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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ एकोनचत्वारिंशः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] इन्द्रेण सगरस्य यज्ञसंबम्बन्धिनोऽश्वस्यापहरणम्, सगरात्मजैर्धराया भेदनं देवैर्ब्रह्माणं प्रति वृत्तस्यास्य विनिवेदनं च -
इन्द्रके द्वारा राजा सगरके यज्ञसम्बन्धी अश्वका अपहरण, सगरपुत्रोंद्वारा सारी पृथ्वीका भेदन तथा देवताओंका ब्रह्माजीको यह सब समाचार बताना - विश्वामित्रवचः श्रुत्वा कथांते रघुनंदनः । उवाच परमप्रीतो मुनिं दीप्तं इवानलम् ॥ १ ॥ विश्वामित्रजीकी कही हुई कथा सुनकर श्रीरामचन्द्रजी बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने कथाके अन्तमें अग्नितुल्य तेजस्वी विश्वामित्र मुनिसे कहा— ॥ १ ॥ श्रोतुमिच्छामि भद्रं ते विस्तरेण कथामिमाम् । पूर्वजो मे कथं ब्रह्मन् यज्ञं वै समुपाहरत् ॥ २ ॥ 'ब्रह्मन् ! आपका कल्याण हो । मैं इस कथाको विस्तारके साथ सुनना चाहता हूँ । मेरे पूर्वज महाराज सगरने किस प्रकार यज्ञ किया था ?' ॥ २ ॥ तस्य तद् वचनं श्रुत्वा कौतुहलसमन्वितः । विश्वामित्रस्तु काकुत्स्थं उवाच प्रहसन्निव ॥ ३ ॥ उनकी वह बात सुनकर विश्वामित्रजीको बड़ा कौतूहल हुआ । वे यह सोचकर कि मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ, उसीके लिये ये प्रश्न कर रहे हैं, जोर-जोरसे हँस पड़े । हंसते हुए-से ही उन्होंने श्रीरामसे कहा— ॥ ३ ॥ श्रूयतां विस्तरो राम सगरस्य महात्मनः । शङ्करश्वशुरो नाम्ना हिमवान् इति विश्रुतः ॥ ४ ॥ विंध्यपर्वतमासाद्य निरीक्षेते परस्परम् । तयोर्मध्ये समभवद् यज्ञः स पुरुषोत्तम ॥ ५ ॥ 'राम ! तुम महात्मा सगरके यज्ञका विस्तारपूर्वक वर्णन सुनो । पुरुषोत्तम ! शङ्करजीके श्वशुर हिमवान् नामसे विख्यात पर्वत विन्ध्याचलतक पहुँचकर तथा विन्ध्यपर्वत हिमवान्तक पहुँचकर दोनों एक-दूसरेको देखते हैं (इन दोनोंके बीचमें दूसरा कोई ऐसा ऊँचा पर्वत नहीं है, जो दोनोंके पारस्परिक दर्शन में बाधा उपस्थित कर सके) । इन्हीं दोनों पर्वतोंके बीच आर्यावर्तकी पुण्यभूमिमें उस यज्ञका अनुष्ठान हुआ था ॥ ४-५ ॥ स हि देशो नरव्याघ्र प्रशस्तो यज्ञकर्मणि । तस्याश्वचर्यां काकुत्स्थ दृढधन्वा महारथः ॥ ६ ॥ अंशुमानकरोत् तात सगरस्य मते स्थितः । "पुरुषसिंह ! वही देश यज्ञ करनेके लिये उत्तम माना गया है । तात ककुत्स्थनन्दन ! राजा सगरकी आज्ञासे यज्ञिय अश्वकी रक्षाका भार सुदृढ़ धनुर्धर महारथी अंशुमान्ने स्वीकार किया था ॥ ६ १/२ ॥ तस्य पर्वणि तं यज्ञं यजमानस्य वासवः ॥ ७ ॥ राक्षसीं तनुमास्थाय यज्ञीयाश्वं अपाहरत् । 'परंतु पर्वके दिन यज्ञमें लगे हुए राजा सगरके यज्ञसम्बन्धी घोड़ेको इन्द्रने राक्षसका रूप धारण करके चुरा लिया ॥ ७ १/२ ॥ ह्रियमाणे तु काकुत्स्थ तस्मिन् अश्वे महात्मनः ॥ ८ ॥ उपाध्यायगणाः सर्वे यजमानं अथाब्रुवन् । अयं पर्वणि वेगेन यज्ञीयाश्वोऽपनीयते ॥ ९ ॥ हर्तारं जहि काकुत्स्थ हयश्चैवोपनीयताम् । यज्ञच्छिद्रं भवत्येतत् सर्वेषां अशिवाय नः ॥ १० ॥ तत् तथा क्रियतां राजन् यज्ञोऽच्छिद्रः कृतो भवेत् । 'काकुत्स्थ ! महामना सगरके उस अश्वका अपहरण होते समय समस्त ऋत्विजोंने यजमान सगरसे कहा'ककुत्स्थनन्दन ! आज पर्वके दिन कोई इस यज्ञसम्बन्धी अश्वको चुराकर बड़े वेगसे लिये जा रहा है । आप चोरको मारिये और घोड़ा वापस लाइये, नहीं तो यज्ञमें विघ्न पड़ जायगा और वह हम सब लोगोंके लिये अमंगलका कारण होगा । राजन् ! आप ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे यह यज्ञ बिना किसी विघ्न-बाधाके परिपूर्ण हो ॥ ८-१० १/२ ॥ सोपाध्यायवचः श्रुत्वा तस्मिन् सदसि पार्थिवः ॥ ११ ॥ षष्टिं पुत्रसहस्राणि वाक्यं एतदुवाच ह । गतिं पुत्रा न पश्यामि रक्षसां पुरुषर्षभाः ॥ १२ ॥ 'उस यज्ञ-सभामें बैठे हुए राजा सगरने उपाध्यायोंकी बात सुनकर अपने साठ हजार पुत्रोंसे कहा—'पुरुषप्रवर पुत्रो ! यह महान् यज्ञ वेदमन्त्रोंसे पवित्र अन्त:करणवाले महाभाग महात्माओंद्वारा सम्पादित हो रहा है; अत: यहाँ राक्षसोंकी पहुँच हो, ऐसा मुझे नहीं दिखायी देता (अत: यह अश्व चुरानेवाला कोई देवकोटिका पुरुष होगा) । ॥ ११-१२ ॥ मंत्रपूतैः महाभागैः आस्थितो हि महाक्रतुः । तद् गच्छत विचिन्वध्वं पुत्रका भद्रमस्तु वः ॥ १३ ॥ समुद्रमालिनीं सर्वां पृथिवीं अनुगच्छथ । एकैकं योजनं पुत्रा विस्तारं अभिगच्छत ॥ १४ ॥ यावत् तुरगसंदर्शः तावत् खनत मेदिनीम् । तं चैव हयहर्तारं मार्गमाणा ममाज्ञया ॥ १५ ॥ 'अत: पुत्रो ! तुमलोग जाओ, घोड़ेकी खोज करो । तुम्हारा कल्याण हो । समुद्रसे घिरी हुई इस सारी पृथ्वीको छान डालो । एक-एक योजन विस्तृत भूमिको बाँटकर उसका चप्पा-चप्पा देख डालो । जबतक घोड़ेका पता न लग जाय, तबतक मेरी आज्ञासे इस पृथ्वीको खोदते रहो । इस खोदनेका एक ही लक्ष्य है— उस अश्वके चोरको ढूँढ़ निकालना ॥ १३-१५ ॥ दीक्षितः पौत्रसहितः सोपाध्याय गणस्त्वहम् । इह स्थास्यामि भद्रं वो यावत् तुरगदर्शनम् ॥ १६ ॥ 'मैं यज्ञकी दीक्षा ले चुका हूँ, अत: स्वयं उसे ढूँढ़नेके लिये नहीं जा सकता; इसलिये जबतक उस अश्वका दर्शन न हो, तबतक मैं उपाध्यायों और पौत्र अंशुमान्के साथ यहीं रहूँगा' ॥ १६ ॥ ते सर्वे हृष्टमनसो राजपुत्रा महाबलाः । जग्मुर्मुहीतलं राम पितुर्वचनयंत्रिताः ॥ १७ ॥ 'श्रीराम ! पिताके आदेशरूपी बन्धनसे बँधकर वे सभी महाबली राजकुमार मन-ही-मन हर्षका अनुभव करते हुए भूतलपर विचरने लगे ॥ १७ ॥ गत्वा तु पृथिवीं सर्वां अदृष्ट्वा तं महाबलाः । योजनायां अविस्तारं एकैको धरणीतलम् । बिभिदुः पुरुषव्याघ्रा वज्रस्पर्शसमैर्भुजैः ॥ १८ ॥ 'सारी पृथ्वीका चक्कर लगानेके बाद भी उस अश्वको न देखकर उन महाबली पुरुषसिंह राजपुत्रोंने प्रत्येकके हिस्से में एक-एक योजन भूमिका बँटवारा करके अपनी भुजाओंद्वारा उसे खोदना आरम्भ किया । उनकी उन भुजाओंका स्पर्श वज्रके स्पर्शकी भाँति दुस्सह था ॥ १८ ॥ शूलैरशनिकल्पैश्च हलैश्चापि सुदारुणैः । भिद्यमाना वसुमती ननाद रघुनंदन ॥ १९ ॥ 'रघुनन्दन ! उस समय वज्रतुल्य शूलों और अत्यन्त दारुण हलोंद्वारा सब ओरसे विदीर्ण की जाती हुई वसुधा आर्तनाद करने लगी ॥ १९ ॥ नागानां वध्यमानानां असुराणां च राघव । राक्षसानां दुराधर्षः सत्त्वानां निनदोऽभवत् ॥ २० ॥ 'रघुवीर ! उन राजकुमारोंद्वारा मारे जाते हुए नागों, असुरों, राक्षसों तथा दूसरे-दूसरे प्राणियोंका भयंकर आर्तनाद गूंजने लगा ॥ २० ॥ योजनानां सहस्राणि षष्टिं तु रघुनंदन । बिभिदुर्धरणीं राम रसातलं अनुत्तमम् ॥ २१ ॥ 'रघुकुलको आनन्दित करनेवाले श्रीराम ! उन्होंने साठ हजार योजनकी भूमि खोद डाली । मानो वे सर्वोत्तम रसातलका अनुसंधान कर रहे हों ॥ २१ ॥ एवं पर्वतसंबाधं जंबूद्वीपं नृपात्मजाः । खनंतो नृपशार्दूल सर्वतः परिचक्रमुः ॥ २२ ॥ 'नृपश्रेष्ठ राम ! इस प्रकार पर्वतोंसे युक्त जम्बूद्वीपकी भूमि खोदते हुए वे राजकुमार सब ओर चक्कर लगाने लगे । ॥ २२ ॥ ततो देवाः सगंधर्वाः सासुराः सहपन्नगाः । संभ्रांतमनसः सर्वे पितामहं उपागमन् ॥ २३ ॥ 'इसी समय गन्धों , असुरों और नागोंसहित सम्पूर्ण देवता मन-ही-मन घबरा उठे और ब्रह्माजीके पास गये ॥ २३ ॥ ते प्रसाद्य महात्मानं विषण्णवदनास्तदा । ऊचुः परमसंत्रस्ताः पितामहं इदं वचः ॥ २४ ॥ 'उनके मुखपर विषाद छा रहा था । वे भयसे अत्यन्त संत्रस्त हो गये थे । उन्होंने महात्मा ब्रह्माजीको प्रसन्न करके इस प्रकार कहा— ॥ २४ ॥ भगवन् पृथिवी सर्वा खन्यते सगरात्मजैः । बहवश्च महात्मानो हन्यंते जलचारिणः ॥ २५ ॥ भगवन् ! सगरके पुत्र इस सारी पृथ्वीको खोदे डालते हैं और बहुत-से महात्माओं तथा जलचारी जीवोंका वध कर रहे हैं ॥ २५ ॥ अयं यज्ञहरोऽस्माकं अनेन अश्वोऽपनीयते । इति ते सर्वभूतानि हिंसंति सगरात्मजाः ॥ २६ ॥ 'यह हमारे यज्ञमें विघ्न डालनेवाला है । यह हमारा अश्व चुराकर ले जाता है । ऐसा कहकर वे सगरके पुत्र समस्त प्राणियोंकी हिंसा कर रहे हैं' ॥ २६ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे एकोनचत्वारिंशः सर्गः ॥ ३९ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आपरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें उनतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ३९ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |