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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ द्विपञ्चाशः सर्गः ॥


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वसिष्टेन राज्ञो विश्वामित्रस्य सत्काराय मनोवाञ्छितवस्तूनि स्रष्टुं कामधेनुं प्रत्यादेशदानम् -
महर्षि वसिष्ठद्वारा विश्वामित्रका सत्कार और कामधेनुको अभीष्ट वस्तुओंकी सृष्टि करनेका आदेश -


तं दृष्ट्‍वा परमप्रीतो विश्वामित्रो महाबलः ।
प्रणतो विनयाद् वीरो वसिष्ठं जपतां वरम् ॥ १ ॥
'जप करनेवालोंमें श्रेष्ठ वसिष्ठका दर्शन करके महाबली वीर विश्वामित्र बड़े प्रसन्न हुए और विनयपूर्वक उन्होंने उनके चरणोंमें प्रणाम किया ॥ १ ॥

स्वागतं तव चेत्युक्तो वसिष्ठेन महात्मना ।
आसनं चास्य भगवान् वसिष्ठो व्यादिदेश ह ॥ २ ॥
'तब महात्मा वसिष्ठने कहा—'राजन् ! तुम्हारा स्वागत है । ' ऐसा कहकर भगवान् वसिष्ठने उन्हें बैठनेके लिये आसन दिया ॥ २ ॥

उपविष्टाय च तदा विश्वामित्राय धीमते ।
यथान्यायं मुनिवरः फलमूलं उपाहरत् ॥ ३ ॥
'जब बुद्धिमान् विश्वामित्र आसनपर विराजमान हुए, तब मुनिवर वसिष्ठने उन्हें विधिपूर्वक फल-मूलका उपहार अर्पित किया ॥ ३ ॥

प्रतिगृह्य च तां पूजां वसिष्ठाद् राजसत्तमः ।
तपोऽग्निहोत्रशिष्येषु कुशलं पर्यपृच्छत ॥ ४ ॥
विश्वामित्रो महातेजा वनस्पतिगणे तदा ।
सर्वत्र कुशलं प्राह वसिष्ठो राजसत्तमम् ॥ ५ ॥
'वसिष्ठजीसे वह आतिथ्य-सत्कार ग्रहण करके राजशिरोमणि महातेजस्वी विश्वामित्रने उनके तप, अग्निहोत्र, शिष्यवर्ग और लता-वृक्ष आदिका कुशल-समाचार पूछा । फिर वसिष्ठजीने उन नृपश्रेष्ठसे सबके सकुशल होनेकी बात बतायी ॥ ४-५ ॥

सुखोपविष्टं राजानं विश्वामित्रं महातपाः ।
पप्रच्छ जपतां श्रेष्ठो वसिष्ठो ब्रह्मणः सुतः ॥ ६ ॥
'फिर जप करनेवालोंमें श्रेष्ठ ब्रह्मकुमार महातपस्वी वसिष्ठने वहाँ सुखपूर्वक बैठे हुए राजा विश्वामित्रसे इस प्रकार पूछा— ॥ ६ ॥

कच्चित्ते कुशलं राजन् कच्चिद् धर्मेण रञ्जयन् ।
प्रजाः पालयसे वीर राजवृत्तेन धार्मिक ॥ ७ ॥
'राजन् ! तुम सकुशल तो हो न ? धर्मात्मा नरेश ! क्या तुम धर्मपूर्वक प्रजाको प्रसन्न रखते हुए राजोचित रीतिनीतिसे प्रजावर्गका पालन करते हो ? ॥ ७ ॥

कच्चित्ते संभृता भृत्याः कच्चित् तिष्ठंति शासने ।
कच्चित्ते विजिताः सर्वे रिपवो रिपुसूदन ॥ ८ ॥
'शत्रुसूदन ! क्या तुमने अपने भृत्योंका अच्छी तरह भरण-पोषण किया है ? क्या वे तुम्हारी आज्ञाके अधीन रहते हैं ? क्या तुमने समस्त शत्रुओंपर विजय पा ली है ? ॥ ८ ॥

कच्चिद् बलेषु कोशेषु मित्रेषु च परंतप ।
कुशलं ते नरव्याघ्र पुत्रपौत्रे तवानघ ॥ ९ ॥
'शत्रुओंको संताप देनेवाले पुरुषसिंह निष्पाप नरेश ! क्या तुम्हारी सेना, कोश, मित्रवर्ग तथा पुत्र-पौत्र आदि सब सकुशल हैं ? ॥ ९ ॥

सर्वत्र कुशलं राजा वसिष्ठं प्रत्युदाहरत् ।
विश्वामित्रो महातेजा वसिष्ठं विनयान्वितम् ॥ १० ॥
'तब महातेजस्वी राजा विश्वामित्रने विनयशील महर्षि वसिष्ठको उत्तर दिया-'हाँ भगवन् ! मेरे यहाँ सर्वत्र कुशल है ? ॥ १० ॥

कृत्वा तौ सुचिरं कालं धर्मिष्ठौ ताः कथास्तदा ।
मुदा परमया युक्तौ प्रीयेतां तौ परस्परम् ॥ ११ ॥
'तत्पश्चात् वे दोनों धर्मात्मा पुरुष बड़ी प्रसन्नताके साथ बहुत देरतक परस्पर वार्तालाप करते रहे । उस समय एकका दूसरेके साथ बड़ा प्रेम हो गया ॥ ११ ॥

ततो वसिष्ठो भगवान् कथांते रघुनंदन ।
विश्वामित्रमिदं वाक्यं उवाच प्रहसन्निव ॥ १२ ॥
"रघुनन्दन ! बातचीत करनेके पश्चात् भगवान् वसिष्ठने विश्वामित्रसे हँसते हुए-से इस प्रकार कहा- ॥ १२ ॥

आतिथ्यं कर्तुमिच्छामि बलस्यास्य महाबल ।
तव चैवाप्रमेयस्य यथार्हं संप्रतीच्छ मे ॥ १३ ॥
'महाबली नरेश ! तुम्हारा प्रभाव असीम है । मैं तुम्हारा और तुम्हारी इस सेनाका यथायोग्य आतिथ्य-सत्कार करना चाहता हूँ । तुम मेरे इस अनुरोधको स्वीकार करो ॥ १३ ॥

सत्क्रियां हि भवानेतां प्रतीच्छतु मया कृताम् ।
राजन् त्वं अतिथिश्रेष्ठः पूजनीयः प्रयत्‍नतः ॥ १४ ॥
'राजन् ! तुम अतिथियोंमें श्रेष्ठ हो, इसलिये यन्तपूर्वक तुम्हारा सत्कार करना मेरा कर्तव्य है । अत: मेरे द्वारा किये गये इस सत्कारको तुम ग्रहण करो' ॥ १४ ॥

एवमुक्तो वसिष्ठेन विश्वामित्रो महामतिः ।
कृतमित्यब्रवीद् राजा प्रियवाक्येन मे त्वया ॥ १५ ॥
'वसिष्ठके ऐसा कहनेपर महाबुद्धिमान् राजा विश्वामित्रने कहा—'मुने ! आपके सत्कारपूर्ण वचनोंसे ही मेरा पूर्ण सत्कार हो गया ॥ १५ ॥

फलमूलेन भगवन् विद्यते यत् तवाश्रमे ।
पाद्येनाचमनीयेन भगवद्दर्शनेन च ॥ १६ ॥
"भगवन् ! आपके आश्रमपर जो विद्यमान हैं, उन फल-मूल, पाद्य और आचमनीय आदि वस्तुओंसे मेरा भलीभाँति आदर-सत्कार हुआ है । सबसे बढ़कर जो आपका दर्शन हुआ, इसीसे मेरी पूजा हो गयी ॥ १६ ॥

सर्वथा च महाप्राज्ञ पूजार्हेण सुपूजितः ।
नमस्तेऽस्तु गमिष्यामि मैत्रेणेक्षस्व चक्षुषा ॥ १७ ॥
महाज्ञानी महर्षे ! आप सर्वथा मेरे पूजनीय हैं तो भी आपने मेरा भलीभाँति पूजन किया । आपको नमस्कार है । अब मैं यहाँसे जाऊँगा । आप मैत्रीपूर्ण दृष्टिसे मेरी ओर देखिये ॥ १७ ॥

एवं ब्रुवंतं राजानं वसिष्ठः पुनरेव हि ।
न्यमंत्रयत धर्मात्मा पुनः पुनः उदारधीः ॥ १८ ॥
ऐसा कहते हुए राजा विश्वामित्रसे उदारचेता धर्मात्मा वसिष्ठने निमन्त्रण स्वीकार करनेके लिये बारम्बार आग्रह किया ॥ १८ ॥

बाढमित्येव गाधेयो वसिष्ठं प्रत्युवाच ह ।
यथाप्रियं भगवतः तथास्तु मुनिपुङ्‌गवः ॥ १९ ॥
तब गाधिनन्दन विश्वामित्रने उन्हें उत्तर देते हुए कहा—'बहुत अच्छा । मुझे आपकी आज्ञा स्वीकार है । मुनिप्रवर ! आप मेरे पूज्य हैं । आपकी जैसी रुचि हो— आपको जो प्रिय लगे, वही हो' ॥ १९ ॥

एवमुक्तस्तथा तेन वसिष्ठो जपतां वरः ।
आजुहाव ततः प्रीतः कल्माषीं धूतकल्मषाम् ॥ २० ॥
'राजाके ऐसा कहनेपर जप करनेवालोंमें श्रेष्ठ मुनिवर वसिष्ठ बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने अपनी उस चितकबरी होम-धेनुको बुलाया, जिसके पाप (अथवा मैल) धुल गये थे(वह कामधेनु थी) ॥ २० ॥

एह्येहि शबले क्षिप्रं श्रृणु चापि वचो मम ।
सबलस्यास्य राजर्षेः कर्तुं व्यवसितोऽस्म्यहम् ।
भोजनेन महार्हेण सत्कारं संविधत्स्व मे ॥ २१ ॥
(उसे बुलाकर ऋषिने कहा-) शबले ! शीघ्र आओ, आओ और मेरी यह बात सुनो—मैंने सेनासहित इन राजर्षिका महाराजाओंके योग्य उत्तम भोजन आदिके द्वारा आतिथ्य-सत्कार करनेका निश्चय किया है । तुम मेरे इस मनोरथको सफल करो ॥ २१ ॥

यस्य यस्य यथाकामं षड्‌रसेष्वभिपूजितम् ।
तत्सर्वं कामधुक् दिव्ये अभिवर्ष कृते मम ॥ २२ ॥
'षड्रस भोजनोंमेंसे जिसको जो-जो पसंद हो, उसके लिये वह सब प्रस्तुत कर दो । दिव्य कामधेनो ! आज मेरे कहनेसे इन अतिथियोंके लिये अभीष्ट वस्तुओंकी वर्षा करो ॥ २२ ॥

रसेनान्नेन पानेन लेह्यचोष्येण संयुतम् ।
अन्नानां निचयं सर्वं सृजस्व शबले त्वर ॥ २३ ॥
'शबले ! सरस पदार्थ, अन्न, पान, लेह्य (चटनी आदि) और चोष्य (चूसनेकी वस्तु) से युक्त भाँतिभाँ तिके अन्नोंकी ढेरी लगा दो । सभी आवश्यक वस्तुओंकी सृष्टि कर दो । शीघ्रता करो विलम्ब न होने पावे ॥ २३ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे द्विपञ्चाशः सर्गः ॥ ५२ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आपरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें बावनवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ५२ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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