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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ पञ्चपञ्चाशः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] स्वीये पुत्रशतेऽखिले सैन्ये च विनष्टे विश्वामित्रेण तपः कृत्वा शिवं संतोष्य ततो दिव्यास्त्राणि उपलभ्य तेषां वसिष्ठाश्रमे प्रयोगकरणं तदस्त्राणि वारयितुं ब्रह्मदण्डमुद्यम्य वसिष्ठस्य विश्वामित्रसमक्षे अवस्थानम् -
अपने सौ पुत्रों और सारी सेनाके नष्ट हो जानेपर विश्वामित्रका तपस्या करके महादेवजीसे दिव्यास्त्र पाना तथा उनका वसिष्ठके आश्रमपर प्रयोग करना एवं वसिष्ठजीका ब्रह्मदण्ड लेकर उनके सामने खड़ा होना - ततस्तान् आकुलान् दृष्ट्वा विश्वामित्रास्त्रमोहितान् । वसिष्ठश्चोदयामास कामधुक् सृज योगतः ॥ १ ॥ "विश्वामित्रके अस्त्रोंसे घायल होकर उन्हें व्याकुल हुआ देख वसिष्ठजीने फिर आज्ञा दी—'कामधेनो ! अब योगबलसे दूसरे सैनिकोंकी सृष्टि करो' ॥ १ ॥ तस्या हुंकारतो जाताः कांबोजा रविसन्निभाः । ऊधसश्चाथ संभूता बर्बरा शस्त्रपाणयः ॥ २ ॥ 'तब उस गौने फिर हुंकार किया । उसके हुंकारसे सूर्यके समान तेजस्वी काम्बोज उत्पन्न हुए । थनसे शस्त्रधारी बर्बर प्रकट हुए ॥ २ ॥ योनिदेशाच्च यवनाः शकृद्देशाच्छका स्मृताः । रोमकूपेषु म्लेच्छाश्च हारीताः सकिरातकाः ॥ ३ ॥ 'योनिदेशसे यवन और शकृद्देश (गोबरके स्थान) से शक उत्पन्न हुए । रोमकूपोंसे म्लेच्छ, हारीत और किरात प्रकट हुए ॥ ३ ॥ तैस्तन् निषूदितं सर्वं विश्वामित्रस्य तत्क्षणात् । सपदातिगजं साश्वं सरथं रघुनंदन ॥ ४ ॥ 'रघुनन्दन ! उन सब वीरोंने पैदल, हाथी, घोड़े और रथसहित विश्वामित्रकी सारी सेनाका तत्काल संहार कर डाला ॥ ४ ॥ दृष्ट्वा निषूदितं सैन्यं वसिष्ठेन महात्मना । विश्वामित्रसुतानां तु शतं नानाविधायुधम् ॥ ५ ॥ अभ्यधावत् सुसंक्रुद्धं वसिष्ठं जपतां वरम् । हुङ्कारेणैव तान् सर्वान् निर्ददाह महान् ऋषिः ॥ ६ ॥ 'महात्मा वसिष्ठद्वारा अपनी सेनाका संहार हुआ देख विश्वामित्रके सौ पुत्र अत्यन्त क्रोधमें भर गये और नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लेकर जप करनेवालोंमें श्रेष्ठ वसिष्ठमुनिपर टूट पड़े । तब उन महर्षिने हुंकारमात्रसे उन सबको जलाकर भस्म कर डाला ॥ ५-६ ॥ ते साश्वरथपादाता वसिष्ठेन महात्मना । भस्मीकृता मुहूर्तेन विश्वामित्रसुतास्तथा ॥ ७ ॥ 'महात्मा वसिष्ठद्वारा विश्वामित्रके वे सभी पुत्र दो ही घड़ीमें घोड़े, रथ और पैदल सैनिकोंसहित जलाकर भस्म कर डाले गये ॥ ७ ॥ दृष्ट्वा विनाशितान् सर्वान् बलं च सुमहायशाः । सव्रीडं चिंतयाविष्टो विश्वामित्रोऽभ्वत् तदा ॥ ८ ॥ 'अपने समस्त पुत्रों तथा सारी सेनाका विनाश हुआ देख महायशस्वी विश्वामित्र लज्जित हो बड़ी चिन्तामें पड़ गये ॥ ८ ॥ समुद्र इव निर्वेगो भग्नदंष्ट्र इवोरगः । उपरक्त इवादित्यः सद्यो निष्प्रभतां गतः ॥ ९ ॥ "समुद्रके समान उनका सारा वेग शान्त हो गया । जिसके दाँत तोड़ लिये गये हों उस सर्पके समान तथा राहुग्रस्त सूर्यकी भाँति वे तत्काल ही निस्तेज हो गये । ॥ ९ ॥ हतपुत्रबलो दीनो लूनपक्ष इव द्विजः । हतसर्वबलोत्साहो निर्वेदं समपद्यत ॥ १० ॥ 'पुत्र और सेना दोनोंके मारे जानेसे वे पंख कटे हुए पक्षीके समान दीन हो गये । उनका सारा बल और उत्साह नष्ट हो गया । वे मन-ही-मन बहुत खिन्न हो उठे ॥ १० ॥ स पुत्रमेकं राज्याय पालयेति नियुज्य च । पृथिवीं क्षत्रधर्मेण वनमेवाभ्यपद्यत ॥ ११ ॥ 'उनके एक ही पुत्र बचा था, उसको उन्होंने राजाके पदपर अभिषिक्त करके राज्यकी रक्षाके लिये नियुक्त कर दिया और क्षत्रिय-धर्मके अनुसार पृथ्वीके पालनकी आज्ञा देकर वे वनमें चले गये ॥ ११ ॥ स गत्वा हिमवत्पार्श्वं किन्नरोरगसेवितम् । महादेवप्रसादार्थं तपस्तेपे महातपाः ॥ १२ ॥ 'हिमालयके पार्श्वभागमें, जो किन्नरों और नागोंसे सेवित प्रदेश है, वहाँ जाकर महादेवजीकी प्रसन्नताके लिये महान् तपस्याका आश्रय ले वे तपमें ही संलग्न हो गये ॥ १२ ॥ केनचित् त्वथ कालेन देवेशो वृषभध्वजः । दर्शयामास वरदो विश्वामित्रं महामुनिम् ॥ १३ ॥ 'कुछ कालके पश्चात् वरदायक देवेश्वर भगवान् वृषभध्वज (शिव) ने महामुनि विश्वामित्रको दर्शन दिया और कहा— ॥ १३ ॥ किमर्थं तप्यसे राजन् ब्रूहि यत् ते विवक्षितम् । वरदोऽस्मि वरो यस्ते काङ्क्षितः सोऽभिधीयताम् ॥ १४ ॥ "राजन् ! किसलिये तप करते हो ? बताओ क्या कहना चाहते हो ? मैं तुम्हें वर देनेके लिये आया हूँ । तुम्हें जो वर पाना अभीष्ट हो, उसे कहो ॥ १४ ॥ एवमुक्तस्तु देवेन विश्वामित्रो महातपाः । प्रणिपत्य महादेवं विश्वामित्रोऽब्रवीदिदम् ॥ १५ ॥ 'महादेवजीके ऐसा कहनेपर महातपस्वी विश्वामित्रने उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार कहा ॥ १५ ॥ यदि तुष्टो महादेव धनुर्वेदो ममानघ । साङ्गोपाङ्गोपनिषदः सरहस्यः प्रदीयताम् ॥ १६ ॥ "निष्पाप महादेव ! यदि आप संतुष्ट हों तो अंग, उपांग, उपनिषद् और रहस्योंसहित धनुर्वेद मुझे प्रदान कीजिये ॥ १६ ॥ यानि देवेषु चास्त्राणि दानवेषु महर्षिषु । गंधर्वयक्षरक्षःसु प्रतिभांतु ममानघ ॥ १७ ॥ तव प्रसादाद् भवतु देवदेव ममेप्सितम् । "अनघ ! देवताओं, दानवों, महर्षियों, गन्धवों, यक्षों तथा राक्षसोंके पास जो-जो अस्त्र हों, वे सब आपकी कृपासे मेरे हृदयमें स्फुरित हो जायें । देवदेव ! यही मेरा मनोरथ है, जो मुझे प्राप्त होना चाहिये ॥ १७ १/२ ॥ एवमस्त्विति देवेशो वाक्यमुक्त्वा गतस्तदा ॥ १८ ॥ प्राप्य चास्त्राणि देवेशाद् विश्वामित्रो महाबलः । दर्पेण महता युक्तो दर्पपूर्णोऽभवत् तदा ॥ १९ ॥ 'तब 'एवमस्तु' कहकर देवेश्वर भगवान् शङ्कर वहाँसे चले गये । देवेश्वर महादेवसे वे अस्त्र पाकर महाबली विश्वामित्रको बड़ा घमंड हो गया । वे अभिमानमें भर गये ॥ १८-१९ ॥ विवर्धमानो वीर्येण समुद्र इव पर्वणि । हतं मेने तदा राम वसिष्ठं ऋषिसत्तमम् ॥ २० ॥ 'जैसे पूर्णिमाको समुद्र बढ़ने लगता है, उसी प्रकार वे पराक्रमद्वारा अपनेको बहुत बढ़ा-चढ़ा मानने लगे । श्रीराम ! उन्होंने मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठको उस समय मरा हुआ ही समझा ॥ २० ॥ ततो गत्वाऽऽश्रमपदं मुमोचास्त्राणि पार्थिवः । यैस्तत् तपोवनं नाम निर्दग्धं चास्त्रतेजसा ॥ २१ ॥ फिर तो वे पृथ्वीपति विश्वामित्र वसिष्ठके आश्रमपर जाकर भाँति-भाँतिके अस्त्रोंका प्रयोग करने लगे । जिनके तेजसे वह सारा तपोवन दग्ध होने लगा ॥ २१ ॥ उदीर्यमाणमस्त्रं तद् विश्वामित्रस्य धीमतः । दृष्ट्वा विप्रद्रुता भीता मुनयः शतशो दिशः ॥ २२ ॥ 'बुद्धिमान् विश्वामित्रके उस बढ़ते हुए अस्त्रतेजको देखकर वहाँ रहनेवाले सैकड़ों मुनि भयभीत हो सम्पूर्ण दिशाओंमें भाग चले ॥ २२ ॥ वसिष्ठस्य च ये शिष्या ते च वै मृगपक्षिणः । विद्रवंति भयाद् भीता नानादिग्भ्यः सहस्रशः ॥ २३ ॥ 'वसिष्ठजीके जो शिष्य थे, जो वहाँके पशु और पक्षी थे, वे सहस्रों प्राणी भयभीत हो नाना दिशाओंकी ओर भाग गये ॥ २३ ॥ वसिष्ठस्याश्रमपदं शून्यं आसीन्महात्मनः । मुहूर्तमिव निःशब्दं आसीद् ईरिणसंनिभम् ॥ २४ ॥ 'महात्मा वसिष्ठका वह आश्रम सूना हो गया । दो ही घड़ीमें ऊसर भूमिके समान उस स्थानपर सन्नाटा छा गया । २४ ॥ वदतो वै वसिष्ठस्य मा भैः इति मुहुर्मुहुः । नाशयाम्यद्य गाधेयं नीहारमिव भास्करः ॥ २५ ॥ . 'वसिष्ठजी बार-बार कहने लगे—'डरो मत, मैं अभी इस गाधिपुत्रको नष्ट किये देता हूँ । ठीक उसी तरह, जैसे सूर्य कुहासेको मिटा देता है' ॥ २५ ॥ एवमुक्त्वा महातेजा वसिष्ठो जपतां वरः । विश्वामित्रं तदा वाक्यं सरोषं इदमब्रवीत् ॥ २६ ॥ 'जपनेवालोंमें श्रेष्ठ महातेजस्वी वसिष्ठ ऐसा कहकर उस समय विश्वामित्रजीसे रोषपूर्वक बोले- ॥ २६ ॥ आश्रमं चिरसंवृद्धं यद् विनाशितवानसि । दुराचारोऽसि तन्मूढः तस्मात् त्वं न भविष्यसि ॥ २७ ॥ "अरे ! तूने चिरकालसे पाले-पोसे तथा हरे-भरे किये हुए इस आश्रमको नष्ट कर दिया उजाड़ डाला, इसलिये तू दुराचारी और विवेकशून्य है और इस पापके कारण तू कुशलसे नहीं रह सकता' ॥ २७ ॥ इत्युक्त्वा परमक्रुद्धो दण्डमुद्यम्य सत्वरः । विधूम इव कालाग्निः यमदण्डं इवापरम् ॥ २८ ॥ 'ऐसा कहकर वे अत्यन्त क्रुरुद्ध हो धूमरहित कालानिके समान उद्दीप्त हो उठे और दूसरे यमदण्डके समान भयंकर डंडा हाथमें उठाकर तुरंत उनका सामना करनेके लिये तैयार हो गये ॥ २८ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे पञ्चपञ्चाशः सर्गः ॥ ५५ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें पचपनवौं सर्ग पूरा हुआ ॥ ५५ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |