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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ सप्तचत्वारिंशः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] स्वपुत्रान् मरुद्गणान् देवलोके रक्षितुमिन्द्रं प्रति दितेरनुरोधः, इन्द्रेण तदाज्ञायाः स्वीकरणं दितितपोवन एवेक्ष्वाकुपुत्रेण विशालेन राज्ञा विशालाभिधायाः नगर्या निर्माणं तत्रत्येन तात्कालिकेन राज्ञा सुमतिना विश्वामित्रस्य सत्कारः -
दितिका अपने पुत्रोंको मरुद्ण बनाकर देवलोकमें रखने के लिये इन्द्रसे अनुरोध, इन्द्रद्वारा उसकी स्वीकृति, दितिके तपोवनमें ही इक्ष्वाकु-पुत्र विशालद्वारा विशाला नगरीका निर्माण तथा वहाँके तत्कालीन राजा सुमतिद्वारा विश्वामित्र मुनिका सत्कार - सप्तधा तु कृते गर्भे दितिः परमदुःखिता । सहस्राक्षं दुराधर्षं वाक्यं सानुनयाब्रवीत् ॥ १ ॥ इन्द्रद्वारा अपने गर्भके सात टुकड़े कर दिये जानेपर देवी दितिको बड़ा दुःख हुआ । वे दुर्द्धर्ष वीर सहस्राक्ष इन्द्रसे अनुनयपूर्वक बोलीं ॥ १ ॥ ममापराधाद् गर्भोऽयं सप्तधा शकलीकृतः । नापराधो हि देवेश तवात्र बलसूदन ॥ २ ॥ 'देवेश ! बलसूदन ! मेरे ही अपराधसे इस गर्भके सात टुकड़े हुए हैं । इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है ॥ २ ॥ प्रियं तु त्वत्कृतमिच्छामि मम गर्भविपर्यये । मरुतां सप्त सप्तानां स्थानपाला भवंतु ते ॥ ३ ॥ 'इस गर्भको नष्ट करनेके निमित्त तुमने जो क्रूरतापूर्ण कर्म किया है, वह तुम्हारे और मेरे लिये भी जिस तरह प्रिय हो जाय—जैसे भी उसका परिणाम तुम्हारे और मेरे लिये सुखद हो जाय, वैसा उपाय मैं करना चाहती हूँ । मेरे गर्भके वे सातों खण्ड सात व्यक्ति होकर सातों मरुद्गणोंके स्थानोंका पालन करनेवाले हो जायें ॥ ३ ॥ वातस्कंधा इमे सप्त चरंतु दिवि पुत्रक । मारुता इति विख्याता दिव्यरूपा ममात्मजाः ॥ ४ ॥ 'बेटा ! ये मेरे दिव्य रूपधारी पुत्र 'मारुत' नामसे प्रसिद्ध होकर आकाशमें जो सुविख्यात सात वातस्कन्ध हैं, उनमें विचरें ॥ ४ ॥ ब्रह्मलोकं चरत्वेक इंद्रलोकं तथापरः । दिव्यवायुरिति ख्यातः तृतीयोऽपि महायशाः ॥ ५ ॥ (ऊपर जो सात मरुत् बताये गये हैं, वे सात-सातके गण हैं । इस प्रकार उनचास मरुत् समझने चाहिये । इनमेंसे) जो प्रथम गण है, वह ब्रह्मलोकमें विचरे, दूसरा इन्द्रलोकमें विचरण करे तथा तीसरा महायशस्वी मरुदण दिव्य वायुके नामसे विख्यात हो अन्तरिक्षमें बहा करे ॥ ५ ॥ चत्वारस्तु सुरश्रेष्ठ दिशो वै तव शासनात् । सञ्चरिष्यंति भद्रं ते कालेन हि ममात्मजाः ॥ ६ ॥ त्वत्कृतेनैव नाम्ना वै मारुता इति विश्रुताः । 'सुरश्रेष्ठ ! तुम्हारा कल्याण हो । मेरे शेष चार पुत्रोंके गण तुम्हारी आज्ञासे समयानुसार सम्पूर्ण दिशाओंमें संचार करेंगे । तुम्हारे ही रखे हुए नामसे (तुमने जो 'मा रुदः' कहकर उन्हें रोनेसे मना किया था, उसी 'मा रुदः' इस वाक्यसे) वे सब-के-सब मारुत कहलायेंगे । मारुत नामसे ही उनकी प्रसिद्धि होगी' ॥ ६ १/२ ॥ तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा सहस्राक्षः पुरंदरः ॥ ७ ॥ उवाच प्राञ्जलिर्वाक्यं इतीदं बलनिसूदनः । दितिका वह वचन सुनकर बल दैत्यको मारनेवाले सहस्राक्ष इन्द्रने हाथ जोड़कर यह बात कही— ॥ ७ १/२ ॥ सर्वं एतद् यथोक्तं ते भविष्यति न संशयः ॥ ८ ॥ विचरिष्यंति भद्रं ते देवरूपास्तवात्मजाः । 'मा ! तुम्हारा कल्याण हो । तुमने जैसा कहा है, वह सब वैसा ही होगा; इसमें संशय नहीं है । तुम्हारे ये पुत्र देवरूप होकर विचरेंगे' ॥ ८ १/२ ॥ एवं तौ निश्चयं कृत्वा मातापुत्रौ तपोवने ॥ ९ ॥ जग्मतुस्त्रिदिवं राम कृतार्थाविति नः श्रुतम् । श्रीराम ! उस तपोवनमें ऐसा निश्चय करके वे दोनों माता-पुत्र—दिति और इन्द्र कृतकृत्य हो स्वर्गलोकको चले गये—ऐसा हमने सुन रखा है ॥ ९ १/२ ॥ एष देशः स काकुत्स्थ महेंद्राध्युषितः पुरा ॥ १० ॥ दितिं यत्र तपः सिद्धां एवं परिचचार सः । काकुत्स्थ ! यही वह देश है, जहाँ पूर्वकालमें रहकर देवराज इन्द्रने तपःसिद्ध दितिकी परिचर्या की थी ॥ १० १/२ ॥ इक्ष्वाकोस्तु नरव्याघ्र पुत्रः परमधार्मिकः ॥ ११ ॥ अलंबुषायां उत्पन्नो विशाल इति विश्रुतः । तेन चासीद् इह स्थाने विशालेति पुरी कृता ॥ १२ ॥ पुरुषसिंह ! पूर्वकालमें महाराज इक्ष्वाकुके एक परम धर्मात्मा पुत्र थे, जो विशाल नामसे प्रसिद्ध हुए । उनका जन्म अलम्बुषाके गर्भसे हुआ था । उन्होंने इस स्थानपर विशाला नामकी पुरी बसायी थी ॥ ११-१२ ॥ विशालस्य सुतो राम हेमचंद्रो महाबलः । सुचंद्र इति विख्यातो हेमचंद्रादनंतरः ॥ १३ ॥ श्रीराम ! विशालके पुत्रका नाम था हेमचन्द्र, जो बड़े बलवान् थे । हेमचन्द्रके पुत्र सुचन्द्र नामसे विख्यात हुए ॥ १३ ॥ सुचंद्रतनयो राम धूम्राश्व इति विश्रुतः । धूम्राश्वतनयश्चापि सृञ्जयः समपद्यत ॥ १४ ॥ श्रीरामचन्द्र ! सुचन्द्रके पुत्र धूम्राश्च और धूम्राश्वके पुत्र संजय हुए ॥ १४ ॥ सृञ्जयस्य सुतः श्रीमान् सहदेवः प्रतापवान् । कुशाश्वः सहदेवस्य पुत्रः परमधार्मिकः ॥ १५ ॥ सुंजयके प्रतापी पुत्र श्रीमान् सहदेव हुए । सहदेवके परम धर्मात्मा पुत्रका नाम कुशाश्व था ॥ १५ ॥ कुशाश्वस्य महातेजाः सोमदत्तः प्रतापवान् । सोमदत्तस्य पुत्रस्तु काकुत्स्थ इति विश्रुतः ॥ १६ ॥ कुशाश्वके महातेजस्वी पुत्र प्रतापी सोमदत्त हुए और सोमदत्तके पुत्र काकुत्स्थ नामसे विख्यात हुए ॥ १६ ॥ तस्य पुत्रो महातेजाः संप्रत्येष पुरीमिमाम् । आवसत् परमप्रख्यः सुमतिर्नाम दुर्जयः ॥ १७ ॥ काकुत्स्थके महातेजस्वी पुत्र सुमति नामसे प्रसिद्ध हैं; जो परम कान्तिमान् एवं दुर्जय वीर हैं । वे ही इस समय इस पुरीमें निवास करते हैं ॥ १७ ॥ इक्ष्वाकोस्तु प्रसादेन सर्वे वैशालिका नृपाः । दीर्घायुषो महात्मानो वीर्यवंतः सुधार्मिकाः ॥ १८ ॥ महाराज इक्ष्वाकुके प्रसादसे विशालाके सभी नरेश दीर्घायु, महात्मा, पराक्रमी और परम धार्मिक होते आये हैं । १८ ॥ इहाद्य रजनीमेकां सुखं स्वप्स्यामहे वयम् । श्वः प्रभाते नरश्रेष्ठ जनकं द्रष्टुमर्हसि ॥ १९ ॥ नरश्रेष्ठ ! आज एक रात हमलोग यहीं सुखपूर्वक शयन करेंगे; फिर कल प्रात:काल यहाँसे चलकर तुम मिथिलामें राजा जनकका दर्शन करोगे ॥ १९ ॥ सुमतिस्तु महातेजा विश्वामित्रमुपागतम् । श्रुत्वा नरवरश्रेष्ठः प्रत्यागच्छन् महायशाः ॥ २० ॥ नरेशोंमें श्रेष्ठ, महातेजस्वी, महायशस्वी राजा सुमति विश्वामित्रजीको पुरीके समीप आया हुआ सुनकर उनकी अगवानीके लिये स्वयं आये ॥ २० ॥ पूजां च परमां कृत्वा सोपाध्यायः सबांधवः । प्राञ्जलिः कुशलं पृष्ट्वा विश्वामित्रमथाब्रवीत् ॥ २१ ॥ अपने पुरोहित और बन्धु-बान्धवोंके साथ राजाने विश्वामित्रजीकी उत्तम पूजा करके हाथ जोड़ उनका कुशलसमाचार पूछा और उनसे इस प्रकार कहा— ॥ २१ ॥ धन्योऽस्मि अनुगृहीतोऽस्मि यस्य मे विषयं मुने । संप्राप्तो दर्शनं चैव नास्ति धन्यतरो मया ॥ २२ ॥ 'मुने ! मैं धन्य हूँ । आपका मुझपर बड़ा अनुग्रह है; क्योंकि आपने स्वयं मेरे राज्यमें पधारकर मुझे दर्शन दिया । इस समय मुझसे बढ़कर धन्य पुरुष दूसरा कोई नहीं है' ॥ २२ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे सप्तचत्वारिंशः सर्गः ॥ ४७ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें सैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ४७ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |