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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ पञ्चाशः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] श्रीरामप्रभृतीनां मिथिलापुर्यां गमनं जनकेन विश्वामित्रस्य सत्कारस्तस्य श्रीरामलक्ष्मणयोः परिचयजिज्ञासा तस्याः पूर्तिश्च -
श्रीराम आदिका मिथिला-गमन, राजा जनकद्वारा विश्वामित्रका सत्कार तथा उनका श्रीराम और लक्ष्मणके विषयमें जिज्ञासा करना एवं परिचय पाना - ततः प्राग् उत्तरां गत्वा रामः सौमित्रिणा सह । विश्वामित्रं पुरस्कृत्य यज्ञवाटमुपागमत् ॥ १ ॥ तदनन्तर लक्ष्मणसहित श्रीराम विश्वामित्रजीको आगे करके महर्षि गौतमके आश्रमसे ईशानकोणकी ओर चले और मिथिलानरेशके यज्ञमण्डपमें जा पहुँचे ॥ १ ॥ रामस्तु मुनिशार्दूलं उवाच सहलक्ष्मणः । साध्वी यज्ञसमृद्धिर्हि जनकस्य महात्मनः ॥ २ ॥ बहूनीह सहस्राणि नानादेशनिवासिनाम् । ब्राह्मणानां महाभाग वेदाध्ययनशालिनाम् ॥ ३ ॥ वहाँ लक्ष्मणसहित श्रीरामने मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रसे कहा—'महाभाग ! महात्मा जनकके यज्ञका समारोह तो बड़ा सुन्दर दिखायी दे रहा है । यहाँ नाना देशोंके निवासी सहस्रों ब्राह्मण जुटे हुए हैं, जो वेदोंके स्वाध्यायसे शोभा पा रहे हैं ॥ २-३ ॥ ऋषिवाटाश्च दृश्यंते शकटीशतसंकुलाः । देशो विधीयतां ब्रह्मन् यत्र वत्स्यामहे वयम् ॥ ४ ॥ 'ऋषियोंके बाड़े सैकड़ों छकड़ोंसे भरे दिखायी दे रहे हैं । ब्रह्मन् ! अब ऐसा कोई स्थान निश्चित कीजिये, जहाँ हमलोग भी ठहरें ॥ ४ ॥ रामस्य वचनं श्रुत्वा विश्वामित्रो महामुनिः । निवासमकरोद् देशे विविक्ते सलिलान्विते ॥ ५ ॥ श्रीरामचन्द्रजीका यह वचन सुनकर महामुनि विश्वामित्रने एकान्त स्थानमें डेरा डाला, जहाँ पानीका सुभीता था ॥ ५ ॥ विश्वामित्रं अनुप्राप्तं श्रुत्वा नृपवरस्तत्दा । शतानंदं पुरस्कृत्य पुरोहितं अनिंदितः ॥ ६ ॥ अनिन्द्य (उत्तम) आचार-विचारवाले नृपश्रेष्ठ महाराज जनकने जब सुना कि विश्वामित्रजी पधारे हैं, तब वे तुरंत अपने पुरोहित शतानन्दको आगे करके [अर्घ्य लिये विनीतभावसे उनका स्वागत करनेको चल दिये] ॥ ६ ॥ ऋत्विजोऽपि महात्मानः त्वर्घ्यमादाय सत्वरम् । प्रत्युज्जगाम सहसा विनयेन समन्वितः ॥ ७ ॥ विश्वामित्राय धर्मेण ददौ धर्मपुरस्कृतम् । उनके साथ अर्घ्य लिये महात्मा ऋत्विज भी शीघ्रतापूर्वक चले । राजाने विनीतभावसे सहसा आगे बढ़कर महर्षिकी अगवानी की तथा धर्मशास्त्रके अनुसार विश्वामित्रको धर्मयुक्त अर्घ्य समर्पित किया ॥ ७ १/२ ॥ प्रतिगृह्य तु तां पूजां जनकस्य महात्मनः ॥ ८ ॥ पप्रच्छ कुशलं राज्ञो यज्ञस्य च निरामयम् । महात्मा राजा जनककी वह पूजा ग्रहण करके मुनिने उनका कुशल-समाचार पूछा तथा उनके यज्ञकी निर्बाध स्थितिके विषयमें जिज्ञासा की ॥ ८ १/२ ॥ स तांश्चाथ मुनीन् पृष्ट्वा सोपाध्यायपुरोधसः ॥ ९ ॥ यथार्हं ऋषिभिः सर्वैः समागच्छत् प्रहृष्टवत् । राजाके साथ जो मुनि, उपाध्याय और पुरोहित आये थे, उनसे भी कुशल-मंगल पूछकर विश्वामित्रजी बड़े हर्षके साथ उन सभी महर्षियोंसे यथायोग्य मिले ॥ ९ १/२ ॥ अथ राजा मुनिश्रेष्ठं कृताञ्जलिः अभाषत ॥ १० ॥ आसने भगवनास्तां सहैभिर्मुनिपुङ्गवैः । इसके बाद राजा जनकने मुनिवर विश्वामित्रसे हाथ जोड़कर कहा–'भगवन् ! आप इन मुनीश्वरोंके साथ आसनपर विराजमान होइये' ॥ १० १/२ ॥ जनकस्य वचः श्रुत्वा निषसाद महामुनिः ॥ ११ ॥ पुरोधा ऋत्विजश्चैव राजा च सह मंत्रिभिः । आसनेषु यथान्यायं उपविष्टाः समंततः ॥ १२ ॥ यह बात सुनकर महामुनि विश्वामित्र आसनपर बैठ गये । फिर पुरोहित, ऋत्विज् तथा मन्त्रियोंसहित राजा भी सब ओर यथायोग्य आसनोंपर विराजमान हो गये ॥ ११-१२ ॥ दृष्ट्वा स नृपतिस्तत्र विश्वामित्रं अथाब्रवीत् । अद्य यज्ञसमृद्धिर्मे सफला दैवतैः कृता ॥ १३ ॥ तत्पश्चात् राजा जनकने विश्वामित्रजीकी ओर देखकर कहा—'भगवन् ! आज देवताओंने मेरे यज्ञकी आयोजना सफल कर दी ॥ १३ ॥ अद्य यज्ञफलं प्राप्तं भगवद् दर्शनान्मया । धन्योऽस्मि अनुगृहीतोऽस्मि यस्य मे मुनिपुङ्गव ॥ १४ ॥ यज्ञोपसदनं ब्रह्मन् प्राप्तोऽसि मुनिभिः सह । 'आज पूज्य चरणोंके दर्शनसे मैंने यज्ञका फल पा लिया । ब्रह्मन् ! आप मुनियोंमें श्रेष्ठ हैं । आपने इतने महर्षियोंके साथ मेरे यज्ञमण्डपमें पदार्पण किया, इससे मैं धन्य हो गया । यह मेरे ऊपर आपका बहुत बड़ा अनुग्रह है ॥ १४ १/२ ॥ द्वादशाहं तु ब्रह्मर्षे दीक्षां आहुर्मनीषिणः ॥ १५ ॥ ततो भागार्थिनो देवान् द्रष्टुमर्हसि कौशिक । 'ब्रह्मर्षे ! मनीषी ऋत्विजोंका कहना है कि 'मेरी यज्ञदीक्षाके बारह दिन ही शेष रह गये हैं । अत: कुशिकनन्दन ! बारह दिनोंके बाद यहाँ भाग ग्रहण करनेके लिये आये हुए देवताओंका दर्शन कीजियेगा' ॥ १५ १/२ ॥ इत्युक्त्वा मुनिशार्दूलं प्रहृष्टवदनस्तदा ॥ १६ ॥ पुनस्तं परिपप्रच्छ प्राञ्जलिः प्रयतो नृपः । मुनिवर विश्वामित्रसे ऐसा कहकर उस समय प्रसन्नमुख हुए जितेन्द्रिय राजा जनकने पुन: उनसे हाथ जोड़कर पूछा— ॥ १६ १/२ ॥ इमौ कुमारौ भद्रं ते देवतुल्यपराक्रमौ ॥ १७ ॥ गजतुल्यगती वीरौ शार्दूलवृषभोपमौ । पद्मपत्रविशालाक्षौ खड्गतूणीधनुर्धरौ । अश्विनौ इव रूपेण समुपस्थितयौवनौ ॥ १८ ॥ यदृच्छयैव गां प्राप्तौ देवलोकादिवामरौ । कथं पद्भ्यामिह प्राप्तौ किमर्थं कस्य वा मुने ॥ १९ ॥ वरायुधधरौ वीरौ कस्य पुत्रौ महामुने । भूषयंतौ इमं देशं चंद्रसूर्यौ इवांबरम् ॥ २० ॥ परस्परस्य सदृशौ प्रमाणेङ्गितचेष्टितैः । काकपक्षधरौ वीरौ श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ २१ ॥ 'महामुने ! आपका कल्याण हो । देवताके समान पराक्रमी और सुन्दर आयुध धारण करनेवाले ये दोनों वीर राजकुमार जो हाथीके समान मन्दगतिसे चलते हैं, सिंह और साँड़के समान जान पड़ते हैं, प्रफुल्ल कमलदलके समान सुशोभित हैं, तलवार, तरकस और धनुष धारण किये हुए हैं, अपने मनोहर रूपसे अश्विनीकुमारोंको भी लज्जित कर रहे हैं, जिन्होंने अभी-अभी यौवनावस्थामें प्रवेश किया है तथा जो स्वेच्छानुसार देवलोकसे उतरकर पृथ्वीपर आये हुए दो देवताओंके समान जान पड़ते हैं, किसके पुत्र हैं ? और यहाँ कैसे, किसलिये अथवा किस उद्देश्यसे पैदल ही पधारे हैं ? जैसे चन्द्रमा और सूर्य आकाशकी शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार ये अपनी उपस्थितिसे इस देशको विभूषित कर रहे हैं । ये दोनों एकदूसरेसे बहुत मिलते-जुलते हैं । इनके शरीरकी ऊँचाई, संकेत और चेष्टाएँ प्राय: एक-सी हैं । मैं इन दोनों काकपक्षधारी वीरोंका परिचय एवं वृत्तान्त यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ' ॥ १७–२१ ॥ तस्य तद् वचनं श्रुत्वा जनकस्य महात्मनः । न्यवेदयदमेयात्मा पुत्रौ दशरथस्य तौ ॥ २२ ॥ महात्मा जनकका यह प्रश्न सुनकर अमित आत्मबलसे सम्पन्न विश्वामित्रजीने कहा—'राजन् ! ये दोनों महाराज दशरथके पुत्र हैं ॥ २२ ॥ सिद्धाश्रमनिवासं च राक्षसानां वधं तथा । तत्रागमनमव्यग्रं विशालायाश्च दर्शनम् ॥ २३ ॥ अहल्यादर्शनं चैव गौतमेन समागमम् । महाधनुषि जिज्ञासां कर्तुमागमनं तथा ॥ २४ ॥ इसके बाद उन्होंने उन दोनोंके सिद्धाश्रममें निवास, राक्षसोंके वध, बिना किसी घबराहटके मिथिलातक आगमन, विशालापुरीके दर्शन, अहल्याके साक्षात्कार तथा महर्षि गौतमके साथ समागम आदिका विस्तारपूर्वक वर्णन किया । फिर अन्तमें यह भी बताया कि ये आपके यहाँ रखे हुए महान् धनुषके सम्बन्धमें कुछ जाननेकी इच्छासे यहाँतक आये हैं ॥ २३-२४ ॥ एतत् सर्वं महातेजा जनकाय महात्मने । निवेद्य विररामाथ विश्वामित्रो महामुनिः ॥ २५ ॥ महात्मा राजा जनकसे ये सब बातें निवेदन करके महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र चुप हो गये ॥ २५ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे पञ्चाशः सर्गः ॥ ५० ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें पचासौं सर्ग पूरा हुआ ॥ ५० ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |