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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ एकोनपञ्चाशः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] पितृभिर्मेषवृषण संयोगेन इंद्रस्य सवृषणत्वकरणं, श्रीरामेण अहल्यायाः समुद्धारः, अहल्यागौतमाभ्यां श्रीरामस्य सत्कारश्च -
पितृदेवताओंद्वारा इन्द्रको भेड़ेके अण्डकोषसे युक्त करना तथा भगवान् श्रीरामके द्वारा अहल्याका उद्धार एवं उन दोनों दम्पतिके द्वारा इनका सत्कार - अफलस्तु ततः शक्रो देवान् अग्निपुरोगमान् । अब्रवीत् त्रस्तवदनः सिद्धगंधर्वचारणान् ॥ १ ॥ तदनन्तर इन्द्र अण्डकोषसे रहित होकर बहुत डर गये । उनके नेत्रोंमें त्रास छा गया । वे अग्नि आदि देवताओं, सिद्धों, गन्धों और चारणोंसे इस प्रकार बोले— ॥ १ ॥ कुर्वता तपसो विघ्नं गौतमस्य महात्मनः । क्रोधं उत्पाद्य हि मया सुरकार्यं इदं कृतम् ॥ २ ॥ 'देवताओ ! महात्मा गौतमकी तपस्यामें विघ्न डालनेके लिये मैंने उन्हें क्रोध दिलाया है । ऐसा करके मैंने यह देवताओंका कार्य ही सिद्ध किया है ॥ २ ॥ अफलोऽस्मि कृतस्तेन क्रोधात् सा च निराकृता । शापमोक्षेण महता तपोऽस्यापहृतं मया ॥ ३ ॥ 'मुनिने क्रोधपूर्वक भारी शाप देकर मुझे अण्डकोषसे रहित कर दिया और अपनी पन्तीका भी परित्याग कर दिया । इससे मेरे द्वारा उनकी तपस्याका अपहरण हुआ है ॥ ३ ॥ तन्मां सुरवराः सर्वे सर्षिसङ्घाः सचारणाः । सुरकार्यकरं यूयं सफलं कर्तुमर्हथ ॥ ४ ॥ (यदि मैं उनकी तपस्या में विघ्न नहीं डालता तो वे देवताओंका राज्य ही छीन लेते । अत: ऐसा करके) मैंने देवताओंका ही कार्य सिद्ध किया है । इसलिये श्रेष्ठ देवताओ ! तुम सब लोग, ऋषिसमुदाय और चारणगण मिलकर मुझे अण्डकोषसे युक्त करनेका प्रयत्न करो' ॥ ४ ॥ शतक्रतोर्वचः श्रुत्वा देवाः साग्निपुरोगमाः । पितृदेवान् उपेत्याहुः सर्वे सह मरुद्गणैः ॥ ५ ॥ इन्द्रका यह वचन सुनकर मरुद्धणोंसहित अग्नि आदि समस्त देवता कव्यवाहन आदि पितृदेवताओंके पास जाकर बोले— ॥ ५ ॥ अयं मेषः सवृषणः शक्रो ह्यवृषणः कृतः । मेषस्य वृषणौ गृह्य शक्रायाशु प्रयच्छत ॥ ६ ॥ 'पितृगण ! यह आपका भेड़ा अण्डकोषसे युक्त है और इन्द्र अण्डकोषरहित कर दिये गये हैं । अत: इस भेड़ेके दोनों अण्डकोषोंको लेकर आप शीघ्र ही इन्द्रको अर्पित कर दें ॥ ६ ॥ अफलस्तु कृतो मेषः परां तुष्टिं प्रदास्यति । भवतां हर्षणार्थं च ये च दास्यंति मानवाः । अक्षयं हि फलं तेषां यूयं दास्यथ पुष्कलम् ॥ ७ ॥ 'अण्डकोषसे रहित किया हुआ यह भेड़ा इसी स्थानमें आपलोगोंको परम संतोष प्रदान करेगा । अत: जो मनुष्य आपलोगोंकी प्रसन्नताके लिये अण्डकोषरहित भेड़ा दान करेंगे, उन्हें आपलोग उस दानका उत्तम एवं पूर्ण फल प्रदान करेंगे' ॥ ७ ॥ अग्नेस्तु वचनं श्रुत्वा पितृदेवाः समागताः । उत्पाट्य मेषवृषणौ सहस्राक्षे न्यवेशयन् ॥ ८ ॥ अग्निकी यह बात सुनकर पितृदेवताओंने एकत्र हो भेड़ेके अण्डकोषोंको उखाड़कर इन्द्रके शरीरमें उचित स्थानपर जोड़ दिया ॥ ८ ॥ तदाप्रभृति काकुत्स्थ पितृदेवाः समागताः । अफलान् भुञ्जते मेषान् फलैस्तेषामयोजयन् ॥ ९ ॥ ककुत्स्थनन्दन श्रीराम ! तभीसे वहाँ आये हुए समस्त पितृ-देवता अण्डकोषरहित भेड़ोंको ही उपयोगमें लाते हैं और दाताओंको उनके दानजनित फलोंके भागी बनाते हैं ॥ ९ ॥ इंद्रस्तु मेषवृषणः तदाप्रभृति राघव । गौतमस्य प्रभावेन तपसा च महात्मनः ॥ १० ॥ रघुनन्दन ! उसी समयसे महात्मा गौतमके तपस्याजनित प्रभावसे इन्द्रको भेड़ोंके अण्डकोष धारण करने पड़े । ॥ १० ॥ तदागच्छ महातेज आश्रमं पुण्यकर्मणः । तारयैनां महाभागां अहल्यां देवरूपिणीम् ॥ ११ ॥ महातेजस्वी श्रीराम ! अब तुम पुण्यकर्मा महर्षि गौतमके इस आश्रमपर चलो और इन देवरूपिणी महाभागा अहल्याका उद्धार करो ॥ ११ ॥ विश्वामित्रवचः श्रुत्वा राघवः सहलक्ष्मणः । विश्वामित्रं पुरस्कृत्य आश्रमं प्रविवेश ह ॥ १२ ॥ विश्वामित्रजीका यह वचन सुनकर लक्ष्मणसहित श्रीरामने उन महर्षिको आगे करके उस आश्रममें प्रवेश किया । १२ ॥ ददर्श च महाभागां तपसा द्योतितप्रभान् । लोकैरपि समागम्य दुर्निरीक्ष्यां सुरासुरैः ॥ १३ ॥ वहाँ जाकर उन्होंने देखा—महासौभाग्यशालिनी अहल्या अपनी तपस्यासे देदीप्यमान हो रही हैं । इस लोकके मनुष्य तथा सम्पूर्ण देवता और असुर भी वहाँ आकर उन्हें देख नहीं सकते थे ॥ १३ ॥ प्रयत्नान् निर्मितां धात्रा दिव्यां मायामयीमिव । धूमेनाभिपरीतांगीं दीप्तां अग्निशिखां इव ॥ १४ ॥ सतुषारावृतां साभ्रां पूर्णचंद्रप्रभामिव । मध्येऽम्भसो दुराधर्षां दीप्तां सूर्यप्रभामिव ॥ १५ ॥ उनका स्वरूप दिव्य था । विधाताने बड़े प्रयत्नसे उनके अंगोंका निर्माण किया था । वे मायामयी-सी प्रतीत होती थीं । धूमसे घिरी हुई प्रज्वलित अग्निशिखा-सी जान पड़ती थीं । ओले और बादलोंसे ढकी हुई पूर्ण चन्द्रमाकी प्रभा-सी दिखायी देती थीं तथा जलके भीतर उद्भासित होनेवाली सूर्यकी दुर्धर्ष प्रभाके समान दृष्टिगोचर होती थीं ॥ १४-१५ ॥ सा हि गौतमवाक्येन दुर्निरीक्ष्या बभूव ह । त्रयाणामपि लोकानां यावद् रामस्य दर्शनम् । शापस्यांतं उपागम्य तेषां दर्शनमागता ॥ १६ ॥ गौतमके शापवश श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन होनेसे पहले तीनों लोकोंके किसी भी प्राणीके लिये उनका दर्शन होना कठिन था । श्रीरामका दर्शन मिल जानेसे जब उनके शापका अन्त हो गया, तब वे उन सबको दिखायी देने लगीं । ॥ १६ ॥ राघवौ तु तदा तस्याः पादौ जगृहतुर्मुदा । स्मरंती गौतमवचः प्रतिजग्राह सा हि तौ ॥ १७ ॥ पाद्यमर्घ्यं तथाऽऽतिथ्यं चकार सुसमाहिता । प्रतिजग्राह काकुत्स्थो विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ १८ ॥ उस समय श्रीराम और लक्ष्मणने बड़ी प्रसन्नताके साथ अहल्याके दोनों चरणोंका स्पर्श किया । महर्षि गौतमके वचनोंका स्मरण करके अहल्याने बड़ी सावधानीके साथ उन दोनों भाइयोंको आदरणीय अतिथिके रूपमें अपनाया और पाद्य, अर्घ्य आदि अर्पित करके उनका आतिथ्य-सत्कार किया । श्रीरामचन्द्रजीने शास्त्रीय विधिके अनुसार अहल्याका वह आतिथ्य ग्रहण किया ॥ १७-१८ ॥ पुष्पवृष्टिर्महत्यासीद् देवदुंदुभि निःस्वनैः । गंधर्वाप्सरसां चैव महानासीत् समुत्सवः ॥ १९ ॥ उस समय देवताओंकी दुन्दुभि बज उठी । साथ ही आकाशसे फूलोंकी बड़ी भारी वर्षा होने लगी । गन्धर्वो और अप्सराओंद्वारा महान् उत्सव मनाया जाने लगा ॥ १९ ॥ साधु साध्विति देवाः तां अहल्यां समपूजयन् । तपोबलविशुद्धाङ्गीं गौतमस्य वशानुगाम् ॥ २० ॥ महर्षि गौतमके अधीन रहनेवाली अहल्या अपनी तप:शक्तिसे विशुद्ध स्वरूपको प्राप्त हुई—यह देख सम्पूर्ण देवता उन्हें साधुवाद देते हुए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे ॥ २० ॥ गौतमोऽपि महातेजा अहल्यासहितः सुखी । रामं संपूज्य विधिवत् तपस्तेपे महातपाः ॥ २१ ॥ महातेजस्वी, महातपस्वी गौतम भी अहल्याको अपने साथ पाकर सुखी हो गये । उन्होंने श्रीरामकी विधिवत् पूजा करके तपस्या आरम्भ की ॥ २१ ॥ रामोऽपि परमां पूजां गौतमस्य महामुनेः । सकाशाद् विधिवत् प्राप्य जगाम मिथिलां ततः ॥ २२ ॥ महामुनि गौतमकी ओरसे विधिपूर्वक उत्तम पूजा– आदर-सत्कार पाकर श्रीराम भी मुनिवर विश्वामित्रजीके साथ मिथिलापुरीको चले गये ॥ २२ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे एकोनपञ्चाशः सर्गः ॥ ४९ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आपरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें उनचासवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ४९ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |