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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
अयोध्याकाण्डम् ॥ पञ्चमः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] राज्ञोऽनुरोधेन सीतासहिताय श्रीरामाय वसिष्ठकर्तृकं उपवासव्रतदीक्षादानं वसिष्ठेन राजानं प्रति वृत्तस्यास्य निवेदनं राज्ञः स्वान्तःपुरे प्रवेशः -
राजा दशरथके अनुरोधसे वसिष्ठजीका सीतासहित श्रीरामको उपवासव्रतकी दीक्षा देकर आना और राजाको इस समाचारसे अवगत कराना; राजाका अन्तःपुरमें प्रवेश - संदिश्य रामं नृपतिः श्वो भाविन्यभिषेचने । पुरोहितं समाहूय वसिष्ठं इदमब्रवीत् ॥ १ ॥ उधर महाराज दशरथ जब श्रीरामचन्द्रजीको दूसरे दिन होनेवाले अभिषेकके विषयमें आवश्यक संदेश दे चुके, तब अपने पुरोहित वसिष्ठजीको बुलाकर बोले- ॥ १ ॥ गच्छोपवासं काकुत्स्थं कारयाद्य तपोधन । श्रेयसे राज्यलाभाय वध्वा सह यतव्रत ॥ २ ॥ नियमपूर्वक व्रतका पालन करनेवाले तपोधन ! आप जाइये और विघ्ननिवारणरूप कल्याणकी सिद्धि तथा राज्यकी प्राप्तिके लिये बहूसहित श्रीरामसे उपवासव्रतका पालन कराइये' ॥ २ ॥ तथेति च स राजानं उक्त्वा वेदविदां वरः । स्वयं वसिष्ठो भगवान् ययौ रामनिवेशनम् ॥ ३ ॥ उपवासयितुं रामं मंत्रविन् मंत्रकोविदम् । ब्राह्मं रथवरं युक्तं आस्थाय सुदृढव्रतः ॥ ४ ॥ तब राजासे 'तथास्तु' कहकर वेदवेत्ता विद्वानोंमें श्रेष्ठ तथा उत्तम व्रतधारी स्वयं भगवान् वसिष्ठ मन्त्रवेत्ता वीर श्रीरामको उपवास-व्रतकी दीक्षा देनेके लिये ब्राह्मणके चढ़नेयोग्य जुते-जुताये श्रेष्ठ रथपर आरूढ़ हो श्रीरामके महलकी ओर चल दिये ॥ ३-४ ॥ स रामभवनं प्राप्य पाण्डराभ्रघनप्रभम् । तिस्रः कक्ष्या रथेनैव विवेश मुनिसत्तमः ॥ ५ ॥ श्रीरामका भवन श्वेत बादलोंके समान उज्वल था, उसके पास पहुँचकर मुनिवर वसिष्ठने उसकी तीन ड्योढ़ियोंमें रथके द्वारा ही प्रवेश किया ॥ ५ ॥ तं आगतं ऋषिं रामः त्वरन्निव ससम्भ्रमम् । मानयिष्यन् स मानार्हं निश्चक्राम निवेशनात् ॥ ६ ॥ वहाँ पधारे हुए उन सम्माननीय महर्षिका सम्मान करनेके लिये श्रीरामचन्द्रजी बड़ी उतावलीके साथ वेगपूर्वक घरसे बाहर निकले ॥ ६ ॥ अभ्येत्य त्वरमाणोऽथ रथाभ्याशं मनीषिणः । ततोऽवतारयामास परिगृह्य रथात् स्वयम् ॥ ७ ॥ उन मनीषी महर्षिके रथके समीप शीघ्रतापूर्वक जाकर श्रीरामने स्वयं उनका हाथ पकड़कर उन्हें रथसे नीचे उतारा ॥ ७ ॥ स चैनं प्रश्रितं दृष्ट्वा सम्भाष्याभि प्रसाद्य च । प्रियार्हं हर्षयन् रामं इत्युवाच पुरोहितः ॥ ८ ॥ श्रीराम प्रिय वचन सुननेके योग्य थे । उन्हें इतना विनीत देखकर पुरोहितजीने 'वत्स !' कहकर पुकारा और उन्हें प्रसन्न करके उनका हर्ष बढ़ाते हुए इस प्रकार कहा— ॥ ८ ॥ प्रसन्नस्ते पिता राम यत्त्वं राज्यमवाप्स्यसि । उपवासं भवानद्य करोतु सह सीतया ॥ ९ ॥ 'श्रीराम ! तुम्हारे पिता तुमपर बहुत प्रसन्न हैं, क्योंकि तुम्हें उनसे राज्य प्राप्त होगा; अत: आजकी रातमें तुम वधू सीताके साथ उपवास करो ॥ ९ ॥ प्रातस्त्वां अभिषेक्ता हि यौवराज्ये नराधिपः । पिता दशरथः प्रीत्या ययातिं नहुषो यथा ॥ १० ॥ 'रघुनन्दन ! जैसे नहुषने ययातिका अभिषेक किया था, उसी प्रकार तुम्हारे पिता महाराज दशरथ कल प्रात:काल बड़े प्रेमसे तुम्हारा युवराज-पदपर अभिषेक करेंगे' ॥ १० ॥ इत्युक्त्वा स तदा रामं उपवासं यतव्रतः । मंत्रवत् कारयामास वैदेह्या सहितं शुचिः ॥ ११ ॥ सा कहकर उन व्रतधारी एवं पवित्र महर्षिने मन्त्रोच्चारणपूर्वक सीतासहित श्रीरामको उस समय उपवासव्रतकी दीक्षा दी ॥ ११ ॥ ततो यथावद् रामेण स राज्ञो गुरुरर्चितः । अभ्यनुज्ञाप्य काकुत्स्थं ययौ रामनिवेशनात् ॥ १२ ॥ तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीने महाराजके भी गुरु वसिष्ठका यथावत् पूजन किया; फिर वे मुनि श्रीरामकी अनुमति ले उनके महलसे बाहर निकले ॥ १२ ॥ सुहृद्भिः तत्र रामोऽपि सहासीनः प्रियंवदैः । सभाजितो विवेशाथ तान् अनुज्ञाप्य सर्वशः ॥ १३ ॥ ्रीराम भी वहाँ प्रियवचन बोलनेवाले सुहृदोंके साथ कुछ देरतक बैठे रहे; फिर उनसे सम्मानित हो उन सबकी अनुमति ले पुन: अपने महलके भीतर चले गये ॥ १३ ॥ हृष्टनारीनरयुतं रामवेश्म तदा बभौ । यथा मत्तद्विजगणं प्रफुल्लनलिनं सरः ॥ १४ ॥ उस समय श्रीरामका भवन हर्षोत्फुल्ल नरनारि योंसे भरा हुआ था और मतवाले पक्षियोंके कलरवोंसे युक्त खिले हुए कमलवाले तालाबके समान शोभा पा रहा था ॥ १४ ॥ स राजभवनप्रख्यात् तस्माद् रामनिवेशनात् । निर्गत्य ददृशे मार्गं वसिष्ठो जनसंवृतम् ॥ १५ ॥ राजभवनोंमें श्रेष्ठ श्रीरामके महलसे बाहर आकर वसिष्ठजीने सारे मार्ग मनुष्योंकी भीड़से भरे हुए देखे ॥ १५ ॥ वृंदवृंदैरयोध्यायां राजमार्गाः समंततः । बभूवुरभिसम्बाधाः कुतूहलजनैर्वृताः ॥ १६ ॥ अयोध्याकी सड़कोंपर सब ओर झुंड-के-झुंड मनुष्य, जो श्रीरामका राज्याभिषेक देखनेके लिये उत्सुक थे, खचाखच भरे हुए थे; सारे राजमार्ग उनसे घिरे हुए थे ॥ १६ ॥ जनवृंदोर्मिसङ्घर्ष हर्षस्वनवतस्तदा । बभूव राजमार्गस्य सागरस्येव निस्वनः ॥ १७ ॥ जनसमुदायरूपी लहरोंके परस्पर टकरानेसे उस समय जो हर्षध्वनि प्रकट होती थी, उससे व्याप्त हुआ राजमार्गका कोलाहल समुद्रकी गर्जनाकी भाँति सुनायी देता था ॥ १७ ॥ सिक्तसंमृष्टरथ्या हि तथा च वनमालिनी । आसीदयोध्या तदहः नगरी समुच्छ्रित गृहध्वजा ॥ १८ ॥ उस दिन वन और उपवनोंकी पंक्तियोंसे सुशोभित हुई अयोध्यापुरीके घर-घरमें ऊंची-ऊँची ध्वजाएँ फहरा रही थीं; वहाँकी सभी गलियों और सड़कोंको झाड़-बुहारकर वहाँ छिड़काव किया गया था ॥ १८ ॥ तदा हि अयोध्यानिलयः सस्त्रीबालाकुलो जनः । रामाभिषेकं आकाङ्क्षन् आकाङ्क्षन् उदयं रवेः ॥ १९ ॥ स्त्रियों और बालकोंसहित अयोध्यावासी जनसमुदाय श्रीरामके राज्याभिषेकको देखनेकी इच्छासे उस समय शीघ्र सूर्योदय होनेकी कामना कर रहा था ॥ १९ ॥ प्रजालङ्कारभूतं च जनस्यानंदवर्धनम् । उत्सुकोऽभूज्जनो द्रष्टुं तं अयोध्यामहोत्सवम् ॥ २० ॥ अयोध्याका वह महान् उत्सव प्रजाओंके लिये अलंकाररूप और सब लोगोंके आनन्दको बढ़ानेवाला था; वहाँके सभी मनुष्य उसे देखनेके लिये उत्कण्ठित हो रहे थे ॥ २० ॥ एवं तत् जनसम्बाधं राजमार्गं पुरोहितः । व्यूहन्निव जनौघं तं शनै राजकुलं ययौ ॥ २१ ॥ इस प्रकार मनुष्योंकी भीड़से भरे हुए राजमार्गपर पहुँचकर पुरोहितजी उस जनसमूहको एक ओर करते हुए-से धीरे-धीरे राजमहलकी ओर गये ॥ २१ ॥ सिताभ्रशिखरप्रख्यं प्रासादं अधिरुह्य चः । समीयाय नरेंद्रेण शक्रेणेव बृहस्पतिः ॥ २२ ॥ श्वेत जलद-खण्डके समान सुशोभित होनेवाले महलके ऊपर चढ़कर वसिष्ठजी राजा दशरथसे उसी प्रकार मिले, जैसे बृहस्पति देवराज इन्द्रसे मिल रहे हों ॥ २२ ॥ तं आगतम्ं भिप्रेक्ष्य हित्वा राजासनं नृपः । पप्रच्छ स च तस्मै तत् कृतमित्यभ्यवेदयत् ॥ २३ ॥ उन्हें आया देख राजा सिंहासन छोड़कर खड़े हो गये और पूछने लगे—'मुने ! क्या आपने मेरा अभिप्राय सिद्ध किया । ' वसिष्ठजीने उत्तर दिया- 'हाँ ! कर दिया ॥ २३ ॥ तेन चैव तदा तुल्यं सहासीनाः सभासदः । आसनेभ्यः समुत्तस्थुः पूजयंतः पुरोहितम् ॥ २४ ॥ उनके साथ ही उस समय वहाँ बैठे हुए अन्य सभासद् भी पुरोहितका समादर करते हुए अपने-अपने आसनोंसे उठकर खड़े हो गये ॥ २४ ॥ गुरुणा त्वभ्यनुज्ञातो मनुजौधं विसृज्य तम् । विवेशांतःपुरं राजा सिंहो गिरिगुहामिव ॥ २५ ॥ तदनन्तर गुरुजीकी आज्ञा ले राजा दशरथने उस जनसमुदायको विदा करके पर्वतकी कन्दरामें घुसनेवाले सिंहके समान अपने अन्त:पुरमें प्रवेश किया ॥ २५ ॥ तदग्र्यवेष प्रमदाजनाकुलं महेंद्रवेश्मप्रतिमं निवेशनम् । विदीपयंश्चारु विवेश पार्थिवः शशीव तारागणसङ्कुलं नभः ॥ २६ ॥ सुन्दर वेश-भूषा धारण करनेवाली सुन्दरियोंसे भरे हुए इन्द्रसदनके समान उस मनोहर राजभवनको अपनी शोभासे प्रकाशित करते हुए राजा दशरथने उसके भीतर उसी प्रकार प्रवेश किया, जैसे चन्द्रमा ताराओंसे भरे हुए आकाशमें पदार्पण करते हैं ॥ २६ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् अयोध्याकाण्डे पञ्चमः सर्गः ॥ ५ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें पाँचवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ५ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |