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॥ विष्णुपुराणम् ॥

प्रथमः अंशः

॥ एकोनविंशोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच -
हिरण्यकशिपुः श्रुत्वा तां कृत्यां वितथीकृताम् ।
आहूय पुत्रं पप्रच्छ प्रभावस्यास्य कारणम् ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हिरण्यकशिपुने कृत्याको भी विफल हुई सुन अपने पुत्र प्रह्लादको बुलाकर उनके इस प्रभावका कारण पूछा ॥ १ ॥

हिरण्यकशिपुः उवाच -
प्रह्लाद सुप्रभावोऽसि किमेतत्ते विचेष्टितम् ।
एतन्मन्त्रादिजनितमुताहो सहजं तव ॥ २ ॥
हिरण्यकशिपु बोला-अरे प्रह्लाद ! तू बड़ा प्रभावशाली है ! तेरी ये चेष्टाएँ मन्त्रादिजनित हैं या स्वाभाविक ही हैं ॥ २ ॥

श्रीपराशर उवाच -
एवं पृष्टस्तदा पित्रा प्रह्लादोऽसुरबालकः ।
प्रणिपत्य पितुः पादौ इदं वचनमब्रवीत् ॥ ३ ॥
श्रीपराशरजी बोले-पिताके इस प्रकार पूछनेपर दैत्यकुमार प्रह्लादजीने उसके चरणोंमें प्रणाम कर इस प्रकार कहा- ॥ ३ ॥

न मन्त्रादिकृतं तात न च नैसर्गिको मम ।
प्रभाव एष सामान्यो यस्य यस्याच्युतो हृदि ॥ ४ ॥
"पिताजी ! मेरा यह प्रभाव न तो मन्त्रादिजनित है और न स्वाभाविक ही है, बल्कि जिस-जिसके हृदयमें श्रीअच्युतभगवान्का निवास होता है उसके लिये यह सामान्य बात है ॥ ४ ॥

अन्येषां यो न पापानि चिन्तयत्यात्मनो यथा ।
तस्य पापागमस्तात हेत्वभावान्न विद्यते ॥ ५ ॥
जो मनुष्य अपने समान दूसरोंका बुरा नहीं सोचता, हे तात ! कोई कारण न रहनेसे उसका भी कभी बुरा नहीं होता ॥ ५ ॥

कर्मणा मनसा वाचा परपीडां करोति यः ।
तद्वीजं जन्म फलति प्रभूतं तस्य चाशुभम् ॥ ६ ॥
जो मनुष्य मन, वचन या कर्मसे दूसरोंको कष्ट देता है उसके उस परपीडारूप बीजसे ही उत्पन्न हुआ उसको अत्यन्त अशुभ फल मिलता है ॥ ६ ॥

सोऽहं न पाप मिच्छामि न करोमि वदामि वा ।
चिन्तयन् सर्वभूतस्थं आत्मन्यपि च केशवम् ॥ ७ ॥
अपने सहित समस्त प्राणियोंमें श्रीकेशवको वर्तमान समझकर मैं न तो किसीका बुरा चाहता हूँ और न कहता या करता ही हूँ ॥ ७ ॥

शारीरं मानसं दुःखं दैवं भूतभवं तथा ।
सर्वत्र शुभचित्तस्य तस्य मे जायते कुतः ॥ ८ ॥
इस प्रकार सर्वत्र शुभचित्त होनेसे मुझको शारीरिक, मानसिक, दैविक अथवा भौतिक दुःख किस प्रकार प्राप्त हो सकता है ? ॥ ८ ॥

एवं सर्वेषु भूतेषु भक्तिरव्यभिचारिणी ।
कर्तव्या पण्डितैः ज्ञात्वा सर्वभूतमयं हरिम् ॥ ९ ॥
इसी प्रकार भगवानको सर्वभूतमय जानकर विद्वानोंको सभी प्राणियोंमें अविचल भक्ति (प्रेम) करनी चाहिये" ॥ ९ ॥

श्रीपराशर उवाच -
इति श्रुत्वा स दैत्येन्द्रः प्रासादशिखरे स्थितः ।
क्रोधान्धकारितमुखः प्राह दैतेयकिङ्‍करान् ॥ १० ॥
श्रीपराशरजी बोले--अपने महलकी अट्टालिकापर बैठे हुए उस दैत्यराजने यह सुनकर क्रोधान्ध हो अपने दैत्य अनुचरोंसे कहा ॥ १० ॥

हिरण्यकशिपुः उवाच -
दुरात्मा क्षिप्यतामस्मात् प्रासादात् शतयोजनात् ।
गिरिपृष्ठे पतत्वस्मिन् शिलाभिन्नाङ्‍गसंहतिः ॥ ११ ॥
हिरण्यकशिपु बोला- यह बड़ा दुरात्मा है, इसे इस सौ योजन ऊँचे महलसे गिरा दो, जिससे यह इस पर्वतके ऊपर गिरे और शिलाओंसे इसके अंग-अंग छिन्नभिन्न हो जायँ ॥ ११ ॥

ततस्तं चिक्षुपुः सर्वे बालं दैतेयदानवाः ।
पपात सोऽप्यधः क्षिप्तो हृदयेनोद्वहन्हरिम् ॥ १२ ॥
तब उन समस्त दैत्य और दानवोंने उन्हें महलसे गिरा दिया और वे भी उनके ढकेलनेसे हृदयमें श्रीहरिका स्मरण करते-करते नीचे गिर गये ॥ १२ ॥

पतमानं जगद्धात्री जगद्धातरि केशवे ।
भक्तियुक्तं दधारैनमुपसङ्‍गम्य मेदिनी ॥ १३ ॥
जगत्कर्ता भगवान् केशवके परमभक्त प्रह्लादजीके गिरते समय उन्हें जगद्धात्री पृथिवीने निकट जाकर अपनी गोदमें ले लिया ॥ १३ ॥

ततो विलोक्य तं स्वस्थमविशिर्णस्थिपञ्जरम् ।
हिरण्यकशिपुः प्राह शम्बरं मायिनां वरम् ॥ १४ ॥
तब बिना किसी हड्डी-पसलीके टूटे उन्हें स्वस्थ देख दैत्यराज हिरण्यकशिपुने परममायावी शम्बरासुरसे कहा ॥ १४ ॥

हिरण्यकशिपुः उवाच -
नास्माभिः शक्यते हन्तुमसौ दुर्बुद्धिबालकः ।
मायां वेत्ति भवान् तस्मान् माययैनं निषूदय ॥ १५ ॥
हिरण्यकशिपु बोला- यह दुर्बुद्धि बालक कोई ऐसी माया जानता है जिससे यह हमसे नहीं मारा जा सकता, इसलिये आप मायासे ही इसे मार डालिये ॥ १५ ॥

शम्बर उवाच -
सूदयाम्येव दैत्यैन्द्र पश्य मायाबलं मम ।
सहस्रमत्र मायानां पश्य कोटिशतं तथा ॥ १६ ॥
शम्बरासुर बोला-हे दैत्येन्द्र ! इस बालकको मैं अभी मारे डालता हूँ, तुम मेरी मायाका बल देखो । देखो, मैं तुम्हें सैकड़ों-हजारों-करोड़ों मायाएँ दिखलाता हूँ ॥ १६ ॥

श्रीपराशर उवाच -
ततः स ससृजे मायां प्रह्लादे शम्बरोऽसुरः ।
विनाशमिच्छन् दुर्बुद्धिः सर्वत्र समदर्शिनि ॥ १७ ॥
श्रीपराशरजी बोले-तब उस दुर्बुद्धि शम्बरासुरने समदर्शी प्रह्लादके लिये, उनके नाशकी इच्छासे बहुतसी मायाएँ रचीं ॥ १७ ॥

समाहितमतिर्भूत्वा शम्बरेऽपि विमत्सरः ।
मैत्रेय सोऽपि प्रह्लादः सस्मार मधुसूदनम् ॥ १८ ॥
किन्तु, हे मैत्रेय ! शम्बरासुरके प्रति भी सर्वथा द्वेषहीन रहकर प्रह्लादजी सावधान चित्तसे श्रीमधुसूदनभगवान्का स्मरण करते रहे ॥ १८ ॥

श्रीपराशर उवाच -
ततो भगवता तस्य रक्षार्थं चक्रमुत्तमम् ।
आजगाम समाज्ञप्तं ज्वालामालि सुदर्शनम् ॥ १९ ॥
उस समय भगवान्की आज्ञासे उनकी रक्षाके लिये वहाँ ज्वाला-मालाओंसे युक्त सुदर्शनचक्र आ गया ॥ १९ ॥

तेन मायामहस्रं तत् शम्बरस्याशुगामिना ।
बालस्य रक्षता देहं एकैकं च विशोधितम् ॥ २० ॥
उस शीघ्रगामी सुदर्शनचक्रने उस बालककी रक्षा करते हुए शम्बरासुरकी सहस्रों मायाओंको एकएक करके नष्ट कर दिया ॥ २० ॥

संशोषकं तथा वायुं दैत्येन्द्रस्त्विदमब्रवीत् ।
शीग्रमेष ममादेशाद् दुरात्मा नीयतां क्षयम् ॥ २१ ॥
तब दैत्यराजने सबको सुखा डालनेवाले वायुसे कहा कि मेरी आज्ञासे तुम शीघ्र ही इस दुरात्माको नष्ट कर दो ॥ २१ ॥

तथेत्युक्त्वा तु सोऽप्येनं विवेश पवनो लघु ।
शीतोऽतिरुक्षः शोषाय तद्देहस्यातिदुःसहः ॥ २२ ॥
अतः उस अति तीव्र शीतल और रूक्ष वायने, जो अति असहनीय था 'जो आज्ञा' कह उनके शरीरको सुखानेके लिये उसमें प्रवेश किया ॥ २२ ॥

तेनाविष्टमथात्मानं स बुद्ध्वा दैत्यबालकः ।
हृदयेन महात्मानं दधार धरणीधरम् ॥ २३ ॥
अपने शरीरमें वायुका आवेश हुआ जान दैत्यकुमार प्रह्लादने भगवान् धरणीधरको हृदयमें धारण किया ॥ २३ ॥

हृदयस्थस्ततस्तस्य तं वायुमति भीषणम् ।
पपौ जनार्धनः क्रुद्धः स ययौ पवनः क्षयम् ॥ २४ ॥
उनके हृदयमें स्थित हुए श्रीजनार्दनने क्रुद्ध होकर उस भीषण वायुको पी लिया, इससे वह क्षीण हो गया ॥ २४ ॥

क्षीणासु सर्वमायासु पवने च क्षयं गते ।
जगाम सोऽपि भवनं कुरोरेव महामतिः ॥ २५ ॥
इस प्रकार पवन और सम्पूर्ण मायाओंके क्षीण हो जानेपर महामति प्रह्लादजी अपने गुरुके घर चले गये ॥ २५ ॥

अहन्यहन्यथाचार्यो नीतिं राज्यफलप्रदाम् ।
ग्राहयामास तं बालं राज्ञामुशनसा कृताम् ॥ २६ ॥
तदनन्तर गुरुजी उन्हें नित्यप्रति शुक्राचार्यजीकी बनायी हुई राज्यफलप्रदायिनी राजनीतिका अध्ययन कराने लगे ॥ २६ ॥

गृहीतनीतिशास्त्रं तं विनीतं च यदा गुरुः ।
मेने तदैनं तत्पित्रे कथयामास शिक्षितम् ॥ २७ ॥
जब गुरुजीने उन्हें नीतिशास्त्रमें निपुण और विनयसम्पन्न देखा तो उनके पितासे कहा-'अब यह सुशिक्षित हो गया है' ॥ २७ ॥

आचार्य उवाच -
गृहीतनीतिशास्त्रस्ते पुत्रो दैत्यपते कृतः ।
प्रह्लादस्तत्त्वतो वेत्ति भार्गवेण यदीरितम् ॥ २८ ॥
आचार्य बोले-हे दैत्यराज ! अब हमने तुम्हारे पुत्रको नीतिशास्त्रमें पूर्णतया निपुण कर दिया है, भृगुनन्दन शुक्राचार्यजीने जो कुछ कहा है उसे प्रह्लाद तत्त्वत: जानता है ॥ २८ ॥

हिरण्यकशिपुः उवाच -
मित्रेषु वर्तेत कथमरिवर्गेषु भूपतिः ।
प्रह्लाद त्रिषु लोकेषु मध्यस्थेषु कथं चरेत् ॥ २९ ॥
हिरण्यकशिप बोला–प्रह्लाद ! [यह तो बता] राजाको मित्रोंसे कैसा बर्ताव करना चाहिये ? और शत्रुओंसे कैसा ? तथा त्रिलोकीमें जो मध्यस्थ (दोनों पक्षोंके हितचिन्तक) हों, उनसे किस प्रकार आचरण करे ? ॥ २९ ॥

कथं मन्त्रिष्वमात्येषु बाह्योष्वाभ्यन्तरेषु च ।
चारेषु पौरवर्गेषु शंकितेष्वितरेषु च ॥ ३० ॥
मन्त्रियों, अमात्यों, बाह्य और अन्त:पुरके सेवकों, गुप्तचरों, पुरवासियों, शंकितों (जिन्हें जीतकर बलात् दास बना लिया हो) तथा अन्यान्य जनोंके प्रति किस प्रकार व्यवहार करना चाहिये ? ॥ ३० ॥

कृत्याकृत्यविधानञ्च दुर्गाटविकसाधनम् ।
प्रह्लाद कथ्यतां सम्यक् तथा कण्टकशोधनम् ॥ ३१ ॥
हे प्रह्लाद ! यह ठीक-ठीक बता कि करने और न करनेयोग्य कार्योंका विधान किस प्रकार करे, दुर्ग और आटविक (जंगली मनुष्य) आदिको किस प्रकार वशीभूत करे और गुप्त शत्रुरूप काँटेको कैसे निकाले ? ॥ ३१ ॥

एतच्चान्यच्च सकलमधीतं भवता यथा ।
तथा मे कथ्यतां ज्ञातुं तवेच्छामि मनोगतम् ॥ ३२ ॥
यह सब तथा और भी जो कुछ तूने पढ़ा हो वह सब मुझे सुना, मैं तेरे मनके भावोंको जाननेके लिये बहुत उत्सुक हूँ ॥ ३२ ॥

श्रीपराशर उवाच -
प्रणिपत्य पितुः पादौ तदा प्रश्रयभूषणः ।
प्रह्लादः प्राह दैत्येन्द्रं कृताञ्जलिपुटस्तथा ॥ ३३ ॥
श्रीपराशरजी बोले-तब विनयभूषण प्रह्लादजीने पिताके चरणों में प्रणाम कर दैत्यराज हिरण्यकशिपुसे हाथ जोड़कर कहा ॥ ३३ ॥

प्रह्लाद उवाच -
ममोपदिष्टं सकलं गुरुणा नात्र संशयः ।
गृहीतन्तु मया किन्तु न सदेतन्मतं मम ॥ ३४ ॥
प्रह्लादजी बोले-पिताजी ! इसमें सन्देह नहीं, गुरुजीने तो मुझे इन सभी विषयोंकी शिक्षा दी है, और मैं उन्हें समझ भी गया हूँ; परन्तु मेरा विचार है कि वे नीतियाँ अच्छी नहीं हैं ॥ ३४ ॥

साम चोपप्रदानं च भेददण्डौ तथापरौ ।
उपायाः कथिताः सर्वे मित्रादिनां च साधने ॥ ३५ ॥
साम, दान तथा दण्ड और भेद ये सब उपाय मित्रादिके साधनेके लिये बतलाये गये हैं ॥ ३५ ॥

तानेवाहं न पश्यामि मित्रादींस्तात मा क्रुद्धः ।
साध्याभावे महाबाहो साधनैः किं प्रयोजनम् ॥ ३६ ॥
किन्तु, पिताजी ! आप क्रोध न करें, मुझे तो कोई शत्रु-मित्र आदि दिखायी ही नहीं देते; और हे महाबाहो ! जब कोई साध्य ही नहीं है तो इन साधनोंसे लेना ही क्या है ? ॥ ३६ ॥

सर्वभूतात्मके तात जगन्नाथे जगन्मये ।
परमात्मनि गोविन्दे मित्रामित्रकथा कुतः ॥ ३७ ॥
हे तात ! सर्वभूतात्मक जगन्नाथ जगन्मय परमात्मा गोविन्दमें भला शत्रु-मित्रकी बात ही कहाँ है ? ॥ ३७ ॥

त्वाय्यस्ति भगवान् विष्णुः मयि चान्यत्र चास्ति सः ।
यतस्ततोऽयं मित्रं मे शत्रुश्चेति पृथक्कुतः ॥ ३८ ॥
श्रीविष्णुभगवान् तो आपमें, मुझमें और अन्यत्र भी सभी जगह वर्तमान हैं, फिर 'यह मेरा मित्र है और यह शत्रु है' ऐसे भेदभावको स्थान ही कहाँ है ? ॥ ३८ ॥

तदेभिरलमत्यर्थं दुष्टारम्भोक्तिविस्तरैः ।
अविद्यान्तर्गतैः यत्‍नः कर्तव्यस्तात शोभेने ॥ ३९ ॥
इसलिये, हे तात ! अविद्याजन्य दुष्कर्मों में प्रवृत्त करनेवाले इस वाग्जालको सर्वथा छोड़कर अपने शुभके लिये ही यत्न करना चाहिये ॥ ३९ ॥

विद्याबुद्धिरविद्यायामज्ञानात्तात जायते ।
बालोऽग्निं किं न खद्योतमसुरेश्वर मन्यते ॥ ४० ॥
हे दैत्यराज ! अज्ञानके कारण ही मनुष्योंकी अविद्यामें विद्या-बुद्धि होती है । बालक क्या अज्ञानवश खद्योतको ही अग्नि नहीं समझ लेता ? ॥ ४० ॥

तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये ।
आयासायापरं कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम् ॥ ४१ ॥
कर्म वही है जो बन्धनका कारण न हो और विद्या भी वही है जो मुक्तिकी साधिका हो । इसके अतिरिक्त और कर्म तो परिश्रमरूप तथा अन्य विद्याएँ कला-कौशलमात्र ही हैं ॥ ४१ ॥

तदेतद् अवगम्याहमसारं सारमुत्तमम् ।
निशामय महाभाग प्रणिपत्य ब्रवीमि ते ॥ ४२ ॥
हे महाभाग ! इस प्रकार इन सबको असार समझकर अब आपको प्रणाम कर मैं उत्तम सार बतलाता हँ, आप श्रवण कीजिये ॥ ४२ ॥

न चिन्तयति को राज्यं को धनं नाभिवाञ्छति ।
तथापि भाव्यमेवैतद् उभयं प्राप्यते नरैः ॥ ४३ ॥
राज्य पानेकी चिन्ता किसे नहीं होती और धनकी अभिलाषा भी किसको नहीं है ? तथापि ये दोनों मिलते उन्हींको हैं जिन्हें मिलनेवाले होते हैं ॥ ४३ ॥

सर्व एव महाभाग महत्त्वं प्रति सोद्यमाः ।
तथापि पुंसां भग्यानि नोद्यमा भूतिहेतवः ॥ ४४ ॥
हे महाभाग ! महत्त्व-प्राप्तिके लिये सभी यत्न करते हैं, तथापि वैभवका कारण तो मनुष्यका भाग्य ही है, उद्यम नहीं ॥ ४४ ॥

जडानामविवेकानामशूराणामपि प्रभो ।
भाग्यभोज्यानि राज्यानि सन्त्यनीतिमतामपि ॥ ४५ ॥
हे प्रभो ! जड, अविवेकी, निर्बल और अनीतिज्ञोंको भी भाग्यवश नाना प्रकारके भोग और राज्यादि प्राप्त होते हैं ॥ ४५ ॥

तस्माद्यतेत पुण्येषु य इच्छेन्महतीं श्रियम् ।
यतितव्यं समत्वे च निर्वाणमपि चेच्छता ॥ ४६ ॥
इसलिये जिसे महान् वैभवकी इच्छा हो उसे केवल पुण्यसंचयका ही यत्न करना चाहिये; और जिसे मोक्षकी इच्छा हो उसे भी समत्वलाभका ही प्रयत्न करना चाहिये ॥ ४६ ॥

देवा मनुष्याः पशवः पक्षिवृक्षसरीसृपाः ।
रूपमेतद् अनन्तस्य विष्णोः भिन्नमिव स्थितम् ॥ ४७ ॥
देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष और सरीसृप-ये सब भगवान् विष्णुसे भिन्न-से स्थित हुए भी वास्तवमें श्रीअनन्तके ही रूप हैं ॥ ४७ ॥

एतद्विजानता सर्वं जगत्स्थावरजङ्‍गमम् ।
द्रष्टव्यमात्मवद्विष्णुः यतोऽयं विश्वरूपधृक् ॥ ४८ ॥
इस बातको जाननेवाला पुरुष सम्पूर्ण चराचर जगत्को आत्मवत् देखे, क्योंकि यह सब विश्व-रूपधारी भगवान् विष्णु ही हैं ॥ ४८ ॥

एवं ज्ञाते स भगवान् अनादिः परमेश्वरः ।
प्रसीदत्यच्युतस्तस्मिन् प्रसन्ने क्लेशसंक्षयः ॥ ४९ ॥
ऐसा जान लेनेपर वे अनादि परमेश्वर भगवान् अच्युत प्रसन्न होते हैं और उनके प्रसन्न होनेपर सभी क्लेश क्षीण हो जाते हैं ॥ ४९ ॥

श्रीपराशर उवाच -
एतच्छ्रुत्वा तु कोपेन समुत्थाय वरासनात् ।
हिरण्यकशिपुः पुत्रं पदा वक्षस्यताडयत् ॥ ५० ॥
श्रीपराशरजी बोले-यह सुनकर हिरण्यकशिपुने क्रोधपूर्वक अपने राजसिंहासनसे उठकर पुत्र प्रह्लादके वक्षःस्थलमें लात मारी ॥ ५० ॥

उवाच च स कोपेन सामर्षः प्रज्यलन्निव ।
निष्पिष्य पाणिना पिणिं हन्तुकामो जगद्यथा ॥ ५१ ॥
और क्रोध तथा अमर्षसे जलते हुए मानो सम्पूर्ण संसारको मार डालेगा इस प्रकार हाथ मलता हुआ बोला ॥ ५१ ॥

हिरण्यकशिपुः उवाच -
हे विप्रचित्ते हे राहो हे बलैष महार्णवे ।
नागापाशैः दृढैः बद्ध्वा क्षिप्यतां मा विलम्ब्यताम् ॥ ५२ ॥
हिरण्यकशिपुने कहा-हे विप्रचित्ते ! हे राहो ! हे बल ! तमलोग इसे भली प्रकार नागपाशसे बाँधकर महासागरमें डाल दो, देरी मत करो ॥ ५२ ॥

अन्यथा सकला लोकास्तथा दैतेयदानवाः ।
अनुयास्यन्ति मूढस्य मतमस्य दुरात्मनः ॥ ५३ ॥
नहीं तो सम्पूर्ण लोक और दैत्य-दानव आदि भी इस मूढ दुरात्माके मतका ही अनुगमन करेंगे [ अर्थात् इसकी तरह वे भी विष्णुभक्त हो जायँगे ] ॥ ५३ ॥

बहुशो वारितोऽस्माभिः अयं पापस्तथाप्यरेः ।
स्तुतिं करोति दुष्टानां वध एवोपकारकः ॥ ५४ ॥
हमने इसे बहुतेरा रोका, तथापि यह दुष्ट शत्रुकी ही स्तुति किये जाता है । ठीक है, दुष्टोंको तो मार देना ही लाभदायक होता है ॥ ५४ ॥

पराशर उवाच -
ततस्ते सत्वरा दैत्या बद्ध्वा तं नागबन्धनैः ।
भर्तुराज्ञां पुरस्कृत्य चिक्षिपुः सलिलार्णवे ॥ ५५ ॥
श्रीपराशरजी बोले- तब उन दैत्योंने अपने स्वामीकी आज्ञाको शिरोधार्य कर तुरन्त ही उन्हें नागपाशसे बाँधकर समुद्रमें डाल दिया ॥ ५५ ॥

ततश्चचाल चलता प्रह्लादेन महार्णवः ।
उद्वेलोऽभूत्परं क्षोभमुपेत्य च समन्ततः ॥ ५६ ॥
उस समय प्रह्लादजीके हिलने-डुलनेसे सम्पूर्ण महासागर में हलचल मच गयी और अत्यन्त क्षोभके कारण उसमें सब ओर ऊँची-ऊँची लहरें उठने लगीं ॥ ५६ ॥

भुर्लोकमखिलं दृष्ट्‌वा प्लाव्यमानं महाम्भसा ।
हिरण्यकशिपुर्दैत्यान् इदमाह महामते ॥ ५७ ॥
हे महामते ! उस महान् जल-पूरसे सम्पूर्ण पृथिवीको डूबती देख हिरण्यकशिपुने दैत्योंसे इस प्रकार कहा ॥ ५७ ॥

हिरण्यकशिपुः उवाच -
दैतेयाः सकलैः शैलैः अत्रैव वरुणालये ।
निश्छिद्रैः सर्वशः सर्वैश्चीयतामेष दुर्मतिः ॥ ५८ ॥
हिरण्यकशिपु बोला-अरे दैत्यो ! तुम इस दुर्मतिको इस समुद्रके भीतर ही किसी ओरसे खुला न रखकर सब ओरसे सम्पूर्ण पर्वतोंसे दबा दो ॥ ५८ ॥

नाग्निर्दहति नैवायं शस्त्रैश्छिन्नो न चोरगैः ।
क्षयं नीतो न वातेन न विषेण न कृत्यया ॥ ५९ ॥
न मायाभिः न चैवोच्चात् पातितो न च दिग्गजैः ।
बालोऽतिदुष्टचित्तोयं नानेनार्थोऽस्ति जीवता ॥ ६० ॥
देखो, इसे न तो अग्निने जलाया, न यह शस्त्रोंसे कटा, न सोसे नष्ट हुआ और न वायु, विष और कृत्यासे ही क्षीण हुआ, तथा न यह मायाओंसे, ऊपरसे गिरानेसे अथवा दिग्गजोंसे ही मारा गया । यह बालक अत्यन्त दुष्ट-चित्त है, अब इसके जीवनका कोई प्रयोजन नहीं है ॥ ५९-६० ॥

तदेष तोयमध्ये तु समाक्रान्तो महीधरैः ।
तिष्ठत्वब्दसहस्रान्तं प्राणान् हास्यति दुर्मतिः ॥ ६१ ॥
अतः अब यह पर्वतोंसे लदा हआ हजारों वर्षतक जलमें ही पड़ा रहे, इससे यह दुर्मति स्वयं ही प्राण छोड़ देगा ॥ ६१ ॥

ततो दैत्या दानवाश्च पर्वतैस्तं महोदधौ ।
आक्रम्य चयनं चक्रुः योजनानि सहस्रशः ॥ ६२ ॥
तब दैत्य और दानवोंने उसे समुद्रमें ही पर्वतोंसे ढंककर उसके ऊपर हजारों योजनका ढेर कर दिया ॥ ६२ ॥

स चितः पर्वतेरन्तः समुद्रस्य महामतिः ।
तुष्टावाह्निक वेलायां एकाग्रमतिरच्युतम् ॥ ६३ ॥
उन महामतिने समुद्रमें पर्वतोंसे लाद दिये जानेपर अपने नित्यकर्मोंके समय एकाग्रचित्तसे श्रीअच्युतभगवान्की इस प्रकार स्तुति की ॥ ६३ ॥

प्रह्लाद उवाच -
नमस्ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते पुरुषोत्तम ।
नमस्ते सर्वलोकात्मन् नमस्ते तिग्मचक्रिणे ॥ ६४ ॥
प्रह्लादजी बोले-हे कमलनयन ! आपको नमस्कार है । हे पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है । हे सर्वलोकात्मन् ! आपको नमस्कार है । हे तीक्ष्णचक्रधारी प्रभो ! आपको बारम्बार नमस्कार है ॥ ६४ ॥

नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च ।
जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमोनमः ॥ ६५ ॥
गो-ब्राह्मण-हितकारी ब्रह्मण्यदेव भगवान् कृष्णको नमस्कार है । जगत्हितकारी श्रीगोविन्दको बारम्बार नमस्कार है ॥ ६५ ॥

ब्रह्मत्वे सृजते विश्वं स्थितौ पालयते पुनः ।
रुद्ररूपाय कल्पान्ते नमस्तुभ्यं त्रिमूर्तये ॥ ६६ ॥
आप ब्रह्मारूपसे विश्वकी रचना करते हैं, फिर उसके स्थित हो जानेपर विष्णुरूपसे पालन करते हैं और अन्तमें रुद्ररूपसे संहार करते हैं-ऐसे त्रिमूर्तिधारी आपको नमस्कार है ॥ ६६ ॥

देवा यक्षाः सुराः सिद्धा नागा गन्धर्वकिन्नराः ।
पिशाचा राक्षसाश्चैव मनुष्याः पशवस्तथा ॥ ६७ ॥
पक्षिणस्थावराश्चैव पिपीलिकसरीसृपाः ।
भूम्यापोऽग्निर्नभो वायुः शब्दः स्पर्शस्तथा रसः ॥ ६८ ॥
रूपं गन्धो मनो बुद्धिः आत्मा कालस्तथा गुणाः ।
एतेषां परमार्थश्च सर्वमेतत्त्वमच्युत ॥ ६९ ॥
हे अच्युत ! देव, यक्ष, असुर, सिद्ध, नाग, गन्धर्व, किन्नर, पिशाच, राक्षस, मनुष्य, पशु, पक्षी, स्थावर, पिपीलिका (चींटी), सरीसृप, पृथिवी, जल, अग्नि, आकाश, वायु, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, मन, बुद्धि, आत्मा, काल और गुण-इन सबके पारमार्थिक रूप आप ही हैं, वास्तवमें आप ही ये सब हैं ॥ ६७-६९ ॥

विद्याविद्ये भवान्सत्यमसत्यं त्वं विषामृते ।
प्रवृत्तं च निवृत्तं च कर्म वेदोदितं भवान् ॥ ७० ॥
आप ही विद्या और अविद्या, सत्य और असत्य तथा विष और अमृत हैं तथा आप ही वेदोक्त प्रवत्त और निवत्त कर्म हैं ॥ ७० ॥

समस्तकर्मभोक्ता च कर्मोपकरणानि च ।
त्वमेव विष्णो सर्वाणि सर्वकर्मफलं च यत् ॥ ७१ ॥
हे विष्णो ! आप ही समस्त कर्मोंके भोक्ता और उनकी सामग्री हैं तथा सर्व कर्मोंके जितने भी फल हैं वे सब भी आप ही हैं ॥ ७१ ॥

मय्यन्यत्र तथान्येषु भूतेषु भुवनेषु च ।
तवैवाव्याप्तिरैश्वर्य गुणसंसूचिकी प्रभो ॥ ७२ ॥
हे प्रभो ! मुझमें तथा अन्यत्र समस्त भूतों और भवनोंमें आपहीके गुण और ऐश्वर्यकी सूचिका व्याप्ति हो रही है ॥ ७२ ॥

त्वां योगिनश्चिन्तयन्ति त्वां यजन्ति च याजकाः ।
हव्यकव्यभुगेकस्त्वं पितृदेवस्वरूपधृक् ॥ ७३ ॥
योगिगण आपहीका ध्यान धरते हैं और याज्ञिकगण आपहीका यजन करते हैं, तथा पितृगण और देवगणके रूपसे एक आप ही हव्य और कव्यके भोक्ता हैं । ७३ ॥

रूपं महत्ते स्थितमत्र विश्वं
     ततश्च सूक्ष्मं जगदेतदीश ।
रूपामि सर्वाणि च भूतभेदाः
     तेष्वन्तरात्माख्यमतीव सूक्ष्मम् ॥ ७४ ॥
हे ईश ! यह निखिल ब्रह्माण्ड ही आपका स्थूल रूप है, उससे सूक्ष्म यह संसार (पृथिवीमण्डल) है, उससे भी सूक्ष्म ये भिन्न-भिन्न रूपधारी समस्त प्राणी हैं; उनमें भी जो अन्तरात्मा है वह और भी अत्यन्त सूक्ष्म है ॥ ७४ ॥

तस्माच्च सूक्ष्मादिविशेषणानां
     अगोचरे यत्परमात्मरूपम् ।
किमप्यचिन्त्यं तव रूपमस्ति
     तस्मै नमस्ते पुरुषोत्तमाय ॥ ७५ ॥
उससे भी परे जो सूक्ष्म आदि विशेषणोंका अविषय आपका कोई अचिन्त्य परमात्मस्वरूप है उन पुरुषोत्तमरूप आपको नमस्कार है ॥ ७५ ॥

सर्वभूतेषु सर्वात्मन् या शक्तिरपरा तव ।
गुणाश्रया नमस्तस्यै शाश्वतायै सुरेश्वर ॥ ७६ ॥
हे सर्वात्मन् ! समस्त भूतोंमें आपकी जो गुणाश्रया पराशक्ति है, हे सुरेश्वर ! उस नित्यस्वरूपिणीको नमस्कार है ॥ ७६ ॥

यातीतगोचरा वाचां मनसां चाविशेषणा ।
ज्ञानिज्ञानपरिच्छेद्या तां वन्दे स्वेश्वरीं पराम् ॥ ७७ ॥
जो वाणी और मनके परे है, विशेषणरहित तथा ज्ञानियोंके ज्ञानसे परिच्छेद्य है उस स्वतन्त्रा पराशक्तिकी मैं वन्दना करता हूँ ॥ ७७ ॥

ॐ नमो वासुदेवाय तस्मै भगवते सदा ।
व्यतिरिक्तं न यस्यास्ति व्यतिरिक्तोऽखिलस्य यः ॥ ७८ ॥
ॐ उन भगवान् वासुदेवको सदा नमस्कार है, जिनसे अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है तथा जो स्वयं सबसे अतिरिक्त (असंग) हैं ॥ ७८ ॥

नमस्तस्मै नमस्तस्मै नमस्तस्मै महात्मने ।
नाम रूपं न यस्यैको योस्तित्वेनोपलभ्यते ॥ ७९ ॥
जिनका कोई भी नाम अथवा रूप नहीं है और जो अपनी सत्तामात्रसे ही उपलब्ध होते हैं उन महात्माको नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार है ॥ ७९ ॥

यस्यावताररूपाणि समर्चन्ति दिवौकसः ।
अपश्यन्तः परं रूपं नमस्तस्मै महात्मने ॥ ८० ॥
जिनके पर स्वरूपको न जानते हुए ही देवतागण उनके अवतारशरीरोंका सम्यक् अर्चन करते हैं उन महात्माको नमस्कार है ॥ ८० ॥

य्ॐतस्तिष्ठन्नशेषस्य पश्यतीशः शुभाशुभम् ।
तं सर्वसाक्षिणं विश्वं नमस्ये परमेश्वरम् ॥ ८१ ॥
जो ईश्वर सबके अन्तःकरणोंमें स्थित होकर उनके शुभाशुभ कर्मोंको देखते हैं उन सर्वसाक्षी विश्वरूप परमेश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ८१ ॥

नमोस्तु विष्णवे तस्मै यस्या भिन्नमिदं जगत् ।
ध्येयः स जगतामाद्यः स प्रसीदतु मेऽव्ययः ॥ ८२ ॥
जिनसे यह जगत् सर्वथा अभिन्न है उन श्रीविष्णुभगवान्को नमस्कार है, वे जगत्के आदिकारण और योगियोंके ध्येय अव्यय हरि मझपर प्रसन्न हों ॥ ८२ ॥

यत्रोतमेतत्प्रोतं च विश्वमक्षरमव्ययम् ।
आधारभूतः सर्वस्य स प्रसीदतु मे हरिः ॥ ८३ ॥
जिनमें यह सम्पूर्ण विश्व ओतप्रोत है वे अक्षर, अव्यय और सबके आधारभूत हरि मुझपर प्रसन्न हों ॥ ८३ ॥

ॐ नमो विष्णवे तस्मै नमस्तस्मै पुनः पुनः ।
यत्र सर्वं यतः सर्वं यः सर्वं सर्वसंश्रयः ॥ ८४ ॥
ॐ जिनमें सब कुछ स्थित है, जिनसे सब उत्पन्न हुआ है और जो स्वयं सब कुछ तथा सबके आधार हैं, उन श्रीविष्णुभगवान्को नमस्कार है, उन्हें बारम्बार नमस्कार है ॥ ८४ ॥

सर्वगत्वादनन्तस्य स एवाहमवस्थितः ।
मत्तः सर्वमहं सर्वं मयि सर्वं सनातने ॥ ८५ ॥
भगवान् अनन्त सर्वगामी हैं; अत: वे ही मेरे रूपसे स्थित हैं, इसलिये यह सम्पूर्ण जगत् मुझहीसे हुआ है, मैं ही यह सब कुछ हूँ और मुझ सनातनमें ही यह सब स्थित है ॥ ८५ ॥

अहमेवाक्षयो नित्यः परमात्मात्मसंश्रयः ।
ब्रह्मसंज्ञोऽहमेवाग्रे तथान्ते च परः पुमान् ॥ ८६ ॥
मैं ही अक्षय, नित्य और आत्माधार परमात्मा हूँ; तथा मैं ही जगत्के आदि और अन्तमें स्थित ब्रह्मसंज्ञक परमपुरुष हूँ ॥ ८६ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंश एकोनविंशोऽध्यायः (१९)
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे एकोनविंशतितमोऽध्यायः ॥ १९ ॥



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