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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

अयोध्याकाण्डम्

॥ द्वितीयः सर्गः ॥


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दशरथकर्तृकः श्रीरामराज्याभिषेकप्रस्तावः संसत् सदस्यैः श्रीरामगुणानां वर्णनं कुर्वद्‌भिः उक्तप्रस्तावस्य सहर्षं युक्तियुक्तं समर्थनम् -
राजा दशरथद्वारा श्रीराम के राज्याभिषेकका प्रस्ताव तथा सभासदोंद्वारा श्रीरामके गुणोंका वर्णन करते हुए उक्त प्रस्तावका सहर्ष युक्तियुक्त समर्थन -


ततः परिषदं सर्वां आमंत्र्य वसुधाधिपः ।
हितं उद्धर्षणं चैवं उवाच प्रथितं वचः ॥ १ ॥
दुंदुभिस्वनकल्पेन गम्भीरेणानुनादिना ।
स्वरेण महता राजा जीमूत इव नादयन् ॥ २ ॥
उस समय राजसभामें बैठे हुए सब लोगोंको सम्बोधित करके महाराज दशरथने मेघके समान शब्द करते हुए दुन्दुभिकी ध्वनिके सदृश अत्यन्त गम्भीर एवं गूंजते हुए उच्च स्वरसे सबके आनन्दको बढ़ानेवाली यह हितकारक बात कही ॥ १-२ ॥

राजलक्षणयुक्तेन कांतेनानुपमेन च ।
उवाच रसयुक्तेन स्वरेण नृपतिर्नृपान् ॥ ३ ॥
राजा दशरथका स्वर राजोचित स्निग्धता और गम्भीरता आदि गुणोंसे युक्त था, अत्यन्त कमनीय और अनुपम था । वे उस अद्भुत रसमय स्वरसे समस्त नरेशोंको सम्बोधित करके बोले— ॥ ३ ॥

विदितं भवतामेतद् यथा मे राज्यमुत्तमम् ।
पूर्वकैर्मम राजेंद्रैः सुतवत् परिपालितम् ॥ ४ ॥
'सज्जनो ! आपलोगोंको यह तो विदित ही है कि मेरे पूर्वज राजाधिराजोंने इस श्रेष्ठ राज्यका (यहाँकी प्रजाका) किस प्रकार पुत्रकी भाँति पालन किया था ।

सोऽहमिक्ष्वाकुभिः सर्वैः नरेंद्रैः परिपालितम् ।
श्रेयसा योक्तुच्छामि सुखार्हमखिलं जगत् ॥ ५ ॥
'समस्त इक्ष्वाकुवंशी नरेशोंने जिसका प्रतिपालन किया है, उस सुख भोगनेके योग्य सम्पूर्ण जगत्को अब मैं भी कल्याणका भागी बनाना चाहता हूँ ॥ ५ ॥

मयाप्याचरितं पूर्वैः पंथानं अनुगच्छता ।
प्रजा नित्यमनिद्रेण यथाशक्त्यभिरक्षिताः ॥ ६ ॥
'मेरे पूर्वज जिस मार्गपर चलते आये हैं, उसीका अनुसरण करते हुए मैंने भी सदा जागरूक रहकर समस्त प्रजाजनोंकी यथाशक्ति रक्षा की है ॥ ६ ॥

इदं शरीरं कृत्स्नस्य लोकस्य चरता हितम् ।
पाण्डुरस्यातपत्रस्य च्छायायां जरितं मया ॥ ७ ॥
'समस्त संसारका हित-साधन करते हुए मैंने इस शरीरको श्वेत राजछत्रकी छायामें बूढ़ा किया है ॥ ७ ॥

प्राप्य वर्षसहस्राणि बहून्यायूंषि जीवतः ।
जीर्णस्यास्य शरीरस्य विश्रांतिं अभिरोचये ॥ ८ ॥
'अनेक सहस्र (साठ हजार) वर्षों की आयु पाकर जीवित रहते हुए अपने इस जराजीर्ण शरीरको अब मैं विश्राम देना चाहता हूँ ॥ ८ ॥

राजप्रभावजुष्टां हि दुर्वहामजितेंद्रियैः ।
परिश्रांतोऽस्मि लोकस्य गुर्वीं धर्मधुरं वहन् ॥ ९ ॥
'जगत्के धर्मपूर्वक संरक्षणका भारी भार राजाओंके शौर्य आदि प्रभावोंसे ही उठाना सम्भव है । अजितेन्द्रिय पुरुषोंके लिये इस बोझको ढोना अत्यन्त कठिन है । मैं दीर्घकालसे इस भारी भारको वहन करते-करते थक गया हूँ ॥ ९

सोऽहं विश्राममिच्छामि पुत्रं कृत्वा प्रजाहिते ।
सन्निकृष्टान् इमान् सर्वान् अनुमान्य द्विजर्षभान् ॥ १० ॥
'इसलिये यहाँ पास बैठे हुए इन सम्पूर्ण श्रेष्ठ द्विजोंकी अनुमति लेकर प्रजाजनोंके हितके कार्यमें अपने पुत्र श्रीरामको नियुक्त करके अब मैं राजकार्यसे विश्राम लेना चाहता हूँ ॥ १० ॥

अनुजातो हि मां सर्वैः गुणैर्ज्येष्ठो ममात्मजः ।
पुरंदरसमो वीर्ये रामः परपुऽञ्जयः ॥ ११ ॥
'मेरे पुत्र श्रीराम मेरी अपेक्षा सभी गुणोंमें श्रेष्ठ हैं । शत्रुओंकी नगरीपर विजय पानेवाले श्रीरामचन्द्र बलपराक्रममें देवराज इन्द्रके समान हैं ॥ ११ ॥

तं चंद्रमिव पुष्येण युक्तं धर्मभृतां वरम् ।
यौवराज्ये नियोक्तास्मि प्रीतः पुरुषपुङ्‍गवम् ॥ १२ ॥
'पुष्य-नक्षत्रसे युक्त चन्द्रमाकी भाँति समस्त कार्योंके साधनमें कुशल तथा धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ उन पुरुषशिरोमणि श्रीरामचन्द्रको मैं कल प्रात:काल पुष्यनक्षत्रमें युवराजके पदपर नियुक्त करूँगा ॥ १२ ॥

अनुरूपः स वै नाथो लक्ष्मीवान् लक्ष्मणाग्रजः ।
त्रैलोक्यमपि नाथेन येन स्यान्नाथवत्तरम् ॥ १३ ॥
'लक्ष्मणके बड़े भाई श्रीमान् राम आपलोगोंके लिये योग्य स्वामी सिद्ध होंगे; उनके-जैसे स्वामीसे सम्पूर्ण त्रिलोकी भी परम सनाथ हो सकती है ॥ १३ ॥

अनेन श्रेयसा सद्यः संयोज्यैवमिमां महीम् ।
गतक्लेशो भविष्यामि सुते तस्मिन् निवेश्य वै ॥ १४ ॥
'ये श्रीराम कल्याणस्वरूप हैं; इनका शीघ्र ही अभिषेक करके मैं इस भूमण्डलको तत्काल कल्याणका भागी बनाऊँगा । अपने पुत्र श्रीरामपर राज्यका भार रखकर मैं सर्वथा क्लेशरहित निश्चिन्त हो जाऊँगा ॥ १४ ॥

यदीदं मेऽनुरूपार्थं मया साधु सुमंत्रितम् ।
भवंतो मेऽनुमन्यन्तां कथं वा करवाण्यहम् ॥ १५ ॥
'यदि मेरा यह प्रस्ताव आपलोगोंको अनुकूल जान पड़े और यदि मैंने यह अच्छी बात सोची हो तो आपलोग इसके लिये मुझे सहर्ष अनुमति दें अथवा यह बतादें कि मैं किस प्रकारसे कार्य करूँ ॥ १५ ॥

यद्यप्येषा मम प्रीतिः हितमन्यद् विचिंत्यताम् ।
अन्या मध्यस्थचिंता तु विमर्दाभ्यधिकोदया ॥ १६ ॥
यद्यपि यह श्रीरामके राज्याभिषेकका विचार मेरे लिये अधिक प्रसन्नताका विषय है तथापि यदि इसके अतिरिक्त भी कोई सबके लिये हितकर बात हो तो आपलोग उसे सोचें; क्योंकि मध्यस्थ पुरुषोंका विचार एकपक्षीय पुरुषकी अपेक्षा विलक्षण होता है, कारण कि वह पूर्वपक्ष और अपरपक्षको लक्ष्य करके किया गया होनेके कारण अधिक अभ्युदय करनेवाला होता है' ॥ १६ ॥

इति ब्रूवन्तं मुदिताः प्रत्यनंदन् नृपा नृपम् ।
वृष्टिमंतं महामेघं नर्दन्त इव बर्हिणः ॥ १७ ॥
राजा दशरथ जब ऐसी बात कह रहे थे, उस समय वहाँ उपस्थित नरेशोंने अत्यन्त प्रसन्न होकर उन महाराजका उसी प्रकार अभिनन्दन किया, जैसे मोर मधुर केकारव फैलाते हुए वर्षा करनेवाले महामेघका अभिनन्दन करते हैं । १७ ॥

स्निग्धोऽनुनादः सञ्जज्ञे तत्र हर्षसमीरितः ।
जनौघोद्‍घुष्टसंनादो मेदिनींविमानं कम्पयन्निव ॥ १८ ॥
तत्पश्चात् समस्त जनसमुदायकी स्नेहमयी हर्षध्वनि सुनायी पड़ी । वह इतनी प्रबल थी कि समस्त पृथ्वीको कँपाती हुई-सी जान पड़ी ॥ १८ ॥

तस्य धर्मार्थविदुषो भावमाज्ञाय सर्वशः ।
ब्राह्मणा जनमुख्याश्च पौरजानपदैः सह ॥ १९ ॥
समेत्य ते मंत्रयितुं समतागतबुद्धयः ।
ऊचुश्च मनसा ज्ञात्वा वृद्धं दशरथं नृपम् ॥ २० ॥
धर्म और अर्थके ज्ञाता महाराज दशरथके अभिप्रायको पूर्णरूपसे जानकर सम्पूर्ण ब्राह्मण और सेनापति नगर और जनपदके प्रधान-प्रधान व्यक्तियों के साथ मिलकर परस्पर सलाह करनेके लिये बैठे और मनसे सब कुछ समझकर जब वे एक निश्चयपर पहुँच गये, तब बूढ़े राजा दशरथसे इस प्रकार बोले- ॥ १९-२० ॥

अनेकवर्षसाहस्रो वृद्धस्त्वमसि पार्थिव ।
स रामं युवराजानं अभिषिञ्चस्व पार्थिवम् ॥ २१ ॥
पृथ्वीनाथ ! आपकी अवस्था कई हजार वर्षों की हो गयी । आप बूढ़े हो गये । अतः पृथ्वीके पालनमें समर्थ अपने पुत्र श्रीरामका अवश्य ही युवराजके पदपर अभिषेक कीजिये ॥ २१ ॥

इच्छामो हि महाबाहुं रघुवीरं महाबलम् ।
गजेन महता यान्तं रामं छत्रावृताननम् ॥ २२ ॥
'रघुकुलके वीर महाबलवान् महाबाहु श्रीराम महान् गजराजपर बैठकर यात्रा करते हों और उनके ऊपर श्वेत छत्र तना हुआ हो—इस रूपमें हम उनकी झाँकी करना चाहते हैं' ॥ २२ ॥

इति तद्वचनं श्रुवा राजा तेषां मनःप्रियम् ।
अजानन्निव जिज्ञासुः इदं वचनमब्रवीत् ॥ २३ ॥
उनकी यह बात राजा दशरथके मनको प्रिय लगनेवाली थी; इसे सुनकर राजा दशरथ अनजान-से बनकर उन सबके मनोभावको जाननेकी इच्छासे इस प्रकार बोले— ॥ २३ ॥

श्रुत्वैव वचनं यन्मे राघवं पतिमिच्छथ ।
राजानः संशयोऽयं मे किमिदं ब्रूत तत्त्वतः ॥ २४ ॥
राजागण ! मेरी यह बात सुनकर जो आपलोगोंने श्रीरामको राजा बनानेकी इच्छा प्रकट की है, इसमें मुझे यह संशय हो रहा है जिसे आपके समक्ष उपस्थित करता हूँ । आप इसे सुनकर इसका यथार्थ उत्तर दें ॥ २४ ॥

कथं नु मयि धर्मेण पृथिवीमनुशासति ।
भवन्तो द्रष्टुमिच्छन्ति युवराजं महाबलम् ॥ २५ ॥
मैं धर्मपूर्वक इस पृथ्वीका निरन्तर पालन कर रहा हूँ, फिर मेरे रहते हुए आपलोग महाबली श्रीरामको युवराजके रूपमें क्यों देखना चाहते हैं ? ॥ २५ ॥

ते तं ऊचुः महात्मानं पौरजानपदैः सह ।
बहवो नृप कल्याण गुणाः संति सुतस्य ते ॥ २६ ॥
यह सुनकर वे महात्मा नरेश नगर और जनपदके लोगोंके साथ राजा दशरथसे इस प्रकार बोले- 'महाराज ! आपके पुत्र श्रीराममें बहुत-से कल्याणकारी सद्गुण हैं ॥ २६ ॥

गुणान् गुणवतो देव देवकल्पस्य धीमतः ।
प्रियान् आनंदनान् कृत्स्नान् प्रवक्ष्यामोऽद्य तान् शृणु ॥ २७ ॥
देव ! देवताओंके तुल्य बुद्धिमान और गुणवान् श्रीरामचन्द्रजीके सारे गुण सबको प्रिय लगनेवाले और आनन्ददायक हैं, हम इस समय उनका यत्किं रुचित् वर्णन कर रहे हैं, आप उन्हें सुनिये ॥ २७ ॥

दिव्यैर्गुणैः शक्रसमो रामः सत्यपराक्रमः ।
इक्ष्वाकुभ्योऽपि सर्वेभ्यो ह्यतिरिक्तो विशांपते ॥ २८ ॥
'प्रजानाथ ! सत्यपराक्रमी श्रीराम देवराज इन्द्रके समान दिव्य गुणोंसे सम्पन्न हैं । इक्ष्वाकुकुलमें भी ये सबसे श्रेष्ठ हैं ॥ २८ ॥

रामः सत्पुरुषो लोके सत्यः धर्मपरायणः ।
साक्षाद् रामाद् विनिर्वृत्तो धर्मश्चापि श्रिया सह ॥ २९ ॥
श्रीराम संसारमें सत्यवादी, सत्यपरायण और सत्पुरुष हैं । साक्षात् श्रीरामने ही अर्थके साथ धर्मको भी प्रतिष्ठित किया है ॥ २९ ॥

प्रजासुखत्वे चंद्रस्य वसुधायाः क्षमागुणैः ।
बुद्ध्या बृहस्पतेस्तुल्यो वीर्ये साक्षाच्छचीपतेः ॥ ३० ॥
'ये प्रजाको सुख देनेमें चन्द्रमाकी और क्षमारूपी गुणमें पृथ्वीकी समानता करते हैं । बुद्धिमें बृहस्पति और बलपराक्रममें साक्षात् शचीपति इन्द्रके समान हैं ॥ ३० ॥

धर्मज्ञः सत्यसंधश्च शीलवाननसूयकः ।
क्षांतः सांत्वयिता श्लक्ष्णः कृतज्ञो विजितेंद्रियः ॥ ३१ ॥
मृदुश्च स्थिरचित्तश्च सदा भव्योऽनसूयकः ।
प्रियवादी च भूतानां सत्यवादी च राघवः ॥ ३२ ॥
'श्रीराम धर्मज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ, शीलवान्, अदोषदर्शी, शान्त, दीन-दुःखियोंको सान्त्वना प्रदान करनेवाले, मृदुभाषी, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय, कोमल स्वभाववाले, स्थिरबुद्धि, सदा कल्याणकारी, असूयारहित, समस्त प्राणियोंके प्रति प्रिय वचन बोलनेवाले और सत्यवादी हैं ॥ ३१-३२ ॥

बहुश्रुतानां वृद्धानां ब्राह्मणानां उपासिता ।
तेनास्येहातुला कीर्तिः यशस्तेजश्च वर्धते ॥ ३३ ॥
'वे बहुश्रुत विद्वानों, बड़े-बूढ़ों तथा ब्राह्मणोंके उपासक हैं सदा ही उनका संग किया करते हैं, इसलिये इस जगत्में श्रीरामकी अनुपम कीर्ति, यश और तेजका विस्तार हो रहा है ॥ ३३ ॥

देवासुरमनुष्याणां सर्वास्त्रेषु विशारदः ।
सम्यग् विद्याव्रतस्नातो यथावत् साङ्‍गवेदवित् ॥ ३४ ॥
'देवता, असुर और मनुष्योंके सम्पूर्ण अस्त्रोंका उन्हें विशेषरूपसे ज्ञान है । वे साङ्ग वेदके यथार्थ विद्वान् और सम्पूर्ण विद्याओंमें भलीभाँति निष्णात हैं ॥ ३४ ॥

गांधर्वे च भुवि श्रेष्ठो बभूव भरताग्रजः ।
कल्याणाभिजनः साधुः अदीनात्मा महामतिः ॥ ३५ ॥
'भरतके बड़े भाई श्रीराम गान्धर्ववेद (संगीतशास्त्र)में भी इस भूतलपर सबसे श्रेष्ठ हैं । कल्याणकी तो वे जन्मभूमि हैं । उनका स्वभाव साधु पुरुषोंके समान है, हृदय उदार और बुद्धि विशाल है ॥ ३५ ॥

द्विजैरभिविनीतश्च श्रेष्ठैर्धर्मार्थनैपुणैः ।
यदा व्रजति संग्रामं ग्रामार्थे नगरस्य वा ॥ ३६ ॥
गत्वा सौमित्रिसहितो नाविजित्य निवर्त्तते ।
'धर्म और अर्थके प्रतिपादनमें कुशल श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने उन्हें उत्तम शिक्षा दी है । वे ग्राम अथवा नगरकी रक्षाके लिये लक्ष्मणके साथ जब संग्रामभूमिमें जाते हैं, उस समय वहाँ जाकर विजय प्राप्त किये बिना पीछे नहीं लौटते ॥ ३६ १/२ ॥

सङ्‍ग्रामात्पुनरागत्य कुञ्जरेण रथेन वा ॥ ३७ ॥
पौरान् स्वजनवन्नित्यं कुशलं परिपृच्छति ।
पुत्रेष्वग्निषु दारेषु प्रेष्यशिष्यगणेषु च ॥ ३८ ॥
'संग्रामभूमिसे हाथी अथवा रथके द्वारा पुन: अयोध्या लौटनेपर वे पुरवासियोंसे स्वजनोंकी भाँति प्रतिदिन उनके पुत्रों, अग्निहोत्रकी अग्नियों, स्त्रियों, सेवकों और शिष्योंका कुशल-समाचार पूछते रहते हैं ॥ ३७-३८ ॥

निखिलेनानुपूर्व्या च पिता पुत्रानिवौरसान् ।
शुश्रूषंते च वः शिष्याः कच्चित् वर्मसु दंशिताः ॥ ३९ ॥
इति वः पुरुषव्याघ्रः सदा रामोऽभिभाषते ।
'जैसे पिता अपने औरस पुत्रोंका कुशल-मङ्गल पूछता है, उसी प्रकार वे समस्त पुरवासियोंसे क्रमश: उनका सारा समाचार पूछा करते हैं । पुरुषसिंह श्रीराम ब्राह्मणोंसे सदा पूछते रहते हैं कि 'आपके शिष्य आपलोगोंकी सेवा करते हैं न ?' क्षत्रियोंसे यह जिज्ञासा करते हैं कि आपके सेवक कवच आदिसे सुसज्जित हो आपकी सेवामें तत्पर रहते हैं न ? ॥ ३९ १/२ ॥

व्यसनेषु मनुष्याणां भृशं भवति दुःखितः ॥ । ४० ॥
उत्सवेषु च सर्वेषु पितेव परितुष्यति ।
'नगरके मनुष्योंपर संकट आनेपर वे बहुत दु:खी हो जाते हैं और उन सबके घरोंमें सब प्रकारके उत्सव होनेपर उन्हें पिताकी भाँति प्रसन्नता होती है ॥ ४० १/२ ॥

सत्यवादी महेष्वासो वृद्धसेवी जितेंद्रियः ॥ ४१ ॥
स्मितपूर्वाभिभाषी च धर्मं सर्वात्मना श्रितः ।
सम्यग्योक्ता श्रेयसां च न विगृह्यकथारुचिः ॥ ४२ ॥
'वे सत्यवादी, महान् धनुर्धर, वृद्ध पुरुषोंके सेवक और जितेन्द्रिय हैं । श्रीराम पहले मुसकराकर वार्तालाप आरम्भ करते हैं । उन्होंने सम्पूर्ण हृदयसे धर्मका आश्रय ले रखा है । वे कल्याणका सम्यक् आयोजन करनेवाले हैं, निन्दनीय बातोंकी चर्चा में उनकी कभी रुचि नहीं होती है ॥ ४१-४२ ॥

उत्तरोत्तरयुक्तौ च वक्ता वाचस्पतिर्यथा ।
सुभ्रूरायतताम्राक्षः साक्षाद् विष्णुरिव स्वयम् ॥ ४३ ॥
'उत्तरोत्तर उत्तम युक्ति देते हुए वार्तालाप करने में वे साक्षात् बृहस्पतिके समान हैं । उनकी भौंहें सुन्दर हैं, आँखें विशाल और कुछ लालिमा लिये हुए हैं । वे साक्षात् विष्णुकी भाँति शोभा पाते हैं । ४३ ॥

रामो लोकाभिरामोऽयं शौर्यवीर्य पराक्रमैः ।
प्रजापालनसंयुक्तो न रागोपहतेंद्रियः ॥ ४४ ॥
'सम्पूर्ण लोकोंको आनन्दित करनेवाले ये श्रीराम शूरता, वीरता और पराक्रम आदिके द्वारा सदा प्रजाका पालन करने में लगे रहते हैं । उनकी इन्द्रियाँ राग आदि दोषोंसे दूषित नहीं होती हैं ॥ ४४ ॥

शक्तस्त्रैलोक्यमप्येष भोक्तुं किन्नु महीमिमाम् ।
नास्य क्रोधः प्रसादश्च निरर्थोऽस्ति कदाचन ॥ ४५ ॥
'इस पृथ्वीकी तो बात ही क्या है, वे सम्पूर्ण त्रिलोकीकी भी रक्षा कर सकते हैं । उनका क्रोध और प्रसाद कभी व्यर्थ नहीं होता है ॥ ४५ ॥

हंत्येष नियमाद् वध्यान् अवध्येषु न कुप्यति ।
युनक्त्यर्थैः प्रहृष्टश्च तमसौ यत्र तुष्यति ॥ ४६ ॥
जो शास्त्रके अनुसार प्राणदण्ड पानेके अधिकारी हैं, उनका ये नियमपूर्वक वध कर डालते हैं तथा जो शास्त्रदृष्टिसे अवध्य हैं, उनपर ये कदापि कुपित नहीं होते हैं । जिसपर ये संतुष्ट होते हैं, उसे हर्षमें भरकर धनसे परिपूर्ण कर देते हैं ॥ ४६ ॥

दांतैः सर्वप्रजाकांतैः प्रीतिसञ्जननैर्नृणाम् ।
गुणैर्विरोचते रामो दीप्तः सूर्य इवांशुभिः ॥ ४७ ॥
'समस्त प्रजाओंके लिये कमनीय तथा मनुष्योंका आनन्द बढ़ानेवाले मन और इन्द्रियोंके संयम आदि सद्गुणोंद्वारा श्रीराम वैसे ही शोभा पाते हैं, जैसे तेजस्वी सूर्य अपनी किरणोंसे सुशोभित होते हैं । ४७ ॥

तं एवंगुण सम्पन्नं रामं सत्यपराक्रमम् ।
लोकपालोपमं नाथं मकामयत मेदिनी ॥ ४८ ॥
'ऐसे सर्वगुणसम्पन्न, लोकपालोंके समान प्रभावशाली एवं सत्यपराक्रमी श्रीरामको इस पृथ्वीकी जनता अपना स्वामी बनाना चाहती है ॥ ४८ ॥

वत्सः श्रेयसि जातस्ते दिष्ट्यासौ तव राघवः ।
दिष्ट्या पुत्रगुणैर्युक्तो मारीच इव काश्यपः ॥ ४९ ॥
हमारे सौभाग्यसे आपके वे पुत्र श्रीरघुनाथजी प्रजाका कल्याण करनेमें समर्थ हो गये हैं तथा आपके सौभाग्यसे वे मरीचिनन्दन कश्यपकी भाँति पुत्रोचित गुणोंसे सम्पन्न हैं ॥ ४९ ॥

बलं आरोग्यमायुश्च रामस्य विदितात्मनः ।
देवासुरमनुष्येषु सगंधर्वोरगेषु च ॥ ५० ॥
आशंसते जनः सर्वो राष्ट्रे पुरवरे तथा ।
आभ्यंतरश्च बाह्यश्च पौरजानपदो जनः ॥ ५१ ॥
'देवताओं, असुरों, मनुष्यों, गन्धों और नागोंमेंसे प्रत्येक वर्गके लोग तथा इस राज्य और राजधानीमें भी बाहर-भीतर आने-जानेवाले नगर और जनपदके सभी लोग सुविख्यात शीलस्वभाववाले श्रीरामचन्द्रजीके लिये सदा ही बल, आरोग्य और आयुकी शुभ कामना करते हैं ॥ ५०-५१ ॥

स्त्रियो वृद्धास्तरुण्यश्च सायंप्रातः समाहिताः ।
सर्वा देवान् नमस्यंति रामस्यार्थे यशस्विनः ।
तेषां तद् याचितं देव त्वत्प्रसादात् समृद्ध्यताम् ॥ ५२ ॥
इस नगरकी बूढ़ी और युवती सब तरहकी स्त्रियाँ सबेरे और सायंकालमें एकाग्रचित्त होकर परम उदार श्रीरामचन्द्रजीके युवराज होनेके लिये देवताओंसे नमस्कारपूर्वक प्रार्थना किया करती हैं । देव ! उनकी वह प्रार्थना आपके कृपा-प्रसादसे अब पूर्ण होनी चाहिये ॥ ५२ ॥

रामं इंदीवरश्यामं सर्वशत्रुनिबर्हणम् ।
पश्यामो यौवराज्यस्थं तव राजोत्तमात्मजम् ॥ ५३ ॥
'नृपश्रेष्ठ ! जो नीलकमलके समान श्यामकान्तिसे सुशोभित तथा समस्त शत्रुओंका संहार करनेमें समर्थ हैं, आपके उन ज्येष्ठ पुत्र श्रीरामको हम युवराज-पदपर विराजमान देखना चाहते हैं ॥ ५३ ॥

तं देवदेवोपममात्मजं ते
    सर्वस्य लोकस्य हिते निविष्टम् ।
हिताय नः क्षिप्रमुदारजुष्टं
    मुदाभिषेक्तुं वरद त्वमर्हसि ॥ ५४ ॥
'अत: वरदायक महाराज ! आप देवाधिदेव श्रीविष्णुके समान पराक्रमी, सम्पूर्ण लोकोंके हितमें संलग्न रहनेवाले और महापुरुषोंद्वारा सेवित अपने पुत्र श्रीरामचन्द्रजीका जितना शीघ्र हो सके प्रसन्नतापूर्वक राज्याभिषेक कीजिये, इसीमें हमलोगोंका हित है' ॥ ५४ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् अयोध्याकाण्डे द्वितीयः सर्गः ॥ २ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें दूसरा सर्ग पूरा हुआ ॥ २ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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