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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ त्रिसप्ततितमः सर्गः ॥


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श्रीरामादीनां चतुर्णां भ्रातॄणां विवाहः -
श्रीराम आदि चारों भाइयोंका विवाह -


यस्मिंस्तु दिवसे राजा चक्रे गोदानमुत्तमम् ।
तस्मिंस्तु दिवसे वीरो युधाजित् समुपेयिवान् ॥ १ ॥
पुत्रः केकय राजस्य साक्षाद्‍भरतमातुलः ।
दृष्ट्‍वा पृष्ट्‍वा च कुशलं राजानमिदमब्रवीत् ॥ २ ॥
राजा दशरथने जिस दिन अपने पुत्रोंके विवाहके निमित्त उत्तम गोदान किया, उसी दिन भरतके सगे मामा केकयराजकुमार वीर युधाजित् वहाँ आ पहुंचे । उन्होंने महाराजका दर्शन करके कुशल-मंगल पूछा और इस प्रकार कहा ॥ १-२ ॥

केकयाधिपती राजा स्नेहात् कुशलमब्रवीत् ।
येषां कुशलकामोऽसि तेषां संप्रत्यनामयम् ॥ ३ ॥
स्वस्रीयं मम राजेंद्र द्रष्टुकामो महीपतिः ।
तदर्थं उपयातोऽहं अयोध्यां रघुनंदन ॥ ४ ॥
श्रुत्वा त्वहमयोध्यायां विवाहार्थं तवात्मजान् ।
रघुनन्दन ! केकयदेशके महाराजने बड़े स्नेहके साथ आपका कुशल-समाचार पूछा है और आप भी हमारे यहाँक जिन-जिन लोगोंकी कुशलवार्ता जानना चाहते होंगे, वे सब इस समय स्वस्थ और सानन्द हैं । राजेन्द्र ! केकयनरेश मेरे भान्जे भरतको देखना चाहते हैं । अत: इन्हें लेनेके लिये ही मैं अयोध्या आया था ॥ ३-४ १/२ ॥

मिथिलां उपयातांस्तु त्वया सह महीपते ॥ ५ ॥
त्वरयाभ्युपयातोऽहं द्रष्टुकामः स्वसुः सुतम् ।
'परंतु पृथ्वीनाथ ! अयोध्यामें यह सुनकर कि 'आपके सभी पुत्र विवाहके लिये आपके साथ मिथिला पधारे हैं, मैं तुरंत यहाँ चला आया; क्योंकि मेरे मनमें अपनी बहिनके बेटेको देखनेकी बड़ी लालसा थी ॥ ५ १/२ ॥

अथ राजा दशरथः प्रियातिथिमुपस्थितम् ॥ ६ ॥
दृष्ट्‍वा परमसत्कारैः पूजनार्हमपूजयत् ।
महाराज दशरथने अपने प्रिय अतिथिको उपस्थित देख बड़े सत्कारके साथ उनकी आवभगत की; क्योंकि वे सम्मान पानेके ही योग्य थे ॥ ६ १/२ ॥

ततस्तामुषितो रात्रिं सह पुत्रैर्महात्मभिः ॥ ७ ॥
प्रभाते पुनरुत्थाय कृत्वा कर्माणि तत्त्ववित् ।
ऋषींस्तदा पुरस्कृत्य यज्ञवाटमुपागमत् ॥ ८ ॥
तदनन्तर अपने महामनस्वी पुत्रोंके साथ वह रात व्यतीत करके वे तत्त्वज्ञ नरेश प्रात:काल उठे और नित्यकर्म करके ऋषियोंको आगे किये जनककी यज्ञशालामें जा पहुँचे ॥ ७-८ ॥

युक्ते मुहूर्ते विजये सर्वाभरणभूषितैः ।
भ्रातृभिः सहितो रामः कृतकौतुकमङ्‍गलः ॥ ९ ॥
वसिष्ठं पुरतः कृत्वा महर्षीन् अपरानपि ।
वसिष्ठो भगवानेत्य वैदेहमिदमब्रवीत् ॥ १० ॥
तत्पश्चात् विवाहके योग्य विजय नामक मुहूर्त आनेपर दूल्हेके अनुरूप समस्त वेश-भूषासे अलंकृत हुए भाइयोंके साथ श्रीरामचन्द्रजी भी वहाँ आये । वे विवाहकालोचित मंगलाचार पूर्ण कर चुके थे तथा वसिष्ठ मुनि एवं अन्यान्य महर्षियोंको आगे करके उस मण्डपमें पधारे थे । उस समय भगवान् वसिष्ठने विदेहराज जनकके पास जाकर इस प्रकार कहा— ॥ ९-१० ॥

राजा दशरथो राजन् कृतकौतुकमङ्‍गलैः ।
पुत्रैर्नरवरश्रेष्ठ दातारमभिकाङ्‍क्षते ॥ ११ ॥
'राजन् ! नरेशोंमें श्रेष्ठ महाराज दशरथ अपने पुत्रोंका वैवाहिकसूत्र-बन्धनरूप मंगलाचार सम्पन्न करके उन सबके साथ पधारे हैं और भीतर आनेके लिये दाताके आदेशकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ॥ ११ ॥

दातृप्रतिगृहीतृभ्यां सर्वार्थाः संभवंति हि ।
स्वधर्मं प्रतिपद्यस्व कृत्वा वैवाह्यमुत्तमम् ॥ १२ ॥
'क्योंकि दाता और प्रतिग्रहीता (दान ग्रहण करनेवाले) का संयोग होनेपर ही समस्त दान-धर्मोंका सम्पादन सम्भव होता है; अत: आप विवाह-कालोपयोगी शुभ कर्मोंका अनुष्ठान करके उन्हें बुलाइये और कन्यादानरूप स्वधर्मका पालन कीजिये ॥ १२ ॥

इत्युक्तः परमोदारो वसिष्ठेन महात्मना ।
प्रत्युवाच महातेजा वाक्यं परमधर्मवित् ॥ १३ ॥
महात्मा वसिष्ठके ऐसा कहनेपर परम उदार, परम धर्मज्ञ और महातेजस्वी राजा जनकने इस प्रकार उत्तर दिया - ॥ १३ ॥

कः स्थितः प्रतिहारो मे कस्याज्ञा संप्रतीक्षते ।
स्वगृहे को विचारोऽस्ति यथा राज्यमिदं तव ॥ १४ ॥
कृतकौतुकसर्वस्वा वेदिमूलमुपागताः ।
मम कन्या मुनिश्रेष्ठ दीप्ता वह्नेरिवार्चिषः ॥ १५ ॥
'मुनिश्रेष्ठ ! महाराजके लिये मेरे यहाँ कौन-सा पहरेदार खड़ा है । वे किसके आदेशकी प्रतीक्षा करते हैं । अपने घरमें आनेके लिये कैसा सोच-विचार है ? यह जैसे मेरा राज्य है, वैसे ही आपका है । मेरी कन्याओंका वैवाहिक सूत्रबन्धनरूप मंगलकृत्य सम्पन्न हो चुका है । अब वे यज्ञवेदीके पास आकर बैठी हैं और अग्निकी प्रज्वलित शिखाओंके समान प्रकाशित हो रही हैं ॥ १४-१५ ॥

सज्जोऽहं त्वत्प्रतीक्षोऽस्मि वेद्यामस्यां प्रतिष्ठितः ।
अविघ्नं कुरुतां राजा किमर्थं हि विलंब्यते ॥ १६ ॥
'इस समय तो मैं आपकी ही प्रतीक्षामें वेदीपर बैठा हूँ । आप निर्विघ्नतापूर्वक सब कार्य पूर्ण कीजिये । विलम्ब किसलिये करते हैं ?' ॥ १६ ॥

तद्वाक्यं जनकेनोक्तं श्रुत्वा दशरथस्तदा ।
प्रवेशयामास सुतान् सर्वान् ऋषिगणानपि ॥ १७ ॥
वसिष्ठजीके मुखसे राजा जनककी कही हुई बात सुनकर महाराज दशरथ उस समय अपने पुत्रों और सम्पूर्ण महर्षियोंको महलके भीतर ले आये ॥ १७ ॥

ततो राजा विदेहानां वसिष्ठमिदमब्रवीत् ।
कारयस्व ऋषे सर्वां ऋषिभिः सहधार्मिक ॥ १८ ॥
रामस्य लोकरामस्य क्रियां वैवाहिकीं प्रभो ।
तदनन्तर विदेहराजने वसिष्ठजीसे इस प्रकार कहा—'धर्मात्मा महर्षे ! प्रभो ! आप ऋषियोंको साथ लेकर लोकाभिराम श्रीरामके विवाहकी सम्पूर्ण क्रिया कराइये ॥ १८ १/२ ॥

तथेत्युक्त्वा तु जनकं वसिष्ठो भगवान् ऋषिः ॥ १९ ॥
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य शतानंदं च धार्मिकम् ।
प्रपामध्ये तु विधिवद् वेदिं कृत्वा महातपाः ॥ २० ॥
अलंचकार तां वेदिं गंधपुष्पैः समंततः ।
सुवर्णपालिकाभिश्च चिद्रकुंभैश्च साङ्‍कुरैः ॥ २१ ॥
अङ्‍कुराढ्यैः शरावैश्च धूपपात्रैः सधूपकैः ।
शङ्‍खपात्रैः स्रुवैः स्रुग्भिः पात्रैरर्घ्याभिपूजितैः ॥ २२ ॥
लाजपूर्णैश्च पात्रीभिः अक्षतैरपि संस्कृतैः ।
दर्भैः समैः समास्तीर्य विधिवत् मंत्रपूर्वकम् ॥ २३ ॥
अग्निमाधाय वेद्यां तु विधिमंत्र पुरस्कृतम् ।
जुहावाग्नौ महातेजा वसिष्ठो मुनिपुङ्गवः ॥ २४ ॥
तब जनकजीसे 'बहुत अच्छा' कहकर महातपस्वी भगवान् वसिष्ठ मुनिने विश्वामित्र और धर्मात्मा शतानन्दजीको आगे करके विवाह-मण्डपके मध्यभागमें विधिपूर्वक वेदी बनायी और गन्ध तथा फूलोंके द्वारा उसे चारों ओरसे सुन्दर रूपमें सजाया । साथ ही बहुत-सी सुवर्ण-पालिकाएँ, यवके अंकुरोंसे युक्त चित्रित कलश, अंकुर जमाये हुए सकोरे, धूपयुक्त धूपपात्र, शङ्खपात्र, सुवा, सुक्, अर्घ्य आदि पूजनपात्र, लावा (खीलों) से भरे हुए पात्र तथा धोये हुए अक्षत आदि समस्त सामग्रियोंको भी यथास्थान रख दिया । तत्पश्चात् महातेजस्वी मुनिवर वसिष्ठजीने बराबर-बराबर कुशोंको वेदीके चारों ओर बिछाकर मन्त्रोच्चारण करते हुए विधिपूर्वक अग्निस्था पन किया और विधिको प्रधानता देते हुए मन्त्रपाठपूर्वक प्रज्वलित अग्निमें हवन किया ॥ १९-२४ ॥

ततः सीतां समानीय सर्वाभरणभूषिताम् ।
समक्षमग्नेः संस्थाप्य राघवाभिमुखे तदा ॥ २५ ॥
अब्रवीत् जनको राजा कौसल्यानंदवर्धनम् ।
इयं सीता मम सुता सहधर्मचरी तव ॥ २६ ॥
प्रतीच्छ चैनां भद्रं ते पाणिं गृह्णीष्व पाणिना ।
पतिव्रता महाभागा छायेवानुगता सदा ॥ २७ ॥
तदनन्तर राजा जनकने सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित सीताको ले आकर अग्निके समक्ष श्रीरामचन्द्रजीके सामने बिठा दिया और माता कौसल्याका आनन्द बढ़ानेवाले उन श्रीरामसे कहा—'रघुनन्दन ! तुम्हारा कल्याण हो । यह मेरी पुत्री सीता तुम्हारी सहधर्मिणीके रूपमें उपस्थित है; इसे स्वीकार करो और इसका हाथ अपने हाथमें लो । यह परम पतिव्रता, महान् सौभाग्यवती और छायाकी भाँति सदा तुम्हारे पीछे चलनेवाली होगी ॥ २५–२७ ॥

इत्युक्त्वा प्राक्षिपद् राजा मंत्रपूतं जलं तदा ।
साधु साध्विति देवानां ऋषीणां वदतां तदा ॥ २८ ॥
यह कहकर राजाने श्रीरामके हाथमें मन्त्रसे पवित्र हुआ संकल्पका जल छोड़ दिया । उस समय देवताओं और ऋषियोंके मुखसे जनकके लिये साधुवाद सुनायी देने लगा ॥ २८ ॥

देवदुंदुभिनिर्घोषः पुष्पवर्षो महानभूत् ।
एवं दत्त्वा तदा सीतां मंत्रोदक पुरस्कृताम् ॥ २९ ॥
अब्रवीत् जनको राजा हर्षेणाभिपरिप्लुतः ।
लक्ष्मणागच्छ भद्रं ते ऊर्मिलां उद्यतां मया ॥ ३० ॥
प्रतीच्छ पाणिं गृह्णीष्व मा भूत् कालस्य पर्ययः ।
देवताओंके नगाड़े बजने लगे और आकाशसे फूलोंकी बड़ी भारी वर्षा हुई । इस प्रकार मन्त्र और संकल्पके जलके साथ अपनी पुत्री सीताका दान करके हर्षमग्न हुए राजा जनकने लक्ष्मणसे कहा—'लक्ष्मण ! तुम्हारा कल्याण हो । आओ, मैं ऊर्मिलाको तुम्हारी सेवामें दे रहा हूँ । इसे स्वीकार करो । इसका हाथ अपने हाथमें लो । इसमें विलम्ब नहीं होना चाहिये' ॥ २९-३० १/२ ॥

तमेवमुक्त्वा जनको भरतं चाभ्यभाषत ॥ ३१ ॥
गृहाण पाणिं माण्डव्याः पाणिना रघुनंदन ।
लक्ष्मणसे ऐसा कहकर जनकने भरतसे कहा- 'रघुनन्दन ! माण्डवीका हाथ अपने हाथमें लो' ॥ ३१ १/२ ॥

शत्रुघ्नं चापि धर्मात्मा अब्रवीन् मिथिलेश्वरः ॥ ३२ ॥
श्रुतकीर्ते महाबाहो पाणिं गृह्णीष्व पाणिना ।
सर्वे भवंतः सौम्याश्च सर्वे सुचरितव्रताः ॥ ३३ ॥
फिर धर्मात्मा मिथिलेशने शत्रुघ्नको सम्बोधित करके कहा—'महाबाहो ! तुम अपने हाथसे श्रुतकीर्तिका पाणिग्रहण करो । तुम चारों भाई शान्तस्वभाव हो । तुम सबने उत्तम व्रतका भलीभाँति आचरण किया है । ककुत्स्थकुलके भूषणरूप तुम चारों भाई पन्तीसे संयुक्त हो जाओ । इस कार्यमें विलम्ब नहीं होना चाहिये ॥ ३२-३३ ॥

पत्‍नीभिः संतु काकुत्स्था मा भूत् कालस्य पर्ययः ।
जनकस्य वचः श्रुत्वा पाणीन् पाणिभिरस्पृशन् ॥ ३४ ॥
चत्वारस्ते चतसॄणां वसिष्ठस्य मते स्थिताः ।
अग्निं प्रदक्षिणं कृत्य वेदिं राजानमेव च ॥ ३५ ॥
ऋषींश्चापि महात्मानः सभार्या रघुद्वहाः ।
यथोक्तेन तदा चक्रुः विवाहं विधिपूर्वकम् ॥ ३६ ॥
राजा जनकका यह वचन सुनकर उन चारों राजकुमारोंने चारों राजकुमारियोंके हाथ अपने हाथमें लिये । फिर वसिष्ठजीकी सम्मतिसे उन रघुकुलरन्त महामनस्वी राजकुमारोंने अपनी-अपनी पन्तीके साथ अग्नि, वेदी, राजा दशरथ तथा ऋषि-मुनियोंकी परिक्रमा की और वेदोक्त विधिके अनुसार वैवाहिक कार्य पूर्ण किया ॥ ३४-३६ ॥

पुष्पवृष्टिर्महत्यासीद् अंतरिक्षात् सुभास्वरा ।
दिव्यदुंदुभिनिर्घोषैः गीतवादित्र निःस्वनैः ॥ ३७ ॥
ननृतुश्चाप्सरः सङ्‍घा गंधर्वाश्च जगुः कलम् ।
विवाहे रघुमुख्यानां तद् अद्‍भुतं अदृश्यत ॥ ३८ ॥
उस समय आकाशसे फूलोंकी बड़ी भारी वर्षा हुई, जो सुहावनी लगती थी । दिव्य दुन्दुभियोंकी गम्भीर ध्वनि. दिव्य गीतोंके मनोहर शब्द और दिव्य वाद्योंके मधुर घोषके साथ झुंड-की-झुंड अप्सराएँ नृत्य करने लगीं और गन्धर्व मधुर गीत गाने लगे । उन रघुवंशशिरोमणि राजकुमारोंके विवाहमें वह अद्भुत दृश्य दिखायी दिया ॥ ३७-३८ ॥

ईदृशे वर्तमाने तु तूर्योद्‍घुष्टनिनादिते ।
त्रिरग्निं ते परिक्रम्य ऊहुर्भार्या महौजसः ॥ ३९ ॥
शहनाई आदि बाजोंके मधुर घोषसे गूंजते हुए उस वर्तमान विवाहोत्सवमें उन महातेजस्वी राजकुमारोंने अग्निकी तीन बार परिक्रमा करके पत्नियोंको स्वीकार करते हुए विवाहकर्म सम्पन्न किया ॥ ३९ ॥

अथोपकार्यं जग्मुस्ते सभार्या रघुनंदनाः ।
राजाप्यनुययौ पश्यन् सर्षिसङ्‍घः सबांधवः ॥ ४० ॥
तदनन्तर रघुकुलको आनन्द प्रदान करनेवाले वे चारों भाई अपनी पत्नियों के साथ जनवासेमें चले गये । राजा दशरथ भी ऋषियों और बन्धु-बान्धवोंके साथ पुत्रों और पुत्र-वधुओंको देखते हुए उनके पीछे-पीछे गये ॥ ४० ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे त्रिसप्ततितमः सर्गः ॥ ७३ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें तिहत्तरवा सर्ग पूरा हुआ ॥ ७३ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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