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॥ विष्णुपुराणम् ॥

प्रथमः अंशः

॥ द्वादशोऽध्यायः ॥

पराशर उवाच
निशम्यैतदशेषेण मैत्रेय नृपतेः सुतः ।
निर्जगाम वनात्तस्मात्प्रणिपत्य स तानृषीन् ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! यह सब सुनकर राजपुत्र ध्रुव उन ऋषियोंको प्रणामकर उस वनसे चल दिया ॥ १ ॥

कृतकृत्यमिवात्मानं मन्यमानस्ततो द्विज ।
मधुसंज्ञं महापुण्यं जगाम यमुनातटम् ॥ २ ॥
पुनश्च मधुसंज्ञेन दैत्येनाधिष्ठितं यतः ।
ततो मधुवनं नाम्ना ख्यातमत्र महीतले ॥ ३ ॥
और हे द्विज ! अपनेको कृतकृत्य-सा मानकर वह यमुनातटवर्ती अति पवित्र मधु नामक वनमें आया । आगे चलकर उस वनमें मधु नामक दैत्य रहने लगा था, इसलिये वह इस पृथ्वीतलमें मधुवन नामसे विख्यात हुआ ॥ २-३ ॥

हत्वा च लवणं रक्षो मधुपुत्रं महाबलम् ।
शत्रुघ्नो मधुरां नाम पुरीं यत्र चकार वै ॥ ४ ॥
वहीं मधुके पुत्र लवण नामक महाबली राक्षसको मारकर शत्रघ्नने मधरा (मथर) नामकी पुरी बसायी ॥ ४ ॥

यत्र वै देवदेवस्य सांनिध्यं हरिमेधसः ।
सर्वपापहरे तस्मिंस्तपस्तीर्थे चकार सः ॥ ५ ॥
जिस (मधुवन)-में निरन्तर देवदेव श्रीहरिकी सन्निधि रहती है उसी सर्वपापापहारी तीर्थमें ध्रुवने तपस्या की ॥ ५ ॥

मरीचिमिश्रैर्मुनिभिर्यथोद्दिष्टमभूत्तथा ।
आत्मन्यशेषदेवेशं स्थितं विष्णुममन्यत ॥ ६ ॥
मरीचि आदि मुनीश्वरोंने उसे जिस प्रकार उपदेश किया था उसने उसी प्रकार अपने हृदयमें विराजमान निखिलदेवेश्वर श्रीविष्णुभगवान्का ध्यान करना आरम्भ किया ॥ ६ ॥

अनन्यचेतसस्तस्य ध्यायतो भगवान् हरिः ।
सर्वभूतगतो विप्र सर्वभावगतोऽभवत् ॥ ७ ॥
इस प्रकार हे विप्र ! अनन्य-चित्त होकर ध्यान करते रहनेसे उसके हृदयमें सर्वभूतान्तर्यामी भगवान् हरि सर्वतोभावसे प्रकट हुए ॥ ७ ॥

मनस्यवस्थिते तस्य विष्णौ मैत्रेय योगिनः ।
न शशाक धरा भारमुद्वोढुं भूतधारिणी ॥ ८ ॥
हे मैत्रेय ! योगी ध्रुवके चित्तमें भगवान् विष्णुके स्थित हो जानेपर सर्वभूतोंको धारण करनेवाली पृथिवी उसका भार न सँभाल सकी ॥ ८ ॥

वामपादस्थिते तस्मिन्नामार्धेन मेदिनी ।
द्वितीयं च ननामार्धं क्षितेर्दक्षिणतः स्थिते ॥ ९ ॥
उसके बायें चरणपर खडे होनेसे पथिवीका बायाँ आधा भाग झक गया और फिर दाँयें चरणपर खड़े होनेसे दायाँ भाग झुक गया ॥ ९ ॥

पादाङ्‌गुष्ठेन सम्पीड्य यदा स वसुधां स्थितः ।
तदा समस्ता वसुधा चचाल सह पर्वतैः ॥ १० ॥
और जिस समय वह पैरके अँगूठेसे पृथिवीको (बीचसे) दबाकर खड़ा हुआ तो पर्वतोंके सहित समस्त भूमण्डल विचलित हो गया ॥ १० ॥

नद्यो नदाः समुद्राश्च सङ्‍क्षोभं परमं ययुः ।
तत्क्षोभादमराः क्षोभं परं जग्मुर्महामुने ॥ ११ ॥
हे महामुने ! उस समय नदी, नद और समुद्र आदि सभी अत्यन्त क्षुब्ध हो गये और उनके क्षोभसे देवताओंमें भी बड़ी हलचल मची ॥ ११ ॥

यामा नाम तदा देवा मैत्रेय परमाकुलाः ।
इन्द्रेण सह संमन्त्र्य ध्यानभङ्‌गं प्रचक्रमुः ॥ १२ ॥
हे मैत्रेय ! तब याम नामक देवताओंने अत्यन्त व्याकल हो इन्द्रके साथ परामर्श कर उसके ध्यानको भंग करनेका आयोजन किया ॥ १२ ॥

कूष्माण्डा विविधै रूपैर्महेन्द्रेण महामुने ।
समाधिभङ्‌गमत्यन्तमारब्धाः कर्तुमातुराः ॥ १३ ॥
हे महामुने ! इन्द्रके साथ अति आतुर कूष्माण्ड नामक उपदेवताओंने नानारूप धारणकर उसकी समाधि भंग करना आरम्भ किया ॥ १३ ॥

सुनीतिर्नाम तन्माता सास्रा तत्पुरतः स्थिता ।
पुत्रेति करुणां वाचमाह मायामयी तदा ॥ १४ ॥
पुत्रकास्मान्निवर्तस्व शरीरात्ययदारुणात् ।
निर्बन्धतो मया लब्धो बहुभिस्त्वं मनोरथैः ॥ १५ ॥
उस समय मायाहीसे रची हुई उसकी माता सुनीति नेत्रों में आँसू भरे उसके सामने प्रकट हुई और 'हे पुत्र ! हे पुत्र !' ऐसा कहकर करुणायुक्त वचन बोलने लगी [उसने कहा]-बेटा ! तू शरीरको घुलानेवाले इस भयंकर तपका आग्रह छोड़ दे । मैंने बड़ी-बड़ी कामनाओंद्वारा तुझे प्राप्त किया है ॥ १४-१५ ॥

दीनामेकां परित्यक्तुमनाथां न त्वमर्हसि ।
सपत्नीवचनाद्‌वत्स अगतेस्त्वं गतिर्मम ॥ १६ ॥
अरे ! मुझ अकेली, अनाथा, दुखियाको सौतके कटु वाक्योंसे छोड़ देना तुझे उचित नहीं है । बेटा ! मुझ आश्रयहीनाका तो एकमात्र तू ही सहारा है ॥ १६ ॥

क्व च त्वं पञ्चवर्षीयः क्व चैतद्‌दारुणं तपः ।
निवर्त्यतां मनः कष्टान्निर्बन्धात्फलवर्जितात् ॥ १७ ॥
कहाँ तो पाँच वर्षका तू और कहाँ तेरा यह अति उग्र तप ? अरे ! इस निष्फल क्लेशकारी आग्रहसे अपना मन मोड़ ले ॥ १७ ॥

कालः क्रीडनकानान्ते तदन्तेऽध्ययनस्य च ।
ततः समस्तभोगानां तदन्ते चेष्यते तपः ॥ १८ ॥
अभी तो तेरे खेलने-कूदनेका समय है, फिर अध्ययनका समय आयेगा, तदनन्तर समस्त भोगोंके भोगनेका और फिर अन्तमें तपस्या करना भी ठीक होगा ॥ १८ ॥

कालः क्रीडनकानां यस्तव बालस्य पुत्रक ।
तस्मिंस्त्वमिच्छसि तपः किं नाशायात्मनो रतः ॥ १९ ॥
बेटा ! तुझ सुकुमार बालकका 'जो खेल-कूदका समय है उसीमें तू तपस्या करना चाहता है । तू इस प्रकार क्यों अपने सर्वनाशमें तत्पर हुआ है ? ॥ १९ ॥

मत्प्रीतिः परमो धर्मो वयोऽवस्थाक्रियाक्रमम् ।
अनुवर्तस्व मा मोहं निवर्तास्मादधर्मतः ॥ २० ॥
तेरा परम धर्म तो मुझको प्रसन्न रखना ही है, अत: तू अपनी आयु और अवस्थाके अनुकूल कर्मों में ही लग, मोहका अनुवर्तन न कर और इस तपरूपी अधर्मसे निवृत्त हो ॥ २० ॥

परित्यजति वत्साद्य यद्येतन्न भवांस्तपः ।
त्यक्ष्याम्यहमिह प्राणांस्ततो वै पश्यतस्तव ॥ २१ ॥
बेटा ! यदि आज तू इस तपस्याको न छोड़ेगा तो देख तेरे सामने ही मैं अपने प्राण छोड़ दूंगी ॥ २१ ॥

पराशर उवाच
तां प्रलापतीमेवं बाष्पव्याकुललोचनाम् ।
समाहितमना विष्णौ पश्यन्नपि न दृष्टवान् ॥ २२ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! भगवान् विष्णुमें चित्त स्थिर रहनेके कारण ध्रुवने उसे आँखोंमें आँसू भरकर इस प्रकार विलाप करती देखकर भी नहीं देखा ॥ २२ ॥

वत्स वत्स सुघोराणि रक्षांस्येतानि भीषणे ।
वनेऽभ्युद्यतशस्त्राणि समायान्त्यपगम्यताम् ॥ २३ ॥
ततः सर्वासु मायासु विलीनासु पुनः सुराः ।
सङ्‍क्षोभं परमं जग्मुस्तत्पराभवशङ्‌किताः ॥ ३१ ॥
तब, 'अरे बेटा ! यहाँसे भाग-भाग ! देख, इस महाभयंकर वनमें ये कैसे घोर राक्षस अस्त्र-शस्त्र उठाये आ रहे हैं'ऐसा कहती हुई वह चली गयी और वहाँ जिनके मुखसे अग्निकी लपटें निकल रही थीं ऐसे अनेकों राक्षसगण अस्त्रशस्त्र सँभाले प्रकट हो गये ॥ २३-२४ ॥

इत्युक्त्वा प्रययौ साथ रक्षांस्याविर्बभुस्ततः ।
अभ्युद्यतोग्रशस्त्राणि ज्वालामालाकुलैर्मुखैः ॥ २४ ॥
उन राक्षसोंने अपने अति चमकीले शस्त्रोंको घुमाते हुए उस राजपुत्रके सामने बड़ा भयंकर कोलाहल किया ॥ २५ ॥

ततो नादानतीवोग्रान्‌राजपुत्रस्य ते पुरः ।
मुमुचुर्दीप्तशस्त्राणि भ्रामयन्तो निशाचराः ॥ २५ ॥
उस नित्य-योगयुक्त बालकको भयभीत करनेके लिये अपने मुखसे अग्निकी लपटें निकालती हुई सैकड़ों स्यारियाँ घोर नाद करने लगीं ॥ २६ ॥

शिवाश्च शतशो नेदुः सज्वालकवलैर्मुखैः ।
त्रासाय तस्य बालस्य योगयुक्तस्य सर्वतः ॥ २६ ॥
वे राक्षसगण भी ‘इसको मारो-मारो, काटोकाटो, खाओ-खाओ' इस प्रकार चिल्लाने लगे ॥ २७ ॥

हन्यतां हन्यतामेष छिद्यतां छिद्यतामयम् ।
भक्ष्यतां भक्ष्यतां चायमित्यूचुस्ते निशाचराः ॥ २७ ॥
फिर सिंह, ऊँट और मकर आदिके-से मुखवाले वे राक्षस राजपुत्रको त्राण देनेके लिये नाना प्रकारसे गरजने लगे ॥ २८ ॥

ततो नानाविधान्नादान् सिंहोष्ट्रमकराननाः ।
त्रासाय राजपुत्रस्य नेदुस्ते रजनीचराः ॥ २८ ॥
किन्तु उस भगवदासक्तचित्त बालकको वे राक्षस, उनके शब्द, स्यारियाँ और अस्त्र-शस्त्रादि कुछ भी दिखायी नहीं दिये ॥ २९ ॥

रक्षांसि तानि ते नादाः शिवास्तान्यायुधानि च ।
गोविन्दासक्तचित्तस्य ययुर्नेन्द्रियगोचरम् ॥ २९ ॥
वह राजपत्र एकाग्रचित्तसे निरन्तर अपने आश्रयभूत विष्णुभगवान्को ही देखता रहा और उसने किसीकी ओर किसी भी प्रकार दृष्टिपात नहीं किया ॥ ३० ॥

एकाग्रचेताः सततं विष्णुमेवात्मसंश्रयम् ।
दृष्टवान्पृथिवीनाथपुत्रो नान्यं कथञ्चन ॥ ३० ॥
तब सम्पूर्ण मायाके लीन हो जानेपर उससे हार जानेकी आशंकासे देवताओंको बड़ा भय हुआ ॥ ३१ ॥

ते समेत्य जगद्योनिमनादिनिधनं हरिम् ।
शरण्यं शरणं यातास्तपसा तस्य तापिताः ॥ ३२ ॥
अतः उसके तपसे सन्तप्त हो वे सब आपसमें मिलकर जगत्के आदि-कारण, शरणागतवत्सल, अनादि और अनन्त श्रीहरिकी शरणमें गये ॥ ३२ ॥

देवा ऊचुः
देवदेव जगन्नाथ परेश पुरुषोत्तम ।
ध्रुवस्य तपसा तप्तास्त्वां वयं शरणं गताः ॥ ३३ ॥
देवता बोले-हे देवाधिदेव, जगन्नाथ, परमेश्वर, पुरुषोत्तम ! हम सब ध्रुवकी तपस्यासे सन्तप्त होकर आपकी शरणमें आये हैं ॥ ३३ ॥

दिने दिने कलालेषैः शशाङ्‌कः पूर्यते यथा ।
तथायं तपसा देव प्रयात्यृद्धिमहर्निशम् ॥ ३४ ॥
हे देव ! जिस प्रकार चन्द्रमा अपनी कलाओंसे प्रतिदिन बढ़ता है उसी प्रकार यह भी तपस्याके कारण रात-दिन उन्नत हो रहा है ॥ ३४ ॥

औत्तानपादितपसा वयमित्थं जनार्दन ।
भीतास्त्वां शरणं यातास्तपसस्तं निवर्तय ॥ ३५ ॥
हे जनार्दन ! इस उत्तानपादके पुत्रकी तपस्यासे भयभीत होकर हम आपकी शरणमें आये हैं, आप उसे तपसे निवृत्त कीजिये ॥ ३५ ॥

न विद्मः किं शक्रत्वं सूर्यस्त्वं किमभीप्सति ।
वित्तपाम्बुपसोमानां साभिलाषः पदेषु किम् ॥ ३६ ॥
हम नहीं जानते, वह इन्द्रत्व चाहता है या सूर्यत्व अथवा उसे कुबेर, वरुण या चन्द्रमाके पदकी अभिलाषा है ॥ ३६ ॥

तदस्माकं प्रसीदेश हृदयाच्छल्यमुद्धर ।
उत्तानपादतनयं तपसः संनिवर्तय ॥ ३७ ॥
अतः हे ईश ! आप हमपर प्रसन्न होइये और इस उत्तानपादके पुत्रको तपसे निवृत्त करके हमारे हृदयका काँटा निकालिये ॥ ३७ ॥

श्रीभगवान् उवाच
नेन्द्रत्वं न च सूर्यत्वं नैवाम्बुपधनेशताम् ।
प्रार्थयत्येष यं कामं तं करोम्यखिलं सुराः ॥ ३८ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे सुरगण ! उसे इन्द्र, सूर्य, वरुण अथवा कुबेर आदि किसीके पदकी अभिलाषा नहीं है, उसकी जो कुछ इच्छा है वह मैं सब पूर्ण करूँगा ॥ ३८ ॥

यात देवा यथाकामं स्वस्थानं विगतज्वराः ।
निवर्तयाम्यहं बालं तपस्यासक्तमानसम् ॥ ३९ ॥
हे देवगण ! तुम निश्चिन्त होकर इच्छानुसार अपने-अपने स्थानोंको जाओ । मैं तपस्यामें लगे हुए उस बालकको निवृत्त करता हूँ ॥ ३९ ॥

पराशर उवाच
इत्युक्ता देवदेवेन प्रणम्य त्रिदशास्ततः ।
प्रययुः स्वानि धिष्ण्यानि शतक्रतुपुरोगमाः ॥ ४० ॥
श्रीपराशरजी बोले-देवाधिदेव भगवान्के ऐसा कहनेपर इन्द्र आदि समस्त देवगण उन्हें प्रणामकर अपनेअपने स्थानोंको गये ॥ ४० ॥

भगवानपि सर्वात्मा तन्मयत्वेन तोषितः ।
गत्वा ध्रुवमुवाचेदं चतुर्भुजवपुर्हरिः ॥ ४१ ॥
सर्वात्मा भगवान् हरिने भी ध्रुवकी तन्मयतासे प्रसन्न हो उसके निकट चतुर्भुजरूपसे जाकर इस प्रकार कहा ॥ ४१ ॥

श्रीभगवान् उवाच
औत्तानपादे भद्रं ते तपसा परितोषितः ।
वरदोऽहमनुप्राप्तो वरं वरय सुव्रत ॥ ४२ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे उत्तानपादके पुत्र ध्रुव ! तेरा कल्याण हो । मैं तेरी तपस्यासे प्रसन्न होकर तुझे वर देनेके लिये प्रकट हुआ हूँ, हे सुव्रत ! तू वर माँग ॥ ४२ ॥

बाह्यार्थनिरपेक्षं ते मयि चित्तं यदाहितम् ।
तुष्टोऽहं भवतस्तेन तद्‌वृणीष्व वरं परम् ॥ ४३ ॥
तूने सम्पूर्ण बाह्य विषयोंसे उपरत होकर अपने चित्तको मुझमें ही लगा दिया है । अतः मैं तुझसे अति सन्तुष्ट हूँ । अब तू अपनी इच्छानुसार श्रेष्ठ वर माँग ॥ ४३ ॥

पराशर उवाच
श्रुत्वेत्थं गदितं तस्य देवदेवस्य बालकः ।
उन्मीलिताक्षो ददृशे ध्यानदृष्टं हरिं पुरः ॥ ४४ ॥
श्रीपराशरजी बोले-देवाधिदेव भगवान्के ऐसे वचन सुनकर बालक ध्रुवने आँखें खोली और अपनी ध्यानावस्थामें देखे हुए भगवान् हरिको साक्षात् अपने सम्मुख खड़े देखा ॥ ४४ ॥

शङ्‌खचक्रगदाशार्ङ्‌गवरासिधरमच्युतम् ।
किरीटिनं समालोक्य जगाम शिरसा महीम् ॥ ४५ ॥
श्रीअच्युतको किरीट तथा शंख, चक्र, गदा, शाङ्‌ग धनुष और खड्ग धारण किये देख उसने पृथिवीपर सिर रखकर प्रणाम किया ॥ ४५ ॥

रोमाञ्चिताङ्‌गः सहसा साध्वसं परमं गतः ।
स्तवाय देवदेवस्य स चक्रे मानसं ध्रुवः ॥ ४६ ॥
और सहसा रोमांचित तथा परम भयभीत होकर उसने देवदेवकी स्तुति करनेकी इच्छा की ॥ ४६ ॥

किं वदामि स्तुतावस्य केनोक्तेनास्य संस्तुतिः ।
इत्याकुलमतिर्देवं तमेव शरणं ययौ ॥ ४७ ॥
किन्तु 'इनकी स्तुतिके लिये मैं क्या कहूँ ? क्या कहनेसे इनका स्तवन हो सकता है ?' यह न जाननेके कारण वह चित्तमें व्याकुल हो गया और अन्तमें उसने उन देवदेवकी ही शरण ली ॥ ४७ ॥

ध्रुव उवाच
भगवन्यदि मे तोषं तपसा परमं गतः ।
स्तोतुं तदहमिच्छामि वरमेनं प्रयच्छ मे ॥ ४८ ॥
धुवने कहा- भगवन् ! आप यदि मेरी तपस्यासे सन्तुष्ट हैं तो मैं आपकी स्तुति करना चाहता हूँ, आप मुझे यही वर दीजिये [ जिससे मैं स्तुति कर सकूँ ] ॥ ४८ ॥

[ ब्रह्माद्यैर्वेदवेदज्ञैर्ज्ञायते यस्य नो गतिः ।
तं त्वां कथमहं देव स्तोतुं शक्नोमि बालकः ॥
त्वद्‌भक्तिप्रवणं ह्येतत्परमेश्वर मे मनः ।
स्तोतुं प्रवृत्तं त्वत्पादौ तत्र प्रज्ञां प्रयच्छ मे ॥ ]
पराशर उवाच
शङ्‌खप्रान्तेन गोविन्दस्तं पस्पर्श कृताञ्जलिम् ।
उत्तानपादतनयं द्विजवर्य जगत्पतिः ॥ ४९ ॥
[हे देव ! जिनकी गति ब्रह्मा आदि वेदज्ञजन भी नहीं जानते; उन्हीं आपका मैं बालक कैसे स्तवन कर सकता हूँ । किन्तु हे परम प्रभो ! आपकी भक्तिसे द्रवीभूत हुआ मेरा चित्त आपके चरणोंकी स्तुति करनेमें प्रवृत्त हो रहा है । अतः आप इसे उसके लिये बुद्धि प्रदान कीजिये] । श्रीपराशरजी बोले-हे द्विजवर्य ! तब जगत्पति श्रीगोविन्दने अपने सामने हाथ जोड़े खड़े हुए उस उत्तानपादके पुत्रको अपने (वेदमय) शंखके अन्त (वेदान्तमय) भागसे छू दिया ॥ ४९ ॥

अथ प्रसन्नवदनः तत्क्षणान्नृपनन्दनः ।
तुष्टाव प्रणतो भूत्वा भूतधातारमच्युतम् ॥ ५० ॥
तब तो एक क्षण में ही वह राजकुमार प्रसन्न-मुखसे अति विनीत हो सर्वभूताधिष्ठान श्रीअच्युतकी स्तुति करने लगा ॥ ५० ॥

ध्रुव उवाच
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
भूतादिरादिप्रकृतिर्यस्य रूपं नतोऽस्मि तम् ॥ ५१ ॥
ध्रुव बोले-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार और मूल-प्रकृति-ये सब जिनके रूप हैं उन भगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ५१ ॥

शुद्धः सूक्ष्मोऽखिलव्यापी प्रधानात्परतः पुमान् ।
यस्य रूपं नमस्तस्मै पुरुषाय गुणाशिने ॥ ५२ ॥
जो अति शुद्ध, सूक्ष्म, सर्वव्यापक और प्रधानसे भी परे हैं, वह पुरुष जिनका रूप है उन गुण-भोक्ता परमपुरुषको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ५२ ॥

भूरादीनां समस्तानां गन्धादीनां च शाश्वतः ।
बुद्ध्यादीनां प्रधानस्य पुरुषस्य च यः परः ॥ ५३ ॥
तं ब्रह्मभूतमात्मानमशेषजगतः पतिम् ।
प्रपद्ये शरणं शुद्धं त्वद्‌रूपं परमेश्वर ॥ ५४ ॥
हे परमेश्वर ! पृथिवी आदि समस्त भूत, गन्धादि उनके गुण, बुद्धि आदि अन्तःकरण-चतुष्टय तथा प्रधान और पुरुष(जीव)-से भी परे जो सनातन पुरुष हैं, उन आप निखिलब्रह्माण्डनायकके ब्रह्मभूत शुद्धस्वरूप आत्माकी मैं शरण हूँ ॥ ५३-५४ ॥

बृहत्त्वाद्‌बृंहणत्वाच्च यद्‌रूपं ब्रह्मसंज्ञितम् ।
तस्मै नमस्ते सर्वात्मन्योगिचिन्त्याविकारिणे ॥ ५५ ॥
हे सर्वात्मन् ! हे योगियोंके चिन्तनीय ! व्यापक और वर्धनशील होनेके कारण आपका जो ब्रह्म नामक स्वरूप है, उस विकाररहित रूपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ५५ ॥

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
सर्वव्यापी भुवः स्पर्शादत्यतिष्ठद्‌दशाङ्‌गुलम् ॥ ५६ ॥
हे प्रभो ! आप हजारों मस्तकोंवाले, हजारों नेत्रोंवाले और हजारों चरणोंवाले परमपुरुष हैं, आप सर्वत्र व्याप्त हैं और [पृथिवी आदि आवरणोंके सहित] सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको व्याप्त कर दस गुण महाप्रमाणसे स्थित हैं ॥ ५६ ॥

यद्‌भूतं यच्च वै भव्यं पुरुषोत्तम तद्‌भवान् ।
त्वत्तो विराट् स्वराट् सम्राट् त्वत्तश्चाप्यधिपूरुषः ॥ ५७ ॥
हे पुरुषोत्तम ! भूत और भविष्यत् जो कुछ पदार्थ हैं वे सब आप ही हैं तथा विराट्, स्वराट् ,सम्राट और अधिपुरुष (ब्रह्मा) आदि भी सब आपहीसे उत्पन्न हुए हैं ॥ ५७ ॥

अत्यरिच्यत सोऽधश्च तिर्यगूर्ध्वं च वै भुवः ।
त्वत्तो विश्वमिदं जातं त्वत्तो भूतभविष्यती ॥ ५८ ॥
वे ही आप इस पृथिवीके नीचे-ऊपर और इधर-उधर सब ओर बढ़े हुए हैं । यह सम्पूर्ण जगत् आपहीसे उत्पन्न हुआ है तथा आपहीसे भूत और भविष्यत् हुए हैं ॥ ५८ ॥

त्वद्‌रूपधारिणश्चान्तः सर्वभूतमिदं जगत् ।
त्वत्तो यज्ञः सर्वहुतः पृषदाज्यं पशुर्द्विधा ॥ ५९ ॥
यह सम्पूर्ण जगत् आपके स्वरूपभूत ब्रह्माण्डके अन्तर्गत है [फिर आपके अन्तर्गत होनेकी तो बात ही क्या है ] जिसमें सभी पुरोडाशोंका हवन होता है वह यज्ञ, पृषदाज्य (दधि और घृत) तथा [ग्राम्य और वन्य] दो प्रकारके पशु आपहीसे उत्पन्न हुए हैं ॥ ५९ ॥

त्वत्त ऋचोऽथ सामानि त्वत्तश्छन्दांसि जज्ञिरे ।
त्वत्तो यजूंष्यजायन्त त्वत्तोऽश्वाश्चैकतो दतः ॥ ६० ॥
आपहीसे ऋक्, साम और गायत्री आदि छन्द प्रकट हुए हैं, आपहीसे यजुर्वेदका प्रादुर्भाव हुआ है और आपहीसे अश्व तथा एक ओर दाँतवाले महिष आदि जीव उत्पन्न हुए हैं ॥ ६० ॥

गावस्त्वत्तः समुद्‌भूतास्त्वत्तोऽजा अवयो मृगाः ।
त्वन्मुखाद्‌ब्राह्मणास्त्वत्तो बाहोः क्षत्रमजायत ॥ ६१ ॥
वैश्यास्तवोरुजाः शूद्रास्तव पद्‌भ्यां समुद्‌गताः ।
अक्ष्णोः सूर्योऽनिलः प्राणाच्चन्द्रमा मनसस्तव ॥ ६२ ॥
प्राणोऽन्तःसुषिराज्जातो मुखादग्निरजायत ।
नाभितो गगनं द्यौश्च शिरसः समवर्तत ॥ ६३ ॥
दिशः श्रोत्रात्क्षितिः पद्‌भ्यां त्वत्तः सर्वमभूदिदम् ॥ ६४ ॥
आपहीसे गौओं, बकरियों, भेड़ों और मृगोंकी उत्पत्ति हुई है; आपहीके मुखसे ब्राह्मण, बाहुओंसे क्षत्रिय, जंघाओंसे वैश्य और चरणोंसे शूद्र प्रकट हुए हैं तथा आपहीके नेत्रोंसे सूर्य, प्राणसे वायु, मनसे चन्द्रमा, भीतरी छिद्र (नासारन्ध्र)-से प्राण, मुखसे अग्नि, नाभिसे आकाश, सिरसे स्वर्ग, श्रोत्रसे दिशाएँ और चरणोंसे पृथिवी आदि उत्पन्न हुए हैं; इस प्रकार हे प्रभो ! यह सम्पूर्ण जगत् आपहीसे प्रकट हुआ है ॥ ६१-६४ ॥

न्यग्रोधः सुमहानल्पे यथा बीजे व्यवस्थितः ।
संयमे विश्वमखिलं बीजभूते तथा त्वयि ॥ ६५ ॥
जिस प्रकार नन्हेंसे बीजमें बड़ा भारी वट-वृक्ष रहता है उसी प्रकार प्रलय-कालमें यह सम्पूर्ण जगत् बीज-स्वरूप आपहीमें लीन रहता है ॥ ६५ ॥

बीजादङ्‌कुरसम्भूतो न्यग्रोधः स समुच्छ्रितः ।
विस्तारं च यथा याति त्वत्तः सृष्टौ तथा जगत् ॥ ६६ ॥
जिस प्रकार बीजसे अंकुररूपमें प्रकट हुआ वट-वृक्ष बढ़कर अत्यन्त विस्तारवाला हो जाता है उसी प्रकार सृष्टिकालमें यह जगत् आपहीसे प्रकट होकर फैल जाता है ॥ ६६ ॥

यथा हि कदली नान्या त्वक्पत्रादपि दृश्यते ।
एवं विश्वस्य नान्यस्त्वं त्वत्स्थायीश्वर दृश्यते ॥ ६७ ॥
हे ईश्वर ! जिस प्रकार केलेका पौधा छिलके और पत्तोंसे अलग दिखायी नहीं देता उसी प्रकार जगत्से आप पृथक् नहीं हैं, वह आपहीमें स्थित देखा जाता है ॥ ६७ ॥

ह्लादिनी संधिनी संवित्त्वय्येका सर्वसंस्थितौ ।
ह्लादतापकरी मिश्रा त्वयि नो गुणवर्जिते ॥ ६८ ॥
सबके आधारभूत आपमें ह्लादिनी (निरन्तर आह्लादित करनेवाली) और सन्धिनी (विच्छेदरहित) संवित् (विद्याशक्ति) अभिन्नरूपसे रहती हैं । आपमें (विषयजन्य) आह्लाद या ताप देनेवाली (सात्त्विकी या तामसी) अथवा उभयमिश्रा (राजसी) कोई भी संवित् नहीं है, क्योंकि आप निर्गुण हैं ॥ ६८ ॥

पृथग्भूतैकभूताय भूतभूताय ते नमः ।
प्रभूतभूतभूताय तुभ्यं भूतात्मने नमः ॥ ६९ ॥
आप [कार्यदृष्टिसे] पृथक्-रूप और [कारणदृष्टिसे] एकरूप हैं । आप ही भूतसूक्ष्म हैं और आप ही नाना जीवरूप हैं । हे भूतान्तरात्मन् ! ऐसे आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ६९ ॥

व्यक्तं प्रधानपुरुषौ विराट् सम्राट् स्वराट् तथा ।
विभाव्यतेऽन्तःकरणे पुरुषेष्वक्षयो भवान् ॥ ७० ॥
[योगियोंके द्वारा] अन्तःकरणमें आप ही महत्तत्त्व, प्रधान, पुरुष, विराट् , सम्राट और स्वराट् आदि रूपोंसे भावना किये जाते हैं और [क्षयशील] पुरुषोंमें आप नित्य अक्षय हैं ॥ ७० ॥

सर्वस्मिन् सर्वभूतस्त्वं सर्वः सर्वस्वरूपधृक् ।
सर्वं त्वत्तस्ततश्च त्वं नमः सर्वात्मनेऽस्तु ते ॥ ७१ ॥
आकाशादि सर्वभूतोंमें सार अर्थात् उनके गुणरूप आप ही हैं; समस्त रूपोंको धारण करनेवाले होनेसे सब कुछ आप ही हैं; सब कुछ आपहीसे हुआ है; अतएव सबके द्वारा आप ही हो रहे हैं इसलिये आप सर्वात्माको नमस्कार है ॥ ७१ ॥

सर्वात्मकोऽसि सर्वेश सर्वभूतस्थितो यतः ।
कथयामि ततः किं ते सर्वं वेत्सि हृदि स्थितम् ॥ ७२ ॥
हे सर्वेश्वर ! आप सर्वात्मक हैं; क्योंकि सम्पूर्ण भूतोंमें व्याप्त हैं; अतः मैं आपसे क्या कहूँ ? आप स्वयं ही सब हृदयस्थित बातोंको जानते हैं ॥ ७२ ॥

सर्वात्मन्सर्वभूतेश सर्वसत्त्वसमुद्‌भव ।
सर्वभूतो भवान्वेत्ति सर्वसत्त्वमनोरथम् ॥ ७३ ॥
हे सर्वात्मन् ! हे सर्वभूतेश्वर ! हे सब भूतोंके आदि-स्थान ! आप सर्वभूतरूपसे सभी प्राणियोंके मनोरथोंको जानते हैं ॥ ७३ ॥

यो मे मनोरथो नाथ सफलः स त्वया कृतः ।
तपश्च तप्तं सफलं यद्‌दृष्टोऽसि जगत्पते ॥ ७४ ॥
हे नाथ ! मेरा जो कुछ मनोरथ था वह तो आपने सफल कर दिया और हे जगत्पते ! मेरी तपस्या भी सफल हो गयी, क्योंकि मुझे आपका साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ ॥ ७४ ॥

श्रीभगवान् उवाच
तपसस्तत्फलं प्राप्तं यद्‌दृष्टोऽहं त्वया ध्रुव ।
मद्दर्शनं हि विफलं राजपुत्र न जायते ॥ ७५ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे ध्रुव ! तुमको मेरा साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ, इससे अवश्य ही तेरी तपस्या तो सफल हो गयी; परन्तु हे राजकुमार ! मेरा दर्शन भी तो कभी निष्फल नहीं होता ॥ ७५ ॥

वरं वरय तस्मात्त्वं यथाभिमतमात्मनः ।
सर्वं सम्पद्यते पुंसां मयि दृष्टिपथं गते ॥ ७६ ॥
इसलिये तुझको जिस वरकी इच्छा हो वह माँग ले । मेरा दर्शन हो जानेपर पुरुषको सभी कुछ प्राप्त हो सकता है ॥ ७६ ॥

ध्रुव उवाच
भगवन्सर्वभूतेश सर्वस्यास्ते भवान् हृदि ।
किमज्ञातं तव स्वामिन्मनसा यन्मयेप्सितम् ॥ ७७ ॥
ध्रुव बोले-हे भूतभव्येश्वर भगवन् ! आप सभीके अन्तःकरणोंमें विराजमान हैं । हे ब्रह्मन् ! मेरे मनकी जो कुछ अभिलाषा है वह क्या आपसे छिपी हुई है ? ॥ ७७ ॥

तथापि तुभ्यं देवेश कथयिष्यामि यन्मया ।
प्रार्थ्यते दुर्विनीतेन हृदयेनातिदुर्लभम् ॥ ७८ ॥
तो भी, हे देवेश्वर ! मैं दुर्विनीत जिस अति दुर्लभ वस्तुकी हृदयसे इच्छा करता हूँ उसे आपकी आज्ञानुसार आपके प्रति निवेदन करूँगा ॥ ७८ ॥

किं वा सर्वजगत्स्रष्टः प्रसन्ने त्वयि दुर्लभम् ।
त्वत्प्रसादफलं भुङ्‌क्ते त्रैलोक्यं मघवानपि ॥ ७९ ॥
हे समस्त संसारको रचनेवाले परमेश्वर ! आपके प्रसन्न होनेपर (संसारमें) क्या दुर्लभ है ? इन्द्र भी आपके कृपाकटाक्षके फलरूपसे ही त्रिलोकीको भोगता है ॥ ७९ ॥

नैतद्‌राजासनं योग्यमजातस्य ममोदरात् ।
इति गर्वादवोचन्मां सपत्नी मातुरुच्चकैः ॥ ८० ॥
प्रभो ! मेरी सौतेली माताने गर्वसे अति बढ़-बढ़कर मुझसे यह कहा था कि 'जो मेरे उदरसे उत्पन्न नहीं है उसके योग्य यह राजासन नहीं है' ॥ ८० ॥

आधारभूतं जगतः सर्वेषामुत्तमोत्तमम् ।
प्रार्थयामि प्रभो स्थानं त्वत्प्रसादादतोऽव्ययम् ॥ ८१ ॥
अतः हे प्रभो ! आपके प्रसादसे मैं उस सर्वोत्तम एवं अव्यय स्थानको प्राप्त करना चाहता हूँ जो सम्पूर्ण विश्वका आधारभूत हो ॥ ८१ ॥

श्रीभगवान् उवाच
यत्त्वया प्रार्थितं स्थानमेतत्प्राप्स्यति वै भवान् ।
त्वयाहं तोषितः पूर्वमन्यजन्मनि बालक ॥ ८२ ॥
श्रीभगवान् बोले-अरे बालक ! तूने अपने पूर्वजन्ममें भी मुझे सन्तुष्ट किया था, इसलिये तू जिस स्थानकी इच्छा करता है उसे अवश्य प्राप्त करेगा ॥ ८२ ॥

त्वमासीर्ब्राह्मणः पूर्वं मय्येकाग्रमतिः सदा ।
मातापित्रोश्च शुश्रूषुर्निजधर्मानुपालकः ॥ ८३ ॥
पूर्व जन्ममें तू एक ब्राह्मण था और मुझमें निरन्तर एकाग्रचित्त रहनेवाला, माता-पिताका सेवक तथा स्वधर्मका पालन करनेवाला था ॥ ८३ ॥

कालेन गच्छता मित्रं राजपुत्रस्तवाभवत् ।
यौवनेऽखिलभोगाढ्यो दर्शनीयोज्ज्वलाकृतिः ॥ ८४ ॥
कालान्तरमें एक राजपुत्र तेरा मित्र हो गया । वह अपनी युवावस्थामें सम्पूर्ण भोगोंसे सम्पन्न और अति दर्शनीय रूपलावण्ययुक्तथा ॥ ८४ ॥

तत्सङ्‌गात्तस्य तामृद्धिमवलोक्यातिदुर्लभाम् ।
भवेयं राजपुत्रोऽहमिति वाञ्छा त्वया कृता ॥ ८५ ॥
उसके संगसे उसके दुर्लभ वैभवको देखकर तेरी ऐसी इच्छा हुई कि मैं भी राजपुत्र होऊँ' ॥ ८५ ॥

ततो यथाभिलषिता प्राप्ता ते राजपुत्रता ।
उत्तानपादस्य गृहे जातोऽसि ध्रुव दुर्लभे ॥ ८६ ॥
अन्येषां तद्‌वरं स्थानं कुले स्वायम्भुवस्य यत् ॥ ८७ ॥
अत: हे ध्रुव ! तुझको अपनी मनोवांछित राजपुत्रता प्राप्त हुई और जिन स्वायम्भुवमनुके कुलमें और किसीको स्थान मिलना अति दुर्लभ है, उन्हींके घरमें तूने उत्तानपादके यहाँ जन्म लिया ॥ ८६-८७ ॥

तस्यैतदपरं बाल येनाहं परितोषितः ।
मामाराध्य नरो मुक्तिमवाप्नोत्यविलम्बितम् ॥ ८८ ॥
मय्यर्पितमना बाल किमु स्वर्गादिकं पदम् ॥ ८९ ॥
अरे बालक ! [औरोंके लिये यह स्थान कितना ही दुर्लभ हो परन्तु] जिसने मुझे सन्तुष्ट किया है उसके लिये तो यह अत्यन्त तुच्छ है । मेरी आराधना करनेसे तो मोक्षपद भी तत्काल प्राप्त हो सकता है, फिर जिसका चित्त निरन्तर मुझमें ही लगा हुआ है उसके लिये स्वर्गादि लोकोंका तो कहना ही क्या है ? ॥ ८८-८९ ॥

त्रैलोक्यादधिके स्थाने सर्वताराग्रहाश्रयः ।
भविष्यति न संदेहो मत्प्रसादाद्‌भवान्ध्रुव ॥ ९० ॥
हे ध्रुव ! मेरी कृपासे तू निस्सन्देह उस स्थानमें, जो त्रिलोकीमें सबसे उत्कृष्ट है, सम्पूर्ण ग्रह और तारामण्डलका आश्रय बनेगा ॥ ९० ॥

सूर्यात्सोमात्तथा भौमात्सोमपुत्राद्‌बृहस्पतेः ।
सितार्कतनयादीनां सर्वर्क्षाणां तथा ध्रुव ॥ ९१ ॥
सप्तर्षीणामशेषाणां ये च वैमानिकाः सुराः ।
सर्वेषामुपरि स्थानं तव दत्तं मया ध्रुव ॥ ९२ ॥
हे ध्रुव ! मैं तुझे वह ध्रुव (निश्चल) स्थान देता हूँ जो सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि आदि ग्रहों, सभी नक्षत्रों, सप्तर्षियों और सम्पूर्ण विमानचारी देवगणोंसे ऊपर है ॥ ९१-९२ ॥

केचिच्चतुर्युगं यावत्केचिन्मन्वन्तरं सुराः ।
तिष्ठन्ति भवतो दत्ता मया वै कल्पसंस्थितिः ॥ ९३ ॥
देवताओंमेंसे कोई तो केवल चार युगतक और कोई एक मन्वन्तरतक ही रहते हैं; किन्तु तुझे मैं एक कल्पतककी स्थिति देता हूँ ॥ ९३ ॥

सुनीतिरपि ते माता त्वदासन्नातिनिर्मला ।
विमाने तारका भूत्वा तावत्कालं निवत्स्यति ॥ ९४ ॥
तेरी माता सुनीति भी अति स्वच्छ तारारूपसे उतने ही समयतक तेरे पास एक विमानपर निवास करेगी ॥ ९४ ॥

ये च त्वां मानवाः प्रातः सायं च सुसमाहिताः ।
कीर्तयिष्यन्ति तेषां च महत् पुण्यं भविष्यति ॥ ९५ ॥
और जो लोग समाहित-चित्तसे सायंकाल और प्रातःकालके समय तेरा गुण-कीर्तन करेंगे उनको महान् पुण्य होगा ॥ ९५ ॥

पराशर उवाच
एवं पूर्वं जगन्नाथाद्‌देवदेवाज्जनार्दनात् ।
वरं प्राप्य ध्रुवं स्थानमध्यास्ते स महामते ॥ ९६ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे महामते ! इस प्रकार पूर्वकालमें जगत्पति देवाधिदेव भगवान् जनार्दनसे वर पाकर ध्रुव उस अत्युत्तम स्थानमें स्थित हुए ॥ ९६ ॥

स्वयं शुश्रूषणार्धर्म्यान्मातापित्रोश्च वै तथा ।
द्वादशाक्षरमाहात्म्यात्तपसश्च प्रभावतः ॥ ९७ ॥
तस्याभिमानमृद्धिं च महिमानं निरीक्ष्य च ।
देवासुराणामाचार्यः श्लोकमत्रोशना जगौ ॥ ९८ ॥
हे मुने ! अपने माता-पिताकी धर्मपूर्वक सेवा करनेसे तथा द्वादशाक्षर-मन्त्रके माहात्म्य और तपके प्रभावसे उनके मान, वैभव एवं प्रभावकी वृद्धि देखकर देव और असुरोंके आचार्य शुक्रदेवने ये श्लोक कहे हैं- ॥ ९७-९८ ॥

अहोऽस्य तपसो वीर्यमहोऽस्य तपसः फलम् ।
यदेनं पुरतः कृत्वा ध्रुवं सप्तर्षयः स्थिताः ॥ ९९ ॥
'अहो ! इस ध्रुवके तपका कैसा प्रभाव है ? अहो ! इसकी तपस्याका कैसा अद्‌भुत फल है जो इस ध्रुवको ही आगे रखकर सप्तर्षिगण स्थित हो रहे हैं ॥ ९९ ॥

ध्रुवस्य जननी चेयं सुनीतिर्नाम सूनृता ।
अस्याश्च महिमानं कः शक्तो वर्णयितुं भुवि ॥ १०० ॥
त्रैलोक्याश्रयतां प्राप्तं परं स्थानं स्थिरायति ।
स्थानं प्राप्ता परं कृत्वा या कुक्षिविवरे ध्रुवम् ॥ १०१ ॥
इसकी यह सुनीति नामवाली माता भी अवश्य ही सत्य और हितकर वचन बोलनेवाली है * । संसारमें ऐसा कौन है जो इसकी महिमाका वर्णन कर सके ? जिसने अपनी कोखमें उस ध्रुवको धारण करके त्रिलोकीका आश्रयभूत अति उत्तम स्थान प्राप्त कर लिया, जो भविष्यमें भी स्थिर रहनेवाला है' ॥ १००-१०१ ॥

यश्चैतत्कीर्तयेन्नित्यं ध्रुवस्यारोहणं दिवि ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः स्वर्गलोके महीयते ॥ १०२ ॥
जो व्यक्ति ध्रुवके इस दिव्यलोक-प्राप्तिके प्रसंगका कीर्तन करता है वह सब पापोंसे मुक्त होकर स्वर्गलोकमें पूजित होता है ॥ १०२ ॥

स्थानभ्रंशं न चाप्नोति दिवि वा यदि वा भुवि ।
सर्वकल्याणसंयुक्तो दीर्घकालं च जीवति ॥ १०३ ॥
वह स्वर्गमें रहे अथवा पृथिवीमें, कभी अपने स्थानसे च्युत नहीं होता तथा समस्त मंगलोंसे भरपूर रहकर बहुत कालतक जीवित रहता है ॥ १०३ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे द्वादशोऽध्यायः
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥



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