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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ सप्ततितमः सर्गः ॥


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जनकेन सांकाश्यातो स्वानुजस्य कुशध्वजस्य दूतैः समानयनं दशरथस्यानुरोधेन वसिष्ठकर्तृकं सूर्यवंश परंपरावर्णनं रामलक्ष्मणयोः कृते सीतोर्मिलयोर्वरणं च -
राजा जनकका अपने भाई कुशध्वजको सांकाश्या नगरीसे बुलवाना, राजा दशरथके अनुरोधसे वसिष्ठजीका सूर्यवंशका परिचय देते हुए श्रीराम और लक्ष्मणके लिये सीता तथा ऊर्मिलाको वरण करना -


ततः प्रभाते जनकः कृतकर्मा महर्षिभिः ।
उवाच वाक्यं वाक्यज्ञः शतानंदं पुरोहितम् ॥ १ ॥
तदनन्तर जब सबेरा हुआ और राजा जनक महर्षियोंके सहयोगसे अपना यज्ञ-कार्य सम्पन्न कर चुके, तब वे वाक्यमर्मज्ञ नरेश अपने पुरोहित शतानन्दजीसे इस प्रकार बोले- ॥ १ ॥

भ्राता मम महातेजा वीर्यवानतिधार्मिकः ।
कुशध्वज इति ख्यातः पुरीमध्यवसच्छुभाम् ॥ २ ॥
वार्याफलकपर्यंतां पिबन्निक्षुमतीं नदीम् ।
सांकाश्यां पुण्यसंकाशां विमानमिव पुष्पकम् ॥ ३ ॥
'ब्रह्मन् ! मेरे महातेजस्वी और पराक्रमी भाई कुशध्वज जो अत्यन्त धर्मात्मा हैं, इस समय इक्षुमती नदीका जल पीते हुए उसके किनारे बसी हुई कल्याणमयी सांकाश्या नगरीमें निवास करते हैं । उसके चारों ओरके परकोटोंकी रक्षाके लिये शत्रुओंके निवारणमें समर्थ बड़े-बड़े यन्त्र लगाये गये हैं । वह पुरी पुष्पकविमानके समान विस्तृत तथा पुण्यसे उपलब्ध होनेवाले स्वर्गलोकके सदृश सुन्दर है ॥ २-३ ॥

तमहं द्रष्टुमिच्छामि यज्ञगोप्ता स मे मतः ।
प्रीतिं सोऽपि महातेजा इमां भोक्ता मया सह ॥ ४ ॥
'वहाँ रहनेवाले अपने भाईको इस शुभ अवसरपर मैं यहाँ उपस्थित देखना चाहता हूँ; क्योंकि मेरी दृष्टिमें वे मेरे इस यज्ञके संरक्षक हैं । महातेजस्वी कुशध्वज भी मेरे साथ श्रीसीता-रामके विवाहसम्बन्धी इस मंगल समारोहका सुख उठावेंगे' ॥ ४ ॥

एवमुक्ते तु वचने शतानंदस्य संनिधौ ।
आगताः केचित् अव्यग्रा जनकस्तान् समादिशत् ॥ ५ ॥
राजाके इस प्रकार कहनेपर शतानन्दजीके समीप कुछ धीर स्वभावके पुरुष आये और राजा जनकने उन्हें पूर्वोक्त आदेश सुनाया ॥ ५ ॥

शासनात्तु नरेंद्रस्य प्रययुः शीघ्रवाजिभिः ।
समानेतुं नरव्याघ्रं विष्णुमिंद्राज्ञया यथा ॥ ६ ॥
राजाकी आज्ञासे वे श्रेष्ठ दूत तेज चलनेवाले घोड़ोंपर सवार हो पुरुषसिंह कुशध्वजको बुला लानेके लिये चल दिये । मानो इन्द्रकी आज्ञासे उनकै दूत भगवान् विष्णुको बुलाने जा रहे हों ॥ ६ ॥

सांकाश्यां ते समागम्य ददृशुश्च कुशध्वजम् ।
न्यवेदयन् यथावृत्तं जनकस्य च चिंतितम् ॥ ७ ॥
सांकाश्यामें पहुँचकर उन्होंने कुशध्वजसे भेंट की और मिथिलाका यथार्थ समाचार एवं जनकका अभिप्राय भी निवेदन किया ॥ ७ ॥

तद्‍वृत्तं नृपतिः श्रुत्वा दूतश्रेष्ठैः महाजवैः ।
आज्ञया तु नरेंद्रस्य आजगाम कुशध्वजः ॥ ८ ॥
उन महावेगशाली श्रेष्ठ दूतोंके मुखसे मिथिलाका सारा वृत्तान्त सुनकर राजा कुशध्वज महाराज जनककी आज्ञाके अनुसार मिथिलामें आये ॥ ८ ॥

स ददर्श महात्मानं जनकं धर्मवत्सलम् ।
सोऽभिवाद्य शतानंदं राजानं चातिधार्मिकम् ॥ ९ ॥
राजार्हं परमं दिव्यं आसनं सोऽध्यरोहत ।
वहाँ उन्होंने धर्मवत्सल महात्मा जनकका दर्शन किया । फिर शतानन्दजी तथा अत्यन्त धार्मिक जनकको प्रणाम करके वे राजाके योग्य परम दिव्य सिंहासनपर विराजमान हुए ॥ ९ १/२ ॥

उपविष्टाबुभौ तौ तु भ्रातरौ अमितद्युती ॥ १० ॥
प्रेषयामासतुर्वीरौ मंत्रिश्रेष्ठं सुदामनम् ।
गच्छ मंत्रिपते शीघ्रं इक्ष्वाकुं अमितप्रभम् ॥ ११ ॥
आत्मजैः सह दुर्धर्षं आनयस्व समंत्रिणम् ।
सिंहासनपर बैठे हुए उन दोनों अमिततेजस्वी वीरबन्धुओंने मन्त्रिप्रवर सुदामनको भेजा और कहा—'मन्त्रिवर ! आप शीघ्र ही अमित तेजस्वी इक्ष्वाकुकुलभूषण महाराज दशरथके पास जाइये और पुत्रों तथा मन्त्रियोंसहित उन दुर्जय नरेशको यहाँ बुला लाइये ॥ १०-११ १/२ ॥

औपकार्य्यं स गत्वा तु रघूणां कुलवर्धनम् ॥ १२ ॥
ददर्श शिरसा चैनं अभिवाद्येदमब्रवीत् ।
आज्ञा पाकर मन्त्री सुदामन महाराज दशरथके खेमे में जाकर रघुकुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले उन नरेशसे मिले और मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम करनेके पश्चात् इस प्रकार बोले— ॥ १२ १/२ ॥

अयोध्याधिपते वीर वैदेहो मिथिलाधिपः ॥ १३ ॥
स त्वां द्रष्टुं व्यवसितः सोपाध्यायपुरोहितम् ।
'वीर अयोध्यानरेश ! मिथिलापति विदेहराज जनक इस समय उपाध्याय और पुरोहितसहित आपका दर्शन करना चाहते हैं' ॥ १३ १/२ ॥

मंत्रिश्रेष्ठवचः श्रुत्वा राजा सर्षिगणस्तथा ॥ १४ ॥
सबंधुरगमत् तत्र जनको यत्र वर्तते ।
मन्त्रिवर सुदामनकी बात सुनकर राजा दशरथ ऋषियों और बन्धु-बान्धवोंके साथ उस स्थानपर गये जहाँ राजा जनक विद्यमान थे ॥ १४ १/२ ॥

राजा च मंत्रिसहितः सोपाध्यायः सबांधवः ॥ १५ ॥
वाक्यं वाक्यविदां श्रेष्ठो वैदेहमिदमब्रवीत् ।
मन्त्री, उपाध्याय और भाई-बन्धुओंसहित राजा दशरथ, जो बोलनेकी कला जाननेवाले विद्वानोंमें श्रेष्ठ थे, विदेहराज जनकसे इस प्रकार बोले— ॥ १५ १/२ ॥

विदितं ते महाराज इक्ष्वाकुकुलदैवतम् ॥ १६ ॥
वक्ता सर्वेषु कृत्येषु वसिष्ठो भगवान् ऋषिः ।
'महाराज ! आपको तो विदित ही होगा कि इक्ष्वाकुकूलके देवता ये महर्षि वसिष्ठजी हैं । हमारे यहाँ सभी कार्यों में ये भगवान् वसिष्ठ मुनि ही कर्तव्यका उपदेश करते हैं और इन्हींकी आज्ञाका पालन किया जाता है ॥ १६ १/२ ॥

विश्वामित्राभ्यनुज्ञातः सह सर्वैर्महर्षिभिः ॥ १७ ॥
एष वक्ष्यति धर्मात्मा वसिष्ठो मे यथाक्रमम् ।
'यदि सम्पूर्ण महर्षियोंसहित विश्वामित्रजीकी आज्ञा हो तो ये धर्मात्मा वसिष्ठ ही पहले मेरी कुल-परम्पराका क्रमश: परिचय देंगे' ॥ १७ १/२ ॥

तूष्णींभूते दशरथे वसिष्ठो भगवान् ऋषिः ॥ १८ ॥
उवाच वाक्यं वाक्यज्ञो वैदेहं सपुरोधसम् ।
यों कहकर जब राजा दशरथ चुप हो गये, तब वाक्यवेत्ता भगवान् वसिष्ठ मुनि पुरोहितसहित विदेहराजसे इस प्रकार बोले— ॥ १८ १/२ ॥

अव्यक्तप्रभवो ब्रह्मा शाश्वतो नित्य अव्ययः ॥ १९ ॥
तस्मान्मरीचिः सञ्जज्ञे मरीचेः काश्यपः सुतः ।
विवस्वान् काश्यपाज्जज्ञे मनुर्वैवस्वतः स्मृतः ॥ २० ॥
'ब्रह्माजीकी उत्पत्तिका कारण अव्यक्त है ये स्वयम्भू हैं । नित्य, शाश्वत और अविनाशी हैं । उनसे मरीचिकी उत्पत्ति हुई । मरीचिके पुत्र कश्यप हैं, कश्यपसे विवस्वान्का और विवस्वान्से वैवस्वत मनुका जन्म हुआ ॥ १९-२० ॥

मनुः प्रजापतिः पूर्वं इक्ष्वाकुश्च मनोः सुतः ।
तमिक्ष्वाकुमयोध्यायां राजानं विद्धि पूर्वकम् ॥ २१ ॥
'मनु पहले प्रजापति थे, उनसे इक्ष्वाकु नामक पुत्र हुआ । उन इक्ष्वाकुको ही आप अयोध्याके प्रथम राजा समझें । २१ ॥

इक्ष्वाकोस्तु सुतः श्रीमान् कुक्षिरित्येव विश्रुतः ।
कुक्षेरथात्मजः श्रीमान् विकुक्षिरुदपद्यत ॥ २२ ॥
'इक्ष्वाकुके पुत्रका नाम कुक्षि था । वे बड़े तेजस्वी थे । कुक्षिसे विकुक्षि नामक कान्तिमान् पुत्रका जन्म हुआ ॥ २२ ॥

विकुक्षेस्तु महातेजा बाणः पुत्रः प्रतापवान् ।
बाणस्य तु महातेजा अनरण्यः प्रतापवान् ॥ २३ ॥
'विकुक्षिके पुत्र महातेजस्वी और प्रतापी बाण हुए । बाणके पुत्रका नाम अनरण्य था । वे भी बड़े तेजस्वी और प्रतापी थे ॥ २३ ॥

अनरण्यात्पृथुर्जज्ञे त्रिशङ्‌कुस्तु पृथोरपि ।
त्रिशङ्‌कोरभवत् पुत्रो धुंधुमारो महायशाः ॥ २४ ॥
'अनरण्यसे पृथु और पृथुसे त्रिशंकुका जन्म हुआ । त्रिशंकुके पुत्र महायशस्वी धुन्धुमार थे ॥ २४ ॥

धुंधुमारान् महातेजा युवनाश्वो महारथः ।
युवनाश्वसुतश्चासीन् मान्धाता पृथिवीपतिः ॥ २५ ॥
'धुन्धुमारसे महातेजस्वी महारथी युवनाश्वका जन्म हुआ । युवनाश्वके पुत्र मान्धाता हुए, जो समस्त भूमण्डलके स्वामी थे ॥ २५ ॥

मांधातुस्तु सुतः श्रीमान् सुसंधिरुदपद्यत ।
सुसंधेरपि पुत्रौ द्वौ ध्रुवसंधिः प्रसेनजित् ॥ २६ ॥
'मान्धातासे सुसन्धि नामक कान्तिमान् पुत्रका जन्म हुआ । सुसन्धिके भी दो पुत्र हुए ध्रुवसन्धि और प्रसेनजित् ॥ २६ ॥

यशस्वी ध्रुवसंधेस्तु भरतो नाम नामतः
भरतात् तु महातेजा असितो नाम जायत ॥ २७ ॥
'ध्रुवसन्धिसे भरत नामक यशस्वी पुत्रका जन्म हुआ । भरतसे महातेजस्वी असितकी उत्पत्ति हुई ॥ २७ ॥

यस्यैते प्रतिराजान उदपद्यंत शत्रवः ।
हैहयास्तालजङ्‌घाश्च शूराश्च शशबिंदवः ॥ २८ ॥
'राजा असितके साथ हैहय, तालजङ्घ और शशबिन्दु इन तीन राजवंशोंके लोग शत्रुता रखने लगे थे ॥ २८ ॥

तांश्च स प्रतियुध्यन् वै युद्धे राजा प्रवासितः ।
हिमवंतं उपागम्य भार्याभ्यां सहितस्तदा ॥ २९ ॥
'युद्धमें इन तीनों शत्रुओंका सामना करते हुए राजा असित प्रवासी हो गये । वे अपनी दो रानियोंके साथ हिमालयपर आकर रहने लगे ॥ २९ ॥

असितोऽल्पबलो राजा कालधर्मं उपेयिवान् ।
द्वे चास्य भार्ये गर्भिण्यौ बभूवतुरिति श्रुतिः ॥ ३० ॥
'राजा असितके पास बहुत थोड़ी सेना शेष रह गयी थी । वे हिमालयपर ही मृत्युको प्राप्त हो गये । उस समय उनकी दोनों रानियाँ गर्भवती थीं, ऐसा सुना गया है ॥ ३० ॥

एका गर्भविनाशार्थं सपत्‍न्यै सगरं ददौ ।
'उनमेंसे एक रानीने अपनी सौतका गर्भ नष्ट करनेके लिये उसे विषयुक्त भोजन दे दिया ॥ ३० १/२ ॥

ततः शैलवरे रम्ये बभूवाभिरतो मुनिः ॥ ३१ ॥
भार्गवश्च्यवनो नाम हिमवंतमुपाश्रितः ।
तत्र चैका महाभागा भार्गवं देववर्चसम् ॥ ३२ ॥
ववंदे पद्मपत्राक्षी काङ्‌क्षंती सुतमुत्तमम् ।
तं ऋषिं साभ्युपागम्य कालिंदी चाभ्यवादयत् ॥ ३३ ॥
'उस समय उस रमणीय एवं श्रेष्ठ पर्वतपर भृगुकुलमें उत्पन्न हुए महामुनि च्यवन तपस्यामें लगे हुए थे । हिमालयपर ही उनका आश्रम था । उन दोनों रानियोंमेंसे एक (जिसे जहर दिया गया था) कालिन्दीनामसे प्रसिद्ध थी । विकसित कमलदलके समान नेत्रोंवाली महाभागा कालिन्दी एक उत्तम पुत्र पानेकी इच्छा रखती थी । उसने देवतुल्य तेजस्वी भृगुनन्दन च्यवनके पास जाकर उन्हें प्रणाम किया ॥ ३१-३३ ॥

स तां अभ्यवदद् विप्रः पुत्रेप्सुं पुत्रजन्मनि ।
तव कुक्षौ महाभागे सुपुत्रः सुमहाबलः ॥ ३४ ॥
महावीर्यो महातेजा अचिरात् संजनिष्यति ।
गरेण सहितः श्रीमान् मा शुचः कमलेक्षणे ॥ ३५ ॥
'उस समय ब्रह्मर्षि च्यवनने पुत्रकी अभिलाषा रखनेवाली कालिन्दीसे पुत्र-जन्मके विषयमें कहा—'महाभागे ! तुम्हारे उदर में एक महान् बलवान, महातेजस्वी और महापराक्रमी उत्तम पुत्र है, वह कान्तिमान् बालक थोड़े ही दिनोंमें गर (जहर) के साथ उत्पन्न होगा । अत: कमललोचने ! तुम पुत्रके लिये चिन्ता न करो' ॥ ३४-३५ ॥

च्यवनं च नमस्कृत्य राजपुत्री पतिव्रता ।
पत्या विरहिता तस्मात् पुत्रं देवी व्यजायत ॥ ३६ ॥
'वह विधवा राजकुमारी कालिन्दी बड़ी पतिव्रता थी । महर्षि च्यवनको नमस्कार करके वह देवी अपने आश्रमपर लौट आयी । फिर समय आनेपर उसने एक पुत्रको जन्म दिया ॥ ३६ ॥

सपत्‍न्या तु गरस्तस्यै दत्तो गर्भजिघांसया ।
सह तेन गरेणैव जातः स सगरोऽभवत् ॥ ३७ ॥
'उसकी सौतने उसके गर्भको नष्ट कर देनेके लिये जो गर (विष) दिया था, उसके साथ ही उत्पन्न होनेके कारण वह राजकुमार 'सगर' नामसे विख्यात हुआ ॥ ३७ ॥

सगरस्यासमञ्जस्तु असमञ्जादथांशुमान् ।
दिलीपोंऽशुमतः पुत्रो दिलीपस्य भगीरथः ॥ ३८ ॥
'सगरके पुत्र असमंज और असमंजके पुत्र अंशुमान् हुए । अंशुमान्के पुत्र दिलीप और दिलीपके पुत्र भगीरथ हुए ॥ ३८ ॥

भगीरथात्ककुत्स्थश्च ककुत्स्थस्य रघुस्तथा ।
रघोस्तु पुत्रस्तेजस्वी प्रवृद्धः पुरुषादकः ॥ ३९ ॥
'भगीरथसे ककुत्स्थ और ककुत्स्थसे रघुका जन्म हुआ । रघुके तेजस्वी पुत्र प्रवृद्ध हुए, जो शापसे राक्षस हो गये थे ॥ ३९ ॥

कल्माषपादोप्यभवत् तस्माज्जातस्तु शङ्‌खणः
सुदर्शनः शङ्‌खणस्य अग्निवर्णः सुदर्शनात् ॥ ४० ॥
'वे ही कल्माषपाद नामसे भी प्रसिद्ध हुए थे । उनसे शङ्खण नामक पुत्रका जन्म हुआ था । शङ्खणके पुत्र सुदर्शन और सुदर्शनके अग्निवर्ण हुए ॥ ४० ॥

शीघ्रगस्त्वग्निवर्णस्य शीघ्रगस्य मरुः सुतः ।
मरोः प्रशुश्रुकस्त्वासीद् अंबरीषः प्रशुश्रुकात् ॥ ४१ ॥
'अग्निवर्णके शीघ्रग और शीघ्रगके पुत्र मरु थे । मरुसे प्रशुश्रुक और प्रशुश्रुकसे अम्बरीषकी उत्पत्ति हुई । ॥ ४१ ॥

अंबरीषस्य पुत्रोऽभूत् नहुषश्च महीपतिः ।
नहुषस्य ययातिस्तु नाभागस्तु ययातिजः ॥ ४२ ॥
नाभागस्य बभूवाज अजाद्दशरथोऽभवत् ।
अस्माद्दशरथाज्जातौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥ ४३ ॥
'अम्बरीषके पुत्र राजा नहुष हुए । नहुषके ययाति और ययातिके पुत्र नाभाग थे । नाभागके अज हुए । अजसे दशरथका जन्म हुआ । इन्हीं महाराज दशरथसे ये दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण उत्पन्न हुए हैं ॥ ४२-४३ ॥

आदिवंशविशुद्धानां राज्ञां परमधर्मिणाम् ।
इक्ष्वाकुकुलजातानां वीराणां सत्यवादिनाम् ॥ ४४ ॥
'इक्ष्वाकुकुलमें उत्पन्न हुए राजाओंका वंश आदिकालसे ही शुद्ध रहा है । ये सब-के-सब परम धर्मात्मा, वीर और सत्यवादी होते आये हैं ॥ ४४ ॥

रामलक्ष्मणयोरर्थे त्वत्सुते वरये नृप ।
सदृशाभ्यां नरश्रेष्ठ सदृशे दातुमर्हसि ॥ ४५ ॥
'नरश्रेष्ठ ! नरेश्वर ! इसी इक्ष्वाकुकुलमें उत्पन्न हुए श्रीराम और लक्ष्मणके लिये मैं आपकी दो कन्याओंका वरण करता हूँ । ये आपकी कन्याओंके योग्य हैं और आपकी कन्याएँ इनके योग्य । अत: आप इन्हें कन्यादान करें ॥ ४५ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे सप्ततितमः सर्गः ॥ ७० ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें सत्तरवौं सर्ग पूरा हुआ ॥ ७० ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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