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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

अयोध्याकाण्डम्

॥ दशमः सर्गः ॥


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कैकेय्याः सद्मनि समागतस्य दशरथस्य तां कोपभवनगतां आलोक्य दुःखं तेन तस्यै सान्त्वनाप्रदानम् -
राजा दशरथका कैकेयीके भवनमें जाना, उसे कोपभवनमें स्थित देखकर दुःखी होना और उसको अनेक प्रकारसे सान्त्वना देना -


विदर्शिता यदा देवी कुब्जया पापया भृशम् ।
तदा शेते स्म सा भूमौ दिग्धविद्धेव किन्नरी ॥ १ ॥
पापिनी कुब्जाने जब देवी कैकेयीको बहुत उलटी बातें समझा दी, तब वह विषाक्त बाणसे विद्ध हुई किन्नरीके समान धरतीपर लोटने लगी ॥ १ ॥

निश्चित्य मनसा कृत्यं सा सम्यगिति भामिनी ।
मंथरायै शनैः सर्वं आचचक्षे विचक्षणा ॥ २ ॥
मन्थराके बताये हुए समस्त कार्यको यह बहुत उत्तम है—ऐसा मन-ही-मन निश्चय करके बातचीतमें कुशल भामिनी कैकेयीने मन्थरासे धीरे-धीरे अपना सारा मन्तव्य बता दिया ॥ २ ॥

सा दीना निश्चयं कृत्वा मंथरावाक्यमोहिता ।
नागकन्येव निःश्वस्य दीर्घमुष्णं च भामिनी ॥ ३ ॥
मुहूर्त्तं चिंतयामास मार्गमात्मसुखावहम् ।
मन्थराके वचनोंसे मोहित एवं दीन हुई भामिनी कैकेयी पूर्वोक्त निश्चय करके नागकन्याकी भाँति गरम और लंबी साँस खींचने लगी और दो घड़ीतक अपने लिये सुखदायक मार्गका विचार करती रही ॥ ३ १/२ ॥

सा सुहृच्चार्थकामा च तं निशम्य विनिश्चयम् ॥ ४ ॥
बभूव परमप्रीता सिद्धिं प्राप्येव मंथरा ।
और वह मन्थरा जो कैकेयीका हित चाहनेवाली सुहृद् थी और उसीके मनोरथको सिद्ध करनेकी अभिलाषा रखती थी, कैकेयीके उस निश्चयको सुनकर बहुत प्रसन्न हुई; मानो उसे कोई बहुत बड़ी सिद्धि मिल गयी हो ॥ ४ १/२ ॥

अथ सा रुषिता देवी सम्यक् कृत्वा विनिश्चयम् ॥ ५ ॥
संविवेशाबला भूमौ निवेश्य भ्रुकुटीं मुखे ।
तदनन्तर रोषमें भरी हुई देवी कैकेयी अपने कर्तव्यका भलीभाँति निश्चय कर मुखमण्डलमें स्थित भौंहोंको टेढ़ी करके धरतीपर सो गयी । और क्या करती अबला ही तो थी ॥ ५ १/२ ॥

ततश्चित्राणि माल्यानि दिव्यान्याभरणानि च ॥ ६ ॥
अपविद्धानि कैकेय्या तानि भूमिं प्रपेदिरे ।
तदनन्तर उस केकयराजकुमारीने अपने विचित्र पुष्पहारों और दिव्य आभूषणोंको उतारकर फेंक दिया । वे सारे आभूषण धरतीपर यत्र-तत्र पड़े थे ॥ ६ १/२ ॥

तया तान्यपविद्धानि माल्यान्याभरणानि च ॥ ७ ॥
अशोभयंत वसुधां नक्षत्राणि यथा नभः ।
जैसे छिटके हुए तारे आकाशकी शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार फेंरुके हुए वे पुष्पहार और आभूषण वहाँ भूमिकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥ ७ १/२ ॥

क्रोधागारे च पतिता सा बभौ मलिनाम्बरा ॥ ८ ॥
एकवेणीं दृढां बध्वा गतसत्त्वेव किन्नरी ।
मलिन वस्त्र पहनकर और सारे केशोंको दृढ़ता-पूर्वक एक ही वेणीमें बाँधकर कोपभवनमें पड़ी हुई कैकेयी बलहीन अथवा अचेत हुई किन्नरीके समान जान पड़ती थी ॥ ८ १/२ ॥

आज्ञाप्य तु महाराजो राघवस्याभिषेचनम् ॥ ९ ॥
उपस्थानं अनुज्ञाप्य प्रविवेश निवेशनम् ।
उधर महाराज दशरथ मन्त्री आदिको श्रीरामके राज्याभिषेककी तैयारीके लिये आज्ञा दे सबको यथासमय उपस्थित होनेके लिये कहकर रनिवासमें गये ॥ ९ १/२ ॥

अद्य रामाभिषेको वै प्रसिद्ध इति जज्ञिवान् ॥ १० ॥
प्रियार्हों प्रियमाख्यातुं विवेशांतःपुरं वशी ।
उन्होंने सोचा आज ही श्रीरामके अभिषेककी बात प्रसिद्ध की गयी है, इसलिये यह समाचार अभी किसी रानीको नहीं मालूम हुआ होगा; ऐसा विचारकर जितेन्द्रिय राजा दशरथने अपनी प्यारी रानीको यह प्रिय संवाद सुनानेके लिये अन्त:पुरमें प्रवेश किया ॥ १० १/२ ॥

स कैकेय्या गृहं श्रेष्ठं प्रविवेश महायशाः ॥ ११ ॥
पाण्डराभ्रमिवाकाशं राहुयुक्तं निशाकरः ।
उन महायशस्वी नरेशने पहले कैकेयीके श्रेष्ठ भवनमें प्रवेश किया, मानो श्वेत बादलोंसे युक्त राहुयुक्त आकाशमें चन्द्रमाने पदार्पण किया हो ॥ ११ १/२ ॥

शुकबर्हिसमायुक्तं क्रौञ्चहंसरुतायुतम् ॥ १२ ॥
वादित्ररवसङ्‍घुष्टं कुब्जावामनिकायुतम् ।
लतागृहैश्चित्रगृहैः चम्पकाशोकशोभितैः ॥ १३ ॥
उस भवन में तोते, मोर, क्रौञ्च और हंस आदि पक्षी कलरव कर रहे थे, वहाँ वाद्योंका मधुर घोष गूंज रहा था, बहुत-सी कुब्जा और बौनी दासियाँ भरी हुई थीं, चम्पा और अशोकसे सुशोभित बहुत-से लताभवन और चित्रमन्दिर उस महलकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥ १२-१३ ॥

दांतराजतसौवर्ण वेदिकाभिः समायुतम् ।
नित्यपुष्पफलैर्वृक्षैः वापीभिः उपशोभितम् ॥ १४ ॥
हाथीदाँत, चाँदी और सोनेकी बनी हुई वेदियोंसे संयुक्त उस भवनको नित्य फूलने-फलनेवाले वृक्ष और बहुत-सी बावड़ियाँ सुशोभित कर रही थीं ॥ १४ ॥

दांतराजतसौवर्णैः संवृतं परमासनैः ।
विविधैः अन्नपानैश्च भक्ष्यैश्च विविधैरपि ॥ १५ ॥
उपपन्नं महार्हैश्च भूषणैस्त्रिदिवोपमम् ।
उसमें हाथीदाँत, चाँदी और सोनेके बने हुए उत्तम सिंहासन रखे गये थे । नाना प्रकारके अन्न, पान और भाँतिभाँतिके भक्ष्य-भोज्य पदार्थोंसे वह भवन भरा-पूरा था । बहुमूल्य आभूषणोंसे सम्पन्न कैकेयीका वह भवन स्वर्गके समान शोभा पा रहा था ॥ १५ १/२ ॥

तत् प्रविश्य महाराजः स्वं अंतःपुरमृद्धिमत् ॥ १६ ॥
न ददर्श स्त्रियं राजा कैकेयीं शयनोत्तमे ।
अपने उस समृद्धिशाली अन्तःपुरमें प्रवेश करके महाराज राजा दशरथने वहाँकी उत्तम शय्यापर रानी कैकेयीको नहीं देखा ॥ १६ १/२ ॥

स कामबलसंयुक्तो रत्यर्थीं मनुजाधिपः ॥ १७ ॥
अपश्यन् दयितां भार्यां पप्रच्छ विषसाद च ।
कामबलसे संयुक्त वे नरेश रानीकी प्रसन्नता बढ़ानेकी अभिलाषासे भीतर गये थे । वहाँ अपनी प्यारी पत्नीको न देखकर उनके मन में बड़ा विषाद हुआ और वे उनके विषयमें पूछ-ताछ करने लगे ॥ १७ १/२ ॥

न हि तस्य पुरा देवी तां वेलामत्यवर्तत ॥ १८ ॥
न च राजा गृहं शून्यं प्रविवेश कदाचन ।
ततो गृहगतो राजा कैकेयीं पर्यपृच्छत ॥ १९ ॥
यथापुरं अविज्ञाय स्वार्थलिप्सुमपण्डिताम् ।
इससे पहले रानी कैकेयी राजाके आगमनकी उस बेलामें कहीं अन्यत्र नहीं जाती थीं, राजाने कभी सूने भवनमें प्रवेश नहीं किया था, इसीलिये वे घरमें आकर कैकेयीके बारे में पूछने लगे । उन्हें यह मालूम नहीं था कि वह मूर्खा कोई स्वार्थ सिद्ध करना चाहती है, अत: उन्होंने पहलेकी ही भाँति प्रतिहारीसे उसके विषयमें पूछा ॥ १८-१९ १/२ ॥

प्रतिहारी त्वथोवाच संत्रस्ता तु कृताञ्जलिः ॥ २० ॥
देव देवी भृशं क्रुद्धा क्रोधागारमभिद्रुता ।
प्रतिहारी बहुत डरी हुई थी । उसने हाथ जोड़कर कहा—'देव ! देवी कैकेयी अत्यन्त कुपित हो कोपभवनकी ओर दौड़ी गयी हैं ॥ २० १/२ ॥

प्रतिहार्या वचः श्रुत्वा राजा परमदुर्मनाः ॥ २१ ॥
विषसाद पुनर्भूयो लुलितव्याकुलेंद्रियः ।
प्रतिहारीकी यह बात सुनकर राजाका मन बहुत उदास हो गया, उनकी इन्द्रियाँ चञ्चल एवं व्याकुल हो उठीं और वे पुन: अधिक विषाद करने लगे ॥ २१ १/२ ॥

तत्र तां पतितां भूमौ शयानामतथोचिताम् ॥ २२ ॥
प्रतप्त इव दुःखेन सोऽपश्यज्जगतीपतिः ।
कोपभवनमें वह भूमिपर पड़ी थी और इस तरह लेटी हुई थी, जो उसके लिये योग्य नहीं था । राजाने दु:खके कारण संतप्त-से होकर उसे इस अवस्थामें देखा ॥ २२ १/२ ॥

सवृद्धस्तरुणीं भार्यां प्राणेभ्योऽपि गरीयसीम् ॥ २३ ॥
अपापः पापसंकल्पां ददर्श धरणीतले ।
लतामिव विनिष्कृत्तां पतितां देवतामिव ॥ २४ ॥
राजा बूढ़े थे और उनकी वह पत्नी तरुणी थी, अत: वे उसे अपने प्राणोंसे भी बढ़कर मानते थे । राजाके मनमें कोई पाप नहीं था; परंतु कैकेयी अपने मनमें पापपूर्ण संकल्प लिये हुए थी । उन्होंने उसे कटी हुई लताकी भाँति पृथ्वीपर पड़ी देखा—मानो कोई देवाङ्गना स्वर्गसे भूतलपर गिर पड़ी हो ॥ २३-२४ ॥

किन्नरीमिव निर्धूतां च्युतामप्सरसं यथा ।
मायामिव परिभ्रष्टां हरिणीमिव संयुताम् ॥ २५ ॥
वह स्वर्गभ्रष्ट किन्नरी, देवलोकसे च्युत हुई अप्सरा, लक्ष्यभ्रष्ट माया और जालमें बँधी हुई हरिणीके समान जान पड़ती थी ॥ २५ ॥

करेणुमिव दिग्धेन विद्धां मृगयुना वने ।
महागज इवारण्ये स्नेहात् परमदुःखिताम् ॥ २६ ॥
परिमृज्य च पाणिभ्यां अभिसंत्रस्तचेतनः ।
कामी कमलपत्राक्षीं उवाच वनितामिदम् ॥ २७ ॥
जैसे कोई महान् गजराज वनमें व्याधके द्वारा विषलिप्त बाणसे विद्ध होकर गिरी हुई अत्यन्त दु:खित हथिनीका स्नेहवश स्पर्श करता है, उसी प्रकार कामी राजा दशरथने महान् दु:खमें पड़ी हुई कमलनयनी भार्या कैकेयीका स्नेहपूर्वक दोनों हाथोंसे स्पर्श किया । उस समय उनके मन में सब ओरसे यह भय समा गया था कि न जाने यह क्या कहेगी और क्या करेगी ? वे उसके अगोंपर हाथ फेरते हुए उससे इस प्रकार बोले— ॥ २६-२७ ॥

न तेऽहमभिजानामि क्रोधमात्मनि संश्रितम् ।
देवि केनाभियुक्तासि केन वासि विमानिता ॥ २८ ॥
'देवि ! तुम्हारा क्रोध मुझपर है, ऐसा तो मुझे विश्वास नहीं होता । फिर किसने तुम्हारा तिरस्कार किया है ! किसके द्वारा तुम्हारी निन्दा की गयी है ? ॥ २८ ॥

यदिदं मम दुःखाय शेषे कल्याणि पांसुषु ।
भूमौ शेषे किमर्थं त्वं मयि कल्याणचेतसि ॥ २९ ॥
भूतोपहतचित्तेव मम चित्तप्रमाथिनी ।
'कल्याणि ! तुम जो इस तरह मुझे दु:ख देनेके लिये धूलमें लोट रही हो, इसका क्या कारण है ? मेरे चित्तको मथ डालनेवाली सुन्दरी ! मेरे मनमें तो सदा तुम्हारे कल्याणकी ही भावना रहती है । फिर मेरे रहते हुए तुम किस लिये धरतीपर सो रही हो ? जान पड़ता है तुम्हारे चित्तपर किसी पिशाचने अधिकार कर लिया है ॥ २९ १/२ ॥

संति मे कुशला वैद्यास्तु अभितुष्टाश्च सर्वशः ॥ ३० ॥
सुखितां त्वां करिष्यंति व्याधिमाचक्ष्व भामिनि ।
'भामिनि ! तुम अपना रोग बताओ । मेरे यहाँ बहुत-से चिकित्साकुशल वैद्य हैं, जिन्हें मैंने सब प्रकारसे संतुष्ट कर रखा है, वे तुम्हें सुखी कर देंगे ॥ ३० १/२ ॥

कस्य वा ते प्रियं कार्यं केन वा विप्रियं कृतम् ॥ ३१ ॥
कः प्रियं लभतामद्य को वा सुमहदप्रियम् ।
'अथवा कहो, आज किसका प्रिय करना है ? या किसने तुम्हारा अप्रिय किया है ? तुम्हारे किस उपकारीको आज प्रिय मनोरथ प्राप्त हो अथवा किस अपकारीको अत्यन्त अप्रिय—कठोर दण्ड दिया जाय ? ॥ ३१ १/२ ॥

मा रौत्सीर्मा च कार्षीस्त्वं देवि सम्परिशोषणम् ॥ ३२ ॥
अवध्यो वध्यतां को वा को वा वध्यो विमुच्यताम् ।
दरिद्रः को भवेद् आढ्यो द्रव्यवान् वाप्यकिञ्चनः ॥ ३३ ॥
'देवि ! तुम न रोओ, अपनी देहको न सुखाओ; आज तुम्हारी इच्छाके अनुसार किस अवध्यका वध किया जाय ? अथवा किस प्राणदण्ड पानेयोग्य अपराधीको भी मुक्त कर दिया जाय ? किस दरिद्रको धनवान् और किस धनवान्को कंगाल बना दिया जाय ? ॥ ३२-३३ ॥

अहं च हि मदीयाश्च सर्वे तव वशानुगाः ।
न ते कञ्चिद् अभिप्रायं व्याहंतुमहमुत्सहे ॥ ३४ ॥
आत्मनो जीवितेनापि ब्रूहि यन्मनसि स्थितम् ।
'मैं और मेरे सभी सेवक तुम्हारी आज्ञाके अधीन हैं । तुम्हारे किसी भी मनोरथको मैं भंग नहीं कर सकता उसे पूरा करके ही रहूँगा, चाहे उसके लिये मुझे अपने प्राण ही क्यों न देने पड़ें; अत: तुम्हारे मनमें जो कुछ हो, उसे स्पष्ट कहो ॥ ३४ १/२ ॥

बलमात्मनि जानंती न मां शङ्‌कितुमर्हसि ॥ ३५ ॥
करिष्यामि तव प्रीतिं सुकृतेनापि ते शपे ।
'अपने बलको जानते हुए भी तुम्हें मुझपर संदेह नहीं करना चाहिये । मैं अपने सत्कर्मोंकी शपथ खाकर कहता हूँ, जिससे तुम्हें प्रसन्नता हो, वही करूँगा ॥ ३५ १/२ ॥

यावदावर्त्तते चक्रं तावती मे वसुंधरा ॥ ३६ ॥
द्रविडाः सिंधुसौवीराः सौराष्ट्रा दक्षिणापथाः ।
वङ्‍गाङ्‍ग मगधा मत्स्याः समृद्धाः काशिकोसलाः ॥ ३७ ॥
'जहाँतक सूर्यका चक्र घूमता है, वहाँतक सारी पृथ्वी मेरे अधिकारमें है । द्रविड़, सिन्धु-सौवीर, सौराष्ट्र, दक्षिण भारतके सारे प्रदेश तथा अङ्म, वङ्ग, मगध, मत्स्य, काशी और कोसल-इन सभी समृद्धिशाली देशोंपर मेरा आधिपत्य है ॥ ३६-३७ ॥

तत्र जातं बहुद्रव्यं धनधान्यमजाविकम् ।
ततो वृणीष्व कैकेयि यद् यत् त्वं मनसेच्छसि ॥ ३८ ॥
'केकयराजनन्दिनि ! उनमें पैदा होनेवाले भाँति-भाँतिके द्रव्य, धन-धान्य और बकरी-भेंड़ आदि जो भी तुम मनसे लेना चाहती हो, वह मुझसे माँग लो ॥ ३८ ॥

किमायासेन ते भीरु उत्तिष्ठोत्तिष्ठ शोभने ।
तत्त्वं मे ब्रूहि कैकेयि यतस्ते भयमागतम् ।
तत् ते व्यपनयिष्यामि नीहारमिव रश्मिवान् ॥ ३९ ॥
भीरु ! इतना क्लेश उठाने प्रयास करनेकी क्या आवश्यकता है ? शोभने ! उठो, उठो । कैकेयि ! ठीक-ठीक बताओ, तुम्हें किससे कौन-सा भय प्राप्त हुआ है ? जैसे अंशुमाली सूर्य कुहरा दूर कर देते हैं, उसी प्रकार मैं तुम्हारे भयका सर्वथा निवारण कर दूंगा' ॥ ३९ ॥

तथोक्ता सा समाश्वस्ता वक्तुकामा तदप्रियम् ।
परिपीडयितुं भूयो भर्त्तारं उपचक्रमे ॥ ४० ॥
राजाके ऐसा कहनेपर कैकेयीको कुछ सान्त्वना मिली । अब उसे अपने स्वामीसे वह अप्रिय बात कहनेकी इच्छा हुई । उसने पतिको और अधिक पीड़ा देनेकी तैयारी की ॥ ४० ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् अयोध्याकाण्डे दशमः सर्गः ॥ १० ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें दसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ १० ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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