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॥ विष्णुपुराणम् ॥ प्रथमः अंशः ॥ एकादशोऽध्यायः ॥ पराशर उवाचः
प्रियव्रतोत्तानपादौ मनोः स्वायम्भुवस्य तु । द्वौ पुत्रौ सुमहावीर्यौ धर्मज्ञौ कथितौ तव ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! मैंने तुम्हें स्वायम्भुवमनुके प्रियव्रत एवं उत्तानपाद नामक दो महाबलवान् और धर्मज्ञ पुत्र बतलाये थे ॥ १ ॥ तयोरुत्तानपादस्य सुरुच्यामुत्तमः सुतः ।
अभीष्टायामभूद्ब्रह्मन्पितुरत्यन्तवल्लभः ॥ २ ॥ हे ब्रह्मन् ! उनमेंसे उत्तानपादकी प्रेयसी पत्नी सुरुचिसे पिताका अत्यन्त लाडला उत्तम नामक पुत्र हुआ ॥ २ ॥ सुनीतिर्नाम या राज्ञस्तस्याभून्महिषी द्विज ।
स नातिप्रीतिमांस्तस्यामभूद्यस्या ध्रुवः सुतः ॥ ३ ॥ हे द्विज ! उस राजाकी जो सुनीति नामक राजमहिषी थी उसमें उसका विशेष प्रेम न था । उसका पुत्र ध्रुव हुआ ॥ ३ ॥ राजासनस्थितस्याङ्कं पितुर्भ्रातरमाश्रितम् ।
दृष्ट्वोत्तमं ध्रुवश्चक्रे तमारोढुं मनोरथम् ॥ ४ ॥ एक दिन राजसिंहासनपर बैठे हुए पिताकी गोदमें अपने भाई उत्तमको बैठा देख ध्रुवकी इच्छा भी गोदमें बैठनेकी हुई ॥ ४ ॥ प्रत्यक्षं भूपतिस्तस्याः सुरुच्या नाभ्यनन्दत ।
प्रणयेनागतं पुत्रमुत्सङ्गारोहणोत्सुकम् ॥ ५ ॥ किन्तु राजाने अपनी प्रेयसी सुरुचिके सामने, गोदमें चढ़नेके लिये उत्कण्ठित होकर प्रेमवश आये हुए उस पुत्रका आदर नहीं किया ॥ ५ ॥ सपत्नीतनयं दृष्ट्वा तमङ्कारोहणोत्सुकम् ।
स्वपुत्रं च तथारूढं सुरुचिर्वाक्यमब्रवीत् ॥ ६ ॥ अपनी सौतके पुत्रको गोदमें चढ़नेके लिये उत्सुक और अपने पुत्रको गोदमें बैठा देख सुरुचि इस प्रकार कहने लगी ॥ ६ ॥ क्रियते किं वृथा वत्स महानेष मनोरथः ।
अन्यस्त्रीगर्भजातेन असम्भूय ममोदरे । "अरे लल्ला ! बिना मेरे पेटसे उत्पन्न हुए किसी अन्य स्त्रीका पुत्र होकर भी तू व्यर्थ क्यों ऐसा बड़ा मनोरथ करता है ? ॥ ७ ॥ उत्तमोत्तममप्राप्यमविवेको हि वाञ्छसि ॥ ७ ॥
सत्यं सुतस्त्वमप्यस्य किन्तु न त्वं मया धृतः ॥ ८ ॥ तू अविवेकी है, इसीलिये ऐसी अलभ्य उत्तमोत्तम वस्तुकी इच्छा करता है । यह ठीक है कि तू भी इन्हीं राजाका पुत्र है, तथापि मैंने तो तुझे अपने गर्भमें धारण नहीं किया ! ॥ ८ ॥ एतद्राजासनं सर्वभूभृत्संश्रयकेतनम् ।
योग्यं ममैव पुत्रस्य किमात्मा क्लिश्यते त्वया ॥ ९ ॥ समस्त चक्रवर्ती राजाओंका आश्रयरूप यह राजसिंहासन तो मेरे ही पुत्रके योग्य है; तू व्यर्थ क्यों अपने चित्तको सन्ताप देता है ? ॥ ९ ॥ उच्चैर्मनोरथस्तेऽयं मत्पुत्रस्येव किं वृथा ।
सुनीत्यामात्मनो जन्म किं त्वया नावगम्यते ॥ १० ॥ मेरे पुत्रके समान तुझे वृथा ही यह ऊँचा मनोरथ क्यों होता है ? क्या तू नहीं जानता कि तेरा जन्म सुनीतिसे हुआ है ?" ॥ १० ॥ पराशर उवाचः
उत्सृज्य पितरं बालस्तच्छ्रुत्वा मातृभाषितम् । जगाम कुपितो मातुर्निजाया द्विज मन्दिरम् ॥ ११ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे द्विज ! विमाताका ऐसा कथन सुन वह बालक कुपित हो पिताको छोड़कर अपनी माताके महलको चल दिया ॥ ११ ॥ तं दृष्ट्वा कुपितं पुत्रमीषत्प्रस्फुरिताधरम् ।
सुनीतिरङ्कमारोप्य मैत्रेयैतदभाषत ॥ १२ ॥ हे मैत्रेय ! जिसके ओष्ठ कुछ-कुछ काँप रहे थे-ऐसे अपने पुत्रको क्रोधयुक्त देख सुनीतिने उसे गोदमें बिठाकर पूछा- ॥ १२ ॥ सुनीतिरुवाचः
वत्स कः कोपहेतुस्ते कश्च त्वां नाभिनन्दति । कोऽवजानाति पितरं तव यस्तेऽपराध्यति ॥ १३ ॥ "बेटा ! तेरे क्रोधका क्या कारण है ? तेरा किसने आदर नहीं किया ? तेरा अपराध करके कौन तेरे पिताजीका अपमान करने चला है ?" ॥ १३ ॥ पराशर उवाचः
इत्युक्तः सकलं मात्रे कथयामास तद्यथा । सुरुचिः प्राह भूपालप्रत्यक्षमतिगर्विता ॥ १४ ॥ श्रीपराशरजी बोले-ऐसा पूछनेपर ध्रुवने अपनी मातासे वे सब बातें कह दी जो अति गर्वीली सुरुचिने उससे पिताके सामने कही थीं ॥ १४ ॥ निःश्वस्य सेति कथिते तस्मिन् पुत्रेण दुर्मनाः ।
श्वासक्षामेक्षणा दीना सुनीतिर्वाक्यमब्रवीत् ॥ १५ ॥ अपने पुत्रके सिसकसिसककर ऐसा कहनेपर दुःखिनी सुनीतिने खिन्नचित्त और दीर्घ निःश्वासके कारण मलिननयना होकर कहा ॥ १५ ॥ सुनीतिरुवाचः
सुरुचिः सत्यमाहेदं स्वल्पभाग्योऽसि पुत्रक । न हि पुण्यवतां वत्स सपत्नैरेवमुच्यते ॥ १६ ॥ सुनीति बोली-बेटा ! सुरुचिने ठीक ही कहा है, अवश्य ही तू मन्दभाग्य है । हे वत्स ! पुण्यवानोंसे उनके विपक्षी ऐसा नहीं कह सकते ॥ १६ ॥ नोद्वेगस्तात कर्तव्यः कृतं यद्भवता पुरा ।
तत्कोऽपहर्तुं शक्नोति दातुं कश्चाकृतं त्वया ॥ १७ ॥ तत्त्वया नात्र कर्तव्यं दुःखं तद्वाक्यसम्भवम् ॥ १८ ॥ बच्चा ! तू व्याकुल मत हो. क्योंकि तने पर्व-जन्मोंमें जो कछ किया है उसे दूर कौन कर सकता है ? और जो नहीं किया वह तुझे दे भी कौन सकता है ? इसलिये तुझे उसके वाक्योंसे खेद नहीं करना चाहिये ॥ १७-१८ ॥ राजासनं तथा छत्रं वराश्ववरवारणाः ।
यस्य पुण्यानि तस्यैव मत्वैतच्छाम्य पुत्रक ॥ १९ ॥ हे वत्स ! जिसका पुण्य होता है उसीको राजासन, राजच्छत्र तथा उत्तम-उत्तम घोड़े और हाथी आदि मिलते हैंऐसा जानकर तू शान्त हो जा ॥ १९ ॥ अन्यजन्मकृतैः पुण्यैः सुरुच्यां सुरुचिर्नृपः ।
भार्येति प्रोच्यते चान्या मद्विधा पुण्यवर्जिता ॥ २० ॥ अन्य जन्मोंमें किये हुए पुण्य-कर्मों के कारण ही सुरुचिमें राजाकी सुरुचि (प्रीति) है और पुण्यहीना होनेसे ही मुझ-जैसी स्त्री केवल भार्या (भरण करनेयोग्य) ही कही जाती है । ॥ २० ॥ पुण्योपचयसम्पन्नस्तस्याः पुत्रस्तथोत्तमः ।
मम पुत्रस्तथा जातः स्वल्पपुण्यो ध्रुवो भवान् ॥ २१ ॥ उसी प्रकार उसका पुत्र उत्तम भी बड़ा पुण्यपुंज-सम्पन्न है और मेरा पुत्र तू ध्रुव मेरे समान ही अल्प पुण्यवान् है ॥ २१ ॥ तथापि दुःखं न भवान् कर्तुमर्हति पुत्रक ।
यस्य यावत्स तेनैव स्वेन तुष्यति बुद्धिमान् ॥ २२ ॥ तथापि बेटा ! तुझे दुःखी नहीं होना चाहिये, क्योंकि जिस मनुष्यको जितना f मलता है वह अपनी ही पूँजीमें मग्न रहता है ॥ २२ ॥ यदि ते दुःखमत्यर्थं सुरुच्या वचसाभवत् ।
तत्पुण्योपचये यत्नं कुरु सर्वफलप्रदे ॥ २३ ॥ और यदि सुरुचिके वाक्योंसे तुझे अत्यन्त दुःख ही हुआ है तो सर्व फलदायक पुण्यके संग्रह करनेका प्रयत्न कर ॥ २३ ॥ सुशीलो भव धर्मात्मा मैत्रः प्राणिहिते रतः ।
निम्नं यथापः प्रवणाः पात्रमायान्ति सम्पदः ॥ २४ ॥ तू सुशील, पुण्यात्मा, प्रेमी और समस्त प्राणियोंका हितैषी बन. क्योंकि जैसे नीची भमिकी ओर ढलकता हुआ जल अपने-आप ही पात्रमें आ जाता है वैसे ही सत्पात्र मनुष्यके पास स्वतः ही समस्त सम्पत्तियाँ आ जाती हैं ॥ २४ ॥ ध्रुव उवाचः
अम्ब यत्त्वमिदं प्राह प्रशमाय वचो मम । नैतद्दुर्वचसा भिन्ने हृदये मम तिष्ठति ॥ २५ ॥ ध्रुव बोला- माताजी ! तुमने मेरे चित्तको शान्त करनेके लिये जो वचन कहे हैं वे दुर्वाक्योंसे बिंधे हुए मेरे हृदयमें तनिक भी नहीं ठहरते ॥ २५ ॥ सोऽहं तथा यतिष्यामि यथा सर्वोत्तमोत्तमम् ।
स्थानं प्राप्स्याम्यशेषाणां जगतामभिपूजितम् ॥ २६ ॥ इसलिये मैं तो अब वही प्रयत्न करूँगा जिससे सम्पूर्ण लोकोंसे आदरणीय सर्वश्रेष्ठ पदको प्राप्त कर सकूँ ॥ २६ ॥ सुरुचिर्दयिता राज्ञस्तस्या जातोऽस्मि नोदरात् ।
प्रभावं पश्य मेऽम्ब त्वं धृतस्यापि तवोदरे ॥ २७ ॥ राजाकी प्रेयसी तो अवश्य सुरुचि ही है और मैंने उसके उदरसे जन्म भी नहीं लिया है, तथापि हे माता ! अपने गर्भमें बढ़े हुए मेरा प्रभाव भी तुम देखना ॥ २७ ॥ उत्तमः स मम भ्राता यो गर्भेण धृतस्तया ।
स राजासनमाप्नोतु पित्रा दत्तं तथास्तु तत् ॥ २८ ॥ उत्तम, जिसको उसने अपने गर्भमें धारण किया है, मेरा भाई ही है । पिताका दिया हुआ राजासन वही प्राप्त करे । [ भगवान् करें ] ऐसा ही हो ॥ २८ ॥ नान्यदत्तमभीप्स्यामि स्थानमम्ब स्वकर्मणा ।
इच्छामि तदहं स्थानं यन्न प्राप पिता मम ॥ २९ ॥ माताजी ! मैं किसी दूसरेके दिये हुए पदका इच्छुक नहीं हूँ; मैं तो अपने पुरुषार्थसे ही उस पदकी इच्छा करता हूँ जिसको पिताजीने भी नहीं प्राप्त किया है ॥ २९ ॥ पराशर उवाच
निर्जगाम गृहान्मातुरित्युक्त्वा मातरं ध्रुवः । पुराच्च निर्गम्य ततस्तद्बाह्योपवनं ययौ ॥ ३० ॥ श्रीपराशरजी बोले-मातासे इस प्रकार कह ध्रुव उसके महलसे निकल पड़ा और फिर नगरसे बाहर आकर बाहरी उपवनमें पहुँचा ॥ ३० ॥ स ददर्श मुनींस्तत्र सप्त पूर्वागतान् ध्रुवः ।
कृष्णाजिनोत्तरीयेषु विष्टरेषु समास्थितान् ॥ ३१ ॥ वहाँ ध्रुवने पहलेसे ही आये हुए सात मुनीश्वरोंको कृष्ण मृग-चर्मके बिछौनोंसे युक्त आसनोंपर बैठे देखा ॥ ३१ ॥ स राजपुत्रस्तान्सर्वान्प्रणिपत्याभ्यभाषत ।
प्रश्रयावनतः सम्यगभिवादनपूर्वकम् ॥ ३२ ॥ उस राजकुमारने उन सबको प्रणाम कर अति नम्रता और समुचित अभिवादनादिपूर्वक उनसे कहा ॥ ३२ ॥ ध्रुव उवाच
उत्तानपादतनयं मां निबोधत सत्तमाः । जातं सुनीत्यां निर्वेदाद्युष्माकं प्राप्तमन्तिकम् ॥ ३३ ॥ ध्रुवने कहा-हे महात्माओ ! मुझे आप सुनीतिसे उत्पन्न हुआ राजा उत्तानपादका पुत्र जानें । मैं आत्मग्लानिके कारण आपके निकट आया हूँ ॥ ३३ ॥ ऋषय ऊचुः
चतुःपञ्चाब्दसम्भूतो बालस्त्वं नृपनन्दन । निर्वेदकारणं किञ्चित्तव नाद्यापि वर्तते ॥ ३४ ॥ ऋषि बोले-राजकुमार ! अभी तो तू चार-पाँच वर्षका ही बालक है । अभी तेरे निर्वेदका कोई कारण नहीं दिखायी पड़ता ॥ ३४ ॥ न चिन्त्यं भवतः किञ्चिद्ध्रियते भूपतिः पिता ।
न चैवेष्टवियोगादि तव पश्याम बालक ॥ ३५ ॥ तुझे कोई चिन्ताका विषय भी नहीं है, क्योंकि अभी तेरा पिता राजा जीवित है और हे बालक ! तेरी कोई इष्ट वस्तु खो गयी हो ऐसा भी हमें दिखायी नहीं देता ॥ ३५ ॥ शरीरे न च ते व्याधिरस्माभिरुपलक्ष्यते ।
निर्वेदः किंनिमित्तस्ते कथ्यतां यदि विद्यते ॥ ३६ ॥ तथा हमें तेरे शरीरमें भी कोई व्याधि नहीं दीख पड़ती फिर बता, तेरी ग्लानिका क्या कारण है ? ॥ ३६ ॥ पराशर उवाच
ततः स कथयामास सुरुच्या यदुदाहृतम् । तन्निशम्य ततः प्रोचुर्मुनयस्ते परस्परम् ॥ ३७ ॥ श्रीपराशरजी बोले- तब सुरुचिने उससे जो कुछ कहा था वह सब उसने कह सुनाया । उसे सुनकर वे ऋषिगण आपसमें इस प्रकार कहने लगे ॥ ३७ ॥ अहो क्षात्रं परं तेजो बालस्यापि यदक्षमा ।
सपत्न्या मातुरुक्तं यद् हृदयान्नापसर्पति ॥ ३८ ॥ 'अहो ! क्षात्रतेज कैसा प्रबल है, जिससे बालकमें भी इतनी अक्षमा है कि अपनी विमाताका कथन उसके हृदयसे नहीं टलता' ॥ ३८ ॥ भो भोः क्षत्रियदायाद निर्वेदाद्यत्त्वयाधुना ।
कर्तुं व्यवसितं तन्नः कथ्यतां यदि रोचते ॥ ३९ ॥ हे क्षत्रियकुमार ! इस निर्वेदके कारण तूने जो कुछ करनेका निश्चय किया है, यदि तुझे रुचे तो, वह हमलोगोंसे कह दे ॥ ३९ ॥ यच्च कार्यं तवास्माभिः साहाय्यममितद्युते ।
तदुच्यतां विवक्षुस्त्वमस्माभिरुपलक्ष्यसे ॥ ४० ॥ और हे अतुलित तेजस्वी ! यह भी बता कि हम तेरी क्या सहायता करें, क्योंकि हमें ऐसा प्रतीत होता है कि तू कुछ कहना चाहता है ॥ ४० ॥ ध्रुव उवाच
नाहमर्थमभीप्सामि न राज्यं द्विजसत्तमाः । तत् स्थानमेकमिच्छामि भुक्तं नान्येन यत्पुरा ॥ ४१ ॥ ध्रुवने कहा-हे द्विजश्रेष्ठ ! मुझे न तो धनकी इच्छा है और न राज्यकी; मैं तो केवल एक उसी स्थानको चाहता हूँ जिसको पहले कभी किसीने न भोगा हो ॥ ४१ ॥ एतन्मे क्रियतां सम्यक् कथ्यतां प्राप्यते यथा ।
स्थानमग्र्यं समस्तेभ्यः स्थानेभ्यो मुनिसत्तमाः ॥ ४२ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! आपकी यही सहायता होगी कि आप मुझे भली प्रकार यह बता दें कि क्या करनेसे वह सबसे अग्रगण्य स्थान प्राप्त हो सकता है ॥ ४२ ॥ मरीचिरुवाच
अनाराधितगोविन्दैर्नरैः स्थानं नृपात्मज । न हि सम्प्राप्यते श्रेष्ठं तस्मादाराधयाच्युतम् ॥ ४३ ॥ मरीचि बोले-हेराजपत्र बिना गोविन्दकी आराधना किये मनुष्यको वह श्रेष्ठ स्थान नहीं मिल सकता; अतः त श्रीअच्युतकी आराधना कर ॥ ४३ ॥ अत्रिरुवाच
परः पराणां पुरुषो यस्य तुष्टो जनार्दनः । स प्राप्नोत्यक्षयं स्थानमेतत् सत्यं मयोदितम् ॥ ४४ ॥ अत्रि बोले-जो परा प्रकृति आदिसे भी परे हैं वे परमपुरुष जनार्दन जिससे सन्तुष्ट होते हैं उसीको वह अक्षयपद मिलता है यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ ॥ ४४ ॥ अङ्गिरा उवाच
यस्यान्तः सर्वमेवेदमच्युतस्याव्ययात्मनः । तमाराधय गोविन्दं स्थानमग्र्यं यदीच्छसि ॥ ४५ ॥ अंगिरा बोले- यदि तू अग्र्यस्थानका इच्छुक है तो जिन अव्ययात्मा अच्युतमें यह सम्पूर्ण जगत् ओतप्रोत है, उन गोविन्दकी ही आराधना कर ॥ ४५ ॥ पुलस्त्य उवाच
परं ब्रह्म परं धाम योऽसौ ब्रह्म तथा परम् । तमाराध्य हरिं याति मुक्तिमप्यतिदुर्लभाम् ॥ ४६ ॥ पुलस्त्य बोले-जो परब्रह्म, परमधाम और परस्वरूप हैं, उन हरिकी आराधना करनेसे मनुष्य अति दुर्लभ मोक्षपदको भी प्राप्त कर लेता है ॥ ४६ ॥ पुलह उवाच
ऐन्द्रमिन्द्रः परं स्थानं यमाराध्य जगत्पतिम् । प्राप यज्ञपतिं विष्णुं तमाराधय सुव्रत ॥ ४७ ॥ पुलह बोले-हे सुव्रत ! जिन जगत्पतिकी आराधनासे इन्द्रने अत्युत्तम इन्द्रपद प्राप्त किया है, तू उन यज्ञपति भगवान् विष्णुकी आराधना कर ॥ ४७ ॥ क्रतुरुवाच
यो यज्ञपुरुषो यज्ञे योगेशः परमः पुमान् । तस्मिंस्तुष्टे यदप्राप्यं किं तदस्ति जनार्दने ॥ ४८ ॥ क्रतु बोले-जो परमपुरुष यज्ञपुरुष, यज्ञ और योगेश्वर हैं, उन जनार्दनके सन्तुष्ट होनेपर कौन-सी वस्तु दुर्लभ रह सकती है ? ॥ ४८ ॥ वसिष्ठ उवाच
प्राप्नोष्याराधिते विष्णौ मनसा यद्यदिच्छसि । त्रैलोक्यान्तर्गतं स्थानं किमु वत्सोत्तमोत्तमम् ॥ ४९ ॥ वसिष्ठ बोले-हे वत्स ! विष्णुभगवान्की आराधना करनेपर तू अपने मनसे जो कुछ चाहेगा वही प्राप्त कर लेगा, फिर त्रिलोकीके उत्तमोत्तम स्थानकी तो बात ही क्या है ? ॥ ४९ ॥ ध्रुव उवाच
आराध्यः कथितो देवो भवद्भिः प्रणतस्य मे । मया तत्परितोषाय यज्जप्तव्यं तदुच्यताम् ॥ ५० ॥ यथा चाराधनं तस्य मया कार्यं महात्मनः । प्रसादसुमुखास्तन्मे कथयन्तु महर्षयः ॥ ५१ ॥ ध्रुवने कहा-हे महर्षिगण ! मुझ विनीतको आपने आराध्यदेव तो बता दिया । अब उसको प्रसन्न करनेके लिये मुझे क्या जपना चाहिये-यह बताइये । उस महापुरुषकी मुझे जिस प्रकार आराधना करनी चाहिये, वह आपलोग मुझसे प्रसन्नतापूर्वक कहिये ॥ ५०-५१ ॥ ऋषय ऊचुः
राजपुत्र यथा विष्णोराराधनपरैर्नरैः । कार्यमाराधनं तन्नो यथावच्छ्रोतुमर्हसि ॥ ५२ ॥ ऋषिगण बोले-हे राजकुमार ! विष्णुभगवान्की आराधनामें तत्पर पुरुषोंको जिस प्रकार उनकी उपासना करनी चाहिये वह तू हमसे यथावत् श्रवण कर ॥ ५२ ॥ बाह्यार्थादखिलाच्चित्तं त्याजयेत्प्रथमं नरः ।
तस्मिन्नेव जगद्धाम्नि ततः कुर्वीत निश्चलम् ॥ ५३ ॥ मनुष्यको चाहिये कि पहले सम्पूर्ण बाह्य विषयोंसे चित्तको हटावे और उसे एकमात्र उन जगदाधारमें ही स्थिर कर दे ॥ ५३ ॥ एवमेकाग्रचित्तेन तन्मयेन धृतात्मना ।
जप्तव्यं यन्निबोधैतत्तन्नः पार्थिवनन्दन ॥ ५४ ॥ हे राजकुमार ! इस प्रकार एकाग्रचित्त होकर तन्मयभावसे जो कुछ जपना चाहिये, वह सुन- ॥ ५४ ॥ हिरण्यगर्भपुरुषप्रधानव्यक्तरूपिणे ।
ॐ नमो वासुदेवाय शुद्धज्ञानस्वभाविने ॥ ५५ ॥ 'ॐ हिरण्यगर्भ, पुरुष, प्रधान और अव्यक्तरूप शुद्ध ज्ञानस्वरूप वासुदेवको नमस्कार है' ॥ ५५ ॥ एतज्जजाप भगवान् जप्यं स्वायम्भुवो मनुः ।
पितामहस्तव पुरा तस्य तुष्टो जनार्दनः ॥ ५६ ॥ ददौ यथाभिलषितां सिद्धिं त्रैलोक्यदुर्लभाम् । तथा त्वमपि गोविन्दं तोषयैतत्सदा जपन् ॥ ५७ ॥ इस (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) मन्त्रको पूर्वकालमें तेरे पितामह भगवान् स्वायम्भुव मनुने जपा था । तब उनसे सन्तुष्ट होकर श्रीजनार्दनने उन्हें त्रिलोकीमें दुर्लभ मनोवांछित सिद्धि दी थी । उसी प्रकार तू भी इसका निरन्तर जप करता हुआ श्रीगोविन्दको प्रसन्न कर ॥ ५६-५७ ॥ इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे एकादशोऽध्यायः
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥ |