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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ एकोनसप्ततितमः सर्गः ॥


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सबलस्य दशरथस्य मिथिलायां गमनं तत्र जनकेन तस्य सत्कारश्च -
दल-बलसहित राजा दशरथकी मिथिला-यात्रा और वहाँ राजा जनकके द्वारा उनका स्वागत-सत्कार -


ततो रात्र्यां व्यतीतायां सोपाध्यायः सबांधवः ।
राजा दशरथो हृष्टः सुमंत्रं इदमब्रवीत् ॥ १ ॥
तदनन्तर रात्रि व्यतीत होनेपर उपाध्याय और बन्धु-बान्धवोंसहित राजा दशरथ हर्षमें भरकर सुमन्त्रसे इस प्रकार बोले— ॥ १ ॥

अद्य सर्वे धनाध्यक्षा धनमादाय पुष्कलम् ।
व्रजंत्वग्रे सुविहिता नानारत्‍नसमन्विताः ॥ २ ॥
आज हमारे सभी धनाध्यक्ष (खजांची) बहुत-सा धन लेकर नाना प्रकारके रन्तोंसे सम्पन्न हो सबसे आगे चलें । उनकी रक्षाके लिये हर तरहकी सुव्यवस्था होनी चाहिये ॥ २ ॥

चतुरङ्‍गं बलं चापि शीघ्रं निर्यातु सर्वशः ।
ममाज्ञासमकालं च यानं युग्यमनुत्तमम् ॥ ३ ॥
'सारी चतुरंगिणी सेना भी यहाँसे शीघ्र ही कूच कर दे । अभी मेरी आज्ञा सुनते ही सुन्दर-सुन्दर पालकियाँ और अच्छे-अच्छे घोड़े आदि वाहन तैयार होकर चल दें ॥ ३ ॥

वसिष्ठो वामदेवश्च जाबालिरथ काश्यपः ।
मार्कण्डेयस्तु दीर्घायुः ऋषिः कात्यायनस्तथा ॥ ४ ॥
एते द्विजाः प्रयांत्वग्रे स्यंदनं योजयस्व मे ।
यथा कालात्ययो न स्याद् दूता हि त्वरयंति माम् ॥ ५ ॥
'वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि, कश्यप, दीर्घजीवी मार्कण्डेय मुनि तथा कात्यायन ये सभी ब्रह्मर्षि आगे-आगे चलें । मेरा रथ भी तैयार करो । देर नहीं होनी चाहिये । राजा जनकके दूत मुझे जल्दी करनेके लिये प्रेरित कर रहे हैं' ॥ ४-५ ॥

वचनाच्च नरेंद्रस्य सेना च चतुरङ्‌गिणी ।
राजानमृषिभिः सार्धं व्रजंतं पृष्ठतोऽन्वगात् ॥ ६ ॥
राजाकी इस आज्ञाके अनुसार चतुरंगिणी सेना तैयार हो गयी और ऋषियोंके साथ यात्रा करते हुए महाराज दशरथके पीछे-पीछे चली ॥ ६ ॥

गत्वा चतुरहं मार्गं विदेहान् अभ्युपेयिवान् ।
राजा तु जनकः श्रीमान् श्रुत्वा पूजामकल्पयत् ॥ ७ ॥
चार दिनका मार्ग तय करके वे सब लोग विदेह-देशमें जा पहुंचे । उनके आगमनका समाचार सुनकर श्रीमान् राजा जनकने स्वागत-सत्कारकी तैयारी की ॥ ७ ॥

ततो राजानमासाद्य वृद्धं दशरथं नृपम् ।
जनको मुदितो राजा हर्षं च परमं ययौ ॥ ८ ॥
तत्पश्चात् आनन्दमग्न हुए राजा जनक बूढ़े महाराज दशरथके पास पहुंचे । उनसे मिलकर उन्हें बड़ा हर्ष हुआ ॥ ८ ॥

उवाच वचनं श्रेष्ठो नरश्रेष्ठं मुदान्वितम् ।
स्वागतं ते नरश्रेष्ठ दिष्ट्या प्राप्तोऽसि राघव ॥ ९ ॥
राजाओंमें श्रेष्ठ मिथिलानरेशने आनन्दमग्न हुए पुरुषप्रवर राजा दशरथसे कहा—'नरश्रेष्ठ रघुनन्दन ! आपका स्वागत है । मेरे बड़े भाग्य, जो आप यहाँ पधारे ॥ ९ ॥

पुत्रयोरुभयोः प्रीतिं लप्स्यसे वीर्यनिर्जिताम् ।
दिष्ट्या प्राप्तो महातेजा वसिष्ठो भगवान् ऋषिः ॥ १० ॥
सह सर्वैर्द्विजश्रेष्ठैः देवैरिव शतक्रतुः ।
'आप यहाँ अपने दोनों पुत्रोंकी प्रीति प्राप्त करेंगे, जो उन्होंने अपने पराक्रमसे जीतकर पायी है । महातेजस्वी भगवान् वसिष्ठ मुनिने भी हमारे सौभाग्यसे ही यहाँ पदार्पण किया है । ये इन सभी श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके साथ वैसी ही शोभा पा रहे हैं, जैसे देवताओंके साथ इन्द्र सुशोभित होते हैं ॥ १० १/२ ॥

दिष्ट्या मे निर्जिता विघ्ना दिष्ट्या मे पूजितं कुलम् ॥ ११ ॥
राघवैः सह संबंधाद् वीर्यश्रेष्ठैर्महाबलैः ।
'सौभाग्यसे मेरी सारी विघ्न-बाधाएँ पराजित हो गयीं । रघुकुलके महापुरुष महान् बलसे सम्पन्न और पराक्रममें सबसे श्रेष्ठ होते हैं । इस कुलके साथ सम्बन्ध होनेके कारण आज मेरे कुलका सम्मान बढ़ गया ॥ ११ १/२ ॥

श्वः प्रभाते नरेंद्र त्वं संवर्तयितुमर्हसि ॥ १२ ॥
यज्ञस्यांते नरश्रेष्ठ विवाहं ऋषिसत्तमैः ।
'नरश्रेष्ठ नरेन्द्र ! कल सबेरे इन सभी महर्षियों के साथ उपस्थित हो मेरे यज्ञकी समाप्तिके बाद आप श्रीरामके विवाहका शुभकार्य सम्पन्न करें ॥ १२ १/२ ॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्या ऋषिमध्ये नराधिपः ॥ १३ ॥
वाक्यं वाक्यविदां श्रेष्ठः प्रत्युवाच महीपतिम् ।
ऋषियोंकी मण्डलीमें राजा जनककी यह बात सुनकर बोलनेकी कला जाननेवाले विद्वानोंमें श्रेष्ठ एवं वाक्यमर्मज्ञ महाराज दशरथने मिथिलानरेशको इस प्रकार उत्तर दिया ॥ १३ १/२ ॥

प्रतिग्रहो दातृवशः श्रुतमेतन्मया पुरा ॥ १४ ॥
यथा वक्ष्यसि धर्मज्ञ तत्करिष्यामहे वयम् ।
'धर्मज्ञ ! मैंने पहलेसे यह सुन रखा है कि प्रतिग्रह दाताके अधीन होता है । अत: आप जैसा कहेंगे, हम वैसा ही करेंगे' ॥ १४ १/२ ॥

धर्मिष्ठं च यशस्यं च वचनं सत्यवादिनः ॥ १५ ॥
श्रुत्वा विदेहाधिपतिः परं विस्मयमागतः ।
सत्यवादी राजा दशरथका वह धर्मानुकूल तथा यशोवर्धक वचन सुनकर विदेहराज जनकको बड़ा विस्मय हुआ । ॥ १५ १/२ ॥

ततः सर्वे मुनिगणाः परस्परसमागमे ॥ १६ ॥
हर्षेण महता युक्ताः तां रात्रिमवसन् सुखम् ।
तदनन्तर सभी महर्षि एक-दूसरेसे मिलकर बहुत प्रसन्न हुए और सबने बड़े सुखसे वह रात बितायी ॥ १६ १/२ ॥

अथ रामो महातेजा लक्ष्मणेन समं ययौ ॥ १७ ॥
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य पितुः पादावुपस्पृशन् ।
इधर महातेजस्वी श्रीराम विश्वामित्रजीको आगे करके लक्ष्मणके साथ पिताजीके पास गये और उनके चरणोंका स्पर्श किया ॥ १७ १/२ ॥

राजा च राघवौ पुत्रौ निशाम्य परिहर्षितः ॥ १८ ॥
उवास परमप्रीतो जनकेनाभिपूजितः ।
राजा दशरथने भी जनकके द्वारा आदर-सत्कार पाकर बड़ी प्रसन्नताका अनुभव किया तथा अपने दोनों रघुकुल रन्त पुत्रोंको सकुशल देखकर उन्हें अपार हर्ष हुआ । वे रातमें बड़े सुखसे वहाँ रहे ॥ १८ १/२ ॥

जनकोऽपि महातेजाः क्रिया धर्मेण तत्त्ववित् ।
यज्ञस्य च सुताभ्यां च कृत्वा रात्रिमुवास ह ॥ १९ ॥
महातेजस्वी तत्त्वज्ञ राजा जनकने भी धर्मके अनुसार यज्ञकार्य सम्पन्न किया तथा अपनी दोनों कन्याओंके लिये मंगलाचारका सम्पादन करके सुखसे वह रात्रि व्यतीत की ॥ १९ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे एकोनसप्ततितमः सर्गः ॥ ६९ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें उनहत्तरवौं सर्ग पूरा हुआ ॥ ६९ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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