Menus in CSS Css3Menu.com


॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ षट्षष्टितमः सर्गः ॥


[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


विश्वामित्रं रामलक्ष्मणौ च सत्कृत्य जनकेन तान् प्रति स्वगृहे स्थापितस्य दिव्यधनुषः परिचयदानं श्रीरामश्चेद् धनुरारोपयेत्तदेतस्मै सीतां दद्यामिति स्वनिश्चयस्य प्रकटनं च -
सर्ग राजा जनकका विश्वामित्र और राम-लक्ष्मणका सत्कार करके उन्हें अपने यहाँ रखे हुए धनुषका परिचय देना और धनुष चढ़ा देनेपर श्रीरामके साथ उनके ब्याहका निश्चय प्रकट करना -


ततः प्रभाते विमले कृतकर्मा नराधिपः ।
विश्वामित्रं महात्मानं आजुहाव सराघवम् ॥ १ ॥
तमर्चयित्वा धर्मात्मा शास्त्रदृष्टेन कर्मणा ।
राघवौ च महात्मानौ तदा वाक्यमुवाच ह ॥ २ ॥
तदनन्तर दूसरे दिन निर्मल प्रभातकाल आनेपर धर्मात्मा राजा जनकने अपना नित्य नियम पूरा करके श्रीराम और लक्ष्मणसहित महात्मा विश्वामित्रजीको बुलाया और शास्त्रीय विधिके अनुसार मुनि तथा उन दोनों महामनस्वी राजकुमारोंका पूजन करके इस प्रकार कहा— ॥ १-२ ॥

भगवन् स्वागतं तेऽस्तु किं करोमि तवानघ ।
भवान् आज्ञापयतु मां आज्ञाप्यो भवता ह्यहम् ॥ ३ ॥
'भगवन् ! आपका स्वागत है । निष्पाप महर्षे ! आप मुझे आज्ञा दीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ; क्योंकि मैं आपका आज्ञापालक हूँ' ॥ ३ ॥

एवमुक्तः स धर्मात्मा जनकेन महात्मना ।
प्रत्युवाच मुनिश्रेष्ठो वाक्यं वाक्यविशारदः ॥ ४ ॥
महात्मा जनकके ऐसा कहनेपर बोलने में कुशल धर्मात्मा मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रने उनसे यह बात कही— ॥ ४ ॥

पुत्रौ दशरथस्येमौ क्षत्रियौ लोकविश्रुतौ ।
द्रष्टुकामौ धनुःश्रेष्ठं यदेतत्त्वयि तिष्ठति ॥ ५ ॥
"महाराज ! राजा दशरथके ये दोनों पुत्र विश्वविख्यात क्षत्रिय वीर हैं और आपके यहाँ जो यह श्रेष्ठ धनुष रखा है, उसे देखनेकी इच्छा रखते हैं ॥ ५ ॥

एतद्दर्शय भद्रं ते कृतकामौ नृपात्मजौ ।
दर्शनादस्य धनुषो यथेष्टं प्रतियास्यतः ॥ ६ ॥
'आपका कल्याण हो, वह धनुष इन्हें दिखा दीजिये । इससे इनकी इच्छा पूरी हो जायगी । फिर ये दोनों राजकुमार उस धनुषके दर्शनमात्रसे संतुष्ट हो इच्छानुसार अपनी राजधानीको लौट जायेंगे' ॥ ६ ॥

एवमुक्तस्तु जनकः प्रत्युवाच महामुनिम् ।
श्रूयतामस्य धनुषो यदर्थमिह तिष्ठति ॥ ७ ॥
मुनिके ऐसा कहनेपर राजा जनक महामुनि विश्वामित्रसे बोले—'मुनिवर ! इस धनुषका वृत्तान्त सुनिये । जिस उद्देश्यसे यह धनुष यहाँ रखा गया, वह सब बताता हूँ ॥ ७ ॥

देवरात इति ख्यातो निमेर्ज्येष्ठो महीपतिः ।
न्यासोऽयं तस्य भगवन् हस्ते दत्तो महात्मना ॥ ८ ॥
भगवन् ! निमिके ज्येष्ठ पुत्र राजा देवरातके नामसे विख्यात थे । उन्हीं महात्माके हाथमें यह धनुष धरोहरके रूपमें दिया गया था ॥ ८ ॥

दक्षयज्ञवधे पूर्वं धनुरायम्य वीर्यवान् ।
रुद्रस्तु त्रिदशान् रोषात् सलीलमिदमब्रवीत् ॥ ९ ॥
यस्माद् भागार्थिनो भागं नाकल्पयत मे सुराः ।
वराङ्‍गानि महार्हाणि धनुषा शातयामि वः ॥ १० ॥
'कहते हैं, पूर्वकालमें दक्षयज्ञ-विध्वंसके समय परम पराक्रमी भगवान् शङ्करने खेल-खेलमें ही रोषपूर्वक इस धनुषको उठाकर यज्ञ-विध्वंसके पश्चात् देवताओंसे कहा— देवगण ! मैं यज्ञमें भाग प्राप्त करना चाहता था, किंतु तुमलोगोंने नहीं दिया । इसलिये इस धनुषसे मैं तुम सब लोगोंके परम पूजनीय श्रेष्ठ अंग-मस्तक काट डालूंगा' । ९-१० ॥

ततो विमनसः सर्वे देवा वै मुनिपुङ्‍गव ।
प्रसादयंत देवेशं तेषां प्रीतोऽभवद् भवः ॥ ११ ॥
'मुनिश्रेष्ठ ! यह सुनकर सम्पूर्ण देवता उदास हो गये और स्तुतिके द्वारा देवाधिदेव महादेवजीको प्रसन्न करने लगे । अन्तमें उनपर भगवान् शिव प्रसन्न हो गये ॥ ११ ॥

प्रीतियुक्तस्तु सर्वेषां ददौ तेषां महात्मनाम् ।
तदेतद् देवदेवस्य धनूरत्‍नं महात्मनः ॥ १२ ॥
न्यासभूतं तदा न्यस्तं अस्माकं पूर्वजे विभौ ।
'प्रसन्न होकर उन्होंने उन सब महामनस्वी देवताओंको यह धनुष अर्पण कर दिया । वही यह देवाधिदेव महात्मा भगवान् शङ्करका धनुष-रन्त है, जो मेरे पूर्वज महाराज देवरातके पास धरोहरके रूपमें रखा गया था ॥ १२ १/२ ॥

अथ मे कृषतः क्षेत्रं लाङ्‍गलादुत्थिता ततः ॥ १३ ॥
क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता ।
भूतलादुत्थिता सा तु व्यवर्द्धत ममात्मजा ॥ १४ ॥
"एक दिन मैं यज्ञके लिये भूमिशोधन करते समय खेतमें हल चला रहा था । उसी समय हलके अग्रभागसे जोती गयी भूमि (हराई या सीता) से एक कन्या प्रकट हुई । सीता (हलद्वारा खींची गयी रेखा) से उत्पन्न होनेके कारण उसका नाम सीता रखा गया । पृथ्वीसे प्रकट हुई वह मेरी कन्या क्रमश: बढ़कर सयानी हुई ॥ १३-१४ ॥

वीर्यशुल्केति मे कन्या स्थापितेयं अयोनिजा ।
भूतलादुत्थितां तां तु वर्धमानां ममात्मजाम् ॥ १५ ॥
वरयामासुरागम्य राजानो मुनिपुङ्‍गव ।
'अपनी इस अयोनिजा कन्याके विषयमें मैंने यह निश्चय किया कि जो अपने पराक्रमसे इस धनुषको चढ़ा देगा, उसीके साथ मैं इसका ब्याह करूँगा । इस तरह इसे वीर्यशुल्का (पराक्रमरूप शुल्कवाली) बनाकर अपने घरमें रख छोड़ा है । मुनिश्रेष्ठ ! भूतलसे प्रकट होकर दिनों-दिन बढ़नेवाली मेरी पुत्री सीताको कई राजाओंने यहाँ आकर माँगा ॥ १५ १/२ ॥

तेषां वरयतां कन्यां सर्वेषां पृथिवीक्षिताम् ॥ १६ ॥
वीर्यशुल्केति भगवन् न ददामि सुतामहम् ।
परंतु भगवन् ! कन्याका वरण करनेवाले उन सभी राजाओंको मैंने यह बता दिया कि मेरी कन्या वीर्यशुल्का है । (उचित पराक्रम प्रकट करनेपर ही कोई पुरुष उसके साथ विवाह करनेका अधिकारी हो सकता है । ) यही कारण है कि मैंने आजतक किसीको अपनी कन्या नहीं दी ॥ १६ १/२ ॥

ततः सर्वे नृपतयः समेत्य मुनिपुङ्‍गव ॥ १७ ॥
मिथिलामप्युपागम्य वीर्यं जिज्ञासवस्तदा ।
'मुनिपुंगव ! तब सभी राजा मिलकर मिथिलामें आये और पूछने लगे कि राजकुमारी सीताको प्राप्त करनेके लिये कौन-सा पराक्रम निश्चित किया गया है । १७ १/२ ॥

तेषां जिज्ञासमानानां शैवं धनुरुपाहृतम् ॥ १८ ॥
न शेकुर्ग्रहणे तस्य धनुषस्तोलनेऽपि वा ।
'मैंने पराक्रमकी जिज्ञासा करनेवाले उन राजाओंके सामने यह शिवजीका धनुष रख दिया; परंतु वे लोग इसे उठाने या हिलाने में भी समर्थ न हो सके । १८ १/२ ॥

तेषां वीर्यवतां वीर्यं अल्पं ज्ञात्वा महामुने ॥ १९ ॥
प्रत्याख्याता नृपतयः तन्निबोध तपोधन ।
'महामुने ! उन पराक्रमी नरेशोंकी शक्ति बहुत थोड़ी जानकर मैंने उन्हें कन्या देनेसे इनकार कर दिया । तपोधन ! इसके बाद जो घटना घटी, उसे भी आप सुन लीजिये ॥ १९ १/२ ॥

ततः परमकोपेन राजानो मुनिपुङ्‍गव ॥ २० ॥
अरुंधन् मिथिलां सर्वे वीर्यसंदेहमागताः ।
'मुनिप्रवर ! मेरे इनकार करनेपर ये सब राजा अत्यन्त कुपित हो उठे और अपने पराक्रमके विषयमें संशयापन्न हो मिथिलाको चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये ॥ २० १/२ ॥

आत्मानमवधूतं ते विज्ञाय नृपपुङ्‍गवाः ॥ २१ ॥
रोषेण महताविष्टाः पीडयन् मिथिलां पुरीम् ।
'मेरे द्वारा अपना तिरस्कार हुआ मानकर उन श्रेष्ठ नरेशोंने अत्यन्त रुष्ट हो मिथिलापुरीको सब ओरसे पीड़ा देना प्रारम्भ कर दिया ॥ २१ १/२ ॥

ततः संवत्सरे पूर्णे क्षयं यातानि सर्वशः ॥ २२ ॥
साधनानि मुनिश्रेष्ठ ततोऽहं भृशदुःखितः ।
'मुनिश्रेष्ठ ! पूरे एक वर्षतक वे घेरा डाले रहे । इस बीचमें युद्धके सारे साधन क्षीण हो गये । इससे मुझे बड़ा दु:ख हुआ ॥ २२ १/२ ॥

ततो देवगणान् सर्वान् तपसाहं प्रसादयम् ॥ २३ ॥
ददुश्च परमप्रीताः चतुरङ्‍गबलं सुराः ।
'तब मैंने तपस्याके द्वारा समस्त देवताओंको प्रसन्न करनेकी चेष्टा की । देवता बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने मुझे चतुरंगिणी सेना प्रदान की ॥ २३ १/२ ॥

ततो भग्ना नृपतयो हन्यमाना दिशो ययुः ॥ २४ ॥
अवीर्या वीर्यसंदिग्धाः सामात्याः पापकारिणः ।
'फिर तो हमारे सैनिकोंकी मार खाकर वे सभी पापाचारी राजा, जो बलहीन थे अथवा जिनके बलवान् होनेमें संदेह था, मन्त्रियोंसहित भागकर विभिन्न दिशाओंमें चले गये ॥ २४ १/२ ॥

तदेतन् मुनिशार्दूल धनुः परमभास्वरम् ॥ २५ ॥
रामलक्ष्मणयोश्चापि दर्शयिष्यामि सुव्रत ।
'मुनिश्रेष्ठ ! यही वह परम प्रकाशमान धनुष है । उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षे ! मैं उसे श्रीराम और लक्ष्मणको भी दिखाऊँगा ॥ २५ १/२ ॥

यद्यस्य धनुषो रामः कुर्याद् आरोपणं मुने ।
सुतां अयोनिजां सीतां दद्यां दाशरथेरहम् ॥ २६ ॥
'मुने ! यदि श्रीराम इस धनुषकी प्रत्यञ्चा चढ़ा दें तो मैं अपनी अयोनिजा कन्या सीताको इन दशरथकुमारके हाथमें दे दूँ ॥ २६ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे षट्षष्टितमः सर्गः ॥ ६६ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें छाछठवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ६६ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


GO TOP