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॥ विष्णुपुराणम् ॥

प्रथमः अंशः

॥ अष्टादशोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच -
तस्यैतां दानवाश्चेष्टां दृष्ट्‌वा दैत्यपतेर्भयात् ।
आचचख्युः स चोवाच सूदानाहूय सत्वरः ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-उनकी ऐसी चेष्टा देख दैत्योंने दैत्यराज हिरण्यकशिपुसे डरकर उससे सारा वृत्तान्त कह सुनाया, और उसने भी तुरन्त अपने रसोइयोंको बुलाकर कहा ॥ १ ॥

हिरण्यकशिपुः उवाच -
हे सूदा मम पुत्रोसौ अन्येषामपि दुर्मतिः ।
कुमार्गदेशिको दुष्टो हन्यतामविलम्बितम् ॥ २ ॥
हिरण्यकशिपु बोला-अरे सूदगण ! मेरा यह दुष्ट और दुर्मति पुत्र औरोंको भी कुमार्गका उपदेश देता है, अतः तुम शीघ्र ही इसे मार डालो ॥ २ ॥

हालाहलं विषं तस्य सर्वभक्षेषु दीयताम् ।
अविज्ञातमसौ पापो हन्यतां मा विचार्यताम् ॥ ३ ॥
तुम उसे उसके बिना जाने समस्त खाद्यपदार्थोंमें हलाहल विष मिलाकर दो और किसी प्रकारका शोच-विचार न कर उस पापीको मार डालो ॥ ३ ॥

श्रीपराशर उवाच -
ते तथैव ततश्चक्रुः प्रह्लादाय महात्मने ।
विषदानं यथाज्ञाप्तं पित्रा तस्य महात्मनः ॥ ४ ॥
श्रीपराशरजी बोले-तब उन रसोइयोंने महात्मा प्रह्लादको, जैसी कि उनके पिताने आज्ञा दी थी उसीके अनुसार विष दे दिया ॥ ४ ॥

हालाहलं विषं घोरमनन्तोच्चारणेन सः ।
अभिमन्त्र्य सहान्नेन मैत्रेय बुभुजे तदा ॥ ५ ॥
हे मैत्रेय ! तब वे उस घोर हलाहल विषको भगवन्नामके उच्चारणसे अभिमन्त्रित कर अन्नके साथ खा गये ॥ ५ ॥

अविकारं स तद्‌भुक्त्वा प्रह्लादः स्वस्थमानसः ।
अनन्तख्यातिनिर्विर्यं जरयामास तद्विषम् ॥ ६ ॥
तथा भगवन्नामके प्रभावसे निस्तेज हुए उस विषको खाकर उसे बिना किसी विकारके पचाकर स्वस्थ चित्तसे स्थित रहे ॥ ६ ॥

ततः सूदा भयत्रस्ता जीर्णं दृष्ट्‌वा महद्विषम् ।
दैत्येश्वरमुपागम्य प्रणिपत्येदमब्रुवन् ॥ ७ ॥
उस महान् विषको पचा हुआ देख रसोइयोंने भयसे व्याकुल हो हिरण्यकशिपुके पास जा उसे प्रणाम करके कहा ॥ ७ ॥

सूदा ऊचुः -
दैत्यराज विषं दत्तमस्माभिः अतिभीषणम् ।
जीर्णं तेन सहान्नेन प्रह्लादेन सुतेन ते ॥ ८ ॥
सूदगण बोले-हे दैत्यराज ! हमने आपकी आज्ञासे अत्यन्त तीक्ष्ण विष दिया था, तथापि आपके पुत्र प्रह्लादने उसे अन्नके साथ पचा लिया ॥ ८ ॥

हिरण्यकशिपुः उवाच -
त्वर्यतां त्वर्यतां हे हे सद्यो दैत्यपुरोहिताः ।
कृत्यां तस्य विनाशाय उत्पादयत मा चिरम् ॥ ९ ॥
हिरण्यकशिपु बोला-हे पुरोहितगण ! शीघ्रता करो, शीघ्रता करो ! उसे नष्ट करनेके लिये अब कृत्या उत्पन्न करो; और देरी न करो ॥ ९ ॥

श्रीपराशर उवाच -
सकाशमागम्य ततः प्रह्लादस्य पुरोहिताः ।
सामपूर्वमथोचुस्ते प्रह्लादं विनयान्वितम् ॥ १० ॥
श्रीपराशरजी बोले-तब पुरोहितोंने अति विनीत प्रह्लादसे, उसके पास जाकर शान्तिपूर्वक कहा ॥ १० ॥

पुरोहिता ऊचुः -
जातस्त्रैलोक्यविख्यात आयुष्मन्ब्रह्मणः कुले ।
दैत्यराजस्य तनयो हिरण्यकशिपोर्भवान् ॥ ११ ॥
पुरोहित बोले-हे आयुष्मन् ! तुम त्रिलोकीमें विख्यात ब्रह्माजीके कुलमें उत्पन्न हुए हो और दैत्यराज हिरण्यकशिपुके पुत्र हो ॥ ११ ॥

किं देवैः किमनन्तेन किमन्येन तवाश्रयः ।
पिता ते सर्वलोकानां त्वं तथैव भविष्यसि ॥ १२ ॥
तुम्हें देवता, अनन्त अथवा और भी किसीसे क्या प्रयोजन है ? तुम्हारे पिता तुम्हारे तथा सम्पूर्ण लोकोंके आश्रय हैं और तुम भी ऐसे ही होगे ॥ १२ ॥

तस्मात्परित्यजैनां त्वं विपक्षस्तवसंहिताम् ।
श्लाघ्यः पिता समस्तानां गुरूणां परमो गुरुः ॥ १३ ॥
इसलिये तुम यह विपक्षकी स्तुति करना छोड़ दो । तुम्हारे पिता सब प्रकार प्रशंसनीय हैं और वे ही समस्त गुरुओंमें परम गुरु हैं ॥ १३ ॥

प्रह्लाद उवाच -
एवम् एतन् महाभागाः श्लाघ्यमेतन्महाकुलम् ।
मरिचेः सकलेप्यस्मिन् त्रैलोक्ये नान्याथा वदेत् ॥ १४ ॥
प्रह्लादजी बोले-हे महाभागगण ! यह ठीक ही है । इस सम्पूर्ण त्रिलोकीमें भगवान् मरीचिका यह महान् कुल अवश्य ही प्रशंसनीय है । इसमें कोई कुछ भी अन्यथा नहीं कह सकता ॥ १४ ॥

पिता च मम सर्वास्मिन् जगत्युत्कृष्टचेष्टितः ।
एतदप्यवगच्छामि सत्यमत्रापि नानृतम् ॥ १५ ॥
और मेरे पिताजी भी सम्पूर्ण जगत्में बहुत बड़े पराक्रमी हैं; यह भी मैं जानता हूँ । यह बात भी बिलकुल ठीक है, अन्यथा नहीं ॥ १५ ॥

गुरूणामपि सर्वेषां पिता परमको गुरुः ।
यदुक्तं भ्रान्तिस्तत्रापि स्वल्पापि हि न विद्यते ॥ १६ ॥
और आपने जो कहा कि समस्त गुरुओंमें पिता ही परम गुरु हैं-इसमें भी मुझे लेशमात्र सन्देह नहीं है ॥ १६ ॥

पिता गुरुर्न सन्देहः पूजनीयः पूयत्‍नतः ।
तत्रापि नापराध्यामि इत्येवं मनसि से स्थितम् ॥ १७ ॥
पिताजी परम गुरु हैं और प्रयत्नपूर्वक पूजनीय हैं-इसमें कोई सन्देह नहीं । और मेरे चित्तमें भी यही विचार स्थित है कि मैं उनका कोई अपराध नहीं करूँगा ॥ १७ ॥

यत्त्वेतत्किमनन्तेन इत्युक्तं युष्माभिरीदृशम् ।
को ब्रवीति यथान्याय्यं किं तु नैतद्वचोर्थवत् ॥ १८ ॥
किन्तु आपने जो यह कहा कि 'तझे अनन्तसे क्या प्रयोजन है ?' सो ऐसी बातको भला कौन न्यायोचित कह सकता है ? आपका यह कथन किसी भी तरह ठीक नहीं है । ॥ १८ ॥

इत्युक्त्वा सोऽभवन्मौनी तेषां गौरवयन्त्रितः ।
प्रहस्य च पुनः प्राह किमनन्तेन साध्विति ॥ १९ ॥
ऐसा कहकर वे उनका गौरव रखनेके लिये चुप हो गये और फिर हँसकर कहने लगे-'तुझे अनन्तसे क्या प्रयोजन है ? इस विचारको धन्यवाद है ! ॥ १९ ॥

साधु भोः किमनन्तेन साधु भो गुरुवो मम ।
श्रूयतां यदनन्तेन यदि खेदं न यास्यथ ॥ २० ॥
हे मेरे गुरुगण ! आप कहते हैं कि तुझे अनन्तसे क्या प्रयोजन है ? धन्यवाद है आपके इस विचारको ! अच्छा, यदि आपको बुरा न लगे तो मुझे अनन्तसे जो प्रयोजन है सो सुनिये ॥ २० ॥

धर्मार्थकाममोक्षाश्च पुरुषार्था उदाहृताः ।
चतुष्टयमिदं यस्मात् तस्मात्किं किमिदं वच ॥ २१ ॥
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-ये चार पुरुषार्थ कहे जाते हैं । ये चारों ही जिनसे सिद्ध होते हैं, उनसे क्या प्रयोजन ?-आपके इस कथनको क्या कहा जाय ! ॥ २१ ॥

मरीचिमिश्रैः दक्षाद्यैस्तथैवान्यैः अनन्ततः ।
धर्म प्राप्तस्तथा चान्यैः अर्थः कामस्तथाऽपरैः ॥ २२ ॥
उन अनन्तसे ही दक्ष और मरीचि आदि तथा अन्यान्य ऋषीश्वरोंको धर्म, किन्हीं अन्य मुनीश्वरोंको अर्थ एवं अन्य किन्हींको कामकी प्राप्ति हुई है ॥ २२ ॥

तत्तत्त्ववेदिनो भूत्वा ज्ञानध्यानसमाधिभिः ।
अवापुर्मुक्तिमपरे पुरुषा ध्वस्तबन्धनाः ॥ २३ ॥
किन्हीं अन्य महापुरुषोंने ज्ञान, ध्यान और समाधिके द्वारा उन्हींके तत्त्वको जानकर अपने संसार-बन्धनको काटकर मोक्षपद प्राप्त किया है ॥ २३ ॥

सम्पदैश्वर्यमाहात्म्य-ज्ञानसन्ततिकर्मणाम् ।
विमुक्तेश्चैकतो लभ्यं मूलमाराधनं हरेः ॥ २४ ॥
अतः सम्पत्ति, ऐश्वर्य, माहात्म्य, ज्ञान, सन्तति और कर्म तथा मोक्ष-इन सबकी एकमात्र मूल श्रीहरिकी आराधना ही उपार्जनीय है ॥ २४ ॥

यतो धर्मार्थकामाख्यं मुक्तिश्चपि फलं द्विजाः ।
तेनापि किं किमित्येवमनन्तेन किमुच्यते ॥ २५ ॥
हे द्विजगण ! इस प्रकार, जिनसे अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष ये चारों ही फल प्राप्त होते हैं उनके लिये भी आप ऐसा क्यों कहते हैं कि 'अनन्तसे तुझे क्या प्रयोजन है ?' ॥ २५ ॥

किं चापि बहुनोक्तेन भवन्तो गुरवो मम ।
वदन्तु साधु वासाधु विवेकोऽस्माकमल्पकः ॥ २६ ॥
और बहुत कहनेसे क्या लाभ ? आपलोग तो मेरे गुरु हैं; उचित-अनुचित सभी कुछ कह सकते हैं । और मुझे तो विचार भी बहुत ही कम है ॥ २६ ॥

बहुनात्र किमुक्तेन स एव जगतः पतिः ।
स कर्ता च विकर्ता च संहर्ता च हृदि स्थितः ॥ २७ ॥
इस विषयमें अधिक क्या कहा जाय ? [मेरे विचारसे तो] सबके अन्तःकरणोंमें स्थित एकमात्र वे ही संसारके स्वामी तथा उसके रचयिता, पालक और संहारक हैं ॥ २७ ॥

स भोक्ता भोज्यमप्येवं स एव जगदीश्वरः ।
भवद्‌भिः एतत्क्षन्तव्यं बाल्यादुक्तं तु यन्मया ॥ २८ ॥
वे ही भोक्ता और भोज्य तथा वे ही एकमात्र जगदीश्वर हैं । हे गुरुगण ! मैंने बाल्यभावसे यदि कुछ अनुचित कहा हो तो आप क्षमा करें" ॥ २८ ॥

पुरोहिता ऊचुः -
दह्यमानस्त्वमस्माभिः अग्निना बाल रक्षितः ।
भूयो न वक्ष्यसीत्येवं नैव ज्ञातोऽस्यबुद्धिमान् ॥ २९ ॥
पुरोहितगण बोले-अरे बालक ! हमने तो यह समझकर कि तू फिर ऐसी बात न कहेगा तुझे अग्निमें जलनेसे बचाया है । हम यह नहीं जानते थे कि तू ऐसा बुद्धिहीन है ? ॥ २९ ॥

यदास्मद्वचनान्मोह-ग्राहं न त्यक्षते भवान् ।
ततः कृत्यां विनाशाय तव स्रक्ष्याम दुर्मते ॥ ३० ॥
रे दुर्मते ! यदि तू हमारे कहनेसे अपने इस मोहमय आग्रहको नहीं छोड़ेगा तो हम तुझे नष्ट करनेके लिये कृत्या उत्पन्न करेंगे ॥ ३० ॥

प्रह्लाद उवाच -
कः केन हन्यते जन्तुः जन्तुः कः केन रक्ष्यते ।
हन्ति रक्षति चैवात्मा ह्यसत्साधु समाचरन् ॥ ३१ ॥
प्रह्लादजी बोले-कौन जीव किससे मारा जाता है और कौन किससे रक्षित होता है ? शुभ और अशुभ आचरणोंके द्वारा आत्मा स्वयं ही अपनी रक्षा और नाश करता है ॥ ३१ ॥

कर्मणा जायते सर्वं कर्मैव गतिसाधनम् ।
तस्मात्सर्वप्रयत्‍नेन साधु कर्म समाचरेत् ॥ ३२ ॥
कर्मोंके कारण ही सब उत्पन्न होते हैं और कर्म ही उनकी शुभाशुभ गतियोंके साधन हैं । इसलिये प्रयत्नपूर्वक शुभकर्मोंका ही आचरण करना चाहिये ॥ ३२ ॥

श्रीपराशर उवाच -
इत्युक्तास्तेन ते क्रुद्धा दैत्यराजपुरोहिताः ।
कृत्यामुत्पादयामासुः ज्वालामालोज्ज्वलाकृतिम् ॥ ३३ ॥
श्रीपराशरजी बोले- उनके ऐसा कहनेपर उन दैत्यराजके पुरोहितोंने क्रोधित होकर अग्निशिखाके समान प्रज्वलित शरीरवाली कृत्या उत्पन्न कर दी ॥ ३३ ॥

अतिभीमा समागम्य पादन्यासक्षतक्षितिः ।
शुलेन साधु संक्रुद्धा तं जघानाशु वक्षसि ॥ ३४ ॥
उस अति भयंकरीने अपने पादाघातसे पृथिवीको कम्पित करते हुए वहाँ प्रकट होकर बड़े क्रोधसे प्रह्लादजीकी छातीमें त्रिशूलसे प्रहार किया ॥ ३४ ॥

तत्तस्य हृदयं प्राप्य शूलं बालस्य दीप्तिमत् ।
जगाम खण्डितं भूमौ तत्रापि शतधा गतम् ॥ ३५ ॥
किन्तु उस बालकके वक्षःस्थलमें लगते ही वह तेजोमय त्रिशूल टूटकर पृथिवीपर गिर पड़ा और वहाँ गिरनेसे भी उसके सैकड़ों टुकड़े हो गये ॥ ३५ ॥

यत्रानपायी भगवान् हृद्यास्ते हरिरिश्वरः ।
भङ्‍गो भवति वज्रस्य तत्र शूलस्य का कथा ॥ ३६ ॥
जिस हृदयमें निरन्तर अक्षुण्णभावसे श्रीहरिभगवान् विराजते हैं उसमें लगनेसे तो वज्रके भी टूक-टूक हो जाते हैं, त्रिशूलकी तो बात ही क्या है ? ॥ ३६ ॥

अपापे तत्र पापैश्च पातिता दैत्यायाजकैः ।
तानेव सा जघानाशु कृत्या नाशं जगाम च ॥ ३७ ॥
उन पापी पुरोहितोंने उस निष्पाप बालकपर कृत्याका प्रयोग किया था; इसलिये तुरन्त ही उसने उनपर वार किया और स्वयं भी नष्ट हो गयी ॥ ३७ ॥

कृत्यया दह्यमानान् तान् विलोक्य स महामतिः ।
त्राहि कृष्णेत्यनन्तेति वदन्नभ्यवपद्यत ॥ ३८ ॥
अपने गुरुओंको कृत्याद्वारा जलाये जाते देख महामति प्रह्लाद 'हे कृष्ण ! रक्षा करो ! हे अनन्त ! बचाओ !' ऐसा कहते हुए उनकी ओर दौड़े ॥ ३८ ॥

प्रह्लाद उवाच -
सर्वव्यापिन् जगद्‍रूप जगत्स्रष्टर्जनार्दन ।
पाहि विप्रानिमानस्माद् दुःसहान् मन्त्रपावकात् ॥ ३९ ॥
प्रह्लादजी कहने लगे-हे सर्वव्यापी, विश्वरूप, विश्वस्रष्टा जनार्दन ! इन ब्राह्मणोंकी इस मन्त्राग्निरूप दुःसह दुःखसे रक्षा करो ॥ ३९ ॥

यथा सर्वेषु भूतेषु सर्वव्यापी जगद्‍गुरुः ।
विष्णुरेव तथा सर्वे जीवन्त्वेते पुरोहिताः ॥ ४० ॥
"सर्वव्यापी जगद्‌गुरु भगवान् विष्णु सभी प्राणियोंमें व्याप्त हैं'-इस सत्यके प्रभावसे ये पुरोहितगण जीवित हो जायँ ॥ ४० ॥

यथा सर्वगतं विष्णुं मन्यमानोऽनपायिनम् ।
चिन्तयाम्यरिपक्षेऽपि जीवन्त्वेते पुरोहिताः ॥ ४१ ॥
यदि मैं सर्वव्यापी और अक्षय श्रीविष्णुभगवान्को अपने विपक्षियोंमें भी देखता हूँ तो ये पुरोहितगण जीवित हो जायें ॥ ४१ ॥

ये हन्तुमागता दत्तं योर्विषं यैर्हुताशनः ।
यैः दिग्गजैः अहं क्षुण्णो दष्टः सर्पैश्च यैरपि ॥ ४२ ॥
तेष्वहं मित्रभावेन समः पापोस्मि न क्वचित् ।
यथा तेनाद्य सत्येन जीवन्त्वसुरयाजकाः ॥ ४३ ॥
जो लोग मुझे मारनेके लिये आये, जिन्होंने मुझे विष दिया, जिन्होंने आगमें जलाया, जिन्होंने दिग्गजोंसे पीड़ित कराया और जिन्होंने साँसे इंसाया उन सबके प्रति यदि मैं समान मित्रभावसे रहा हूँ और मेरी कभी पाप-बुद्धि नहीं हुई तो उस सत्यके प्रभावसे ये दैत्यपुरोहित जी उठे ॥ ४२-४३ ॥

श्रीपराशर उवाच -
इत्युक्तास्तेन ते सर्वे संस्पृष्टाश्च निरामयाः ।
समुत्तस्थुर्द्विजा भूयस्तमूचुः प्रश्रयान्वितम् ॥ ४४ ॥
श्रीपराशरजी बोले-ऐसा कहकर उनके स्पर्श करते ही वे ब्राह्मण स्वस्थ होकर उठ बैठे और उस विनयावनत बालकसे कहने लगे ॥ ४४ ॥

पुरोहिता ऊचुः -
दीर्घायुरप्रतिहतो बलवीर्यसमन्वितः ।
पुत्रपौत्रधनश्वर्यैः युक्तो वत्स भवोत्तमः ॥ ४५ ॥
पुरोहितगण बोले-हे वत्स ! तू बड़ा श्रेष्ठ है । तू दीर्घायु, निर्द्वन्द्व, बल-वीर्यसम्पन्न तथा पुत्र, पौत्र एवं धन-ऐश्वर्यादिसे सम्पन्न हो ॥ ४५ ॥

श्रीपराशर उवाच -
इत्युक्त्वा तं ततो गत्वा यथावृत्तं पुरोहिताः ।
दैत्यराजाय सकलं आचचख्युर्महामुने ॥ ४६ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे महामुने ! ऐसा कह पुरोहितोंने दैत्यराज हिरण्यकशिपुके पास जा उसे सारा समाचार ज्यों-का-त्यों सुना दिया ॥ ४६ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे प्रह्लादचरितेऽष्टादशोऽध्यायः (१८)
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥



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