![]() |
॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ अष्टचत्वारिंशः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] राज्ञा सत्कृतस्यैकरात्रौ विशालायां कृतवासस्य मुनिसहितस्य श्रीरामस्य मिथिलायां उपस्थानं तत्रशून्याश्रमविषये श्रीरामस्य जिज्ञासामधिगम्य विश्वामित्रेण गौतमपत्न्या अहल्यायाः शापप्राप्तेर्वृत्तान्तस्य वर्णनम् -
राजा सुमतिसे सत्कृत हो एक रात विशालामें रहकर मुनियोंसहित श्रीरामका मिथिलापुरीमें पहुँचना और वहाँ सूने आश्रमके विषयमें पूछनेपर विश्वामित्रजीका उनसे अहल्याको शाप प्राप्त होनेकी कथा सुनाना - पृष्ट्वा तु कुशलं तत्र परस्परसमागमे । कथांते सुमतिर्वाक्यं व्याजहार महामुनिम् ॥ १ ॥ वहाँ परस्पर समागमके समय एक-दूसरेका कुशल-मंगल पूछकर बातचीतके अन्तमें राजा सुमतिने महामुनि विश्वामित्रसे कहा— ॥ १ ॥ इमौ कुमारौ भद्रं ते देवतुल्यपराक्रमौ । गजसिंहगती वीरौ शार्दूलवृषभोपमौ ॥ २ ॥ 'ब्रह्मन् ! आपका कल्याण हो । ये दोनों कुमार देवताओंके तुल्य पराक्रमी जान पड़ते हैं । इनकी चाल-ढाल हाथी और सिंहकी गतिके समान है । ये दोनों वीर सिंह और साँड़के समान प्रतीत होते हैं ॥ २ ॥ पद्मपत्रविशालाक्षौ खड्गतूणधनुर्धरौ । अश्विनौ इव रूपेण समुपस्थितयौवनौ ॥ ३ ॥ इनके बड़े-बड़े नेत्र विकसित कमलदलके समान शोभा पाते हैं । ये दोनों तलवार, तरकस और धनुष धारण किये हुए हैं । अपने सुन्दर रूपके द्वारा दोनों अश्विनीकुमारोंको लज्जित करते हैं तथा युवावस्थाके निकट आ पहुँचे हैं । ॥ ३ ॥ यदृच्छयैव गां प्राप्तौ देवलोकादिवामरौ । कथं पद्भ्यां इह प्राप्तौ किमर्थं कस्य वा मुने ॥ ४ ॥ 'इन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता है, मानो दो देवकुमार देवेच्छावश देवलोकसे पृथ्वीपर आ गये हों । मुने ! ये दोनों किसके पुत्र हैं और कैसे, किसलिये यहाँ पैदल ही आये हैं ? ॥ ४ ॥ भूषयंतौ इमं देशं चंद्रसूर्यौ इवांबरम् । परस्परेण सदृशौ प्रमाणेङ्गितचेष्टितैः ॥ ५ ॥ 'जैसे चन्द्रमा और सूर्य आकाशकी शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार ये दोनों कुमार इस देशको सुशोभित कर रहे हैं । शरीरकी ऊँचाई, मनोभावसूचक संकेत तथा चेष्टा (बोलचाल) में ये दोनों एक-दूसरेके समान हैं ॥ ५ ॥ किमर्थं च नरश्रेष्ठौ संप्राप्तौ दुर्गमे पथि । वरायुधधरौ वीरौ श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ ६ ॥ श्रेष्ठ आयुध धारण करनेवाले ये दोनों नरश्रेष्ठ वीर इस दुर्गम मार्गमें किसलिये आये हैं ? यह मैं यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ' ॥ ६ ॥ तस्य तद् वचनं श्रुत्वा यथावृत्तं न्यवेदयत् । सिद्धाश्रमनिवासं च राक्षसानां वधं यथा । विश्वामित्रवचः श्रुत्वा राजा परमविस्मितः ॥ ७ ॥ सुमतिका यह वचन सुनकर विश्वामित्रजीने उन्हें सब वृत्तान्त यथार्थरूपसे निवेदन किया । सिद्धाश्रममें निवास और राक्षसोंके वधका प्रसंग भी यथावत् रूपसे कह सुनाया । विश्वामित्रजीकी बात सुनकर राजा सुमतिको बड़ा विस्मय हुआ ॥ ७ ॥ अतिथी परमं प्राप्तौ पुत्रौ दशरथस्य तौ । पूजयामास विधिवत् सत्कारार्हौ महाबलौ ॥ ८ ॥ उन्होंने परम आदरणीय अतिथिके रूपमें आये हुए उन दोनों महाबली दशरथ-पुत्रोंका विधिपूर्वक आतिथ्यसत्कार किया ॥ ८ ॥ ततः परमसत्कारं सुमतेः प्राप्य राघवौ । उष्य तत्र निशामेकां जग्मतुर्मिथिलां ततः ॥ ९ ॥ सुमतिसे उत्तम आदर-सत्कार पाकर वे दोनों रघुवंशी कुमार वहाँ एक रात रहे और सबेरे उठकर मिथिलाकी ओर चल दिये ॥ ९ ॥ तान् दृष्ट्वा मुनयः सर्वे जनकस्य पुरीं शुभाम् । साधु साध्विति शंसंतो मिथिलां समपूजयन् ॥ १० ॥ मिथिलामें पहुँचकर जनकपुरीकी सुन्दर शोभा देख सभी महर्षि साधु-साधु कहकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे ॥ १० ॥ मिथिलोपवने तत्र आश्रमं दृश्य राघवः । पुराणं निर्जनं रम्यं पप्रच्छ मुनिपुङ्गवम् ॥ ११ ॥ मिथिलाके उपवनमें एक पुराना आश्रम था, जो अत्यन्त रमणीय होकर भी सूनसान दिखायी देता था । उसे देखकर श्रीरामचन्द्रजीने मुनिवर विश्वामित्रजीसे पूछा ॥ ११ ॥ इदं आश्रमसङ्काशं किं न्विदं मुनिवर्जितम् । श्रोतुमिच्छामि भगवन् कस्यायं पूर्व आश्रमः ॥ १२ ॥ 'भगवन् ! यह कैसा स्थान है, जो देखनेमें तो आश्रम-जैसा है; किंतु एक भी मुनि यहाँ दृष्टिगोचर नहीं होते हैं । मैं यह सुनना चाहता हूँ कि पहले यह आश्रम किसका था ?" ॥ १२ ॥ तच्छ्रुत्वा राघवेणोक्तं वाक्यं वाक्यविशारदः । प्रत्युवाच महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः ॥ १३ ॥ श्रीरामचन्द्रजीका यह प्रश्न सुनकर प्रवचनकुशल महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्रने इस प्रकार उत्तर दिया ॥ १३ ॥ हंत ते कथयिष्यामि श्रृणु तत्त्वेन राघव । यस्यैतद् आश्रमपदं शप्तं कोपान् महात्मना ॥ १४ ॥ 'रघुनन्दन ! पूर्वकालमें यह जिस महात्माका आश्रम था और जिन्होंने क्रोधपूर्वक इसे शाप दे दिया था, उनका तथा उनके इस आश्रमका सब वृत्तान्त तुमसे कहता हूँ । तुम यथार्थरूपसे इसको सुनो ॥ १४ ॥ गौतमस्य नरश्रेष्ठ पूर्वं आसीन् महात्मनः । आश्रमो दिव्यसंकाशः सुरैरपि सुपूजितः ॥ १५ ॥ 'नरश्रेष्ठ ! पूर्वकालमें यह स्थान महात्मा गौतमका आश्रम था । उस समय यह आश्रम बड़ा ही दिव्य जान पड़ता था । देवता भी इसकी पूजा एवं प्रशंसा किया करते थे ॥ १५ ॥ स चात्र तप आतिष्ठद् अहल्यासहितः पुरा । वर्षपूगान्यनेकानि राजपुत्र महायशः ॥ १६ ॥ 'महायशस्वी राजपुत्र ! पूर्वकालमें महर्षि गौतम अपनी पत्नी अहल्याके साथ रहकर यहाँ तपस्या करते थे । उन्होंने बहुत वर्षांतक यहाँ तप किया था ॥ १६ ॥ तस्यांतरं विदित्वा तु सहस्राक्षः शचीपतिः । मुनिवेषधरो भूत्वा अहल्यां इदमब्रवीत् ॥ १७ ॥ "एक दिन जब महर्षि गौतम आश्रमपर नहीं थे, उपयुक्त अवसर समझकर शचीपति इन्द्र गौतम मुनिका वेष धारण किये वहाँ आये और अहल्यासे इस प्रकार बोले- ॥ १७ ॥ ऋतुकालं प्रतीक्षंते नार्थिनः सुसमाहिते । सङ्गमं त्वहमिच्छामि त्वया सह सुमध्यमे ॥ १८ ॥ "सदा सावधान रहनेवाली सुन्दरी ! रतिकी इच्छा रखनेवाले प्रार्थी पुरुष ऋतुकालकी प्रतीक्षा नहीं करते हैं । सुन्दर कटिप्रदेशवाली सुन्दरी ! मैं (इन्द्र) तुम्हारे साथ समागम करना चाहता हूँ' ॥ १८ ॥ मुनिवेषं सहस्राक्षं विज्ञाय रघुनंदन । मतिं चकार दुर्मेधा देवराजकुतूहलात् ॥ १९ ॥ 'रघुनन्दन ! महर्षि गौतमका वेष धारण करके आये हुए इन्द्रको पहचानकर भी उस दुर्बुद्धि नारीने 'अहो ! देवराज इन्द्र मुझे चाहते हैं । इस कौतूहलवश उनके साथ समागमका निश्चय करके वह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया ॥ १९ ॥ अथाब्रवीत् सुरश्रेष्ठं कृतार्थेनांतरात्मना । कृतार्थास्मि सुरश्रेष्ठ गच्छ शीघ्रमितः प्रभो ॥ २० ॥ आत्मानं मां च देवेश सर्वथा रक्ष गौतमात् । 'रतिके पश्चात् उसने देवराज इन्द्रसे संतुष्टचित्त होकर कहा—'सुरश्रेष्ठ ! मैं आपके समागमसे कृतार्थ हो गयी । प्रभो ! अब आप शीघ्र यहाँसे चले जाइये । देवेश्वर ! महर्षि गौतमके कोपसे आप अपनी और मेरी भी सब प्रकारसे रक्षा कीजिये' ॥ २० १/२ ॥ इंद्रस्तु प्रहसन् वाक्यं अहल्यां इदमब्रवीत् ॥ २१ ॥ सुश्रोणि परितुष्टोऽस्मि गमिष्यामि यथागतम् । 'तब इन्द्रने अहल्यासे हँसते हुए कहा—'सुन्दरी ! मैं भी संतुष्ट हो गया । अब जैसे आया था, उसी तरह चला जाऊँगा' ॥ २१ १/२ ॥ एवं सङ्गम्य तु तदा निश्चक्रामोटजात् ततः ॥ २२ ॥ स संभ्रमात् त्वरन् राम शङ्कितो गौतमं प्रति । 'श्रीराम ! इस प्रकार अहल्यासे समागम करके इन्द्र जब उस कुटीसे बाहर निकले, तब गौतमके आ जानेकी आशङ्कासे बड़ी उतावलीके साथ वेगपूर्वक भागनेका प्रयत्न करने लगे ॥ २२ १/२ ॥ गौतमं स ददर्शाथ प्रविशंतं महामुनिम् ॥ २३ ॥ देवदानवदुर्धर्षं तपोबलसमन्वितम् । तीर्थोदकपरिक्लिन्नं दीप्यमानं इवानलम् ॥ २४ ॥ गृहीतसमिधं तत्र सकुशं मुनिपुङ्गवम् । 'इतनेहीमें उन्होंने देखा, देवताओं और दानवोंके लिये भी दुर्धर्ष, तपोबलसम्पन्न महामुनि गौतम हाथमें समिधा लिये आश्रममें प्रवेश कर रहे हैं । उनका शरीर तीर्थके जलसे भीगा हुआ है और वे प्रज्वलित अग्निके समान उद्दीप्त हो रहे हैं ॥ २३-२४ १/२ ॥ दृष्ट्वा सुरपतिस्त्रस्तो विशण्णवदनोऽभवत् ॥ २५ ॥ अथ दृष्ट्वा सहस्राक्षं मुनिवेषधरं मुनिः । दुर्वृत्तं वृत्तसंपन्नो रोषाद् वचनमब्रवीत् ॥ २६ ॥ 'उनपर दृष्टि पड़ते ही देवराज इन्द्र भयसे थर्रा उठे । उनके मुखपर विषाद छा गया । दुराचारी इन्द्रको मुनिका वेष धारण किये देख सदाचारसम्पन्न मुनिवर गौतमजीने रोषमें भरकर कहा— ॥ २५-२६ ॥ मम रूपं समास्थाय कृतवानसि दुर्मते । अकर्तव्यमिदं यस्माद् विफलस्त्वं भविष्यसि ॥ २७ ॥ "दुर्मते ! तूने मेरा रूप धारण करके यह न करनेयोग्य पापकर्म किया है, इसलिये तू विफल (अण्डकोषोंसे रहित) हो जायगा' ॥ २७ ॥ गौतमेनैवमुक्तस्य सरोषेण महात्मना । पेततुर्वृषणौ भूमौ सहस्राक्षस्य तत्क्षणात् ॥ २८ ॥ रोषमें भरे हुए महात्मा गौतमके ऐसा कहते ही सहस्राक्ष इन्द्रके दोनों अण्डकोष उसी क्षण पृथ्वीपर गिर पड़े । २८ ॥ तथा शप्त्वा च वै शक्रं भार्यामपि च शप्तवान् । इह वर्षसहस्राणि बहूनि निवसिष्यसि ॥ २९ ॥ वातभक्षा निराहारा तप्यंती भस्मशायिनी । अदृश्या सर्वभूतानां आश्रमेऽस्मिन् वसिष्यसि ॥ ३० ॥ यदा त्वेतद् वनं घोरं रामो दशरथात्मजः । आगमिष्यति दुर्धर्षः तदा पूता भविष्यसि ॥ ३१ ॥ तस्यातिथ्येन दुर्वृत्ते लोभमोह विवर्जिता । मत्सकाशं मुदा युक्ता स्वं वपुर्धारयिष्यसि ॥ ३२ ॥ इन्द्रको इस प्रकार शाप देकर गौतमने अपनी पन्तीको भी शाप दिया—'दुराचारिणी ! तू भी यहाँ कई हजार वर्षांतक केवल हवा पीकर या उपवास करके कष्ट उठाती हुई राख में पड़ी रहेगी । समस्त प्राणियोंसे अदृश्य रहकर इस आश्रममें निवास करेगी । जब दुर्धर्ष दशरथ-कुमार राम इस घोर वनमें पदार्पण करेंगे, उस समय तू पवित्र होगी । उनका आतिथ्य-सत्कार करनेसे तेरे लोभ-मोह आदि दोष दूर हो जायेंगे और तू प्रसन्नतापूर्वक मेरे पास पहुँचकर अपना पूर्व शरीर धारण कर लेगी' ॥ २९–३२ ॥ एवमुक्त्वा महातेजा गौतमो दुष्टचारिणीम् । इमं आश्रमं उत्सृज्य सिद्धचारण सेविते । हिमवत् शिखरे रम्ये तपस्तेपे महातपाः ॥ ३३ ॥ 'अपनी दुराचारिणी पन्तीसे ऐसा कहकर महातेजस्वी, महातपस्वी गौतम इस आश्रमको छोड़कर चले गये और सिद्धों तथा चारणोंसे सेवित हिमालयके रमणीय शिखरपर रहकर तपस्या करने लगे' ॥ ३३ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे अष्टचत्वारिंशः सर्गः ॥ ४८ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें अड़तालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ४८ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |