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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ सप्तषष्टितमः सर्गः ॥


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श्रीरामेण मौर्वीमारोप्य धनुषः पूरणे कृते तस्य भङ्गो, विश्वामित्राज्ञया जनकेन राजानं दशरथं आह्वयितुं मंत्रीणां प्रेषणम् -
श्रीरामके द्वारा धनुभंग तथा राजा जनकका विश्वामित्रकी आज्ञासे राजा दशरथको बुलाने के लिये मन्त्रियोंको भेजना -


जनकस्य वचः श्रुत्वा विश्वामित्रो महामुनिः ।
धनुर्दर्शय रामाय इति होवाच पार्थिवम् ॥ १ ॥
जनककी यह बात सुनकर महामुनि विश्वामित्र बोले—'राजन् ! आप श्रीरामको अपना धनुष दिखाइये' ॥ १ ॥

ततः स राजा जनकः सचिवान् व्यादिदेश ह ।
धनुरानीयतां दिव्यं गंधमाल्यानुलेपनम् ॥ २ ॥
तब राजा जनकने मन्त्रियोंको आज्ञा दी—'चन्दन और मालाओंसे सुशोभित वह दिव्य धनुष यहाँ ले आओ' ॥ २ ॥

जनकेन समादिष्टाः सचिवाः प्राविशन् पुरीम् ।
तद्धनुः पुरतः कृत्वा निर्जग्मुः अमितौजसः ॥ ३ ॥
राजा जनककी आज्ञा पाकर वे अमित तेजस्वी मन्त्री नगरमें गये और उस धनुषको आगे करके पुरीसे बाहर निकले ॥ ३ ॥

नृणां शतानि पञ्चाशद् व्यायतानां महात्मनाम् ।
मञ्जूषामष्टचक्रां तां समूहुस्ते कथंचन ॥ ४ ॥
वह धनुष आठ पहियोंवाली लोहेकी बहुत बड़ी संदूकमें रखा गया था । उसे मोटे-ताजे पाँच हजार महामनस्वी वीर किसी तरह ठेलकर वहाँतक ला सके ॥ ४ ॥

तामादाय तु मञ्जूषां आयसीं यत्र तद्धनुः ।
सुरोपमं ते जनकं ऊचुर्नृपतिमंत्रिणः ॥ ५ ॥
लोहेकी वह संदूक, जिसमें धनुष रखा गया था, लाकर उन मन्त्रियोंने देवोपम राजा जनकसे कहा- ॥ ५ ॥

इदं धनुर्वरं राजन् पूजितं सर्वराजभिः ।
मिथिलाधिप राजेंद्र दर्शनीयं यदीच्छसि ॥ ६ ॥
'राजन् ! मिथिलापते ! राजेन्द्र ! यह समस्त राजाओंद्वारा सम्मानित श्रेष्ठ धनुष है । यदि आप इन दोनों राजकुमारोंको दिखाना चाहते हैं तो दिखाइये' ॥ ६ ॥

तेषां नृपो वचः श्रुत्वा कृताञ्जलिरभाषत ।
विश्वामित्रं महात्मानं तावुभौ रामलक्ष्मणौ ॥ ७ ॥
उनकी बात सुनकर राजा जनकने हाथ जोड़कर महात्मा विश्वामित्र तथा दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मणसे कहा — ॥ ७ ॥

इदं धनुर्वरं ब्रह्मन् जनकैरभिपूजितम् ।
राजभिश्च महावीर्यैः अशक्तैः पूरितं पुरा ॥ ८ ॥
'ब्रह्मन् ! यही वह श्रेष्ठ धनुष है, जिसका जनकवंशी नरेशोंने सदा ही पूजन किया है तथा जो इसे उठानेमें समर्थ न हो सके, उन महापराक्रमी नरेशोंने भी इसका पूर्वकालमें सम्मान किया है ॥ ८ ॥

नैतत् सुरगणाः सर्वे नासुरा न च राक्षसाः ।
गंधर्वयक्षप्रवराः सकिन्नरमहोरगाः ॥ ९ ॥
'इसे समस्त देवता, असुर, राक्षस, गन्धर्व, बड़े-बड़े यक्ष, किन्नर और महानाग भी नहीं चढ़ा सके हैं ॥ ९ ॥

क्व गतिर्मानुषाणां च धनुषोऽस्य प्रपूरणे ।
आरोपणे समायोगे वेपने तोलने तथा ॥ १० ॥
'फिर इस धनुषको खींचने, चढ़ाने, इसपर बाण संधान करने, इसकी प्रत्यञ्चापर टङ्कार देने तथा इसे उठाकर इधर-उधर हिलाने में मनुष्योंकी कहाँ शक्ति है ? ॥ १० ॥

तदेतद् धनुषां श्रेष्ठं आनीतं मुनिपुङ्‍गव ।
दर्शयैतन्महाभाग अनयो राजपुत्रयोः ॥ ११ ॥
'मुनिप्रवर ! यह श्रेष्ठ धनुष यहाँ लाया गया है । महाभाग ! आप इसे इन दोनों राजकुमारोंको दिखाइये ॥ ११ ॥

विश्वामित्रः सरामस्तु श्रुत्वा जनकभाषितम् ।
वत्स राम धनुः पश्य इति राघवमब्रवीत् ॥ १२ ॥
श्रीरामसहित विश्वामित्रने जनकका वह कथन सुनकर रघुनन्दनसे कहा—'वत्स राम ! इस धनुषको देखो' ॥ १२ ॥

महर्षेर्वचनाद् रामो यत्र तिष्ठति तद्धनुः ।
मञ्जूषां तामपावृत्य दृष्ट्‍वा धनुरथाब्रवीत् ॥ १३ ॥
महर्षिकी आज्ञासे श्रीरामने जिसमें वह धनुष था उस संदूकको खोलकर उस धनुषको देखा और कहा ॥ १३ ॥

इदं धनुर्वरं दिव्यं संस्पृशामीह पाणिना ।
यत्‍नवांश्च भविष्यामि तोलने पूरणेऽपि वा ॥ १४ ॥
'अच्छा अब मैं इस दिव्य एवं श्रेष्ठ धनुषमें हाथ लगाता हूँ । मैं इसे उठाने और चढ़ानेका भी प्रयत्न करूँगा' ॥ १४ ॥

बाढमित्यब्रवीद् राजा मुनिश्च समभाषत ।
लीलया स धनुर्मध्ये जग्राह वचनान्मुनेः ॥ १५ ॥
पश्यतां नृसहस्राणां बहूनां रघुनंदनः ।
आरोपयत् स धर्मात्मा सलीलमिव तद्धनुः ॥ १६ ॥
तब राजा और मुनिने एक स्वरसे कहा—'हाँ, ऐसा ही करो । ' मुनिकी आज्ञासे रघुकुलनन्दन धर्मात्मा श्रीरामने उस धनुषको बीचसे पकड़कर लीलापूर्वक उठा लिया और खेल-सा करते हुए उसपर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी । उस समय कई हजार मनुष्योंकी दृष्टि उनपर लगी थी ॥ १५-१६ ॥

आरोपयित्वा मौर्वीं च पूरयामास तद्धनुः ।
तद् बभञ्ज धनुर्मध्ये नरश्रेष्ठो महायशाः ॥ १७ ॥
प्रत्यञ्चा चढ़ाकर महायशस्वी नरश्रेष्ठ श्रीरामने ज्यों ही उस धनुषको कानतक खींचा त्यों ही वह बीचसे ही टूट गया ॥ १७ ॥

तस्य शब्दो महान् आसीत् निर्घातसमनिःस्वनः ।
भूमिकंपश्च सुमहान् पर्वतस्येव दीर्यतः ॥ १८ ॥
टूटते समय उससे वज्रपातके समान बड़ी भारी आवाज हुई । ऐसा जान पड़ा मानो पर्वत फट पड़ा हो । उस समय महान् भूकम्प आ गया ॥ १८ ॥

निपेतुश्च नराः सर्वे तेन शब्देन मोहिताः ।
वर्जयित्वा मुनविरं राजानं तौ च राघवौ ॥ १९ ॥
मुनिवर विश्वामित्र, राजा जनक तथा रघुकुलभूषण दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मणको छोड़कर शेष जितने लोग वहाँ खड़े थे, वे सब धनुष टूटनेके उस भयंकर शब्दसे मूर्छित होकर गिर पड़े ॥ १९ ॥

प्रत्याश्वस्ते जने तस्मिन् राजा विगतसाध्वसः ।
उवाच प्राञ्जलिर्वाक्यं वाक्यज्ञो मुनिपुङ्‍गवम् ॥ २० ॥
थोड़ी देरमें जब सबको चेत हुआ, तब निर्भय हुए राजा जनकने, जो बोलनेमें कुशल और वाक्यके मर्मको समझनेवाले थे. हाथ जोड़कर मनिवर विश्वामित्रसे कहा ॥ २० ॥

भगवन् दृष्टवीर्यो मे रामो दशरथात्मजः ।
अत्यद्‍भुतं अचिंत्यं च अतर्कितं इदं मया ॥ २१ ॥
"भगवन् ! मैंने दशरथनन्दन श्रीरामका पराक्रम आज अपनी आँखों देख लिया । महादेवजीके धनुषको चढ़ाना— यह अत्यन्त अद्भुत, अचिन्त्य और अतर्कित घटना है । ॥ २१ ॥

जनकानां कुले कीर्तिं आहरिष्यति मे सुता ।
सीता भर्तारमासाद्य रामं दशरथात्मजम् ॥ २२ ॥
'मेरी पुत्री सीता दशरथकुमार श्रीरामको पतिरूपमें प्राप्त करके जनकवंशकी कीर्तिका विस्तार करेगी ॥ २२ ॥

मम सत्या प्रतिज्ञा च वीर्यशुल्केति कौशिक ।
सीता प्राणैर्बहुमता देया रामाय मे सुता ॥ २३ ॥
'कुशिकनन्दन ! मैंने सीताको वीर्यशुल्का (पराक्रमरूपी शुल्कसे ही प्राप्त होनेवाली) बताकर जो प्रतिज्ञा की थी, वह आज सत्य एवं सफल हो गयी । सीता मेरे लिये प्राणोंसे भी बढ़कर है । अपनी यह पुत्री मैं श्रीरामको समर्पित करूँगा ॥ २३ ॥

भवतोऽनुमते ब्रह्मन् शीघ्रं गच्छंतु मंत्रिणः ।
मम कौशिक भद्रं ते अयोध्यां त्वरिता रथैः ॥ २४ ॥
राजानं प्रश्रितैर्वाक्यैः आनयंतु पुरं मम ।
प्रदानं वीर्यशुल्कायाः कथयंतु च सर्वशः ॥ २५ ॥
'ब्रह्मन् ! कुशिकनन्दन ! आपका कल्याण हो । यदि आपकी आज्ञा हो तो मेरे मन्त्री रथपर सवार होकर बड़ी उतावलीके साथ शीघ्र ही अयोध्याको जायें और विनययुक्त वचनोंद्वारा महाराज दशरथको मेरे नगरमें लिवा लायें । साथ ही यहाँका सब समाचार बताकर यह निवेदन करें कि जिसके लिये पराक्रमका ही शुल्क नियत किया गया था, उस जनककुमारी सीताका विवाह श्रीरामचन्द्रजीके साथ होने जा रहा है ॥ २४-२५ ॥

मुनिगुप्तौ च काकुत्स्थौ कथयंतु नृपाय वै ।
प्रीतियुक्तं तु राजानं आनयंतु सुशीघ्रगाः ॥ २६ ॥
'ये लोग महाराज दशरथसे यह भी कह दें कि आपके दोनों पुत्र श्रीराम और लक्ष्मण विश्वामित्रजीके द्वारा सुरक्षित हो मिथिलामें पहुँच गये हैं । इस प्रकार प्रीतियुक्त हुए राजा दशरथको ये शीघ्रगामी सचिव जल्दी यहाँ बुला लायें ॥ २६ ॥

कौशिकस्तु तथेत्याह राजा चाभाष्य मंत्रिणः ।
अयोध्यां प्रेषयामास धर्मात्मा कृतशासनान् ।
यथावृत्तं समाख्यातुं आनेतुं च नृपं तथा ॥ २७ ॥
विश्वामित्रने 'तथास्तु' कहकर राजाकी बातका समर्थन किया । तब धर्मात्मा राजा जनकने अपनी आज्ञाका पालन करनेवाले मन्त्रियोंको समझा-बुझाकर यहाँका ठीक-ठीक समाचार महाराज दशरथको बताने और उन्हें मिथिलापुरीमें ले आनेके लिये भेज दिया ॥ २७ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे सप्तषष्टितमः सर्गः ॥ ६७ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें सरसठवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ६७ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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