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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

अयोध्याकाण्डम्

॥ षष्ठः सर्गः ॥


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ससीतस्य श्रीरामस्य नियमपरायणता संहृष्टैः पुरजनैर्नगरस्यालंकरणं राजानं प्रति कृतज्ञता प्रकटनं च पुर्य्यां जानपदजनानां समुदायस्यैकत्रसमवायः -
सीतासहित श्रीरामका नियमपरायण होना, हर्षमें भरे पुरवासियोंद्वारा नगरकी सजावट, राजाके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना तथा अयोध्यापुरीमें जनपदवासी मनुष्योंकी भीड़का एकत्र होना -


गते पुरोहिते रामः स्नातो नियतमानसः ।
सह पत्‍न्या विशालाक्ष्या नारायणमुपागमत् ॥ १ ॥
पुरोहितजीके चले जानेपर मनको संयममें रखनेवाले श्रीरामने स्नान करके अपनी विशाललोचना पत्नीके साथ श्रीनारायणकी उपासना आरम्भ की ॥ १ ॥

प्रगृह्य शिरसा पात्रीं हविषो विधिवत् ततः ।
महते दैवतायाज्यं जुहाव ज्वलितानले ॥ २ ॥
उन्होंने हविष्य-पात्रको सिर झुकाकर नमस्कार किया और प्रज्वलित अग्निमें महान् देवता (शेषशायी नारायण) की प्रसन्नताके लिये विधिपूर्वक उस हविष्यकी आहुति दी ॥ २ ॥

शेषं च हविषस्तस्य प्राश्याशास्यात्मनः प्रियम् ।
ध्यायन्नारायणं देवं स्वास्तीर्णे कुशसंस्तरे ॥ ३ ॥
वाग्यतः सह वैदेह्या भूत्वा नियतमानसः ।
श्रीमत्यायतने विष्णोः शिश्ये नरवरात्मजः ॥ ४ ॥
तत्पश्चात् अपने प्रिय मनोरथकी सिद्धिका संकल्प लेकर उन्होंने उस यज्ञशेष हविष्यका भक्षण किया और मनको संयममें रखकर मौन हो वे राजकुमार श्रीराम विदेहनन्दिनी सीताके साथ भगवान् विष्णुके सुन्दर मन्दिरमें श्रीनारायणदेवका ध्यान करते हुए वहाँ अच्छी तरह बिछी हुई कुशकी चटाईपर सोये ॥ ३-४ ॥

एकयामावशिष्टायां रात्र्यां प्रतिविबुध्य सः ।
अलङ्‍कारविधिं सम्यक् कारयामास वेश्मनः ॥ ५ ॥
जब तीन पहर बीतकर एक ही पहर रात शेष रह गयी, तब वे शयनसे उठ बैठे । उस समय उन्होंने सभामण्डपको सजानेके लिये सेवकोंको आज्ञा दी ॥ ५ ॥

तत्र श्रृण्वन् सुखा वाचः सूतमागधवंदिनाम् ।
पूर्वां संध्यामुपासीनो जजाप सुससमाहितः ॥ ६ ॥
वहाँ सूत, मागध और बंदियोंकी श्रवणसुखद वाणी सुनते हुए श्रीरामने प्रात:कालिक संध्योपासना की; फिर एकाग्रचित्त होकर वे जप करने लगे ॥ ६ ॥

तुष्टाव प्रणतश्चैव शिरसा मधुसूदनम् ।
विमलक्षौमसंवीतो वाचयामास च द्विजान् ॥ ७ ॥
तदनन्तर रेशमी वस्त्र धारण किये हुए श्रीरामने मस्तक झुकाकर भगवान् मधुसूदनको प्रणाम और उनका स्तवन किया; इसके बाद ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराया ॥ ७ ॥

तेषां पुण्याहघोषोऽथ गम्भीरमधुरस्तथा ।
अयोध्यां पूरयामास तूर्यघोषानुनादितः ॥ ८ ॥
उन ब्राह्मणोंका पुण्याहवाचनसम्बन्धी गम्भीर एवं मधुर घोष नाना प्रकारके वाद्योंकी ध्वनिसे व्यास होकर सारी अयोध्यापुरीमें फैल गया ॥ ८ ॥

कृतोपवासं तु तदा वैदेह्या सह राघवम् ।
अयोध्यानिलयः श्रुत्वा सर्वः प्रमुदितो जनः ॥ ९ ॥
उस समय अयोध्यावासी मनुष्योंने जब यह सुना कि श्रीरामचन्द्रजीने सीताके साथ उपवास-व्रत आरम्भ कर दिया है, तब उन सबको बड़ी प्रसन्नता हुई ॥ ९ ॥

ततः पौरजनः सर्वः श्रुत्वा रामाभिषेचनम् ।
प्रभातां रजनीं दृष्ट्‍वा चक्रे शोभयितुं पुरीम् ॥ १० ॥
सबेरा होनेपर श्रीरामके राज्याभिषेकका समाचार सुनकर समस्त पुरवासी अयोध्यापुरीको सजानेमें लग गये ॥ १० ॥

सिताभ्रशिखराभेषु देवतायतनेषु च ।
चतुष्पथेषु रथ्यासु चैत्येष्वट्टालकेषु च ॥ ११ ॥
नानापण्यसमृद्धेषु वणिजामापणेषु च ।
कुटुम्बिनां समृद्धेषु श्रीमत्सु भवनेषु च ॥ १२ ॥
सभासु चैव सर्वासु वृक्षेष्वालक्षितेषु च ।
ध्वजाः समुच्छ्रिता साधु पताकाश्चाभवंस्तथा ॥ १३ ॥
जिनके शिखरोंपर श्वेत बादल विश्राम करते हैं, उन पर्वतोंके समान गगनचुम्बी देवमन्दिरों, चौराहों, गलियों, देववृक्षों, समस्त सभाओं, अट्टालिकाओं, नाना प्रकारकी बेचनेयोग्य वस्तुओंसे भरी हुई व्यापारियोंकी बड़ी-बड़ी दूकानों तथा कुटुम्बी गृहस्थोंके सुन्दर समृद्धिशाली भवनोंमें और दूरसे दिखायी देनेवाले वृक्षोंपर भी ऊँची ध्वजाएँ लगायी गयीं और उनमें पताकाएँ फहरायी गयीं ॥ ११–१३ ॥

नटनर्तकसङ्‍घानां गायकानां च गायताम् ।
मनःकर्णसुखा वाचः शुश्राव जनता ततः ॥ १४ ॥
स समय वहाँकी जनता सब ओर नटों और नर्तकोंके समूहों तथा गानेवाले गायकोंकी मन और कानोंको सुख देनेवाली वाणी सुनती थी ॥ १४ ॥

रामाभिषेकयुक्ताश्च कथाश्चक्रुर्मिथो जनाः ।
रामाभिषेके सम्प्राप्ते चत्वरेषु गृहेषु च ॥ १५ ॥
श्रीरामके राज्याभिषेकका शुभ अवसर प्राप्त होनेपर प्राय: सब लोग चौराहोंपर और घरोंमें भी आपसमें श्रीरामके राज्याभिषेककी ही चर्चा करते थे ॥ १५ ॥

बाला अपि क्रीडमाना गृहद्वारेषु सङ्‍घशः ।
रामाभिषेकसंयुक्ताः चक्रुरेवं कथाः मिथः ॥ १६ ॥
घरोंके दरवाजोंपर खेलते हुए झुंड-के-झुंड बालक भी आपसमें श्रीरामके राज्याभिषेककी ही बातें करते थे ॥ १६

कृतपुष्पोपहारश्च धूपगंधाधिवासितः ।
राजमार्गः कृतः श्रीमान् पौरै रामाभिषेचने ॥ १७ ॥
पुरवासियोंने श्रीरामके राज्याभिषेकके समय राजमार्गपर फूलोंकी भेंट चढ़ाकर वहाँ सब ओर धूपकी सुगन्ध फैला दी; ऐसा करके उन्होंने राजमार्गको बहुत सुन्दर बना दिया ॥ १७ ॥

प्रकाशकरणार्थं च निशागमनशङ्‍कया ।
दीपवृक्षांस्तथा चक्रुः अनुरथ्यासु सर्वशः ॥ १८ ॥
राज्याभिषेक होते-होते रात हो जानेकी आशङ्कासे प्रकाशकी व्यवस्था करनेके लिये पुरवासियोंने सब ओर सड़कोंके दोनों तरफ वृक्षकी भाँति अनेक शाखाओंसे युक्त दीपस्तम्भ खड़े कर दिये ॥ १८ ॥

अलंकारं पुरस्यैवं कृत्वा तत् पुरवासिनः ।
आकांक्षमाणा रामस्य यौवराज्याभिषेचनम् ॥ १९ ॥
समेत्य सङ्‍घशः सर्वे चत्वरेषु सभासु च ।
कथयंतो मिथस्तत्र प्रशशंसुर्जनाधिपम् ॥ २० ॥
इस प्रकार नगरको सजाकर श्रीरामके युवराजपदपर अभिषेककी अभिलाषा रखनेवाले समस्त पुरवासी चौराहों और सभाओंमें झुंड-के-झुंड एकत्र हो वहाँ परस्पर बातें करते हुए महाराज दशरथकी प्रशंसा करने लगे— ॥ १९-२० ॥

अहो महात्मा राजाऽयं इक्ष्वाकुकुलनंदनः ।
ज्ञात्वा वृद्धं स्वमात्मानं रामं राज्येऽभिषेक्ष्यति ॥ २१ ॥
'अहो ! इक्ष्वाकुकुलको आनन्दित करनेवाले ये राजा दशरथ बड़े महात्मा हैं, जो कि अपने-आपको बूढ़ा हुआ जानकर श्रीरामका राज्याभिषेक करने जा रहे हैं ॥ २१ ॥

सर्वे हि अनुगृहीताः स्म यन्नो रामो महीपतिः ।
चिराय भविता गोप्ता दृष्टलोकपरावरः ॥ २२ ॥
'भगवान्‌का हम सब लोगोंपर बड़ा अनुग्रह है कि श्रीरामचन्द्रजी हमारे राजा होंगे और चिरकालतक हमारी रक्षा करते रहेंगे; क्योंकि वे समस्त लोकोंके निवासियोंमें जो भलाई या बुराई है, उसे अच्छी तरह देख चुके हैं ॥ २२ ॥

अनुद्धतमना विद्वान् धर्मात्मा भ्रातृवत्सलः ।
यथा च भ्रातृषु स्निग्धः तथास्मास्वपि राघवः ॥ २३ ॥
'श्रीरामका मन कभी उद्धत नहीं होता । वे विद्वान, धर्मात्मा और अपने भाइयोंपर स्नेह रखनेवाले हैं । उनका अपने भाइयोंपर जैसा स्नेह है, वैसा ही हमलोगोंपर भी है ॥ २३ ॥

चिरं जीवतु धर्मात्मा राजा दशरथोऽनघः ।
यत्प्रसादेनाभिषिक्तं रामं द्रक्ष्यामहे वयम् ॥ २४ ॥
धर्मात्मा एवं निष्पाप राजा दशरथ चिरकालतक जीवित रहें, जिनके प्रसादसे हमें श्रीरामके राज्याभिषेकका दर्शन सुलभ होगा' ॥ २४ ॥

एवंविधं कथयतां पौराणां शुश्रुवुः परे ।
दिग्भ्यो विश्रुतवृत्तांताः प्राप्ता जानपदा जनाः ॥ २५ ॥
अभिषेकका वृत्तान्त सुनकर नाना दिशाओंसे उस जनपदके लोग भी वहाँ पहुँचे थे, उन्होंने उपर्युक्त बातें कहनेवाले पुरवासियोंकी सभी बातें सुनीं ॥ २५ ॥

ते तु दिग्भ्यः पुरीं प्राप्ता द्रष्टुं रामाभिषेचनम् ।
रामस्य पूरयामासुः पुरीं जानपदा जनाः ॥ २६ ॥
वे सब-के-सब श्रीरामका राज्याभिषेक देखनेके लिये अनेक दिशाओंसे अयोध्यापुरीमें आये थे । उन जनपदनिवासी मनुष्योंने श्रीरामपुरीको अपनी उपस्थितिसे भर दिया था ॥ २६ ॥

जनौघैः तैर्विसर्पद्‌भिः शुश्रुवे तत्र निस्वनः ।
पर्वसूदीर्णवेगस्य सागरस्येव निस्वनः ॥ २७ ॥
वहाँ मनुष्योंकी भीड़-भाड़ बढ़नेसे जो जनरव सुनायी देता था, वह पाक दिन बढ़े हुए वेगवाले महासागरकी गर्जनाके समान जान पड़ता था ॥ २७ ॥

ततस्तदिंद्रक्षयसन्निभं पुरं
    दिदृक्षुभिर्जानपदैः उपाहितैः ।
समंततः सस्वनमाकुलं बभौ
    समुद्रयादोभिरिवार्णवोदकम् ॥ २८ ॥
उस समय श्रीरामके अभिषेकका उत्सव देखनेके लिये पधारे हुए जनपदवासी मनुष्योंद्वारा सब ओरसे भरा हुआ वह इन्द्रपुरीके समान नगर अत्यन्त कोलाहलपूर्ण होनेके कारण मकर, नक्र, तिमिङ्गल आदि विशाल जल-जन्तुओंसे परिपूर्ण महासागरके समान प्रतीत होता था ॥ २८ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् अयोध्याकाण्डे षष्ठः सर्गः ॥ ६ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें छठा सर्ग पूरा हुआ ॥ ६ ॥


ऐसा माना जाता है कि यहाँ नारायण शब्दसे श्रीरंगनाथजीकी वह अर्चा-मूर्ति अभिप्रेत है; जो कि पूर्वजोंके समयसे ही दीर्घकालतक अयोध्या में उपास्य देवताके रूपमें रही । बादमें श्रीरामजीने वह मूर्ति विभीषणको दे दी थी, जिससे वह वर्तमान श्रीरंगक्षेत्र में पहुंची । इसकी विस्तृत कथा पद्मपुराणमें है ।



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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