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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

अयोध्याकाण्डम्

॥ नवमः सर्गः ॥


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कुब्जायाः कुचक्रेण कैकेय्याः कोपभवने प्रवेशः -
कुब्जाके कुचक्रसे कैकेयीका कोपभवनमें प्रवेश -


एवमुक्ता तु कैकेयी क्रोधेन ज्वलितानना ।
दीर्घमुष्णं विनिःश्वस्य मन्थरामिदमब्रवीत् ॥ १ ॥
मन्थराके ऐसा कहनेपर कैकेयीका मुख क्रोधसे तमतमा उठा । वह लंबी और गरम साँस खींचकर उससे इस प्रकार बोली- ॥ १ ॥

अद्य राममितः क्षिप्रं वनं प्रस्थापयाम्यहम् ।
यौवराज्येन भरतं क्षिप्रं अद्याभिषेचये ॥ २ ॥
'कुब्जे ! मैं श्रीरामको शीघ्र ही यहाँसे वनमें भेजूंगी और तुरंत ही युवराजके पदपर भरतका अभिषेक कराऊँगी ॥ २ ॥

इदं त्विदानीं सम्पश्य केनोपायेन साधये ।
भरतः प्राप्नुयाद् राज्यं न तु रामः कथञ्चन ॥ ३ ॥
परंतु इस समय यह तो सोचो कि किस उपायसे अपना अभीष्ट साधन करूँ ? भरतको राज्य प्राप्त हो जाय और श्रीराम उसे किसी तरह भी न पा सकें— यह काम कैसे बने ?' ॥ ३ ॥

एवमुक्ता तु सा देव्या मंथरा पापदर्शिनी ।
रामार्थमुपहिंसंती कैकेयीमिदमब्रवीत् ॥ ४ ॥
देवी कैकेयीके ऐसा कहनेपर पापका मार्ग दिखानेवाली मन्थरा श्रीरामके स्वार्थपर कुठाराघात करती हुई वहाँ कैकेयीसे इस प्रकार बोली- ॥ ४ ॥

हंतेदानीं प्रपश्यं त्वं कैकेयि श्रूयतां वचः ।
यथा ते भरतो राज्यं पुत्रः प्राप्स्यति केवलम् ॥ ५ ॥
'केकयनन्दिनि ! अच्छा, अब देखो कि मैं क्या करती हूँ ? तुम मेरी बात सुनो, जिससे केवल तुम्हारे पुत्र भरत ही राज्य प्राप्त करेंगे (श्रीराम नहीं) ॥ ५ ॥

किं न स्मरसि कैकेयि स्मरंती वा निगूहसे ।
यदुच्यमानमात्मार्थं मत्तस्त्वं श्रोतुमिच्छसि ॥ ६ ॥
'कैकेयि ! क्या तुम्हें स्मरण नहीं है ? या स्मरण होनेपर भी मुझसे छिपा रही हो ? जिसकी तुम मुझसे अनेक बार चर्चा करती रहती हो, अपने उसी प्रयोजनको तुम मुझसे सुनना चाहती हो ? इसका क्या कारण है ? ॥ ६ ॥

मयोच्यमानं यदि ते श्रोतुं छंदो विलासिनि ।
श्रूयतां अभिधास्यामि श्रुत्वा चैतद् विधीयताम् ॥ ७ ॥
'विलासिनि ! यदि मेरे ही मुँहसे सुननेके लिये तुम्हारा आग्रह है तो बताती हूँ, सुनो और सुनकर इसीके अनुसार कार्य करो' ॥ ७ ॥

श्रुत्वैवं वचनं तस्या मंथरायास्तु कैकयी ।
किञ्चिदुत्थाय शयनात् स्वास्तीर्णाद् इदमब्रवीत् ॥ ८ ॥
मन्थराका यह वचन सुनकर कैकेयी अच्छी तरहसे बिछे हुए उस पलंगसे कुछ उठकर उससे यों बोली- ॥ ८ ॥

कथयस्व ममोपायं केनोपायेन मंथरे ।
भरतः प्राप्नुयाद् राज्यं न तु रामः कथञ्चन ॥ ९ ॥
मन्थरे ! मुझसे वह उपाय बताओ । किस उपायसे भरतको तो राज्य मिल जायगा, किंतु श्रीराम उसे किसी तरह नहीं पा सकेंगे' ॥ ९ ॥

एवमुक्ता तया देव्या मंथरा पापदर्शिनी ।
रामार्थमुपहिंसंती कैकेयीमिदमब्रवीत् ॥ १० ॥
देवी कैकेयीके ऐसा कहनेपर पापका मार्ग दिखानेवाली मन्थरा श्रीरामके स्वार्थपर कुठाराघात करती हुई उस समय कैकेयीसे इस प्रकार बोली- ॥ १० ॥

तव दैवासुरे युद्धे सह राजर्षिभिः पतिः ।
अगच्छत् त्वां उपादाय देवराजस्य साह्यकृत् ॥ ११ ॥
देवि ! पूर्वकालकी बात है कि देवासुर-संग्रामके अवसरपर राजर्षियोंके साथ तुम्हारे पतिदेव तुम्हें साथ लेकर देवराजकी सहायता करनेके लिये गये थे ॥ ११ ॥

दिशमास्थाय कैकेयि दक्षिणां दण्डकान् प्रति ।
वैजयंतमिति ख्यातं पुरं यत्र तिमिध्वजः ॥ १२ ॥
स शम्बर इति ख्यातः शतमायो महासुरः ।
ददौ शक्रस्य सङ्‍ग्रामं देवसङ्‍घैरनिर्जितः ॥ १३ ॥
'केकयराजकुमारी ! दक्षिण दिशामें दण्डकारण्यके भीतर वैजयन्त नामसे विख्यात एक नगर है, जहाँ शम्बर नामसे प्रसिद्ध एक महान् असुर रहता था । वह अपनी ध्वजामें तिमि (व्हेल मछली) का चिह्न धारण करता था और सैकड़ों मायाओंका जानकार था । देवताओंके समूह भी उसे पराजित नहीं कर पाते थे । एक बार उसने इन्द्र के साथ युद्ध छेड़ दिया ॥ १२-१३ ॥

तस्मिन् महति सङ्‍ग्रामे पुरुषान् क्षतविक्षतान् ।
रात्रौ प्रसुप्तान् घ्नंति स्म तरसापास्य राक्षसाः ॥ १४ ॥
“उस महान् संग्राममें क्षत-विक्षत हुए पुरुष जब रातमें थककर सो जाते, उस समय राक्षस उन्हें उनके बिस्तरसे खींच ले जाते और मार डालते थे ॥ १४ ॥

तत्राकरोन्महद्युद्धं राजा दशरथस्तदा ।
असुरैश्च महाबाहुः शस्त्रैश्च शकलीकृतः ॥ १५ ॥
'उन दिनों महाबाहु राजा दशरथने भी वहाँ असुरोंके साथ बड़ा भारी युद्ध किया । उस युद्धमें असुरोंने अपने अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा उनके शरीरको जर्जर कर दिया ॥ १५ ॥

अपवाह्य त्वया देवि सङ्‍ग्रामान् नष्टचेतनः ।
तत्रापि विक्षितः शस्त्रैः पतिस्ते रक्षितस्त्वया ॥ १६ ॥
देवि ! जब राजाकी चेतना लुप्त-सी हो गयी, उस समय सारथिका काम करती हुई तुमने अपने पतिको रणभूमिसे दूर हटाकर उनकी रक्षा की । जब वहाँ भी राक्षसोंके शस्त्रोंसे वे घायल हो गये, तब तुमने पुन: वहाँसे अन्यत्र ले जाकर उनकी रक्षा की ॥ १६ ॥

तुष्टेन तेन दत्तौ ते द्वौ वरौ शुभदर्शने ।
स त्वयोक्तः पतिर्देवि यदेच्छेयं तदा वरम् ॥ १७ ॥
गृह्णीयां तु तदा भर्तः तथेत्युक्तं महात्मना ।
अनभिज्ञा ह्यहं देवि त्ययैव कथितं पुरा ॥ १८ ॥
'शुभदर्शने ! इससे संतुष्ट होकर महाराजने तुम्हें दो वरदान देनेको कहा- देवि ! उस समय तुमने अपने पतिसे कहा—'प्राणनाथ ! जब मेरी इच्छा होगी, तब मैं इन वरोंको माँग लूंगी । ' उस समय उन महात्मा नरेशने 'तथास्तु' कहकर तुम्हारी बात मान ली थी । देवि ! मैं इस कथाको नहीं जानती थी । पूर्वकालमें तुम्हींने मुझसे यह वृत्तान्त कहा था ॥ १७-१८ ॥

कथैषा तव तु स्नेहान् मनसा धार्यते मया ।
रामाभिषेकसम्भारान् निगृह्य विनिवर्तय ॥ १९ ॥
तबसे तुम्हारे स्नेहवश मैं इस बातको मन-ही-मन सदा याद रखती आयी हूँ । तुम इन वरोंके प्रभावसे स्वामीको वशमें करके श्रीरामके अभिषेकके आयोजनको पलट दो ॥ १९ ॥

तौ च याचस्व भर्तारं भरतस्याभिषेचनम् ।
प्रव्राजनं तु रामस्य वर्षाणि च चतुर्दश ॥ २० ॥
तुम उन दोनों वरोंको अपने स्वामीसे माँगो । एक वरके द्वारा भरतका राज्याभिषेक और दूसरेके द्वारा श्रीरामका चौदह वर्षतकका वनवास माँग लो ॥ २० ॥

चतुर्दश हि वर्षाणि रामे प्रव्राजिते वनम् ।
प्रजाभावगतस्नेहः स्थिरः पुत्रो भविष्यति ॥ २१ ॥
'जब श्रीराम चौदह वर्षों के लिये वनमें चले जायेंगे । ' तब उतने समयमें तुम्हारे पुत्र भरत समस्त प्रजाके हृदयमें अपने लिये स्नेह पैदा कर लेंगे और इस राज्यपर स्थिर हो जायेंगे ॥ २१ ॥

क्रोधागारं प्रविश्याद्य क्रुद्धेवाश्वपतेः सुते ।
शेष्वानंतर्हितायां त्वं भूमौ मलिनवासिनी ॥ २२ ॥
'अश्वपतिकुमारी ! तुम इस समय मैले वस्त्र पहन लो और कोपभवनमें प्रवेश करके कुपित-सी होकर बिना बिस्तरके ही भूमिपर लेट जाओ ॥ २२ ॥

मा स्मैनं प्रत्युदीक्षेथा मा चैनमभिभाषथाः ।
रुदंती पार्थिवं दृष्ट्‍वा जगत्यां शोकलालसा ॥ २३ ॥
राजा आवें तो उनकी ओर आँखें उठाकर न देखो और न उनसे कोई बात ही करो । महाराजको देखते ही रोती हुई शोकमग्न हो धरतीपर लोटने लगो ॥ २३ ॥

दयिता त्वं सदा भर्तुः अत्र मे नास्ति संशयः ।
त्वत्कृते स महाराजो विशेदपि हुताशनम् ॥ २४ ॥
इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि तुम अपने पतिको सदा ही बड़ी प्यारी रही हो । तुम्हारे लिये महाराज आगमें भी प्रवेश कर सकते हैं ॥ २४ ॥

न त्वां क्रोधयितुं शक्तो न क्रुद्धां प्रत्युदीक्षितुम् ।
तव प्रियार्थं राजा हि प्राणानपि परित्यजेत् ॥ २५ ॥
वे न तो तुम्हें कुपित कर सकते हैं और न कुपित अवस्थामें तुम्हें देख ही सकते हैं । राजा दशरथ तुम्हारा प्रिय करने के लिये अपने प्राणोंका भी त्याग कर सकते हैं । २५ ॥

न ह्यतिक्रमितुं शक्तः तव वाक्यं महीपतिः ।
मंदस्वभावे बुद्ध्यस्व सौभाग्यबलमात्मनः ॥ २६ ॥
'महाराज तुम्हारी बात किसी तरह टाल नहीं सकते । मुग्धे ! तुम अपने सौभाग्यके बलका स्मरण करो ॥ २६ ॥

मणिमुक्ता सुवर्णानि रत्‍नानि विविधानि च ।
दद्याद् दशरथो राजा मा स्म तेषु मनः कृथाः ॥ २७ ॥
'राजा दशरथ तुम्हें भुलावे में डालने के लिये मणि, मोती, सुवर्ण तथा भाँति-भाँतिके रत्न देनेकी चेष्टा करेंगे; किंतु तुम उनकी ओर मन न चलाना ॥ २७ ॥

यौ तौ दैवासुरे युद्धे वरौ दशरथो ददौ ।
तौ स्मारय महाभागे सोऽर्थो न त्वा क्रमेदति ॥ २८ ॥
महाभागे ! देवासुर-संग्रामके अवसरपर राजा दशरथने वे जो दो वर दिये थे, उनका उन्हें स्मरण दिलाना । वरदानके रूपमें माँगा गया वह तुम्हारा अभीष्ट मनोरथ सिद्ध हुए बिना नहीं रह सकता ॥ २८ ॥

यदा तु ते वरं दद्यात् स्वयमुत्थाप्य राघवः ।
व्यवस्थाप्य महाराजं त्वमिमं वृणुया वरम् ॥ २९ ॥
'रघुकुलनन्दन राजा दशरथ जब स्वयं तुम्हें धरतीसे उठाकर वर देनेको उद्यत हो जायें, तब उन महाराजको सत्यकी शपथ दिलाकर खूब पक्का करके उनसे वर माँगना ॥ २९ ॥

रामप्रव्रजनं दूरं नव वर्षाणि पञ्च च ।
भरतः क्रियतां राजा पृथिव्यां पार्थिवर्षभः ॥ ३० ॥
वर माँगते समय कहना कि नृपश्रेष्ठ ! आप श्रीरामको चौदह वर्षों के लिये बहुत दूर वनमें भेज दीजिये और भरतको भूमण्डलका राजा बनाइये ॥ ३० ॥

चतुर्दश हि वर्षाणि रामे प्रव्राजिते वनम् ।
रूढश्च कृतमूलश्च शेषं स्थास्यति ते सुतः ॥ ३१ ॥
श्रीरामके चौदह वर्षोंके लिये वनमें चले जानेपर तुम्हारे पुत्र भरतका राज्य सुदृढ़ हो जायगा और प्रजा आदिको वश में कर लेनेसे यहाँ उनकी जड़ जम जायगी । फिर चौदह वर्षोंके बाद भी वे आजीवन स्थिर बने रहेंगे ॥ ३१ ॥

रामप्रवाजनं चैव देवि याचस्व तं वरम् ।
एनं सेत्स्यंति पुत्रस्य सर्वार्थास्तव कामिनि ॥ ३२ ॥
'देवि ! तुम राजासे श्रीरामके वनवासका वर अवश्य माँगो । पुत्रके लिये राज्यकी कामना करनेवाली कैकेयि ! ऐसा करनेसे तुम्हारे पुत्रके सभी मनोरथ सिद्ध हो जायेंगे ॥ ३२ ॥

एवं प्रव्राजितश्चैव रामोऽरामो भविष्यति ।
भरतश्च गतामित्रः तव राजा भविष्यति ॥ ३३ ॥
'इस प्रकार वनवास मिल जानेपर ये राम राम नहीं रह जायँगे (इनका आज जो प्रभाव है वह भविष्यमें नहीं रह सकेगा) और तुम्हारे भरत भी शत्रुहीन राजा होंगे ॥ ३३ ॥

येन कालेन रामश्च वनात् प्रत्यागमिष्यति ।
तेन कालेन पुत्रस्ते कृतमूलो भविष्यति ॥ ३४ ॥
'जिस समय श्रीराम वनसे लौटेंगे, उस समयतक तुम्हारे पुत्र भरत भीतर और बाहरसे भी दृढमूल हो जायेंगे ॥ ३४ ॥

सङ्‍गृहीतमनुष्यश्च सुहृद्‌भिः साकमात्मवान् ।
प्राप्तकालं तु मन्येऽहं राजानं वीतसाध्वसा ॥ ३५ ॥
रामाभिषेकसङ्कल्पान् निगृह्य विनिवर्तय ।
'उनके पास सैनिक-बलका भी संग्रह हो जायगा; जितेन्द्रिय तो वे हैं ही; अपने सुहृदोंके साथ रहकर दृढमूल हो जायँगे । इस समय मेरी मान्यताके अनुसार राजाको श्रीरामके राज्याभिषेकके संकल्पसे हटा देनेका समय आ गया है; अत: तुम निर्भय होकर राजाको अपने वचनोंमें बाँध लो और उन्हें श्रीरामके अभिषेकके संकल्पसे हटा दो ॥ ३५ १/२ ॥

अनर्थं अर्थरूपेण ग्राहिता सा ततस्तया ॥ ३६ ॥
हृष्टा प्रतीता कैकेयी मंथरां इदमब्रवीत् ।
सा हि वाक्येन कुब्जायाः किशोरीवोत्पथंगता ॥ ३७ ॥
कैकेयी विस्मयं प्राप्य परं परमदर्शना ।
ऐसी बातें कहकर मन्थराने कैकेयीकी बुद्धि में अनर्थको ही अर्थरूपमें ऊँचा दिया । कैकेयीको उसकी बातपर विश्वास हो गया और वह मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई । यद्यपि वह बहुत समझदार थी, तो भी कुबरीके कहनेसे नादान बालिकाकी तरह कुमार्गपर चली गयी अनुचित काम करनेको तैयार हो गयी । उसे मन्थराकी बुद्धिपर बड़ा आश्चर्य हुआ और वह उससे इस प्रकार बोली- ॥ ३६-३७ १/२ ॥

कुब्जे त्वां नावजानामि श्रेष्ठे श्रेष्ठाभिधायिनि ॥ ३८ ॥
पृथिव्यामसि कुब्जानां उत्तमा बुद्धिनिश्चये ।
त्वमेव तु ममार्थेषु नित्ययुक्ता हितैषिणी ॥ ३९ ॥
'हितकी बात बतानेमें कुशल कुब्जे ! तू एक श्रेष्ठ स्त्री है; मैं तेरी बुद्धिकी अवहेलना नहीं करूँगी । बुद्धिके द्वारा किसी कार्यका निश्चय करनेमें तू इस पृथ्वीपर सभी कुब्जाओंमें उत्तम है । केवल तू ही मेरी हितैषिणी है और सदा सावधान रहकर मेरा कार्य सिद्ध करनेमें लगी रहती है ॥ ३८-३९ ॥

नाहं समवबुद्ध्येयं कुब्जे राज्ञः चिकीर्षितम् ।
संति दुःसंस्थिताः कुब्जा वक्राः परमपापिकाः ॥ ४० ॥
कुब्जे ! यदि तू न होती तो राजा जो षड्यन्त्र रचना चाहते हैं, वह कदापि मेरी समझमें नहीं आता । तेरे सिवा जितनी कुब्जाएँ हैं, वे बेडौल शरीरवाली, टेढ़ी-मेढ़ी और बड़ी पापिनी होती हैं । ४० ॥

त्वं पद्ममिव वातेन सन्नता प्रियदर्शना ।
उरस्तेऽभिनिविष्टं वै यावत् स्कंधात् समुन्नतम् ॥ ४१ ॥
'तू तो वायुके द्वारा झुकायी हुई कमलिनीकी भाँति कुछ झुकी हुई होनेपर भी देखने में प्रिय (सुन्दर) है । तेरा वक्षःस्थल कुब्जताके दोषसे व्याप्त है, अतएव कंधोंतक ऊँचा दिखायी देता है ॥ ४१ ॥

अधस्ताच्चोदरं शांतं सुनाभमिव लज्जितम् ।
परिपूर्णं तु जघनं सुपीनौ च पयोधरौ ॥ ४२ ॥
'वक्षःस्थलसे नीचे सुन्दर नाभिसे युक्त जो उदर है, वह मानो वक्षःस्थलकी ऊँचाई देखकर लज्जित-सा हो गया है, इसीलिये शान्त—कृश प्रतीत होता है । तेरा जघन विस्तृत है और दोनों स्तन सुन्दर एवं स्थूल हैं ॥ ४२ ॥

विमलेंदुसमं वक्त्रं अहो राजसि मंथरे ।
जघनं तव निर्घुष्टं रशनादामभूषितम् ॥ ४३ ॥
मन्थरे ! तेरा मुख निर्मल चन्द्रमाके समान अद्भुत शोभा पा रहा है । करधनीकी लड़ियोंसे विभूषित तेरी कटिका अग्रभाग बहुत ही स्वच्छ रोमादिसे रहित है ॥ ४३ ॥

जङ्‍घे भृशमुपन्यस्ते पादौ च व्यायतावुभौ ।
त्वं आयताभ्यां सक्थिभ्यां मंथरे क्षौमवासिनी ॥ ४४ ॥
अग्रतो मम गच्छंती राजसेऽतीव शोभने ।
मन्थरे ! तेरी पिण्डलियाँ परस्पर अधिक सटी हुई हैं और दोनों पैर बड़े-बड़े हैं । तू विशाल ऊरुओं (जाँघों) से सुशोभित होती है । शोभने ! जब तू रेशमी साड़ी पहनकर मेरे आगे-आगे चलती है, तब तेरी बड़ी शोभा होती है ॥ ४४ १/२ ॥

आसन् याः शम्बरे मायाः सहस्रं असुराधिपे ॥ ४५ ॥
हृदये ते निविष्टास्ता भूयश्चान्याः सहस्रशः ।
तदेव स्थगु यद् दीर्घं रथघोणमिवायतम् ॥ ४६ ॥
मतयः क्षत्रविद्याश्च मायाश्चात्र वसंति ते ।
'असुरराज शम्बरको जिन सहस्रों मायाओंका ज्ञान है, वे सब तेरे हृदयमें स्थित हैं । इनके अलावे भी तू हजारों प्रकारकी मायाएँ जानती है । इन मायाओंका समुदाय ही तेरा यह बड़ा-सा कुब्बड़ है, जो रथके नकुए (अग्रभाग) के समान बड़ा है । इसीमें तेरी मति, स्मृति और बुद्धि, क्षत्रविद्या (राजनीति) तथा नाना प्रकारकी मायाएँ निवास करती हैं ॥ ४५-४६ १/२ ॥

अत्र तेऽहं प्रमोक्ष्यामि मालां कुब्जे हिरण्मयीम् ॥ ४७ ॥
अभिषिक्ते च भरते राघवे च वनं गते ।
जात्येन च सुवर्णेन सुनिष्टप्तेन सुन्दरि ॥ ४८ ॥
लब्धार्था च प्रतीता च लेपयिष्यामि ते स्थगु ।
“सुन्दरी कुब्जे ! यदि भरतका राज्याभिषेक हुआ और श्रीराम वनको चले गये तो मैं सफलमनोरथ एवं संतुष्ट होकर अच्छी जातिके खूब तपाये हुए सोनेकी बनी हुई सुन्दर स्वर्णमाला तेरे इस कुब्बड़को पहनाऊँगी और इसपर चन्दनका लेप लगवाऊँगी ॥ ४७-४८ १/२ ॥

मुखे च तिलकं चित्रं जातरूपमयं शुभम् ॥ ४९ ॥
कारयिष्यामि ते कुब्जे शुभान्याभरणानि च ।
परिधाय शुभे वस्त्रे देवतेव चरिष्यसि ॥ ५० ॥
'कुब्जे ! तेरे मुख (ललाट) पर सुन्दर और विचित्र सोनेका टीका लगवा दूंगी और तू बहुत-से सुन्दर आभूषण एवं दो उत्तम वस्त्र (लहँगा और दुपट्टा) धारण करके देवाङ्गनाके समान विचरण करेगी ॥ ४९-५० ॥

चंद्रमाह्वयमानेन मुखेनाप्रतिमानना ।
गमिष्यसि गतिं मुख्यां गर्वयंती द्विषज्जने ॥ ५१ ॥
'चन्द्रमासे होड़ लगानेवाले अपने मनोहर मुखद्वारा तू ऐसी सुन्दर लगेगी कि तेरे मुखकी कहीं समता नहीं रह जायगी तथा शत्रुओंके बीच में अपने सौभाग्यपर गर्व प्रकट करती हुई तू सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त कर लेगी ॥ ५१ ॥

तवापि कुब्जाः कुब्जायाः सर्वाभरणभूषिताः ।
पादौ परिचरिष्यंति यथैव त्वं सदा मम ॥ ५२ ॥
'जैसे तू सदा मेरे चरणोंकी सेवा किया करती है, उसी प्रकार समस्त आभूषणोंसे विभूषित बहुत-सी कुब्जाएँ तुझ कुब्जाके भी चरणोंकी सदा परिचर्या किया करेंगी ॥ ५२ ॥

इति प्रशस्यमाना सा कैकेयीं इदमब्रवीत् ।
शयानां शयने शुभ्रे वेद्यामग्निशिखामिव ॥ ५३ ॥
जब इस प्रकार कुब्जाकी प्रशंसा की गयी, तब उसने वेदीपर प्रज्वलित अग्नि-शिखाके समान शुभ्र शय्यापर शयन करनेवाली कैकेयीसे इस प्रकार कहा— ॥ ५३ ॥

गतोदके सेतुबंधो न कल्याणि विधीयते ।
उत्तिष्ठ कुरु कल्याणं राजानं अनुदर्शय ॥ ५४ ॥
'कल्याणि ! नदीका पानी निकल जानेपर उसके लिये बाँध नहीं बाँधा जाता, (यदि रामका अभिषेक हो गया तो तुम्हारा वर माँगना व्यर्थ होगा; अत: बातोंमें समय न बिताओ) जल्दी उठो और अपना कल्याण करो । कोपभवनमें जाकर राजाको अपनी अवस्थाका परिचय दो' ॥ ५४ ॥

तथा प्रोत्साहिता देवी गत्वा मंथरया सह ।
क्रोधागारं विशालाक्षी सौभाग्य-मदगर्विता ॥ ५५ ॥
अनेकशतसाहस्रं मुक्ताहारं वराङ्‍गना ।
अवमुच्य वरार्हाणि शुभान्याभरणानि च ॥ ५६ ॥
न्थराके इस प्रकार प्रोत्साहन देनेपर सौभाग्यके मदसे गर्व करनेवाली विशाललोचना सुन्दरी कैकेयी देवी उसके साथ ही कोपभवनमें जाकर लाखोंकी लागतके मोतियोंके हार तथा दूसरे-दूसरे सुन्दर बहुमूल्य आभूषणोंको अपने शरीरसे उतार-उतारकर फेंरुकने लगी ॥ ५५-५६ ॥

ततो हेमोपमा तत्र कुब्जावाक्यवशंगता ।
संविश्य भूमौ कैकेयी मंथरां इदमब्रवीत् ॥ ५७ ॥
सोनेके समान सुन्दर कान्तिवाली कैकेयी कुब्जाकी बातोंके वशीभूत हो गयी थी, अत: वह धरतीपर लेटकर मन्थरासे इस प्रकार बोली- ॥ ५७ ॥

इह वा मां मृतां कुब्जे नृपायावेदयिष्यसि ।
वनं तु राघवे प्राप्ते भरतः प्राप्स्यते क्षितिम् ॥ ५८ ॥
सुवर्णेन न मे ह्यर्थो न रत्‍नैर्न च भोजनैः ।
एष मे जीवितस्यांतो रामो यद्यभिषिच्यते ॥ ५९ ॥
'कुब्जे ! मुझे न तो सुवर्णसे, न रत्नोंसे और न भाँति-भाँतिके भोजनोंसे ही कोई प्रयोजन है; यदि श्रीरामका राज्याभिषेक हुआ तो यह मेरे जीवनका अन्त होगा । अब या तो श्रीरामके वनमें चले जानेपर भरतको इस भूतलका राज्य प्राप्त होगा अथवा तू यहाँ महाराजको मेरी मृत्युका समाचार सुनायेगी' ॥ ५८-५९ ॥

अथो पुनस्तां महिषीं महीक्षितो
    वचोभिरत्यर्थ महापराक्रमैः ।
उवाच कुब्जा भरतस्य मातरं
    हितं वचो राममुपेत्य चाहितम् ॥ ६० ॥
तदनन्तर कुब्जा महाराज दशरथकी रानी और भरतकी माता कैकेयीसे अत्यन्त क्रूर वचनोंद्वारा पुन: ऐसी बात कहने लगी, जो लौकिक दृष्टिसे भरतके लिये हितकर और श्रीरामके लिये अहितकर थी— ॥ ६० ॥

प्रपत्स्यते राज्यमिदं हि राघवो
    यदि ध्रुवं त्वं ससुता च तप्स्यसे ।
ततो हि कल्याणि यतस्व तत् तथा
    यथा सुतस्ते भरतोऽभिषेक्ष्यते ॥ ६१ ॥
'कल्याणि ! यदि श्रीराम इस राज्यको प्राप्त कर लेंगे तो निश्चय ही अपने पुत्र भरतसहित तुम भारी संतापमें पड़ जाओगी; अत: ऐसा प्रयत्न करो, जिससे तुम्हारे पुत्र भरतका राज्याभिषेक हो जाय' ॥ ६१ ॥

तथातिविद्धा महिषीति कुब्जया
    समाहता वागिषुभिः मुहुर्मुहुः ।
विधाय हस्तौ हृदयेऽतिविस्मिता
    शशंस कुब्जां कुपिता पुनः पुनः ॥ ६२ ॥
इस प्रकार कुब्जाने अपने वचनरूपी बाणोंका बारंबार प्रहार करके जब रानी कैकेयीको अत्यन्त घायल कर दिया, तब वह अत्यन्त विस्मित और कुपित हो अपने हृदयपर दोनों हाथ रखकर कुब्जासे बारंबार इस प्रकार कहने लगी- ॥ ६२ ॥

यमस्य वा मां विषयं गतामितो
    निशाम्य कुब्जे प्रतिवेदयिष्यसि ।
वनं गते वा सुचिराय राघवे
    समृद्धकामो भरतो भविष्यति ॥ ६३ ॥
'कुब्जे ! अब या तो रामचन्द्रके अधिक कालके लिये वनमें चले जानेपर भरतका मनोरथ सफल होगा या तू मुझे यहाँसे यमलोकमें चली गयी सुनकर महाराजसे यह समाचार निवेदन करेगी ॥ ६३ ॥

अहं हि नैवास्तरणानि न स्रजो
    न चंदनं नाञ्जनपानभोजनम् ।
न किञ्चिदिच्छामि न चेह जीवनं
    न चेदितो गच्छति राघवो वनम् ॥ ६४ ॥
'यदि राम यहाँसे वनको नहीं गये तो मैं न तो भाँति-भाँतिके बिछौने, न फूलोंके हार, न चन्दन, न अञ्जन, न पान, न भोजन और न दूसरी ही कोई वस्तु लेना चाहूँगी । उस दशामें तो मैं यहाँ इस जीवनको भी नहीं रखना चाहूँगी' ॥ ६४ ॥

अथैतदुक्त्वा वचनं सुदारुणं
    निधाय सर्वाभरणानि भामिनी ।
असंस्कृतामास्तरणेन मेदिनीं
    तदाधिशिश्ये पतितेव किन्नरी ॥ ६५ ॥
ऐसे अत्यन्त कठोर वचन कहकर कैकेयीने सारे आभूषण उतार दिये और बिना बिस्तरके ही वह खाली जमीनपर लेट गयी । उस समय वह स्वर्गसे भूतलपर गिरी हुई किसी किन्नरीके समान जान पड़ती थी ॥ ६५ ॥

उदीर्णसंरम्भतमोवृतानना
    तदावमुक्तोत्तममाल्यभूषणा ।
नरेंद्रपत्‍नी विमला बभूव सा
    तमोवृता द्यौरिव मग्नतारका ॥ ६६ ॥
उसका मुख बढ़े हुए अमर्षरूपी अन्धकारसे आच्छादित हो रहा था । उसके अगोंसे उत्तम पुष्पहार और आभूषण उतर चुके थे । उस दशामें उदास मनवाली राजरानी कैकेयी जिसके तारे डूब गये हों, उस अन्धकाराच्छन्न आकाशके समान प्रतीत होती थी ॥ ६६ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् अयोध्याकाण्डे नवमःसर्गः ॥ ९ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें नवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ९ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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