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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
अयोध्याकाण्डम् ॥ तृतीयः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] वसिष्ठवामदेवौ प्रति श्रीरामराज्याभिषेक सामग्रीसंग्रहार्थं राज्ञो दशरथस्यानुरोधः ताभ्यां सेवकान् प्रति तदनुरूपादेशस्य दानम् राजाज्ञया सुमंत्रेण श्रीरामस्य राजसभायां आनयनं राज्ञा श्रीरामं प्रति हितस्योपदेशश्च -
राजा दशरथका वसिष्ठ और वामदेवजीको श्रीरामके राज्याभिषेककी तैयारी करनेके लिये कहना और उनका सेवकोंको तदनुरूप आदेश देना; राजाकी आज्ञासे सुमन्त्रका श्रीरामको राजसभा में बुला लाना और राजाका
अपने पुत्र श्रीरामको हितकर राजनीतिकी बातें बताना - तेषां अञ्जलिपद्मानि प्रगृहीतानि सर्वशः । प्रतिगृह्याब्रवीद् राजा तेभ्यः प्रियहितं वचः ॥ १ ॥ सभासदोंने कमलपुष्पकी-सी आकृतिवाली अपनी अञ्जलियोंको सिरसे लगाकर सब प्रकारसे महाराजके प्रस्तावका समर्थन किया; उनकी वह पद्माञ्जलि स्वीकार करके राजा दशरथ उन सबसे प्रिय और हितकारी वचन बोले- ॥ १ ॥ अहोस्मि परमप्रीतः प्रभावश्चातुलो मम । यन्मे ज्येष्ठं प्रियं पुत्रं यौवराज्यस्थमिच्छथ ॥ २ ॥ 'अहो ! आपलोग जो मेरे परमप्रिय ज्येष्ठ पुत्र श्रीरामको युवराजके पदपर प्रतिष्ठित देखना चाहते हैं इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है तथा मेरा प्रभाव अनुपम हो गया है' ॥ २ ॥ इति प्रत्यर्च्य तान् राजा ब्राह्मणान् इदमब्रवीत् । वसिष्ठं वामदेवं च तेषामेव उपशृण्वताम् ॥ ३ ॥ इस प्रकारकी बातोंसे पुरवासी तथा अन्यान्य सभासदोंका सत्कार करके राजाने उनके सुनते हुए ही वामदेव और वसिष्ठ आदि ब्राह्मणोंसे इस प्रकार कहा— ॥ ३ ॥ चैत्रः श्रीमानयं मासः पुण्यः पुष्पितकाननः । यौवराज्याय रामस्य सर्वं मेवोपकल्प्यताम् ॥ ४ ॥ यह चैत्रमास बड़ा सुन्दर और पवित्र है, इसमें सारे वन-उपवन खिल उठे हैं; अत: इस समय श्रीरामका युवराजपदपर अभिषेक करनेके लिये आपलोग सब सामग्री एकत्र कराइये' ॥ ४ ॥ राज्ञस्तूपरते वाक्ये जनघोषो महानभूत् । शनैस्तस्मिन् प्रशांते च जनघोषे जनाधिपः ॥ ५ ॥ वसिष्ठं मुनिशार्दूलं राजा वचनमब्रवीत् । राजाकी यह बात समाप्त होनेपर सब लोग हर्षके कारण महान् कोलाहल करने लगे । धीरे-धीरे उस जनरवके शान्त होनेपर प्रजापालक नरेश दशरथने मुनिप्रवर वसिष्ठसे यह बात कही ॥ ५ १/२ ॥ अभिषेकाय रामस्य यत्कर्म सपरिच्छदम् ॥ ६ ॥ तदद्य भगवन् सर्वं आज्ञापयितुमर्हसि । 'भगवन ! श्रीरामके अभिषेकके लिये जो कर्म आवश्यक हो, उसे साङ्गोपाङ्ग बताइये और आज ही उस सबकी तैयारी करनेके लिये सेवकोंको आज्ञा दीजिये' ॥ ६ १/२ ॥ तच्छ्रुत्वा भूमिपालस्य वसिष्ठो द्विजसत्तमः ॥ ७ ॥ आदिदेशाग्रतो राज्ञः स्थितान् युक्तान् कृताञ्जलीन् । महाराजका यह वचन सुनकर मुनिवर वसिष्ठने राजाके सामने ही हाथ जोड़कर खड़े हुए आज्ञापालनके लिये तैयार रहनेवाले सेवकोंसे कहा— ॥ ७ १/२ ॥ सुवर्णादीनि रत्नानि बलीन् सर्वौषधीरपि ॥ ८ ॥ शुक्लमाल्यानि लाजांश्च पृथक् च मधुसर्पिषी । अहतानि च वासांसि रथं सर्वायुधान्यपि ॥ ९ ॥ चतुरङ्गबलं चैव गजं च शुभलक्षणम् । चामरव्यजने श्वेते ध्वजं छत्रं च पाण्डरम् ॥ १० ॥ शतं च शातकुम्भानां कुम्भानामग्निवर्चसाम् । हिरण्यशृङ्गं ऋषभं समग्रं व्याघ्रचर्म च ॥ ११ ॥ यच्चान्यत् किञ्चिदेष्टव्यं तत्सर्वमुपकल्प्यताम् । उपस्थापयत प्रातः अग्न्यागारे महीपतेः ॥ १२ ॥ 'तुमलोग सुवर्ण आदि रत्न, देवपूजनकी सामग्री, सब प्रकारकी ओषधियाँ, श्वेत पुष्पोंकी मालाएँ, खील, अलगअलग पात्रोंमें शहद और घी, नये वस्त्र, रथ, सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र, चतुरङ्गिणी सेना, उत्तम लक्षणोंसे युक्त हाथी, चमरी गायकी पूंछके बालोंसे बने हुए दो व्यजन, ध्वज, श्वेत छत्र, अग्निके समान देदीप्यमान सोनेके सौ कलश, सुवर्णसे मढ़े हुए सींगोंवाला एक साँड, समूचा व्याघ्रचर्म तथा और जो कुछ भी वांछनीय वस्तुएँ हैं, उन सबको एकत्र करो और प्रात:काल महाराजकी अग्निशालामें पहुँचा दो ॥ ८–१२ ॥ अंतःपुरस्य द्वाराणि सर्वस्य नगरस्य च । चंदनस्रग्भिः अर्च्यन्तां धूपैश्च घ्राणहारिभिः ॥ १३ ॥ 'अन्तःपुर तथा समस्त नगरके सभी दरवाजोंको चन्दन और मालाओंसे सजा दो तथा वहाँ ऐसे धूप सुलगा दो जो अपनी सुगन्धसे लोगोंको आकर्षित कर लें ॥ १३ ॥ प्रशस्तमन्नं गुणवद् दधिक्षीरोपसेचनम् । द्विजानां शतसाहस्रं यत्प्रकाममलं भवेत् ॥ १४ ॥ 'दही, दूध और घी आदिसे संयुक्त अत्यन्त उत्तम एवं गुणकारी अन्न तैयार कराओ, जो एक लाख ब्राह्मणोंके भोजनके लिये पर्याप्त हो ॥ १४ ॥ सत्कृत्य द्विजमुख्यानां श्वः प्रभाते प्रदीयताम् । घृतं दधि च लाजाश्च दक्षिणाश्चापि पुष्कलाः ॥ १५ ॥ 'कल प्रात:काल श्रेष्ठ ब्राह्मणोंका सत्कार करके उन्हें वह अन्न प्रदान करो; साथ ही घी, दही, खील और पर्याप्त दक्षिणाएँ भी दो ॥ १५ ॥ सूर्येऽभ्युदितमात्रे श्वो भविता स्वस्तिवाचनम् । ब्राह्मणाश्च निमंत्र्यन्तां कल्प्यंतां आसनानि च ॥ १६ ॥ 'कल सूर्योदय होते ही स्वस्तिवाचन होगा, इसके लिये ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करो और उनके लिये आसनोंका प्रबन्ध कर लो ॥ १६ ॥ आबध्यन्तां पताकाश्च राजमार्गश्च सिच्यताम् । सर्वे च तालापचरा गणिकाश्च स्वलङ्कृताः ॥ १७ ॥ कक्ष्यां द्वितीयामासाद्य तिष्ठंतु नृपवेश्मनः । 'नगरमें सब ओर पताकाएँ फहरायी जायें तथा राजमार्गोंपर छिड़काव कराया जाय । समस्त तालजीवी (संगीतनिपुण) पुरुष और सुन्दर वेष-भूषासे विभूषित वारामनाएँ (नर्तकियाँ) राजमहलकी दूसरी कक्षा (ड्योढ़ी) में पहुँचकर खड़ी रहें ॥ १७ १/२ ॥ देवायतनचैत्येषु सान्नभक्षाः सदक्षिणाः ॥ १८ ॥ उपस्थापयितव्याः स्युः माल्ययोग्याः पृथक् पृथक् । 'देव-मन्दिरोंमें तथा चैत्यवृक्षोंके नीचे या चौराहोंपर जो पूजनीय देवता हैं, उन्हें पृथक्-पृथक् भक्ष्य-भोज्य पदार्थ एवं दक्षिणा प्रस्तुत करनी चाहिये ॥ १८ १/२ ॥ दीर्घासिबद्धगोधाश्च सन्नद्धा मृष्टवाससः ॥ १९ ॥ महाराजाङ्गनं शूराः प्रविशंतु महोदयम् । 'लंबी तलवार लिये और गोधाचर्मके बने दस्ताने पहने और कमर कसकर तैयार रहनेवाले शूर-वीर योद्धा स्वच्छ वस्त्र धारण किये महाराजके महान् अभ्युदयशाली आँगनमें प्रवेश करें' ॥ १९ १/२ ॥ एवं व्यादिश्य विप्रौ तौ क्रियास्तत्र विनिष्ठितौ ॥ २० ॥ चक्रतुश्चैव यच्छेषं पार्थिवाय निवेद्य च । सेवकोंको इस प्रकार कार्य करनेका आदेश देकर दोनों ब्राह्मण वसिष्ठ और वामदेवने पुरोहितद्वारा सम्पादित होने योग्य क्रियाओंको स्वयं पूर्ण किया । राजाके बताये हुए कार्योंके अतिरिक्त भी जो शेष आवश्यक कर्तव्य था उसे भी उन दोनोंने राजासे पूछकर स्वयं ही सम्पन्न किया ॥ २० १/२ ॥ कृतमित्येव चाब्रूताम् अभिगम्य जगत्पतिम् ॥ २१ ॥ यथोक्तवचनं प्रीतौ हर्षयुक्तौ द्विजोत्तमौ । तदनन्तर महाराजके पास जाकर प्रसन्नता और हर्षसे भरे हुए वे दोनों श्रेष्ठ द्विज बोले-'राजन् ! आपने जैसा कहा था, उसके अनुसार सब कार्य सम्पन्न हो गया' ॥ २१ १/२ ॥ ततः सुमन्त्रं द्युतिमान् राजा वचनमब्रवीत् ॥ २२ ॥ रामः कृतात्मा भवता शीघ्रमानीयतामिति । इसके बाद तेजस्वी राजा दशरथने सुमन्त्रसे कहा— 'सखे ! पवित्रात्मा श्रीरामको तुम शीघ्र यहाँ बुला लाओ' ॥ २२ १/२ ॥ स तथेति प्रतिज्ञाय सुमंत्रो राजशासनात् ॥ २३ ॥ रामं तत्रानयाञ्चक्रे रथेन रथिनां वरम् । तब 'जो आज्ञा' कहकर सुमन्त्र गये तथा राजाके आदेशानुसार रथियोंमें श्रेष्ठ श्रीरामको रथपर बिठाकर ले आये ॥ २३ १/२ ॥ अथ तत्र समासीनाः तदा दशरथं नृपम् ॥ २४ ॥ प्राच्योदीच्याः प्रतीच्याश्च दाक्षिणात्याश्च भूमिपाः । म्लेच्छाचार्याश्च ये चान्ये वनशैलांतवासिनः ॥ २५ ॥ उपासाञ्चक्रिरे सर्वे तं देवा वासवम् यथा । उस राजभवनमें साथ बैठे हुए पूर्व, उत्तर, पश्चिम और दक्षिणके भूपाल, म्लेच्छ, आर्य तथा वनों और पर्वतोंमें रहनेवाले अन्यान्य मनुष्य सब-के-सब उस समय राजा दशरथकी उसी प्रकार उपासना कर रहे थे जैसे देवता देवराज इन्द्रकी ॥ २४-२५ १/२ ॥ तेषां मध्ये स राजर्षिः मरुतां इव वासवः ॥ २६ ॥ प्रासादस्थो दशरथो ददर्शायांतमात्मजम् । गंधर्वराजप्रतिमं लोके विख्यातपौरुषम् ॥ २७ ॥ उनके बीच अट्टालिकाके भीतर बैठे हुए राजा दशरथ मरुद्गणोंके मध्य देवराज इन्द्रकी भाँति शोभा पा रहे थे; उन्होंने वहींसे अपने पुत्र श्रीरामको अपने पास आते देखा, जो गन्धर्वराजके समान तेजस्वी थे, उनका पौरुष समस्त संसारमें विख्यात था ॥ २६-२७ ॥ दीर्घबाहुं महासत्त्वं मत्तमातङ्गगामिनम् । चंद्रकांताननं रामं अतीव प्रियदर्शनम् ॥ २८ ॥ रूपौदार्यगुणैः पुंसां दृष्टिचित्तापहारिणम् । धर्माभितप्ताः पर्जन्यं ह्लादयंतमिव प्रजाः ॥ २९ ॥ उनकी भुजाएँ बड़ी और बल महान् था । वे मतवाले गजराजके समान बड़ी मस्तीके साथ चल रहे थे । उनका मुख चन्द्रमासे भी अधिक कान्तिमान् था । श्रीरामका दर्शन सबको अत्यन्त प्रिय लगता था । वे अपने रूप और उदारता आदि गुणोंसे लोगोंकी दृष्टि और मन आकर्षित कर लेते थे । जैसे धूपमें तपे हुए प्राणियोंको मेघ आनन्द प्रदान करता है, उसी प्रकार वे समस्त प्रजाको परम आह्लाद देते रहते थे ॥ २८-२९ ॥ न ततर्प समायांतं पश्यमानो नराधिपः । अवतार्य सुमन्त्रस्तं राघवं स्यंदनोत्तमात् ॥ ३० ॥ पितुः समीपं गच्छंतं प्राञ्जलिः पृष्ठतोऽन्वगात् । आते हुए श्रीरामचन्द्रकी ओर एकटक देखते हुए राजा दशरथको तृप्ति नहीं होती थी । सुमन्त्रने उस श्रेष्ठ रथसे श्रीरामचन्द्रजीको उतारा और जब वे पिताके समीप जाने लगे, तब सुमन्त्र भी उनके पीछे-पीछे हाथ जोड़े हुए गये ॥ ३० १/२ ॥ स तं कैलासश्रृङ्गाभं प्रासादं रघुनंदनः ॥ ३१ ॥ आरुरोह नृपं द्रष्टुं सहसा तेन राघवः । ह राजमहल कैलासशिखरके समान उज्ज्वल और ऊँचा था, रघुकुलको आनन्दित करनेवाले श्रीराम महाराजका दर्शन करनेके लिये सुमन्त्रके साथ सहसा उसपर चढ़ गये ॥ ३१ १/२ ॥ स प्राञ्जलिरभिप्रेत्य प्रणतः पितुरंतिके ॥ ३२ ॥ नाम स्वं श्रावयन् रामो ववंदे चरणौ पितुः । श्रीराम दोनों हाथ जोड़कर विनीतभावसे पिताके पास गये और अपना नाम सुनाते हुए उन्होंने उनके दोनों चरणोंमें प्रणाम किया ॥ ३२ १/२ ॥ तं दृष्ट्वा प्रणतं पार्श्वे कृताञ्जलिपुटं नृपः ॥ ३३ ॥ गृह्याञ्जलौ समाकृष्य सस्वजे प्रियमात्मजम् । ्रीरामको पास आकर हाथ जोड़ प्रणाम करते देख राजाने उनके दोनों हाथ पकड़ लिये और अपने प्रिय पुत्रको पास खींचकर छातीसे लगा लिया ॥ ३३ १/२ ॥ तस्मै चाभ्युदितं सम्यङ् मणिकाञ्चनभूषितम् ॥ ३४ ॥ दिदेश राजा रुचिरं रामाय परमासनम् । उस समय राजाने उन श्रीरामचन्द्रजीको मणिजटित सुवर्णसे भूषित एक परम सुन्दर सिंहासनपर बैठनेकी आज्ञा दी, जो पहलेसे उन्हींके लिये वहाँ उपस्थित किया गया था ॥ ३४ १/२ ॥ तथाऽऽसनवरं प्राप्य व्यदीपयत राघवः ॥ ३५ ॥ स्वयैव प्रभया मेरुं उदये विमलो रविः । जैसे निर्मल सूर्य उदयकालमें मेरुपर्वतको अपनी किरणोंसे उद्भासित कर देते हैं उसी प्रकार श्रीरघुनाथजी उस श्रेष्ठ आसनको ग्रहण करके अपनी ही प्रभासे उसे प्रकाशित करने लगे ॥ ३५ १/२ ॥ तेन विभ्राजता तत्र सा सभापि व्यरोचत ॥ ३६ ॥ विमलग्रहनक्षत्रा शारदी द्यौरिवेंदुना । उनसे प्रकाशित हुई वह सभा भी बड़ी शोभा पा रही थी । ठीक उसी तरह जैसे निर्मल ग्रह और नक्षत्रोंसे भरा हुआ शरत्-कालका आकाश चन्द्रमासे उद्भासित हो उठता है ॥ ३६ १/२ ॥ तं पश्यमानो नृपतिः तुतोष प्रियमात्मजम् ॥ ३७ ॥ अलङ्कृतं इवात्मानं आदर्शतलसंस्थितम् । जैसे सुन्दर वेश-भूषासे अलंकृत हुए अपने ही प्रतिबिम्बको दर्पणमें देखकर मनुष्यको बड़ा संतोष प्राप्त होता है, उसी प्रकार अपने शोभाशाली प्रिय पुत्र उन श्रीरामको देखकर राजा बड़े प्रसन्न हुए ॥ ३७ १/२ ॥ स तं सुस्थितमाभाष्य पुत्रं पुत्रवतां वरः ॥ ३८ ॥ उवाचेदं वचो राजा देवेंद्रं इव काश्यपः । जैसे कश्यप देवराज इन्द्रको पुकारते हैं, उसी प्रकार पुत्रवानोंमें श्रेष्ठ राजा दशरथ सिंहासनपर बैठे हुए अपने पुत्र श्रीरामको सम्बोधित करके उनसे इस प्रकार बोले । ॥ ३८ १/२ ॥ जेष्ठायामसि मे पत्न्यां सदृश्यां सदृशः सुतः ॥ ३९ ॥ उत्पन्नस्त्वं गुणश्रेष्ठो मम रामात्मजः प्रियः । यतस्त्वया प्रजाश्चेमाः स्वगुणैरनुरञ्जिताः ॥ ४० ॥ तस्मात्त्वं पुष्ययोगेन यौवराज्यं अवाप्नुहि । 'बेटा ! तुम्हारा जन्म मेरी बड़ी महारानी कौसल्याके गर्भसे हुआ है । तुम अपनी माताके अनुरूप ही उत्पन्न हुए हो । श्रीराम ! तुम गुणोंमें मुझसे भी बढ़कर हो, अत: मेरे परम प्रिय पुत्र हो; तुमने अपने गुणोंसे इन समस्त प्रजाओंको प्रसन्न कर लिया है, इसलिये कल पुष्यनक्षत्रके योगमें युवराजका पद ग्रहण करो ॥ ३९-४० १/२ ॥ कामतस्त्वं प्रकृत्यैव विनीतो गुणवानिति ॥ ४१ ॥ गुणवत्यपि तु स्नेहात् पुत्र वक्ष्यामि ते हितम् । भूयो विनयमास्थाय भव नित्यं जितेंद्रियः ॥ ४२ ॥ 'बेटा ! यद्यपि तुम स्वभावसे ही गुणवान् हो और तुम्हारे विषयमें यही सबका निर्णय है तथापि मैं स्नेहवश सद्गुणसम्पन्न होनेपर भी तुम्हें कुछ हितकी बातें बताता हूँ । तुम और भी अधिक विनयका आश्रय लेकर सदा जितेन्द्रिय बने रहो ॥ ४१-४२ ॥ कामक्रोधसमुत्थानि त्यजेथा व्यसनानि च । परोक्षया वर्त्तमानो वृत्त्या प्रत्यक्षया तथा ॥ ४३ ॥ 'काम और क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले दुर्व्यसनोंका सर्वथा त्याग कर दो, परोक्षवृत्तिसे (अर्थात् गुप्तचरोंद्वारा यथार्थ बातोंका पता लगाकर) तथा प्रत्यक्षवृत्तिसे (अर्थात् दरबारमें सामने आकर कहनेवाली जनताके मुखसे उसके वृत्तान्तोंको प्रत्यक्ष देख-सुनकर) ठीक-ठीक न्यायविचारमें तत्पर रहो ॥ ४३ ॥ अमात्यप्रभृतीः सर्वाः प्रजाश्चैवानुरञ्जय कोष्ठागारायुधागारैः कृत्वा सन्निचयान् बहून् ॥ ४४ ॥ तुष्टानुरक्तप्रकृतिः यः पालयति मेदिनीम् । तस्य नंदन्ति मित्राणि लब्ध्वामृतमिवामराः ॥ ४५ ॥ मन्त्री, सेनापति आदि समस्त अधिकारियों तथा प्रजाजनोंको सदा प्रसन्न रखना । जो राजा कोष्ठागार (भण्डारगृह) तथा शस्त्रागार आदिके द्वारा उपयोगी वस्तुओंका बहुत बड़ा संग्रह करके मन्त्री, सेनापति और प्रजा आदि समस्त प्रकृतियोंको प्रिय मानकर उन्हें अपने प्रति अनुरक्त एवं प्रसन्न रखते हुए पृथ्वीका पालन करता है, उसके मित्र उसी प्रकार आनन्दित होते हैं, जैसे अमृतको पाकर देवता प्रसन्न हुए थे ॥ ४४-४५ ॥ तस्मात्त्वमपि त्वमात्मानं नियम्यैवं समाचर । तच्छ्रुत्वा सुहृदस्तस्य रामस्य प्रियकारिणः ॥ ४६ ॥ त्वरिताः शीघ्रमागत्य कौसल्यायै न्यवेदयन् । इसलिये बेटा ! तुम अपने चित्तको वशमें रखकर इस प्रकारके उत्तम आचरणोंका पालन करते रहो । ' राजाकी ये बातें सुनकर श्रीरामचन्द्रजीका प्रिय करनेवाले सुहृदोंने तुरंत माता कौसल्याके पास जाकर उन्हें यह शुभ समाचार निवेदन किया ॥ ४६ १/२ ॥ सा हिरण्यं च गाश्चैव रत्नानि विविधानि च ॥ ४७ ॥ व्यादिदेश प्रियाख्येभ्यः कौसल्या प्रमदोत्तमा । नारियोंमें श्रेष्ठ कौसल्याने वह प्रिय संवाद सुनानेवाले उन सुहृदोंको तरह-तरहके रत्न, सुवर्ण और गौएँ पुरस्काररूपमें दीं ॥ ४७ १/२ ॥ अथाभिवाद्य राजानं रथमारुह्य राघवः । ययौ स्वं द्युतिमद् वेश्म जनौघैः प्रतिपूजितः ॥ ४८ ॥ इसके बाद श्रीरामचन्द्रजी राजाको प्रणाम करके रथपर बैठे और प्रजाजनोंसे सम्मानित होते हुए वे अपने शोभाशाली भवनमें चले गये ॥ ४८ ॥ ते चापि पौरा नृपतेर्वचस्तत् श्रृत्वा तदा लाभमिवेष्टमाशु । नरेंद्रमामंत्र्य गृहाणि गत्वा देवान् समानर्चुरभिप्रहृष्टाः ॥ ४९ ॥ नगरनिवासी मनुष्योंने राजाकी बातें सुनकर मन-ही-मन यह अनुभव किया कि हमें शीघ्र ही अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति होगी, फिर भी महाराजकी आज्ञा लेकर अपने घरोंको गये और अत्यन्त हर्षसे भरकर अभीष्ट-सिद्धिके उपलक्ष्यमें देवताओंकी पूजा करने लगे ॥ ४९ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् अयोध्याकाण्डे तृतीयः सर्गः ॥ ३ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें तीसरा सर्ग पूरा हुआ ॥ ३ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |