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॥ विष्णुपुराणम् ॥

द्वितीयः अंशः

॥ तृतीयोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् ।
वर्षं तद्‍भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! जो समुद्रके उत्तर तथा हिमालयके दक्षिणमें स्थित है वह देश भारतवर्ष कहलाता है । उसमें भरतकी सन्तान बसी हुई है ॥ १ ॥

नवयोजनसाहस्रो विस्तारोऽस्य महामुने ।
कर्मभूमिरियं स्वर्गमपवर्गं च गच्छताम् ॥ २ ॥
हे महामुने ! इसका विस्तार नौ हजार योजन है । यह स्वर्ग और अपवर्ग प्राप्त करनेवालोंकी कर्मभूमि है ॥ २ ॥

महेन्द्रो मलयः सह्यः शुक्तिमानृक्षपर्वतः ।
विन्ध्यश्च पारीयात्रश्च सप्तात्र कुलपर्वताः ॥ ३ ॥
इसमें महेन्द्र, मलय, सहा, शुक्तिमान् , ऋक्ष, विन्ध्य और पारियात्र-ये सात कुलपर्वत हैं ॥ ३ ॥

अतः सम्प्राप्यते स्वर्गो मुक्तिमस्मात्प्रयान्ति वै ।
तिर्यक्त्वं नरकं चापि यान्त्यतः पुरुषा मुने ॥ ४ ॥
हे मुने ! इसी देशमें मनुष्य शुभकर्मोद्वारा स्वर्ग अथवा मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं और यहींसे [पाप-कर्मों में प्रवृत्त होनेपर] वे नरक अथवा तिर्यग्योनिमें पड़ते हैं ॥ ४ ॥

इतः स्वर्गश्च मोक्षश्च मध्यं चान्तश्च गम्यते ।
न खल्वन्यत्र मर्त्यानां कर्म भूमौ विधीयते ॥ ५ ॥
यहींसे [कर्मानुसार] स्वर्ग, मोक्ष, अन्तरिक्ष अथवा पाताल आदि लोकोंको प्राप्त किया जा सकता है, पृथिवीमें यहाँके सिवा और कहीं भी मनुष्यके लिये कर्मकी विधि नहीं है ॥ ५ ॥

भारतस्यास्य वर्षस्य नवभेदान्निशामय ।
इद्रद्वीपः कसेरुश्च ताम्रपर्णां गभस्तिमान् ॥ ६ ॥
नागद्वीपस्तथा सौम्यो गन्धर्वस्त्वथ वारुणः ।
अयं तु नवमस्तेषां द्वीपः सागारसंवृतः ॥ ७ ॥
इस भारतवर्षके नौ भाग हैं; उनके नाम ये हैंइन्द्रद्वीप, कसेरु, ताम्रपर्ण, गभस्तिमान् , नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व और वारुण तथा यह समुद्रसे घिरा हुआ द्वीप उनमें नवाँ है ॥ ६-७ ॥

योजनानां सहस्रं तु द्वीपोऽयं दक्षिणोत्तरात् ।
पूर्वे किराता यस्यान्ते पश्चिमे यवनाः स्थिताः ॥ ८ ॥
यह द्वीप उत्तरसे दक्षिणतक सहस योजन है । इसके पूर्वीय भागमें किरातलोग और पश्चिमीवमें यवन बसे हुए हैं ॥ ८ ॥

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या मध्ये शूद्राश्च भागशः ।
इज्यायुधवणिज्याद्यैर्वर्तयन्तो व्यवस्थिताः ॥ ९ ॥
तथा यज्ञ, युद्ध और व्यापार आदि अपने अपने कर्मोको व्यवस्थाके अनुसार आचरण करते हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रगण वर्णविभागानुसार मध्यमें रहते हैं ॥ ९ ॥

शतद्रूचन्द्रभागाद्या हिमवत्पादनिर्गताः ।
वेदस्मृतिमुखाद्याश्च पारीयात्रोद्‍भवा मुने ॥ १० ॥
नर्मदा सुरसाद्याश्च नद्यो विन्ध्याद्रिनिर्गताः ।
तापीपयोष्णीनिर्विन्ध्याप्रमुखा ऋक्षसम्भवाः ॥ ११ ॥
हे मुने ! इसकी शतदू और चन्द्रभागा आदि नदियाँ हिमालयकी तलैटीसे वेद और स्मृति आदि पारियात्र पर्वतसे, नर्मदा और सुरसा आदि विन्ध्याचलसे तथा तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या आदि ऋक्षगिरिसे निकली हैं ॥ १०-११ ॥

गोदावरी भीमरथी कृष्णवेण्यादिकास्तथा ।
सह्यपादोद्‍भवा नद्यः स्मृताः पापभयापहाः ॥ १२ ॥
गोदावरी, भीमरथी और कृष्णवेणी आदि पापहारिणी नदियाँ सह्यपर्वतसे उत्पन्न हुई कही जाती हैं ॥ १२ ॥

कृतमाला ताम्रपर्णिप्रमुखा मलयोद्‍भवाः ।
त्रिसामा चार्यकुल्याद्या महेन्द्रप्रभवाः स्मृताः ॥ १३ ॥
ऋषिकुल्याकुमाराद्याः शुक्तिमत्पादसम्भवाः ।
आसां नद्युपनद्यश्च सन्त्यन्याश्च सहस्रशः ॥ १४ ॥
कृतमाला और ताम्रपर्णी आदि मलयाचलसे, त्रिसामा और आर्यकुल्या आदि महेन्द्रगिरिसे तथा ऋषिकुल्या और कुमारी आदि नदियाँ शक्तिमान् पर्वतसे निकली हैं । इनकी और भी सहस्रों शाखा नदियाँ और उपनदियाँ हैं ॥ १३-१४ ॥

तास्विमे कुरुपाञ्चाला मध्यदेशादयो जनाः ।
पूर्वदेशादिकाश्चैव कामरूपनिवासिनः ॥ १५ ॥
पुण्ड्राः कलिङ्‍गा मगधा दक्षिणाद्याश्च सर्वशः ।
तथापरान्ताः सौराष्ट्राः शूराभीरास्तथार्बुदाः ॥ १६ ॥
कारूषा मालवाश्चैव पारियात्रनिवासिनः ।
सौवीराः सैन्धवा हूणाः साल्वाः कोशलवासिनाः ।
माद्रारामास्तथाम्बष्ठाः पारसीकादयस्तथा ॥ १७ ॥
इन नदियोंके तटपर कुरु, पांचाल और मध्यदेशादिके रहनेवाले, पूर्वदेश और कामरूपके निवासी, पुण्ड्र कलिंग, मगध और दाक्षिणात्यलोग, अपरान्तदेशवासी, सौराष्ट्रगण तथा शूर, आभीर और अर्बुदगण, कारूष, मालव और पारियात्रनिवासी, सौवीर, सैन्धव, हूण, साल्व और कोशल-देशवासी तथा माद्र, आराम, अम्बष्ठ और पारसीगण रहते हैं ॥ १५-१७ ॥

आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सहिताः सदा ।
समीपतो महाभाग हृष्टपुष्टजनाकुलाः ॥ १८ ॥
हे महाभाग । वे लोग सदा आपसमें मिलकर रहते हैं और इन्हींका जल पान करते हैं । इनकी सन्निधिके कारण वे बड़े हष्ट-पुष्ट रहते हैं ॥ १८ ॥

चत्वारि भारते वर्षे युगान्यत्र महामुने ।
कृतं त्रेता द्वापरञ्च कलिश्चान्यत्र न क्वचित् ॥ १९ ॥
हे मुने ! इस भारतवर्षमें ही सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलि नामक चार युग हैं, अन्यत्र कहीं नहीं ॥ १९ ॥

तपस्तप्यन्ति मुनयो जुह्वते चात्र यज्विनः ।
दानानि चात्र दीयन्ते परलोकार्थमादरात् ॥ २० ॥
इस देशमें परलोकके लिये मुनिजन तपस्या करते हैं, याज्ञिकलोग यज्ञानुष्ठान करते हैं और दानीजन आदरपूर्वक दान देते हैं ॥ २० ॥

पुरुषैर्यज्ञपुरुषो जम्बूद्वीपे सदेज्यते ।
यज्ञैर्यज्ञमयो विष्णुरन्यद्वीपेषु चान्यथा ॥ २१ ॥
जम्बूद्वीपमें यज्ञमय यज्ञपुरुष भगवान् विष्णुका सदा यज्ञोंद्वारा यजन किया जाता है, इसके अतिरिक्त अन्य द्वीपोंमें उनकी और-और प्रकारसे उपासना होती है ॥ २१ ॥

अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपे महामुने ।
यतो हि कर्मभूरेषा ह्यतोऽन्या भोगभूमयः ॥ २२ ॥
हे महामुने ! इस जम्बूद्वीपमें भी भारतवर्ष सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि यह कर्मभूमि है इसके अतिरिक्त अन्यान्य देश भोग-भूमियाँ हैं ॥ २२ ॥

अत्र जन्मसहस्राणां सहस्रैरपि सत्तम ।
कदाचिल्लभते जन्तुर्मानुष्यं पुण्यसञ्चयात् ॥ २३ ॥
हे सत्तम ! जीवको सहस्रों जन्मोंके अनन्तर महान् पुण्योंका उदय होनेपर ही कभी इस देशमें मनुष्य-जन्म प्राप्त होता है ॥ २३ ॥

गायन्ति देवाः किल गीतकानि
    धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे ।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते
    भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ॥ २४ ॥
देवगण भी निरन्तर यही गान करते हैं कि 'जिन्होंने स्वर्ग और अपवर्गके मार्गभूत भारतवर्षमें जन्म लिया है वे पुरुष हम देवताओंकी अपेक्षा भी अधिक धन्य (बड़भागी) हैं ॥ २४ ॥

कर्माण्यसंकल्पिततत्फलानि
    संन्यस्य विष्णो परमात्म्भूते ।
अवाप्य तां कर्ममहीमनन्ते
    तस्मिंल्लयं ये त्वमलाः प्रयान्ति ॥ २५ ॥
जो लोग इस कर्मभूमिमें जन्म लेकर अपने फलाकांक्षासे रहित कर्मोंको परमात्म-स्वरूप श्रीविष्णुभगवान्को अर्पण करनेसे निर्मल (पापपुण्यसे रहित) होकर उन अनन्तमें ही लीन हो जाते हैं [वे धन्य हैं । ] ॥ २५ ॥

जानीम नैतत् क्व वयं विलीने
    स्वर्गप्रदे कर्मणि देहबन्धम् ।
प्राप्स्याम धन्याः खलु ते मनुष्या
    ये भारते नेन्द्रियविप्रहीनाः ॥ २६ ॥
'पता नहीं, अपने स्वर्गप्रदकर्मोका क्षय होनेपर हम कहाँ जन्म ग्रहण करेंगे ! धन्य तो वे ही मनुष्य हैं जो भारतभूमिमें उत्पन होकर इन्द्रियोंकी शक्तिसे हीन नहीं हुए हैं' ॥ २६ ॥

नववर्षं तु मैत्रेय जम्बुद्वीपमिदं मया ।
लक्षयोजनविस्तारं संक्षेपात्कथितं तव ॥ २७ ॥
हे मैत्रेय ! इस प्रकार लाख योजनके विस्तारवाले नववर्ष-विशिष्ट इस जम्बूद्वीपका मैंने तुमसे संक्षेपसे वर्णन किया ॥ २७ ॥

जम्बूद्वीपं समावृत्य लक्षयोजनविस्तरः ।
मैत्रेय वलयाकारः स्थितः क्षारोदधिर्बहिः ॥ २८ ॥
हे मैत्रेय ! इस जम्बूदीपको बाहर चारों ओरसे लाख योजनके विस्तारवाले वलयाकार खारे पानीके समुद्रने घेरा हुआ है ॥ २८ ॥

इति श्रिविष्णुमहापुराणे द्वितीयेंऽशे तृतीयोध्यायः (३)
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीवेंऽशे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥



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