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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ त्रिपञ्चाशः सर्गः ॥


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कामधेनुसाहाय्येन उत्तमान्नपानतस्तृप्तेन ससैन्येन विश्वामित्रेण वसिष्ठं प्रति कामधेनोरेव याचनं, वसिष्ठेन तु तद् याञ्चाया अनङ्‌गीकरणम् -
कामधेनुकी सहायतासे उत्तम अन्न-पानद्वारा सेनासहित तृप्त हुए विश्वामित्रका वसिष्ठसे उनकी कामधेनुको माँगना और उनका देनेसे अस्वीकार करना -


एवमुक्ता वसिष्ठेन शबला शत्रुसूदन ।
विदधे कामधुक् कामान् यस्य यस्येप्सितं यथा ॥ १ ॥
शत्रुसूदन ! महर्षि व
सिष्ठके ऐसा कहनेपर चितकबरे रंगकी उस कामधेनुने जिसकी जैसी इच्छा थी, उसके लिये वैसी ही सामग्री जुटा दी ॥ १ ॥

इक्षून् मधूंस्तथा लाजान् मैरेयांश्च वरासवान् ।
पानानि च महार्हाणि भक्ष्यांश्चोच्चावचानपि ॥ २ ॥
'ईख, मधु, लावा, मैरेय, श्रेष्ठ आसव, पानक रस आदि नाना प्रकारके बहुमूल्य भक्ष्य-पदार्थ प्रस्तुत कर दिये ॥ २ ॥

उष्णाढ्यस्यौदनस्यात्र राशयः पर्वतोपमाः ।
मृष्टान्यन्नानि सूपांश्च दधिकुल्यास्तथैव च ॥ ३ ॥
'गरम-गरम भातके पर्वतके सदृश ढेर लग गये । मिष्टान्न (खीर) और दाल भी तैयार हो गयी । दूध, दही और घीकी तो नहरें बह चलीं ॥ ३ ॥

नानास्वादुरसानां च खांडवानां तथैव च ।
भोजनानि सुपूर्णानि गौडानि च सहस्रशः ॥ ४ ॥
'भाँति-भाँतिके सुस्वादु रस, खाण्डव तथा नाना प्रकारके भोजनोंसे भरी हुई चाँदीकी सहस्रों थालियाँ सज गयीं ॥ ४ ॥

सर्वमासीत् सुसंतुष्टं हृष्टपुष्टजनायुतम् ।
विश्वामित्रबलं राम वसिष्ठेन् सुतर्पितम् ॥ ५ ॥
'श्रीराम ! महर्षि वसिष्ठने विश्वामित्रजीकी सारी सेनाके लोगोंको भलीभाँति तृप्त किया । उस सेनामें बहुत-से हृष्ट-पुष्ट सैनिक थे । उन सबको वह दिव्य भोजन पाकर बड़ा संतोष हुआ ॥ ५ ॥

विश्वामित्रो हि राजर्षिः हृष्टपुष्टस्तदाभवत् ।
सांतःपुरवरो राजा सब्राह्मणपुरोहितः ॥ ६ ॥
'राजर्षि विश्वामित्र भी उस समय अन्त:पुरकी रानियों, ब्राह्मणों और पुरोहितोंके साथ बहुत ही हृष्ट-पुष्ट हो गये ॥ ६ ॥

सामात्यो मंत्रिसहितः सभृत्यः पूजितस्तदा ।
युक्तः परमहर्षेण वसिष्ठं इदमब्रवीत् ॥ ७ ॥
अमात्य, मन्त्री और भृत्योंसहित पूजित हो वे बहुत प्रसन्न हुए और वसिष्ठजीसे इस प्रकार बोले- ॥ ७ ॥

पूजितोऽहं त्वया ब्रह्मन् पूजार्हेण सुसत्कृतः ।
श्रूयतां अभिधास्यामि वाक्यं वाक्यविशारद ॥ ८ ॥
'ब्रह्मन् ! आप स्वयं मेरे पूजनीय हैं तो भी आपने मेरा पूजन किया, भलीभाँति स्वागत-सत्कार किया । बातचीत करने में कुशल महर्षे ! अब मैं एक बात कहता हूँ, उसे सुनिये ॥ ८ ॥

गवां शतसहस्रेण दीयतां शबला मम ।
रत्‍नं हि भगवन्नेतद् रत्‍नहारी च पार्थिवः ॥ ९ ॥
तस्मान्मे शबलां देहि ममैषा धर्मतो द्विज ।
'भगवन् ! आप मुझसे एक लाख गौएँ लेकर यह चितकबरी गाय मुझे दे दीजिये; क्योंकि यह गौ रन्तरूप है और रन्त लेनेका अधिकारी राजा होता है । ब्रह्मन् ! मेरे इस कथनपर ध्यान देकर मुझे यह शबला गौ दे दीजिये; क्योंकि यह धर्मत: मेरी ही वस्तु है' ॥ ९ १/२ ॥

एवमुक्तस्तु भगवान् वसिष्ठो मुनिपुङ्‌गवः ॥ १० ॥
विश्वामित्रेण धर्मात्मा प्रत्युवाच महीपतिम् ।
"विश्वामित्रके ऐसा कहनेपर धर्मात्मा मुनिवर भगवान् वसिष्ठ राजाको उत्तर देते हुए बोले— ॥ १० १/२ ॥

नाहं शतसहस्रेण नापि कोटिशतैर्गवाम् ॥ ११ ॥
राजन् दास्यामि शबलां राशिभी रजतस्य वा ।
न परित्यागमर्हेयं मत्सकाशाद् अरिंदम ॥ १२ ॥
'शत्रओंका दमन करनेवाले नरेश्वर ! मैं एक लाख या सौ करोड़ अथवा चाँदीके ढेर लेकर भी बदलेमें इस शबला गौको नहीं दूंगा । यह मेरे पाससे अलग होने योग्य नहीं है ॥ ११-१२ ॥

शाश्वती शबला मह्यं कीर्तिरात्मवतो यथा ।
अस्यां हव्यं च कव्यं च प्राणयात्रा तथैव च ॥ १३ ॥
'जैसे मनस्वी पुरुषकी अक्षय कीर्ति कभी उससे अलग नहीं रह सकती, उसी प्रकार यह सदा मेरे साथ सम्बन्ध रखनेवाली शबला गौ मुझसे पृथक् नहीं रह सकती । मेरा हव्य-कव्य और जीवन निर्वाह इसीपर निर्भर है ॥ १३ ॥

आयत्तमग्निहोत्रं च बलिर्होमस्तथैव च ।
स्वाहाकार वषट्कारौ विद्याश्च विविधास्तथा ॥ १४ ॥
'मेरे अग्निहोत्र, बलि, होम, स्वाहा, वषट्कार और भाँति-भौतिकी विद्याएँ इस कामधेनुके ही अधीन हैं ॥ १४ ॥

आयत्तमत्र राजर्षे सर्वमेतन्न संशयः ।
सर्वस्वमेतत् सत्येन मम तुष्टिकरी तथा ॥ १५ ॥
कारणैर्बहुभी राजन् न दास्ये शबलां तव ।
'राजर्षे ! मेरा यह सब कुछ इस गौके ही अधीन है, इसमें संशय नहीं है । मैं सच कहता हूँ यह गौ ही मेरा सर्वस्व है और यही मुझे सब प्रकारसे संतुष्ट करनेवाली है । राजन् ! बहुत-से ऐसे कारण हैं, जिनसे बाध्य होकर मैं यह शबला गौ आपको नहीं दे सकता' ॥ १५ १/२ ॥

वसिष्ठेनैवमुक्तस्तु विश्वामित्रोऽब्रवीत् तदा ॥ १६ ॥
संरब्धतरमत्यर्थं वाक्यं वाक्यविशारदः ।
'वसिष्ठजीके ऐसा कहनेपर बोलनेमें कुशल विश्वामित्र अत्यन्त क्रोधपूर्वक इस प्रकार बोले- ॥ १६ १/२ ॥

हैरण्यकक्ष्यग्रैवेयान् सुवर्णाङ्‍कुशभूषितान् ॥ १७ ॥
ददामि कुञ्जराणां ते सहस्राणि चतुर्दश ।
'मुने ! मैं आपको चौदह हजार ऐसे हाथी दे रहा हूँ, जिनके कसनेवाले रस्से, गलेके आभूषण और अंकुश भी सोनेके बने होंगे और उन सबसे वे हाथी विभूषित होंगे ॥ १७ १/२ ॥

हैरण्यानां रथानां ते श्वेताश्वानां चतुर्युजाम् ॥ १८ ॥
ददामि ते शतान्यष्टौ किङ्‍किणीकविभूषितान् ।
हयानां देशजातानां कुलजानां महौजसाम् ।
सहस्रमेकं दश च ददामि तव सुव्रत ॥ १९ ॥
नानावर्णविभक्तानां वयःस्थानां तथैव च ।
ददाम्येकां गवां कोटिं शबला दीयतां मम ॥ २० ॥
'उत्तम व्रतका पालन करनेवाले मुनीश्वर ! इनके सिवा मैं आठ सौ सुवर्णमय रथ प्रदान करूँगा; जिनमें शोभाके लिये सोनेके धुंघुरू लगे होंगे और हर एक रथमें चारचार सफेद रंगके घोड़े जुते हुए होंगे तथा अच्छी जाति और उत्तम देशमें उत्पन्न महातेजस्वी ग्यारह हजार घोड़े भी आपकी सेवामें अर्पित करूँगा । इतना ही नहीं, नाना प्रकारके रंगवाली नयी अवस्थाकी एक करोड़ गौएँ भी दूंगा, परंतु यह शबला गौ मुझे दे दीजिये ॥ १८-२० ॥

यावदिच्छसि रत्‍नानि हिरण्यं वा द्विजोत्तम ।
तावद् ददामि तत्सर्वं दीयतां शबला मम ॥ २१ ॥
'द्विजश्रेष्ठ ! इनके अतिरिक्त भी आप जितने रन्त या सुवर्ण लेना चाहें, वह सब आपको देनेके लिये मैं तैयार हूँ; किंतु यह चितकबरी गाय मुझे दे दीजिये ॥ २१ ॥

एवमुक्तस्तु भगवान् विश्वामित्रेण धीमता ।
न दास्यामीति शबलां प्राह राजन् कथञ्चन ॥ २२ ॥
'बुद्धिमान् विश्वामित्रके ऐसा कहनेपर भगवान् वसिष्ठ बोले—'राजन् ! मैं यह चितकबरी गाय तुम्हें किसी तरह भी नहीं दूंगा ॥ २२ ॥

एतदेव हि मे रत्‍नं एतद् एव हि मे धनम् ।
एतदेव हि सर्वस्वं एतदेव हि जीवितम् ॥ २३ ॥
'यही मेरा रत्‍न है, यही मेरा धन है, यही मेरा सर्वस्व है और यही मेरा जीवन है ॥ २३ ॥

दर्शश्च पूर्णमासश्च यज्ञाश्चैवाप्तदक्षिणाः ।
एतदेव हि मे राजन् विविधाश्च क्रियास्तथा ॥ २४ ॥
'राजन् ! मेरे दर्श, पौर्णमास, प्रचुर दक्षिणावाले यज्ञ तथा भाँति-भाँतिके पुण्यकर्म यह गौ ही है । इसीपर ही मेरा सब कुछ निर्भर है । । २४ ॥

अतोमूलाः क्रियाः सर्वा मम राजन् न संशयः ।
बहुना किं प्रलापेन न दास्ये कामदोहिनीम् ॥ २५ ॥
'नरेश्वर ! मेरे सारे शुभ कर्मोंका मूल यही है, इसमें संशय नहीं है । बहुत व्यर्थ बात करनेसे क्या लाभ । मैं इस कामधेनुको कदापि नहीं दूंगा' ॥ २५ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे त्रिपञ्चाशः सर्गः ॥ ५३ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें तिरपनवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ५३ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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