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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ अष्टपञ्चाशः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] गुरुपुत्रैर्निर्भर्स्य तस्मै गृहं गन्तुं आज्ञाप्रदानं अन्यं गुरुं वरीतुमुद्यम्यताय राज्ञे शापदानं च, तेषां शापेन चाण्डालत्वं गतस्य त्रिशङ्कोर्विश्वामित्रमाश्रयितुं ततो गमनम् -
वसिष्ठ ऋषिके पुत्रोंका त्रिशंकुको डाँट बताकर घर लौटनेके लिये आज्ञा देना तथा उन्हें दूसरा पुरोहित बनानेके लिये उद्यत देख शाप-प्रदान और उनके शापसे चाण्डाल हुए त्रिशंकुका विश्वामित्रजीकी शरणमें जाना - ततस्त्रिशङ्कोर्वचनं श्रुत्वा क्रोधसमन्वितम् । ऋषिपुत्रशतं राम राजानं इदमब्रवीत् ॥ १ ॥ प्रत्याख्यातोऽसि दुर्मेधो गुरुणा सत्यवादिना । तं कथं समतिक्रम्य शाखांतरमुपेयिवान् ॥ २ ॥ रघुनन्दन ! राजा त्रिशंकुका यह वचन सुनकर वसिष्ठ मुनिके वे सौ पुत्र कुपित हो उनसे इस प्रकार बोले'दुर्बुद्धे ! तुम्हारे सत्यवादी गुरुने जब तुम्हें मना कर दिया है, तब तुमने उनका उल्लङ्घन करके दूसरी शाखाका आश्रय कैसे लिया ? ॥ १-२ ॥ इक्ष्वाकूणां हि सर्वेषां पुरोधाः परमा गतिः । न चातिक्रमितुं शक्यं वचनं सत्यवादिनः ॥ ३ ॥ 'समस्त इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियोंके लिये पुरोहित वसिष्ठजी ही परमगति हैं । उन सत्यवादी महात्माकी बातको कोई अन्यथा नहीं कर सकता ॥ ३ ॥ अशक्यं इति सोवाच वसिष्ठो भगवान् ऋषिः । तं वयं वै समाहर्तुं क्रतुं शक्ताः कथंचन ॥ ४ ॥ 'जिस यज्ञकर्मको उन भगवान् वसिष्ठमुनिने असम्भव बताया है, उसे हमलोग कैसे कर सकते हैं ॥ ४ ॥ बालिशस्त्वं नरश्रेष्ठ गम्यतां स्वपुरं पुनः । याजने भगवान् शक्तः त्रैलोक्यस्यापि पार्थिव ॥ ५ ॥ अवमानं कथं कर्तुं तस्य शक्ष्यामहे वयम् । 'नरश्रेष्ठ ! तुम अभी नादान हो, अपने नगरको लौट जाओ । पृथ्वीनाथ ! भगवान् वसिष्ठ तीनों लोकोंका यज्ञ कराने में समर्थ हैं, हमलोग उनका अपमान कैसे कर सकेंगे' ॥ ५ १/२ ॥ तेषां तद्वचनं श्रुत्वा क्रोधपर्याकुलाक्षरम् ॥ ६ ॥ स राजा पुनरेवैतान् इदं वचनमब्रवीत् । प्रत्याख्यातो भगवता गुरुपुत्रैस्तथैव हि ॥ ७ ॥ अन्यां गतिं गमिष्यामि स्वस्ति वोऽस्तु तपोधनाः । गुरुपुत्रोंका वह क्रोधयुक्त वचन सुनकर राजा त्रिशंकुने पुनः उनसे इस प्रकार कहा—'तपोधनो ! भगवान् वसिष्ठने तो मुझे ठुकरा ही दिया था, आप गुरुपुत्रगण भी मेरी प्रार्थना नहीं स्वीकार कर रहे हैं; अतः आपका कल्याण हो, अब मैं दूसरे किसीकी शरणमें जाऊँगा' ॥ ६-७ १/२ ॥ ऋषिपुत्रास्तु तच्छ्रुत्वा वाक्यं घोराभिसंहितम् ॥ ८ ॥ शेपुः परमसङ्क्रुद्धाः चण्डालत्वं गमिष्यसि । एवमुक्त्वा महात्मानो विविशुः स्वं स्वमाश्रमम् ॥ ९ ॥ त्रिशंकुका यह घोर अभिसंधिपूर्ण वचन सुनकर महर्षिके पुत्रोंने अत्यन्त कुपित हो उन्हें शाप दे दिया- 'अरे ! जा तू चाण्डाल हो जायगा । ' ऐसा कहकर वे महात्मा अपने-अपने आश्रममें प्रविष्ट हो गये ॥ ८-९ ॥ अथ रात्र्यां व्यतीतायां राजा चण्डालतां गतः । नीलवस्त्रधरो नीलः परुषो ध्वस्तमूर्धजः ॥ १० ॥ चित्यमाल्याङ्गरागश्च आयसाभरणोऽभवत् । तदनन्तर रात व्यतीत होते ही राजा त्रिशंकु चाण्डाल हो गये । उनके शरीरका रंग नीला हो गया । कपड़े भी नीले हो गये । प्रत्येक अंगमें रुक्षता आ गयी । सिरके बाल छोटे-छोटे हो गये । सारे शरीरमें चिताकी राख-सी लिपट गयी । विभिन्न अंगोंमें यथास्थान लोहेके गहने पड़ गये ॥ १० १/२ ॥ तं दृष्ट्वा मंत्रिणः सर्वे त्यज्य चण्डालरूपिणम् ॥ ११ ॥ प्राद्रवन् सहिता राम पौरा येऽस्यानुगामिनः । एको हि राजा काकुत्स्थ जगाम परमात्मवान् ॥ १२ ॥ दह्यमानो दिवारात्रं विश्वामित्रं तपोधनम् । श्रीराम ! अपने राजाको चाण्डालके रूपमें देखकर सब मन्त्री और पुरवासी जो उनके साथ आये थे, उन्हें छोड़कर भाग गये । ककुत्स्थनन्दन ! वे धीरस्वभाव नरेश दिन-रात चिन्ताकी आगमें जलने लगे और अकेले ही तपोधन विश्वामित्रकी शरणमें गये ॥ ११-१२ १/२ ॥ विश्वामित्रस्तु तं दृष्ट्वा राजानं विफलीकृतम् ॥ १३ ॥ चण्डालरूपिणं राम मुनिः कारुण्यमागतः । कारुण्यात् स महातेजा वाक्यं परमधार्मिकः ॥ १४ ॥ इदं जगाद भद्रं ते राजानं घोरदर्शनम् । किमागमनकार्यं ते राजपुत्र महाबल ॥ १५ ॥ अयोध्याधिपते वीर शापाच्चण्डालतां गतः । श्रीराम ! विश्वामित्रने देखा राजाका जीवन निष्फल हो गया है । उन्हें चाण्डालके रूपमें देखकर उन महातेजस्वी परम धर्मात्मा मुनिके हृदयमें करुणा भर आयी । वे दयासे द्रवित होकर भयंकर दिखायी देनेवाले राजा त्रिशंकुसे इस प्रकार बोले— 'महाबली राजकुमार ! तुम्हारा भला हो, यहाँ किस कामसे तुम्हारा आना हुआ है । वीर अयोध्यानरेश ! जान पड़ता है तुम शापसे चाण्डालभावको प्राप्त हुए हो' ॥ १३-१५ १/२ ॥ अथ तद्वाक्यमाकर्ण्य राजा चण्डालतां गतः ॥ १६ ॥ अब्रवीत् प्राञ्जलिर्वाक्यं वाक्यज्ञो वाक्यकोविदम् । विश्वामित्रकी बात सुनकर चाण्डालभावको प्राप्त हुए और वाणीके तात्पर्यको समझनेवाले राजा त्रिशंकुने हाथ जोड़कर वाक्यार्थकोविद विश्वामित्र मुनिसे इस प्रकार कहा— ॥ १६ १/२ ॥ प्रत्याख्यातोऽस्मि गुरुणा गुरुपुत्रैस्तथैव च ॥ १७ ॥ अनवाप्यैव तं कामं मया प्राप्तो विपर्ययः । 'महर्षे ! मुझे गुरु तथा गुरुपुत्रोंने ठुकरा दिया । मैं जिस मनोऽभीष्ट वस्तुको पाना चाहता था, उसे न पाकर इच्छाके विपरीत अनर्थका भागी हो गया ॥ १७ १/२ ॥ सशरीरो दिवं यायां इति मे सौम्यदर्शन ॥ १८ ॥ मया चेष्टं क्रतुशतं तच्च नावाप्यते फलम् । 'सौम्यदर्शन मुनीश्वर ! मैं चाहता था कि इसी शरीरसे स्वर्गको जाऊँ, परंतु यह इच्छा पूर्ण न हो सकी । मैंने सैकड़ों यज्ञ किये हैं; किंतु उनका भी कोई फल नहीं मिल रहा है ॥ १८ १/२ ॥ अनृतं नोक्तपूर्वं मे न च वक्ष्ये कदाचन ॥ १९ ॥ कृच्छ्रेष्वपि गतः सौम्य क्षत्रधर्मेण ते शपे । 'सौम्य ! मैं क्षत्रियधर्मकी शपथ खाकर आपसे कहता हूँ कि बड़े-से-बड़े सङ्कटमें पड़नेपर भी न तो पहले कभी मैंने मिथ्या भाषण किया है और न भविष्यमें ही कभी करूँगा ॥ १९ १/२ ॥ यज्ञैर्बहुविधैरिष्टं प्रजा धर्मेण पालिताः ॥ २० ॥ गुरवश्च महात्मानः शीलवृत्तेन तोषिताः । धर्मे प्रयतमानस्य यज्ञं चाहर्तुमिच्छतः ॥ २१ ॥ परितोषं न गच्छंति गुरवो मुनिपुङ्गव । दैवमेव परं मन्ये पौरुषं तु निरर्थकम् ॥ २२ ॥ 'मैंने नाना प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान किया, प्रजाजनोंकी धर्मपूर्वक रक्षा की और शील एवं सदाचारके द्वारा महात्माओं तथा गुरुजनोंको संतुष्ट रखनेका प्रयास किया । इस समय भी मैं यज्ञ करना चाहता था; अत: मेरा यह प्रयत्न धर्मके लिये ही था । मुनिप्रवर ! तो भी मेरे गुरुजन मुझपर संतुष्ट न हो सके । यह देखकर मैं दैवको ही बड़ा मानता हूँ । पुरुषार्थ तो निरर्थक जान पड़ता है ॥ २०–२२ ॥ दैवेनाक्रम्यते सर्वं दैवं हि परमा गतिः । तस्य मे परमार्तस्य प्रसादं अभिकाङ्क्षतः । कर्तुमर्हसि भद्रं ते दैवोपहतकर्मणः ॥ २३ ॥ 'दैव सबपर आक्रमण करता है । दैव ही सबकी परमगति है । मुने ! मैं अत्यन्त आर्त होकर आपकी कृपा चाहता हूँ । दैवने मेरे पुरुषार्थको दबा दिया है । आपका भला हो । आप मुझपर अवश्य कृपा करें ॥ २३ ॥ नान्यां गतिं गमिष्यामि नान्यत् शरणमस्ति मे । दैवं पुरुषकारेण निवर्तयितुमर्हसि ॥ २४ ॥ 'अब मैं आपके सिवा दूसरे किसीकी शरणमें नहीं जाऊँगा । दूसरा कोई मुझे शरण देनेवाला है भी नहीं । आप ही अपने पुरुषार्थसे मेरे दुर्दैवको पलट सकते हैं' ॥ २४ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे अष्टपञ्चाशः सर्गः ॥ ५८ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें अट्ठावनवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ५८ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |