॥ २३ ॥ सगरस्य नरश्रेष्ठ यजेयमिति निश्चिता । 'नरश्रेष्ठ ! कुछ कालके अनन्तर महाराज सगरके मनमें यह निश्चित विचार हुआ कि 'मैं यज्ञ करूँ ॥ २३ १/२ ॥ स कृत्वा निश्चयं राजा सोपाध्याय गणस्तदा । यज्ञकर्मणि वेदज्ञो यष्टुं समुपचक्रमे ॥ २४ ॥ 'यह दृढ़ निश्चय करके वे वेदवेत्ता नरेश अपने उपाध्यायोंके साथ यज्ञ करनेकी तैयारीमें लग गये ॥ २४ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे अष्टात्रिंशः सर्गः ॥ ३८ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आपरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें अड़तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ३८ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |