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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ चतुःपञ्चाशः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] विश्वामित्रेण बलाद् वसिष्ठधेनोः अपहरणं ततो भृशदुःखितया शबलया वसिष्ठस्यात्राननुमतिं ज्ञात्वा दताज्ञया शकयवनादीन् सृष्ट्वा तैर्विश्वामित्रसैन्यस्य संहरणम् -
विश्वामित्रका वसिष्ठजीकी गौको बलपूर्वक ले जाना, गौका दु:खी होकर वसिष्ठजीसे इसका कारण पूछना और उनकी आज्ञासे शक, यवन, पलव आदि वीरोंकी सृष्टि करके उनके द्वारा विश्वामित्रजीकी सेनाका संहार करना - कामधेनुं वसिष्ठोऽपि यदा न त्यजते मुनिः । तदास्य शबलां राम विश्वामित्रोऽन्वकर्षत ॥ १ ॥ 'श्रीराम ! जब वसिष्ठ मुनि किसी तरह भी उस कामधेनु गौको देनेके लिये तैयार न हुए, तब राजा विश्वामित्र उस चितकबरे रंगकी धेनुको बलपूर्वक घसीट ले चले ॥ १ ॥ नीयमाना तु शबला राम राज्ञा महात्मना । दुःखिता चिंतयामास रुदंती शोककर्शिता ॥ २ ॥ 'रघुनन्दन ! महामनस्वी राजा विश्वामित्रके द्वारा इस प्रकार ले जायी जाती हुई वह गौ शोकाकुल हो मन-हीमन रो पड़ी और अत्यन्त दुःखित हो विचार करने लगी ॥ २ ॥ परित्यक्ता वसिष्ठेन किमहं सुमहात्मना । याहं राजभृतैर्दीना ह्रियेय भृशदुःखिता ॥ ३ ॥ 'अहो ! क्या महात्मा वसिष्ठने मुझे त्याग दिया है, जो ये राजाके सिपाही मुझ दीन और अत्यन्त दुःखिया गौको इस तरह बलपूर्वक लिये जा रहे हैं ? ॥ ३ ॥ किं मयापकृतं तस्य महर्षेर्भावितात्मनः । यन्मामनागसं दृष्ट्वा भक्तां त्यजति धार्मिकः ॥ ४ ॥ 'पवित्र अन्त:करणवाले उन महर्षिका मैंने क्या अपराध किया है कि वे धर्मात्मा मुनि मुझे निरपराध और अपना भक्त जानकर भी त्याग रहे हैं ? ॥ ४ ॥ इति संचिंतयित्वा तु निःश्वस्य च पुनः पुनः । जगाम वेगेन तदा वसिष्ठं परमौजसम् ॥ ५ ॥ निर्धूय तान् तदा भृत्यान् शतशः शत्रुसूदन । 'शत्रुसूदन ! यह सोचकर वह गौ बारम्बार लंबी साँस लेने लगी और राजाके उन सैकड़ों सेवकोंको झटककर उस समय महातेजस्वी वसिष्ठ मुनिके पास बड़े वेगसे जा पहुँची ॥ ५ १/२ ॥ जगामानिलवेगेन पादमूलं महात्मनः ॥ ६ ॥ शबला सा रुदंती च क्रोशंती चेदमब्रवीत् । वसिष्ठस्याग्रतः स्थित्वा रुदंती मेघनिःस्वना ॥ ७ ॥ 'वह शबला गौ वायुके समान वेगसे उन महात्माके चरणोंके समीप गयी और उनके सामने खड़ी हो मेघके समान गम्भीर स्वरसे रोती-चीत्कार करती हुई उनसे इस प्रकार बोली- ॥ ६-७ ॥ भगवन् किं परित्यक्ता त्वयाहं ब्रह्मणः सुत । यस्माद् राजभटा मां हि नयंते त्वत्सकाशतः ॥ ८ ॥ "भगवन् ! ब्रह्मकुमार ! क्या आपने मुझे त्याग दिया, जो ये राजाके सैनिक मुझे आपके पाससे दूर लिये जा रहे हैं ? ॥ ८ ॥ एवमुक्तस्तु ब्रह्मर्षिः इदं वचनमब्रवीत् । शोकसंतप्तहृदयां स्वसारमिव दुःखिताम् ॥ ९ ॥ 'उसके ऐसा कहनेपर ब्रह्मर्षि वसिष्ठ शोकसे संतप्त हृदयवाली दु:खिया बहिनके समान उस गौसे इस प्रकार बोले — ॥ ९ ॥ न त्वां त्यजामि शबले नापि मेऽपकृतं त्वया । एष त्वां नयते राजा बलान्मत्तो महाबलः ॥ १० ॥ 'शबले ! मैं तुम्हारा त्याग नहीं करता । तुमने मेरा कोई अपराध नहीं किया है । ये महाबली राजा अपने बलसे मतवाले होकर तुमको मुझसे छीनकर ले जा रहे हैं ॥ १० ॥ न हि तुल्यं बलं मह्यं राजा त्वद्य विशेषतः । बली राजा क्षत्रियश्च पृथिव्याः पतिरेव च ॥ ११ ॥ 'मेरा बल इनके समान नहीं है । विशेषत: आजकल ये राजाके पदपर प्रतिष्ठित हैं । राजा, क्षत्रिय तथा इस पृथ्वीके पालक होनेके कारण ये बलवान् हैं ॥ ११ ॥ इयं अक्षौहिणी पूर्णा गजवाजिरथाकुला । हस्तिध्वजसमाकीर्णा तेनासौ बलवत्तरः ॥ १२ ॥ 'इनके पास हाथी, घोड़े और रथोंसे भरी हुई यह अक्षौहिणी सेना है, जिसमें हाथियोंके हौदोंपर लगे हुए ध्वज सब ओर फहरा रहे हैं । इस सेनाके कारण भी ये मुझसे प्रबल हैं' ॥ १२ ॥ एवमुक्ता वसिष्ठेन प्रत्युवाच विनीतवत् । वचनं वचनज्ञा सा ब्रह्मर्षिं अतुलप्रभम् ॥ १३ ॥ 'वसिष्ठजीके ऐसा कहनेपर बातचीतके मर्मको समझनेवाली उस कामधेनुने उन अनुपम तेजस्वी ब्रह्मर्षिसे यह विनययुक्त बात कही ॥ १३ ॥ न बलं क्षत्रियस्याहुः ब्राह्मणो बलवत्तराः । ब्रह्मन् ब्रह्मबलं दिव्यं क्षत्राच्च बलवत्तरम् ॥ १४ ॥ "ब्रह्मन् ! क्षत्रियका बल कोई बल नहीं है । ब्राह्मण ही क्षत्रिय आदिसे अधिक बलवान् होते हैं । ब्राह्मणका बल दिव्य है । वह क्षत्रिय-बलसे अधिक प्रबल होता है । ॥ १४ ॥ अप्रमेयबलं तुभ्यं न त्वया बलवत्तरः । विश्वामित्रो महावीर्यः तेजस्तव दुरासदम् ॥ १५ ॥ "आपका बल अप्रमेय है । महापराक्रमी विश्वामित्र आपसे अधिक बलवान् नहीं हैं । आपका तेज दुर्धर्ष है ॥ १५ ॥ नियुङ्क्ष्व मां महातेजः त्वं ब्रह्मबलसंभृताम् । तस्य दर्पं बलं यत्नं नाशयामि दुरात्मनः ॥ १६ ॥ "महातेजस्वी महर्षे ! मैं आपके ब्रह्मबलसे परिपुष्ट हुई हूँ । अत: आप केवल मुझे आज्ञा दे दीजिये । मैं इस दुरात्मा राजाके बल, प्रयत्न और अभिमानको अभी चूर्ण किये देती हूँ ॥ १६ ॥ इत्युक्तस्तु तया राम वसिष्ठस्तु महायशाः । सृजस्वेति तदोवाच बलं परबलार्दनम् ॥ १७ ॥ 'श्रीराम ! कामधेनुके ऐसा कहनेपर महायशस्वी वसिष्ठने कहा—'इस शत्रु-सेनाको नष्ट करनेवाले सैनिकोंकी सृष्टि करो ॥ १७ ॥ तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुरभिः सासृजत् तदा । तस्या हुंभारवोत्सृष्टाः पह्लवाः शतशो नृप ॥ १८ ॥ 'राजकुमार ! उनका वह आदेश सुनकर उस गौने उस समय वैसा ही किया । उसके हुंकार करते ही सैकड़ों पलव जातिके वीर पैदा हो गये ॥ १८ ॥ नाशयंति बलं सर्वं विश्वामित्रस्य पश्यतः । स राजा परमक्रुद्धः क्रोधविस्फारितेक्षणः ॥ १९ ॥ 'वे सब विश्वामित्रके देखते-देखते उनकी सारी सेनाका नाश करने लगे । इससे राजा विश्वामित्रको बड़ा क्रोध हुआ । वे रोषसे आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे ॥ १९ ॥ पह्लवान् नाशयामास शस्त्रैरुच्चावचैरपि । विश्वामित्रार्दितान् दृष्ट्वा पह्लवान् शतशस्तदा ॥ २० ॥ भूय एवासृजत् घोरान् शकान् यवनमिश्रितान् । तैरासीत् संवृता भूमिः शकैर्यवनमिश्रितैः ॥ २१ ॥ 'उन्होंने छोटे-बड़े कई तरहके अस्त्रोंका प्रयोग करके उन पलवोंका संहार कर डाला । विश्वामित्रद्वारा उन सैकड़ों पलवोंको पीड़ित एवं नष्ट हुआ देख उस समय उस शबला गौने पुन: यवनमिश्रित शक जातिके भयंकर वीरोंको उत्पन्न किया । उन यवनमिश्रित शकोंसे वहाँकी सारी पृथ्वी भर गयी ॥ २०-२१ ॥ प्रभावद्भिः महावीर्यैः हेमकिञ्जल्कसन्निभैः । तीक्ष्णासिपट्टिशधरैः हेमवर्णांबरावृतैः ॥ २२ ॥ निर्दग्धं तद्बलं सर्वं प्रदीप्तैरिव पावकैः । ततोऽस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह । तैस्ते यवनकांबोजाः बर्बराश्चाकुलीकृताः ॥ २३ ॥ 'वे वीर महापराक्रमी और तेजस्वी थे । उनके शरीरकी कान्ति सुवर्ण तथा केसरके समान थी । वे सुनहरे वस्त्रोंसे अपने शरीरको ढंके हुए थे । उन्होंने हाथोंमें तीखे खड्ग और पट्टिश ले रखे थे । प्रज्वलित अग्निके समान उद्भासित होनेवाले उन वीरोंने विश्वामित्रकी सारी सेनाको भस्म करना आरम्भ किया । तब महातेजस्वी विश्वामित्रने उनपर बहुत-से अस्त्र छोड़े । उन अस्त्रोंकी चोट खाकर वे यवन, काम्बोज और बर्बर जातिके योद्धा व्याकुल हो उठे' ॥ २२-२३ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे चतुःपञ्चाशः सर्गः ॥ ५४ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें चौवनवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ५४ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |