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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ सप्तपञ्चाशः सर्गः ॥


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विश्वामित्रस्य तपःकरणं, त्रिशङ्को स्वीयं यज्ञं कारयितुं वसिष्ठं प्रति प्रार्थना, तेन प्रत्याख्यातेन राजा गुरुपुत्राणां संनिधिमुपेत्य स्वाभिप्रायस्य निवेदनम् -
विश्वामित्रकी तपस्या, राजा त्रिशंकुका अपना यज्ञ कराने के लिये पहले वसिष्ठजीसे प्रार्थना करना और उनके इन्कार कर देनेपर उन्हींके पुत्रोंकी शरणमें जाना -


ततः संतप्तहृदयः स्मरन् निग्रहमात्मनः ।
विनिःश्वस्य विनिःश्वस्य कृतवैरो महात्मना ॥ १ ॥
स दक्षिणां दिशं गत्वा महिष्या सह राघव ।
तताप परमं घोरं विश्वामित्रो महातपाः ॥ २ ॥
श्रीराम ! तदनन्तर विश्वामित्र अपनी पराजयको याद करके मन-ही-मन संतप्त होने लगे । महात्मा वसिष्ठके साथ वैर बाँधकर महातपस्वी विश्वामित्र बारम्बार लम्बी साँस खींचते हुए अपनी रानीके साथ दक्षिण दिशामें जाकर अत्यन्त उत्कृष्ट एवं भयंकर तपस्या करने लगे ॥ १-२ ॥

फलमूलाशनो दांतः चचार परमं तपः ।
अथास्य जज्ञिरे पुत्राः सत्यधर्मपरायणाः ॥ ३ ॥
वहाँ मन और इन्द्रियोंको वशमें करके वे फल-मूलका आहार करते तथा उत्तम तपस्यामें लगे रहते थे । वहीं उनके हविष्पन्द, मधुष्पन्द, दृढनेत्र और महारथ नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए, जो सत्य और धर्ममें तत्पर रहनेवाले थे ॥ ३ ॥

हविष्पंदो मधुष्पंदो दृढनेत्रो महारथः ।
पूर्णे वर्षसहस्रे तु ब्रह्मा लोकपितामहः ॥ ४ ॥
अब्रवीन् मधुरं वाक्यं विश्वामित्रं तपोधनम् ।
जिता राजर्षिलोकास्ते तपसा कुशिकात्मज ॥ ५ ॥
अनेन तपसा त्वां हि राजर्षिरिति विद्महे ।
एक हजार वर्ष पूरे हो जानेपर लोकपितामह ब्रह्माजीने तपस्याके धनी विश्वामित्रको दर्शन देकर मधुर वाणीमें कहा—'कुशिकनन्दन ! तुमने तपस्याके द्वारा राजर्षियोंके लोकोंपर विजय पायी है । इस तपस्याके प्रभावसे हम तुम्हें सच्चा राजर्षि समझते हैं' ॥ ४-५ १/२ ॥

एवमुक्त्वा महातेजा जगाम सह दैवतैः ॥ ६ ॥
त्रिविष्टपं ब्रह्मलोकं लोकानां परमेश्वरः ।
यह कहकर सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी ब्रह्माजी देवताओंके साथ स्वर्गलोक होते हुए ब्रह्मलोकको चले गये ॥ ६ १/२ ॥

विश्वामित्रोऽपि तच्छ्रुत्वा ह्रिया किञ्चिद् अवाङ्‍मुखः ॥ ७ ॥
दुःखेन महताविष्टः समन्युः इदमब्रवीत् ।
तपश्च सुमहत् तप्तं राजर्षिरिति मां विदुः ॥ ८ ॥
देवाः सर्षिगणाः सर्वे नास्ति मन्ये तपः फलम् ।
उनकी बात सुनकर विश्वामित्रका मुख लज्जासे कुछ झुक गया । वे बड़े दुःखसे व्यथित हो दीनतापूर्वक मन-हीमन यों कहने लगे—'अहो ! मैंने इतना बड़ा तप किया तो भी ऋषियोंसहित सम्पूर्ण देवता मुझे राजर्षि ही समझते हैं । मालूम होता है, इस तपस्याका कोई फल नहीं हुआ' ॥ ७-८ १/२ ॥

एवं निश्चित्य मनसा भूय एव महातपाः ॥ ९ ॥
तपश्चचार धर्मात्मा काकुत्स्थ परमात्मवान् ।
श्रीराम ! मनमें ऐसा सोचकर अपने मनको वशमें रखनेवाले महातपस्वी धर्मात्मा विश्वामित्र पुन: भारी तपस्यामें लग गये ॥ ९ १/२ ॥

एतस्मिन्नेव काले तु सत्यवादी जितेंद्रियः ॥ १० ॥
त्रिशङ्‍कुरिति विख्यात इक्ष्वाकुकुलवर्धनः ।
इसी समय इक्ष्वाकुकुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले एक सत्यवादी और जितेन्द्रिय राजा राज्य करते थे । उनका नाम था त्रिशंकु ॥ १० १/२ ॥

तस्य बुद्धिः समुत्पन्ना यजेयमिति राघव ॥ ११ ॥
गच्छेयं सशरीरेण देवतानां परां गतिम् ।
रघुनन्दन ! उनके मनमें यह विचार हुआ कि 'मैं ऐसा कोई यज्ञ करूँ, जिससे अपने इस शरीरके साथ ही देवताओंकी परम गति—स्वर्गलोकको जा पहुँचूँ ॥ ११ १/२ ॥

वसिष्ठं स समाहूय कथयामास चिंतितम् ॥ १२ ॥
अशक्यमिति चाप्युक्तो वसिष्ठेन महात्मना ।
तब उन्होंने वसिष्ठजीको बुलाकर अपना यह विचार उन्हें कह सुनाया । महात्मा वसिष्ठने उन्हें बताया कि ऐसा होना असम्भव है' ॥ १२ १/२ ॥

प्रत्याख्यातो वसिष्ठेन स ययौ दक्षिणां दिशम् ॥ १३ ॥
ततः तत्कर्म सिद्ध्यर्थं पुत्रांस्तस्य गतो नृपः ।
जब वसिष्ठने उन्हें कोरा उत्तर दे दिया, तब वे राजा उस कर्मकी सिद्धिके लिये दक्षिण दिशामें उन्हींके पुत्रोंके पास चले गये ॥ १३ १/२ ॥

वासिष्ठा दीर्घतपसः तपो यत्र हि तेपिरे ॥ १४ ॥
त्रिशङ्‍कुस्तु महातेजाः शतं परमभास्वरम् ।
वसिष्ठपुत्रान् ददृशे तप्यमानान् मनस्विनः ॥ १५ ॥
वसिष्ठजीके वे पुत्र जहाँ दीर्घकालसे तपस्यामें प्रवृत्त होकर तप करते थे, उस स्थानपर पहुँचकर महातेजस्वी त्रिशंकुने देखा कि मनको वश में रखनेवाले वे सौ परमतेजस्वी वसिष्ठकुमार तपस्यामें संलग्न हैं । ॥ १४-१५ ॥

सोऽभिगम्य महात्मानः सर्वानेव गुरोः सुतान् ।
अभिवाद्यानुपूर्वेण ह्रिया किञ्चिदवाङ्‍मुखः ॥ १६ ॥
अब्रवीत् स महात्मानः सर्वानेव कृताञ्जलिः ।
उन सभी महात्मा गुरुपुत्रोंके पास जाकर उन्होंने क्रमश: उन्हें प्रणाम किया और लज्जासे अपने मुखको कुछ नीचा किये हाथ जोड़कर उन सब महात्माओंसे कहा ॥ १६ १/२ ॥

शरणं वः प्रपन्नोऽहं शरण्यान् शरणं गतः ॥ १७ ॥
प्रत्याख्यातोऽस्मि भद्रं वो वसिष्ठेन महात्मना ।
यष्टुकामो महायज्ञं तद् अनुज्ञातुमर्हथ ॥ १८ ॥
'गुरुपुत्रो ! आप शरणागतवत्सल हैं । मैं आपलोगोंकी शरणमें आया हूँ, आपका कल्याण हो । महात्मा वसिष्ठने मेरा यज्ञ कराना अस्वीकार कर दिया है । मैं एक महान् यज्ञ करना चाहता हूँ । आपलोग उसके लिये आज्ञा दें ॥ १७-१८ ॥

गुरुपुत्रानहं सर्वान् नमस्कृत्य प्रसादये ।
शिरसा प्रणतो याचे ब्राह्मणान् तपसि स्थितान् ॥ १९ ॥
ते मां भवंतः सिद्ध्यर्थं याजयंतु समाहिताः ।
सशरीरो यथाहं वै देवलोकमवाप्नुयाम् ॥ २० ॥
मैं समस्त गुरुपुत्रोंको नमस्कार करके प्रसन्न करना चाहता हूँ । आपलोग तपस्यामें संलग्न रहनेवाले ब्राह्मण हैं । मैं आपके चरणों में मस्तक रखकर यह याचना करता हूँ कि आपलोग एकाग्रचित्त हो मुझसे मेरी अभीष्टसिद्धिके लिये ऐसा कोई यज्ञ करावें, जिससे मैं इस शरीरके साथ ही देवलोकमें जा सकूँ ॥ १९-२० ॥

प्रत्याख्यातो वसिष्ठेन गतिमन्यां तपोधनाः ।
गुरुपुत्रानृते सर्वान् नाहं पश्यामि काञ्चन ॥ २१ ॥
'तपोधनो ! महात्मा वसिष्ठके अस्वीकार कर देनेपर अब मैं अपने लिये समस्त गुरुपुत्रोंकी शरणमें जानेके सिवा दूसरी कोई गति नहीं देखता ॥ २१ ॥

इक्ष्वाकूणां हि सर्वेषां पुरोधाः परमा गतिः ।
तस्माद् अनंतरं सर्वे भवंतो दैवतं मम ॥ २२ ॥
'समस्त इक्ष्वाकुवंशियोंके लिये पुरोहित वसिष्ठजी ही परमगति हैं । उनके बाद आप सब लोग ही मेरे परम देवता हैं' ॥ २२ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे सप्तपञ्चाशः सर्गः ॥ ५७ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें सत्तावनवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ५७ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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