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॥ विष्णुपुराणम् ॥ द्वितीयः अंशः ॥ चतुर्थोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
क्षारोदेन यथा द्वीपो जम्बूसंज्ञोऽभिवेष्टितः । संवेष्ट्य क्षारमुदधिं प्लक्षद्वीपस्तथा स्थितः ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-जिस प्रकार जम्बूद्वीप क्षारसमुद्रसे घिरा हुआ है उसी प्रकार क्षारसमुद्रको घेरे हुए प्लक्षद्वीप स्थित है ॥ १ ॥ जम्बूद्वीपस्य विस्तारः शतसाहस्रसंमितः ।
स एवं द्विगुणो ब्रह्मन् प्लक्षद्वीप उदाहृतः ॥ २ ॥ जम्बूद्वीपका विस्तार एक लक्ष योजन है; और हे ब्रह्मन् ! प्लक्षद्वीपका उससे दूना कहा जाता है ॥ २ ॥ सप्त मेधातिथेः पुत्राः प्लक्षद्वीपेश्वरस्य वै ।
ज्येष्ठ शान्तहयो नाम शिशिरस्तदनन्तरः ॥ ३ ॥ प्लक्षद्वीपके स्वामी मेधातिथिके सात पुत्र हुए । उनमें सबसे बड़ा शान्तहय था और उससे छोटा शिशिर ॥ ३ ॥ सुखोदयस्तथानन्दः शिवः क्षेमक एव च ।
ध्रुवश्च सप्तमस्तेषां प्लक्षद्वीपेश्वरा हि ते ॥ ४ ॥ उनके अनन्तर क्रमशः सुखोदय, आनन्द, शिव और क्षेमक थे तथा सातवाँ ध्रुव था । ये सब प्लक्षद्वीपके अधीश्वर हुए ॥ ४ ॥ पूर्वं शान्तहयं वर्षं शिशिरं च सुखं तथा ।
आनन्दं च शिवं चैव क्षेमकं ध्रुवमेव च ॥ ५ ॥ [उनके अपने-अपने अधिकृत वर्षोंमें] प्रथम शान्तहयवर्ष है तथा अन्य शिशिरवर्ष, सुखोदयवर्ष, आनन्दवर्ष, शिववर्ष, क्षेमकवर्ष और ध्रुववर्ष हैं ॥ ५ ॥ मर्यादाकारकास्तेषां तथान्ये वर्षपर्वताः ।
सप्तैव तेषां नामानि शृणुष्व मुनिसत्तम ॥ ६ ॥ तथा उनकी मर्यादा निश्चित करनेवाले अन्य सात पर्वत हैं । हे मुनिश्रेष्ठ ! उनके नाम ये हैं, सुनो- ॥ ६ ॥ गोमदेश्चैव चन्द्रश्च नारदो दुन्दुभिस्तथा ।
सोमकः सुमनाश्चैव वैभ्राजश्चैव सप्तमः ॥ ७ ॥ गोमेद, चन्द्र, नारद, दुन्दुभि, सोमक, सुमना और सातवाँ वैभ्राज ॥ ७ ॥ वर्षाचलेषु रम्येषु वर्षेष्वेतेषु चानघाः ।
वसन्ति देवगन्धर्वसहिताः सततं प्रजाः ॥ ८ ॥ इन अति सुरम्य वर्ष-पर्वतों और वर्षों में देवता और गन्धर्वोक सहित सदा निष्पाप प्रजा निवास करती है ॥ ८ ॥ तेषु पुण्या जनपदाश्चिराच्च म्रियते जनः ।
नाधयो व्याधयो वापि सर्वकालसुखं हि तत् ॥ ९ ॥ वहाँके निवासीगण पुण्यवान् होते हैं और वे चिरकालतक जीवित रहकर मरते हैं; उनको किसी प्रकारको आधि-व्याधि नहीं होती, निरन्तर सुख ही रहता है ॥ ९ ॥ तेषां नद्यस्तु सप्तैव वर्षाणां च समुद्रगाः ।
नामतस्ताः प्रवक्ष्यामि श्रुताः पापं हरन्ति याः ॥ १० ॥ उन वर्षोंकी सात ही समुद्रगामिनी नदियाँ हैं । उनके नाम मैं तुम्हें बतलाता हूँ जिनके श्रवणमात्रसे वे पापोंको दूर कर देती हैं ॥ १० ॥ अनुतप्ता शिखी चैव विपाशा त्रिदिवाक्लमा ।
अमृता सुकृता चैव सप्तैतास्तत्र निम्नगाः ॥ ११ ॥ वहाँ अनुतप्ता, शिखी, विपाशा, त्रिदिवा, अक्लमा, अमृता और सुकृता-ये ही सात नदियाँ हैं ॥ ११ ॥ एते शैलास्तथा नद्यः प्रधानाः कथितास्तव ।
क्षुद्रशैलास्तथा नद्यस्तत्र सन्ति सहस्रशः । ताः पिबन्ति सदा हृष्टा नदीर्जनपदास्तुते ॥ १२ ॥ यह मैंने तुमसे प्रधान-प्रधान पर्वत और नदियोंका वर्णन किया है । वहाँ छोटे-छोटे पर्वत और नदियाँ तो और भी सहस्रों हैं । उस देशके हष्ट-पुष्ट लोग सदा उन नदियोंका जल पान करते हैं ॥ १२ ॥ अपसर्पिणी न तेषां वै न चैवोत्सर्पिणी द्विज ।
न त्वेवास्ति युगावस्था तेषु स्थानेषु सप्तसु ॥ १३ ॥ हे द्विज ! उन लोगोंमें हास अथवा वृद्धि नहीं होती और न उन सात वर्षों में युगकी ही कोई अवस्था है ॥ १३ ॥ त्रेतायुगसमः कालः सर्वदैव महामते ।
प्लक्षद्वीपादिषु ब्रह्मञ्छाकद्वीपान्तिकेषु वै ॥ १४ ॥ हे महामते ! हे ब्रह्मन् ! प्लक्षद्वीपसे लेकर शाकद्वीपपर्यन्त छहों द्वीपोंमें सदा त्रेतायुगके समान समय रहता है ॥ १४ ॥ पञ्च वर्षसहस्राणि जना जीवन्त्यनामयाः ।
धर्मः पञ्च तथैतेषु वर्णाश्रमविभागशः ॥ १५ ॥ इन द्वीपोंके मनुष्य सदा नीरोग रहकर पाँच हजार वर्षतक जीते हैं और इनमें वर्णाश्रम-विभागानुसार पाँचों धर्म (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) वर्तमान रहते हैं ॥ १५ ॥ वर्णाश्च तत्र चत्वारस्तान्निबोध वदामि ते ॥ १६ ॥
वहाँ जो चार वर्ण हैं वह मैं तुमको सुनाता हूँ ॥ १६ ॥ आर्यकाः कुरराश्चैव विदिश्या भाविनश्च ते ।
विप्रक्षत्रिवैश्यास्ते शूद्राश्च मुनिसत्तम ॥ १७ ॥ हे मुनिसत्तम ! उस द्वीपमें जो आर्यक, कुरर, विदिश्य और भावी नामक जातियाँ हैं; वे ही क्रमसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं ॥ १७ ॥ ज्मबूवृक्षप्रमाणस्तु तन्मध्ये सुमहांस्तरुः ।
प्लक्षस्तन्नामसंज्ञोऽयं प्लक्षद्वीपो द्विजोत्तम ॥ १८ ॥ हे द्विजोत्तम ! उसीमें जम्बूवृक्षके ही परिमाणवाला एक प्लक्ष (पाकर)-का वृक्ष है, जिसके नामसे उसकी संज्ञा प्लक्षद्वीप हुई है ॥ १८ ॥ इज्यते तत्र भगवांस्तैर्वर्णैरार्यकादिभिः ।
सीमरूपि जगत्स्त्रष्टा सर्वः सर्वेश्वरो हरिः ॥ १९ ॥ वहाँ आर्यकादि वर्णोद्वारा जगत्स्रष्टा, सर्वरूप, सर्वेश्वर भगवान् हरिका सोमरूपसे यजन किया जाता है ॥ १९ ॥ प्लक्षद्वीपप्रमाणेन प्लक्षद्वीपः समावृतः ।
तथैवेक्षुरमोदेन परिवेषानुकारिणा ॥ २० ॥ प्लक्षद्वीप अपने ही बराबर परिमाणवाले वृत्ताकार इक्षुरसके समुद्रसे घिरा हुआ है ॥ २० ॥ इत्येवं तव मैत्रेय प्लक्षद्वीप उदाहृतः ।
संक्षेपेण मया भूयः शाल्मलं मे निशामय ॥ २१ ॥ हे मैत्रेय ! इस प्रकार मैंने तुमसे संक्षेपमें प्लक्षद्वीपका वर्णन किया, अब तुम शाल्मलद्वीपका विवरण सुनो ॥ २१ ॥ शाल्मलस्येश्वरो वीरो वपुष्मांस्तत्सुताञ्छृणु ।
तेषां तु नामसंज्ञानि सप्तवर्षाणि तानि वै ॥ २२ ॥ श्वेतोऽथ हरितश्चैव जीमूतो रोहितस्तथा । वैद्युतो मानसश्चैव सुप्रभश्च महामुने ॥ २३ ॥ शाल्मलद्वीपके स्वामी वीरवर वपुष्मान् थे । उनके पुत्रोंके नाम सुनो-हे महामुने ! वे श्वेत, हरित, जीभूत, रोहित, वैद्युत, मानस और सुप्रभ थे । उनके सात वर्ष उन्हींके नामानुसार संज्ञावाले हैं ॥ २२-२३ ॥ शाल्मलेन समुद्रोऽसौ द्वीपेनेक्षुरसोदकः ।
विस्तारद्विगुणेनाथ सर्वतः संवृतः स्थितः ॥ २४ ॥ यह (प्लक्षद्वीपको घेरनेवाला) इक्षुरसका समुद्र अपनेसे दूने विस्तारवाले इस शाल्मलद्वीपसे चारों ओरसे घिरा हुआ है ॥ २४ ॥ तत्रापि पर्वताः सप्त विज्ञेया रत्नयोनयः ।
वर्षाभिव्यञ्जका ये तु तथा सप्त च निम्नगाः ॥ २५ ॥ वहाँ भी रत्नोंके उद्भवस्थानरूप सात पर्वत हैं, जो उसके सातों वर्षोंक विभाजक हैं तथा सात नदियाँ हैं ॥ २५ ॥ कुमुदश्चचोन्नतश्चैव तृतीयश्च बलाहकः ।
द्रोणो यत्र महौषध्यः स चतुर्थो महीधरः ॥ २६ ॥ पर्वतोंमें पहला कुमुद, दसरा उन्नत और तीसरा बलाहक है तथा चौथा द्रोणाचल है, जिसमें नाना प्रकारकी महौषधियाँ हैं ॥ २६ ॥ कङ्कस्तु पञ्चमः षष्ठो महिषः सप्तमस्तथा ।
ककुद्मान्पर्वतवरः सरिन्नामानि मे शृणु ॥ २७ ॥ पाँचवाँ कंक, छठा महिष और सातवाँ गिरिवर ककुद्यान् है । अब नदियोंके नाम सुनो ॥ २७ ॥ योनिस्तोया वितृष्णा च चन्द्रा मुक्ता विमोचनी ।
निवृत्तिः सप्तमी तासां स्मृतास्ताः पापशान्तिदाः ॥ २८ ॥ वे योनि, तोया, वितृष्णा, चन्द्रा, मुक्ता, विमोचनी और निवृत्ति हैं तथा स्मरणमात्रसे ही सारे पापोंको शान्त कर देनेवाली हैं ॥ २८ ॥ श्वेतञ्च हरितं चैव वैद्युतं मानसं तथा ।
जीमूतं रोहितं चैव सुप्रभं चापि शोभनम् । सप्तैतानि तु वर्षाणि चातुर्वर्ण्ययुतानि वै ॥ २९ ॥ श्वेत, हरित, वैद्युत, मानस, जीमूत, रोहित और अति शोभायमान सुप्रभ-ये उसके चारों वर्गोंसे युक्त सात वर्ष हैं । ॥ २९ ॥ शाल्मले ये तु वर्णाश्च वसन्त्येते महामुने ।
कपिलाश्चारुणाः पीताः कृष्णाश्चैव पृथक् पृथक् ॥ ३० ॥ ब्रह्मणाः क्षत्रया वैश्याः शुद्राश्चैव यजन्ति तम् । भगवन्तं समस्तस्य विष्णुमात्मानमव्ययम् । वायुभूतं मखश्रेष्ठैर्यज्वानो यज्ञसंस्थितिम् ॥ ३१ ॥ हे महामुने ! शाल्मलद्वीपमें कपिल, अरुण, पीत और कृष्ण-ये चार वर्ण निवास करते हैं जो पृथक्-पृथक् क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं । ये यजनशील लोग सबके आत्मा, अव्यय और यज्ञके आश्रय वायुरूप विष्णुभगवान्का श्रेष्ठ यज्ञोंद्वारा यजन करते हैं ॥ ३०-३१ ॥ देवानामत्र सान्निध्यमतीव सुमनोहरे ।
शाल्मलिः सुमहान्वृक्षो नाम्ना निर्वृतिकारकः ॥ ३२ ॥ इस अत्यन्त मनोहर द्वीपमें देवगण सदा विराजमान रहते हैं । इसमें शाल्मल (सेमल)-का एक महान् वृक्ष है जो अपने नामसे ही अत्यन्त शान्तिदायक है ॥ ३२ ॥ एष द्वीपः समुद्रेण सुरोदेन समावृतः ।
विस्ताराच्छाल्मलस्यैव समेन तु समन्ततः ॥ ३३ ॥ यह द्वीप अपने समान ही विस्तारवाले एक मदिराके समुद्रसे सब ओरसे पूर्णतया घिरा हुआ है ॥ ३३ ॥ सुरोदकः परिवृतः कुशद्वीपेन सर्वतः ।
शाल्मलस्य तु विस्तराद् द्विगुणेन समन्ततः ॥ ३४ ॥ और यह सुरासमुद्र शाल्मलद्वीपसे दूने विस्तारवाले कुशद्वीपद्वारा सब ओरसे परिवेष्टित है ॥ ३४ ॥ ज्योतिष्मतः कुशद्वीपे सप्त पुत्राञ्छृणुष्व तान् ॥ ३५ ॥
उद्भिदो वेणुमांश्चैव वेरथो लम्बनो धृतिः । प्रभाकरोऽथ कपिलस्तन्नामा वर्षपद्धतिः ॥ ३६ ॥ कुशद्वीपमें [वहाँके अधिपति] ज्योतिष्मान्के सात पुत्र थे, उनके नाम सुनो । वे उद्भिद, वेणुमान् , वैरथ, लम्बन, धृति, प्रभाकर और कपिल थे । उनके नामानुसार ही वहाँके वर्षोंके नाम पड़े ॥ ३५-३६ ॥ तस्मिन्वसन्ति मनुजाः सह दैतेयदानवैः ।
तथैव देवगन्धर्वयक्षकिम्पुरुषादयः ॥ ३७ ॥ उसमें दैत्य और दानवोंके सहित मनुष्य तथा देव, गन्धर्व, यक्ष और किन्नर आदि निवास करते हैं ॥ ३७ ॥ वर्णास्तत्रापि चत्वारो निजानुष्ठानतत्पराः ।
दमिनः शुष्मिणः स्नेहा मन्देहाश्च महामुने ॥ ३८ ॥ ब्रह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चानुक्रमोदिताः ॥ ३९ ॥ हे महामुने ! वहाँ भी अपने-अपने कर्मोमें तत्पर दमी, शुष्मी, स्नेह और मन्देहनामक चार ही वर्ण हैं, जो क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ही हैं ॥ ३८-३९ ॥ यथोक्तकर्मकर्तृत्वात्स्वाधिकारोक्षयाय ते ।
तत्रैव तं कुशद्वीपे ब्रह्मरूपं जनार्दनम् । यजन्तः क्षपयन्त्युग्रमधिकारफलप्रदम् ॥ ४० ॥ अपने प्रारब्धक्षयके निमित्त शास्त्रानुकूल कर्म करते हुए वहाँ कुशद्वीपमें ही वे ब्रह्मरूप जनार्दनकी उपासनाद्वारा अपने प्रारब्धफलके देनेवाले अत्युग्र अहंकारका क्षय करते हैं । ॥ ४० ॥ विद्रुमो हेमशैलश्च द्युतिमान् पुष्पवांस्तथा ।
कुशशयो हरिश्चैव सप्तमो मन्दराचलः ॥ ४१ ॥ वर्षाचलास्तु सप्तैते तत्र द्वीपे महामुने । नद्यश्च सप्त तासां तु शृणु नामान्यनुक्रमात् ॥ ४२ ॥ हे महामुने ! उस द्वीपमें विद्रुम, हेमशैल, धुतिमान् , पुष्पवान् , कुशेशय, हरि और सातवाँ मन्दराचल-ये सात वर्षपर्वत हैं । तथा उसमें सात ही नदियाँ हैं, उनके नाम क्रमशः सुनो- ॥ ४१-४२ ॥ धूतपापा शिवा चैव पवित्रा संमतिस्तथा ।
विद्युदम्भा मही चान्या सर्वपापहरास्त्विमाः ॥ ४३ ॥ वे धूतपापा, शिवा, पवित्रा, सम्मति, विद्युत्, आभा और मही हैं । ये सम्पूर्ण पापोंको हरनेवाली हैं ॥ ४३ ॥ अन्याः सहस्रशस्तत्र क्षुद्रनद्यस्तथाचलाः ।
कुशद्वीपे कुशस्तम्बः संज्ञया तस्य तत्स्मृतम् ॥ ४४ ॥ वहाँ और भी सहस्रों छोटी-छोटी नदियाँ और पर्वत हैं । कुशद्वीपमें एक कुशका झाड़ है । उसीके कारण इसका यह नाम पड़ा है ॥ ४४ ॥ तत्प्रमाणेन स द्वीपो घृतोदेन समावृतः ।
घृतोदश्च समुद्रो वै क्रौञ्चद्वीपेन संवृतः ॥ ४५ ॥ यह द्वीप अपने ही बराबर विस्तारवाले पीके समुद्रसे घिरा हुआ है और वाह घृत-समुद्र क्रौंचद्वीपसे परिवेष्टित है ॥ ४५ ॥ क्रौञ्चद्वीपो महाभाग श्रुयताञ्चापरो महान् ।
कुशद्वीपस्य विस्ताराद् द्विगुणो यस्य विस्तरः ॥ ४६ ॥ हे महाभाग ! अब इसके अगले क्रौंचनामक महाद्वीपके विषयमें सुनो, जिसका विस्तार कुशद्वीपसे दूना है ॥ ४६ ॥ क्रौञ्चद्वीपे द्युतिमतः पुत्रास्तस्य महात्मनः ।
तन्नामानि च वर्षाणि तेषां चक्रे महीपतिः ॥ ४७ ॥ क्रौंचद्वीपमें महात्मा द्युतिमान्के जो पुत्र थे; उनके नामानुसार ही महाराज युतिमान्ने उनके वर्षोंके नाम रखे ॥ ४७ ॥ कुशलो मन्दगश्चोष्णः पीवरोथान्धकारकः ।
मुनिश्च दुन्दुभिश्चैव सप्तैते तत्सुता मुने ॥ ४८ ॥ हे मुने ! उसके कुशल, मन्दग, उष्ण, पीवर, अन्धकारक, मुनि और दुन्दुभिये सात पुत्र थे ॥ ४८ ॥ तत्रापि देवगन्धर्वसेविताः सुमनोहराः ।
वर्षाचला महाबुद्धे तेषां नामानि मे शृणु ॥ ४९ ॥ वहाँ भी देवता और गन्धर्वोसे सेंवित अति मनोहर सात वर्षपर्वत हैं । हे महाबुद्धे ! उनके नाम सुनो- ॥ ४९ ॥ क्रौञ्चश्च वामनश्चैव तृतीयश्चान्धकारकः ।
चतुर्थो रत्नशैलश्च स्वाहिनी हयसन्निभः ॥ ५० ॥ दिवावृत्पञ्चमश्चात्र तथान्यः पुण्डरीकवान् । दुन्दुभिश्च महाशैलो द्विगुणास्ते परस्परम् । द्वीपा द्वीपेषु ये शैला यथा द्वीपानि ते तथा ॥ ५१ ॥ उनमें पहला क्रौंच, दूसरा वामन, तीसरा अन्धकारक, चौथा घोड़ीके मुखके समान रत्नमय स्वाहिनी पर्वत, पाँचवाँ दिवावृत्, छठा पुण्डरीकवान् और सातवाँ महापर्वत दुन्दुभि है । वे द्वीप परस्पर एक-दूसरेसे दूने हैं; और उन्हींकी भाँति उनके पर्वत भी [उत्तरोत्तर द्विगुण] हैं ॥ ५०-५१ ॥ वर्षेष्वेतेषु रम्येषु तथा शैलवरेषु च ।
निवसन्ति निरातङ्काः सह देवगणैः प्रजाः ॥ ५२ ॥ इन सुरम्य वर्षों और पर्वतश्रेष्ठोंमें देवगणोंके सहित सम्पूर्ण प्रजा निर्भय होकर रहती है ॥ ५२ ॥ पुष्कराः पुष्कला धन्यास्तिष्याख्याश्च महामुने ।
ब्रह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शुद्राश्चानुक्रमोदिताः ॥ ५३ ॥ हे महामुने ! बहाँके ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र क्रमसे पुष्कर, पुष्कल, धन्य और तिष्य कहलाते हैं ॥ ५३ ॥ नदीर्मैत्रेय ते तत्र याः पिबन्ति शृणुष्व ताः ।
सप्तप्रधानाः शतशस्तत्रान्याः क्षुद्रनिम्नगाः ॥ ५४ ॥ हे मैत्रेय ! वहाँ जिनका जल पान किया जाता है उन नदियोंका विवरण सुनो । उस द्वीपमें सात प्रधान तथा अन्य सैकड़ों क्षुद्र नदियाँ हैं ॥ ५४ ॥ गौरी कुमुद्वती चैव सन्ध्या रात्रिर्मनोजवा ।
क्षान्तिश्च पुण्डरीका च सप्तैता वर्षनिम्नगाः ॥ ५५ ॥ वे सात वर्षनदियाँ गौरी, कुमुद्वती, सन्ध्या, रात्रि, मनोजवा, शान्ति और पुण्डरीका हैं ॥ ५५ ॥ तत्रापि विष्णुर्भगवान्पुष्काराद्यैर्जानार्दनः ।
यागै रुद्रस्वरूपश्च इज्यते यज्ञसन्निधौ ॥ ५६ ॥ वहाँ भी रुद्ररूपी जनार्दन भगवान् विष्णुको पुष्करादि वर्णोद्वारा यज्ञादिसे पूजा की जाती है ॥ ५६ ॥ क्रौञ्चद्वीपः समुद्रेण दधिमण्डोदकेन च ।
आवृतः सर्वतः क्रौञ्चद्वीपतुल्येन मानतः ॥ ५७ ॥ यह क्रौंचद्वीप चारों ओरसे अपने तुल्य परिमाणवाले दधिमण्ड (म8)-के समुद्रसे घिरा हुआ हैं ॥ ५७ ॥ दधिमण्डोदकश्चापि शाकद्वीपेन संवृतः ।
क्रौञ्चद्वीपस्य विस्ताराद् द्विगुणेन महामुने ॥ ५८ ॥ और हे महामुने ! यह मद्रुका समुद्र भी शाकद्वीपसे घिरा हुआ है, जो विस्तारमें क्रौंचद्वीपसे दूना है । ५८ ॥ शाकद्वीपेश्वरस्यापि भव्यस्य सुमहात्मनः ।
सप्तैव तनयास्तेषां ददौ वर्षाणि सप्त सः ॥ ५९ ॥ शाकद्वीपके राजा महात्मा भव्यके भी सात ही पुत्र थे । उनको भी उन्होंने पृथक्-पृथक् सात वर्ष दिये ॥ ५९ ॥ जलदश्च कुमारश्च सुकुमारो मरीचकः ।
कुसुमोदश्च मौदाकिः सप्तमश्च महाद्रुमः ॥ ६० ॥ तत्संज्ञान्येव तत्रापि सप्त वर्षाण्यनुक्रमात् । तत्रापि पर्वताः सप्त वर्षविच्छेदकारिणः ॥ ६१ ॥ वे सात पुत्र जलद, कुमार, सुकुमार, मरीचक, कुसुमोद, मौदाकि और महाद्रुम थे । उन्हींक नामानुसार वहाँ क्रमशः सात वर्ष हैं और वहाँ भी वर्षाका विभाग करनेवाले सात ही पर्वत हैं ॥ ६०-६१ ॥ पूर्वस्तत्रोदयगिरिर्जलाधारस्तथापरः ।
तथा रैवतकः श्यामस्तथैवास्तगिरिर्द्विज । आम्बिकेयस्तथा रम्यः केसरी पर्वतोत्तमः ॥ ६२ ॥ हे द्विज ! वहाँ पहला पर्वत उदयाचल है और दूसरा जलाधार तथा अन्य पर्वत रैवतक, श्याम, अस्ताचल, आम्बिकेय और अति सुरम्य गिरिश्रेष्ठ केसरी हैं ॥ ६२ ॥ शाकस्तत्र महावृक्षः सिद्धगन्धर्वसेवितः ।
यत्रत्यवातसंस्पार्शादाह्लादो जायते परः ॥ ६३ ॥ वहाँ सिद्ध और गन्धवोंसे सेवित एक अति महान् शाकवृक्ष है, जिसके वायुका स्पर्श करनेसे हृदयमें परम आयद उत्पन्न होता है ॥ ६३ ॥ तत्र पुण्या जनपदाश्चातुर्वर्ण्यसमन्विताः ।
नद्यश्चात्र महापुण्याः सर्वपापभयापहाः ॥ ६४ ॥ सुकुमारी कुमारी च नलिनी धेनुका च या । इक्षुश्च वेणुका चैव गभस्ती सप्तमी तथा ॥ ६५ ॥ वहाँ चातुर्वर्ण्यसे युक्त अति पवित्र देश और समस्त पाप तथा भयको दूर करनेवाली सुकुमारी, कुमारी, नलिनी, धेनुका, इक्षु, वेणुका और गभस्ती-ये सात महापवित्र नदियाँ हैं ॥ ६४-६५ ॥ अन्याश्च शतशस्तत्र क्षुद्रनद्यो महामुने ।
महीधरास्तथा सन्ति शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ६६ ॥ हे महामुने ! इनके सिवा उस द्वीपमें और भी सैकड़ों छोटी-छोटी नदियाँ और सैकड़ोंहजारों पर्वत हैं ॥ ६६ ॥ ताः पिबन्ति मुदा युक्ता जलदादिषु ये स्थिताः ।
वर्षषु ते जनपदाः स्वर्गादभ्येत्य मेदिनीम् ॥ ६७ ॥ स्वर्ग-भोगके अनन्तर जिन्होंने पृथिवी-तलपर आकर जलद आदि वर्षों में जन्म ग्रहण किया है वे लोग प्रसन्न होकर उनका जल पान करते हैं ॥ ६७ ॥ धर्महानिर्न तेष्वस्ति न सङ्घर्षः परस्परम् ।
मर्यादाव्युत्क्रमो नापि तेषु देशेषु सप्तसु ॥ ६८ ॥ उन सातों वर्षों में धर्मका ह्यस पारस्परिक संघर्ष (कलह) अथवा मर्यादाका उल्लंघन कभी नहीं होता ॥ ६८ ॥ मगाश्च मागधाश्चैव मानसा मन्दगास्तथा ।
मगा ब्रह्मणभूयिष्ठा मागधाः क्षत्रियास्तथा । वैश्यास्तु मानसास्तेषां शूद्रास्तेषां तु मन्दगाः ॥ ६९ ॥ वहाँ मग, मागध, मानस और मन्दगये चार वर्ण हैं । इनमें मग सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण हैं, मागध क्षत्रिय हैं, मानस वैश्य हैं तथा मन्दग शूद्र हैं ॥ ६९ ॥ शाकद्वीपे तु तैर्विष्णुः सूर्यरूपधरो मुने ।
यथोक्तौरिज्यते सम्यक्कर्मभिर्नियतात्मभिः ॥ ७० ॥ हे मुने । शाकद्वीपमें शास्त्रानुकूल कर्म करनेवाले पूर्वोक्त चारों वर्णोद्वारा संयत चित्तसे विधिपूर्वक सूर्यरूपधारी भगवान् विष्णुकी उपासना की जाती है ॥ ७० ॥ शाकद्वीपस्तु मैत्रेय क्षिरोदेन समावृतः ।
शाकद्वीपप्रमाणेन वलयेनेव वेष्टितः ॥ ७१ ॥ हे मैत्रेय ! वह शाकद्वीप अपने ही बराबर विस्तारवाले मण्डलाकार दुग्धके समुद्रसे घिरा हुआ है । ७१ ॥ क्षिराब्धिः सर्वतो ब्रह्मन्पुष्कराख्येन वेष्टितः ।
द्वीपेन शाकद्वीपात्तु द्वीगुणेन समन्ततः ॥ ७२ ॥ और हे ब्रह्मन् ! वह क्षौर-समुद्र शाकद्वीपसे दूने परिमाणवाले पुष्करद्वीपसे परिवेष्टित है ॥ ७२ ॥ पुष्करे सवनस्यापि महावीरोऽभवत्सुतः ।
धातुकिश्च तयोस्तत्र द्वे वर्षे नामचिह्निते । महावीरं तथैवान्यद्धातुकीखण्डसंज्ञितम् ॥ ७३ ॥ पुष्करद्वीपमें वहाँके अधिपति महाराज सवनके महावीर और धातकि नामक दो पुत्र हुए । अतः उन दोनोंके नामानुसार उसमें महावीर-खण्ड और धातकीखण्ड नामक दो वर्ष हैं ॥ ७३ ॥ एकश्चात्र महाभाग प्रख्यातो वर्षपर्वतः ।
मानासोत्तरसंज्ञो वै मध्यतो वलयाकृतिः ॥ ७४ ॥ योजनानां सहस्राणि ऊर्ध्वं पञ्चाशदुच्छ्रितः । तावदेव च विस्तीर्णः सर्वतः परिमण्डलः ॥ ७५ ॥ हे महाभाग ! इसमें मानसोत्तर नामक एक ही वर्ष-पर्वत कहा जाता है जो इसके मध्यमें वलयाकार स्थित है तथा पचास सहस्र - योजन ऊँचा और इतना ही सब और गोलाकार फैला हुआ है ॥ ७४-७५ ॥ पुष्करद्वीपवलयं मध्येन विभजन्निव ।
स्थितोसौ तेन विछिन्नं जातं तद्वर्षकद्वयम् ॥ ७६ ॥ वलयाकारमेकैकं तयोर्वर्षं तथा गिरिः ॥ ७७ ॥ यह पर्वत पुष्करद्वीपरूप गोलेको मानो बीचमेंसे विभक्त कर रहा है और इससे विभक्त होनेसे उसमें दो वर्ष हो गये हैं; उनमेंसे प्रत्येक वर्ष और वह पर्वत वलयाकार ही है ॥ ७६-७७ ॥ दशवर्षसहस्राणि तत्र जीवन्ति मानवाः ।
विरामया विशोकाश्च रागद्वेषादिवर्जिताः ॥ ७८ ॥ वहाँके मनुष्य रोग, शोक और राग-द्वेषादिसे रहित हुए दस सहल वर्षतक जीवित रहते हैं ॥ ७८ ॥ अधमोत्तमौ न तेष्वास्तां न वध्यवधकौ द्विज ।
नेर्ष्यासूया भयं द्वेषो दोषो लोभादिको न च ॥ ७९ ॥ हे द्विज ! उनमें उत्तम-अधम अथवा वध्य-वधक आदि (विरोधी) भाव नहीं हैं और न उनमें ईर्ष्या, असूया, भय, द्वेष और लोभादि दोष ही हैं । ॥ ७९ ॥ महावीरं बहिर्वर्षं धातकीखण्डमन्ततः ।
मानसोत्तरशौलस्य देवदैत्यादिसेवितम् ॥ ८० ॥ महावीरवर्ष मानसोत्तर पर्वतके बाहरकी ओर है और धातकी-खण्ड भीतरकी ओर । इनमें देव और दैत्य आदि निवास करते हैं ॥ ८० ॥ सत्यानृतेन तत्रास्तां द्वीपे पुष्करसंज्ञिते ।
न तत्र नद्यः शैला वा द्वीपे वर्षद्वयान्विते ॥ ८१ ॥ दो खण्डोंसे युक्त उस पुष्करद्वीपमें सत्य और मिथ्याका व्यवहार नहीं है और न उसमें पर्वत तथा नदियाँ ही हैं ॥ ८१ ॥ तुल्यवेषास्तु मनुजा देवास्तत्रैकरूपिणः ।
वर्णाश्रमाचारहीनं धर्माचरणवर्जितम् ॥ ८२ ॥ त्रयीवार्तादण्डनीतिशुश्रूषारहितञ्च यत् । वर्षद्वयं तु मैत्रेय भौमः स्वर्गोऽयमुत्तमः ॥ ८३ ॥ वहाँकै मनुष्य और देवगण समान वेष और समान रूपवाले होते हैं । हे मैत्रेय ! वर्णाश्रमाचारसे हीन, काम्य कर्मोसे रहित तथा वेदत्रयी, कृषि, दण्डनीति और शुश्रूषा आदिसे शून्य वे दोनों वर्ष तो मानो अत्युत्तम भौम (पृथिवीके) स्वर्ग हैं ॥ ८२-८३ ॥ सर्वर्तुसुखदः कालो जरारोगादिवर्जितः ।
धातकीखण्डसंज्ञेऽथ महावीरे च वै मुने ॥ ८४ ॥ हे मुने ! उन महावीर और धातकीखण्ड नामक वर्षोमें काल (समय) समस्त ऋतुओंमें सुखदायक और जरा तथा रोगादिसे रहित रहता है ॥ ८४ ॥ न्यग्रोधः पुष्करद्वीपे ब्रह्मणः स्थानमुत्तमम् ।
तस्मिन्नवसति ब्रह्मा पूज्यमानः सुरासुरैः ॥ ८५ ॥ पुष्करद्वीपमें ब्रह्माजीका उत्तम निवासस्थान एक न्यग्रोध (वट)-का वृक्ष है, जहाँ देवता और दानवादिसे पूजित श्रीब्रह्माजी विराजते हैं ॥ ८५ ॥ स्वादूदकेनोदधिना पुष्करः परिवेष्टितः ।
समेन पुष्करस्यैव विस्तारान्मण्डलं तथा ॥ ८६ ॥ पुष्करद्वीप चारों ओरसे अपने ही समान विस्तारवाले मीठे पानीके समुद्रसे मण्डलके समान घिरा हुआ है ॥ ८६ ॥ एवं द्वीपाः समुद्रैश्च सप्त सप्तभिरावृताः ।
द्वीपश्चैव समुद्रश्च समानो द्विगुणौ परौ ॥ ८७ ॥ इस प्रकार सातों द्वीप सात समुद्रोंसे घिरे हुए हैं और वे द्वीप तथा [उन्हें घेरनेवाले] समुद्र परस्पर समान हैं, और उत्तरोत्तर दूने होते गये हैं ॥ ८७ ॥ पयांसि सर्वदा सर्वसमुद्रेषु समानि वै ।
न्यूनातिरिक्तता तेषां कदाचिन्नैव जायते ॥ ८८ ॥ सभी समुद्रोंमें सदा समान जल रहता है, उसमें कभी न्यूनता अथवा अधिकता नहीं होती ॥ ८८ ॥ स्थालीस्थमग्नीसंयोगादुद्रेकिसलिले यथा ।
तथेन्दुवृद्धौ सलिलमम्भोधौ मुनिसत्तम ॥ ८९ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! पात्रका जल जिस प्रकार अग्निका संयोग होनेसे उबलने लगता है उसी प्रकार चन्द्रमाकी कलाओंके बढ़नेसे समुद्रका जल भी बढ़ने लगता है ॥ ८९ ॥ अन्यूनानतिरिक्ताश्च वर्धन्त्यापो ह्रसन्ति च ।
उदयास्तमनेष्विन्दोः पक्षयोः शुक्लकृष्णयोः ॥ ९० ॥ शुक्ल और कृष्ण पक्षोंमें चन्द्रमाके उदय और अस्तसे न्यूनाधिक न होते हुए ही जल घटता और बढ़ता है ॥ ९० ॥ दशोत्तराणि पञ्चैव ह्यङ्गुलानां शतानि वै ।
अपां वृद्धिक्षयौ दृष्टौ सामुद्रीणां महामुने ॥ ९१ ॥ हे महामुने ! समुद्रके जलकी वृद्धि और क्षय पाँच सौ दस (५१०) अंगुलतक देखी जाती है ॥ ९१ ॥ भोजनं पुष्करद्वीपे तत्र स्वयमुपस्थितम् ।
षड्रसं भुञ्जते विप्र प्रजाः सर्वाः सदैव हि ॥ ९२ ॥ हे विप्र ! पुष्करद्वीपमें सम्पूर्ण प्रजावर्ग सर्वदा [बिना प्रयत्नके] अपने-आप ही प्राप्त हुए पइस भोजनका आहार करते हैं ॥ ९२ ॥ स्वादूदकस्य परितो दृश्यते लोकसंस्थितिः ।
द्विगुणा काञ्चनी भूमिः सर्वजन्तुविवर्जिता ॥ ९३ ॥ स्वादूदक (मीठे पानीके) समुद्रके चारों ओर लोकनिवाससे शून्य और समस्त जीवोंसे रहित उससे दूनी सुवर्णमयी भूमि दिखायी देती है ॥ ९३ ॥ लोकालोकस्ततश्शैलो योजनायुतविस्तृतः ।
उच्छ्रायेणापि तावन्ति सहस्राण्यचलो हि सः ॥ ९४ ॥ वहाँ दस सहस्त्र योजन विस्तारवाला लोकालोक-पर्वत है । वह पर्वत ऊँचाईमें भी उतने ही सहन योजन है ॥ ९४ ॥ ततस्तमः समावृत्य तं शौलं सर्वतः स्थितम् ।
तमश्चाण्डकटाहेन समन्तात्परिवेष्टितम् ॥ ९५ ॥ उसके आगे उस पर्वतको सब ओरसे आवृतकर घोर अन्धकार छाया हुआ है, तथा वह अन्धकार चारों ओरसे ब्रह्माण्ड-कटाहसे आवृत है ॥ ९५ ॥ पञ्चशत्कोटिविस्तारा सेयमुर्वी महामुने ।
सहैवाण्डकटाहेन सद्वीपाब्धिमहीधरा ॥ ९६ ॥ हे महामुने ! अण्डकटाहके सहित द्वीप, समुद्र और पर्वतादियुक्त यह समस्त भूमण्डल पचास करोड़ योजन विस्तारवाला है ॥ ९६ ॥ सेयं धात्री विधात्री च सर्वभूतगुणाधिका ।
आधारभूता सर्वेषां मैत्रेय जगतामिति ॥ ९७ ॥ हे मैत्रेय ! आकाशादि समस्त भूतोंसे अधिक गुणवाली यह पृथिवी सम्पूर्ण जगत्की आधारभूता और उसका पालन तथा उद्भव करनेवाली है ॥ ९७ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे द्वितीयेंऽशे चतुर्थोऽध्यायः (४)
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेऽशे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ |