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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ द्विसप्ततितमः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] विश्वामित्रेण भरतशत्रुघ्नयोः कृते कुशध्वज कन्ययोर्वरणं जनकेन तस्य स्वीकरणं दशरथेन पुत्राणां मङ्गलार्थं नान्दीश्राद्ध गोदानयोः अनुष्ठानम् -
विश्वामित्रद्वारा भरत और शत्रुघ्नके लिये कुशध्वजकी कन्याओंका वरण, राजा जनकद्वारा इसकी स्वीकृति तथा राजा दशरथका अपने पुत्रोंके मंगलके लिये नान्दीश्राद्ध एवं गोदान करना - तमुक्तवंतं वैदेहं विश्वामित्रो महामुनिः । उवाच वचनं वीरं वसिष्ठसहितो नृपम् ॥ १ ॥ विदेहराज जनक जब अपनी बात समाप्त कर चुके, तब वसिष्ठसहित महामुनि विश्वामित्र उन वीर नरेशसे इस प्रकार बोले ॥ १ ॥ अचिंत्यान्यप्रमेयाणि कुलानि नरपुङ्गव । इक्ष्वाकूणां विदेहानां नैषां तुल्योऽस्ति कश्चन ॥ २ ॥ 'नरश्रेष्ठ ! इक्ष्वाकु और विदेह दोनों ही राजाओंके वंश अचिन्तनीय हैं । दोनोंके ही प्रभावकी कोई सीमा नहीं है । इन दोनोंकी समानता करनेवाला दूसरा कोई राजवंश नहीं है ॥ २ ॥ सदृशो धर्मसंबंधः सदृशो रूपसंपदा । रामलक्ष्मणयो राजन् सीता चोर्मिलया सह ॥ ३ ॥ 'राजन् ! इन दोनों कुलोंमें जो यह धर्म-सम्बन्ध स्थापित होने जा रहा है, सर्वथा एक-दूसरेके योग्य है । रूपवैभवकी दृष्टिसे भी समान योग्यताका है; क्योंकि ऊर्मिलासहित सीता श्रीराम और लक्ष्मणके अनुरूप है ॥ ३ ॥ वक्तव्यं च नरश्रेष्ठ श्रूयतां वचनं मम । भ्राता यवीयान् धर्मज्ञ एष राजा कुशध्वजः ॥ ४ ॥ अस्य धर्मात्मनो राजन् रूपेणाप्रतिमं भुवि । सुताद्वयं नरश्रेष्ठ पत्न्यर्थं वरयामहे ॥ ५ ॥ भरतस्य कुमारस्य शत्रुघ्नस्य च धीमतः । वरये ते सुते राजन् तयोरर्थे महात्मनोः ॥ ६ ॥ 'नरश्रेष्ठ ! इसके बाद मुझे भी कुछ कहना है; आप मेरी बात सुनिये । राजन् ! आपके छोटे भाई जो ये धर्मज्ञ राजा कुशध्वज बैठे हैं, इन धर्मात्मा नरेशके भी दो कन्याएँ हैं, जो इस भूमण्डल में अनुपम सुन्दरी हैं । नरश्रेष्ठ ! भूपाल ! मैं आपकी उन दोनों कन्याओंका कुमार भरत और बुद्धिमान् शत्रुघ्न इन दोनों महामनस्वी राजकुमारोंके लिये इनकी धर्मपन्ती बनानेके उद्देश्यसे वरण करता हूँ ॥ ४–६ ॥ पुत्रा दशरथस्येमे रूपयौवनशालिनः । लोकपालसमाः सर्वे देवतुल्यपराक्रमाः ॥ ७ ॥ 'राजा दशरथके ये सभी पुत्र रूप और यौवनसे सुशोभित, लोकपालोंके समान तेजस्वी तथा देवताओंके तुल्य पराक्रमी हैं ॥ ७ ॥ उभयोरपि राजेंद्र संबंधेनानुबध्यताम् । इक्ष्वाकोः कुलमव्यग्रं भवतः पुण्यकर्मणः ॥ ८ ॥ 'राजेन्द्र ! इन दोनों भाइयों (भरत और शत्रुघ्न) को भी कन्यादान करके आप इस समस्त इक्ष्वाकुकुलको अपने सम्बन्धसे बाँध लीजिये । आप पुण्यकर्मा पुरुष हैं; आपके चित्तमें व्यग्रता नहीं आनी चाहिये (अर्थात् आप यह सोचकर व्यग्र न हों कि ऐसे महान् सम्राट्के साथ मैं एक ही समय चार वैवाहिक सम्बन्धोंका निर्वाह कैसे कर सकता हूँ । ) ॥ ८ ॥ विश्वामित्रवचः श्रुत्वा वसिष्ठस्य मते तदा । जनकः प्राञ्जलिर्वाक्यं उवाच मुनिपुङ्गवौ ॥ ९ ॥ वसिष्ठजीकी सम्मतिके अनुसार विश्वामित्रजीका यह वचन सुनकर उस समय राजा जनकने हाथ जोड़कर उन दोनों मुनिवरोंसे कहा ॥ ९ ॥ कुलं धन्यमिदं मन्ये येषां नो मुनिपुङ्गवौ । सदृशं कुलसंबंधं यदाज्ञापयतः स्स्वयम् ॥ १० ॥ 'मुनिपुंगवो ! मैं अपने इस कुलको धन्य मानता हूँ, जिसे आप दोनों इक्ष्वाकुवंशके योग्य समझकर इसके साथ सम्बन्ध जोड़नेके लिये स्वयं आज्ञा दे रहे हैं । ॥ १० ॥ एवं भवतु भद्रं वः कुशध्वजसुते इमे । पत्न्यौ भजेतां सहितौ शत्रुघ्नभरतावुभौ ॥ ११ ॥ 'आपका कल्याण हो । आप जैसा कहते हैं, ऐसा ही हो । ये सदा साथ रहनेवाले दोनों भाई भरत और शत्रुघ्न कुशध्वजकी इन दोनों कन्याओं (मेंसे एक-एक) को अपनी-अपनी धर्मपन्तीके रूपमें ग्रहण करें ॥ ११ ॥ एकाह्ना राजपुत्रीणां चतसॄणां महामुने । पाणीन् गृह्णंतु चत्वारो राजपुत्रा महाबलाः ॥ १२ ॥ 'महामुने ! ये चारों महाबली राजकुमार एक ही दिन हमारी चारों राजकुमारियोंका पाणिग्रहण करें ॥ १२ ॥ उत्तरे दिवसे ब्रह्मन् फल्गुनीभ्यां मनीषिणः । वैवाहिकं प्रशंसंति भगो यत्र प्रजापतिः ॥ १३ ॥ 'ब्रह्मन् ! अगले दो दिन फाल्गुनी नामक नक्षत्रोंसे युक्त हैं । इनमें (पहले दिन तो पूर्वा फाल्गुनी है और) दूसरे दिन (अर्थात् परसों) उत्तरा फाल्गुनी नामक नक्षत्र होगा, जिसके देवता प्रजापति भग (तथा अर्यमा) हैं । मनीषी पुरुष उस नक्षत्रमें वैवाहिक कार्य करना बहुत उत्तम बताते हैं' ॥ १३ ॥ एवमुक्त्वा वचः सौम्यं प्रत्युत्थाय कृताञ्जलिः । उभौ मुनिवरौ राजा जनको वाक्यमब्रवीत् ॥ १४ ॥ इस प्रकार सौम्य (मनोहर) वचन कहकर राजा जनक उठकर खड़े हो गये और उन दोनों मुनिवरोंसे हाथ जोड़कर बोले— ॥ १४ ॥ परो धर्मः कृतो मह्यं शिष्योऽस्मि भवतोस्तथा । इमान्यासनमुख्यानि आसातां मुनिपुङ्गवौ ॥ १५ ॥ 'आपलोगोंने कन्याओंका विवाह निश्चित करके मेरे लिये महान् धर्मका सम्पादन कर दिया; मैं आप दोनोंका शिष्य हूँ । मुनिवरो ! इन श्रेष्ठ आसनोंपर आप दोनों विराजमान हों ॥ १५ ॥ यथा दशरथस्येयं तथायोध्या पुरी मम । प्रभुत्वे नास्ति संदेहो यथार्हं कर्तुमर्हथ ॥ १६ ॥ 'आपके लिये जैसी राजा दशरथकी अयोध्या है, वैसी ही यह मेरी मिथिलापुरी भी है । आपका इसपर पूरा अधिकार है, इसमें संदेह नहीं; अत: आप हमें यथायोग्य आज्ञा प्रदान करते रहें ॥ १६ ॥ तथा ब्रुवति वैदेहे जनके रघुनंदनः । राजा दशरथो हृष्टः प्रत्युवाच महीपतिम् ॥ १७ ॥ विदेहराज जनकके ऐसा कहनेपर रघुकुलका आनन्द बढ़ानेवाले राजा दशरथने प्रसन्न होकर उन मिथिलानरेशको इस प्रकार उत्तर दिया— ॥ १७ ॥ युवां असंख्येयगुणौ भ्रातरौ मिथिलेश्वरौ । ऋषयो राजसङ्घाश्च भवद्भ्यामभिपूजिताः ॥ १८ ॥ मिथिलेश्वर ! आप दोनों भाइयोंके गुण असंख्य हैं; आपलोगोंने ऋषियों तथा राजसमूहोंका भलीभाँति सत्कार किया है ॥ १८ ॥ स्वस्ति प्राप्नुहि भद्रं ते गमिष्यामि स्वमालयम् । श्राद्धकर्माणि विधिवद् विधास्य इति चाब्रवीत् ॥ १९ ॥ 'आपका कल्याण हो, आप मंगलके भागी हों । अब हम अपने विश्रामस्थानको जायेंगे । वहाँ जाकर मैं विधिपूर्वक नान्दीमुखश्राद्धका कार्य सम्पन्न करूँगा । ' यह बात भी राजा दशरथने कही ॥ १९ ॥ तमापृष्ट्वा नरपतिं राजा दशरथस्तदा । मुनींद्रौ तौ पुरस्कृत्य जगामाशु महायशाः ॥ २० ॥ तदनन्तर मिथिलानरेशकी अनुमति ले महायशस्वी राजा दशरथ मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र और वसिष्ठको आगे करके तुरंत अपने आवासस्थानपर चले गये ॥ २० ॥ स गत्वा निलयं राजा श्राद्धं कृत्वा विधानतः । प्रभाते काल्यमुत्थाय चक्रे गोदानमुत्तमम् ॥ २१ ॥ डेरेपर जाकर राजा दशरथने (अपराह्नकालमें) विधिपूर्वक आभ्युदयिक श्राद्ध सम्पन्न किया । तत्पश्चात् (रात बीतनेपर) प्रात:काल उठकर राजाने तत्कालोचित उत्तम गोदान-कर्म किया ॥ २१ ॥ गवां शतसहस्रं च ब्राह्मणेभ्यो नराधिपः । एकैकशो ददौ राजा पुत्रानुद्दिश्य धर्मतः ॥ २२ ॥ राजा दशरथने अपने एक-एक पुत्रके मंगलके लिये धर्मानुसार एक-एक लाख गौएँ ब्राह्मणोंको दान की ॥ २२ ॥ सुवर्णशृङ्ग्यः संपन्नाः सवत्साः कांस्यदोहनाः । गवां शतसहस्राणि चत्वारि पुरुषर्षभः ॥ २३ ॥ वित्तमन्यच्च सुबहु द्विजेभ्यो रघुनंदनः । ददौ गोदानमुद्दिश्य पुत्राणां पुत्रवत्सलः ॥ २४ ॥ उन सबके सींग सोनेसे मढ़े हुए थे । उन सबके साथ बछड़े और काँसेके दुग्धपात्र थे । इस प्रकार पुत्रवत्सल रघुकुलनन्दन पुरुषशिरोमणि राजा दशरथने चार लाख गौओंका दान किया तथा और भी बहुत-सा धन पुत्रोंके लिये गोदानके उद्देश्यसे ब्राह्मणोंको दिया ॥ २३-२४ ॥ ससुतैः कृतगोदानैः वृतः सन् नृपतिस्तदा । लोकपालैरिवाभाति वृतः सौम्यः प्रजापतिः ॥ २५ ॥ गोदान-कर्म सम्पन्न करके आये हुए पुत्रोंसे घिरे हुए राजा दशरथ उस समय लोकपालोंसे घिरकर बैठे हुए शान्तस्वभाव प्रजापति ब्रह्माके समान शोभा पा रहे थे ॥ २५ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे द्विसप्ततितमः सर्गः ॥ ७२ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें बहत्तरवा सर्ग पूरा हुआ ॥ ७२ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |