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॥ विष्णुपुराणम् ॥

द्वितीयः अंशः

॥ अष्टमोऽध्यायः ॥

पराशर उवाच
व्याख्यातमैतद्‍ब्रह्मण्डसंस्थानं तव सुव्रत ।
ततः प्रमाणसंस्थाने सूर्यादीनां शृणुष्व मै ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे सुव्रत ! मैंने तुमसे यह ब्रह्माण्डकी स्थिति कही, अब सूर्य आदि ग्रहोंकी स्थिति और उनके परिमाण सुनो ॥ १ ॥

योजनानां सहस्राणि भास्करस्य रथो नव ।
ईषादण्डस्तथैवास्य द्विगुणो मुनिसत्तम ॥ २ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! सूर्यदेवके रथका विस्तार नौ हजार योजन है तथा इससे दूना उसका ईषा-दण्ड (जूआ और रथके बीचका भाग) है ॥ २ ॥

सार्धकोटिस्तथा सप्त नियुतान्यधिकानि वै ।
योजनानां तु तस्याक्षस्तत्र चक्रं प्रतिष्ठितम् ॥ ३ ॥
उसका धुरा डेढ़ करोड़ सात लाख योजन लम्बा है जिसमें उसका पहिया लगा हुआ है ॥ ३ ॥

त्रिनाभिमति पञ्चारे षण्नेमिन्यत्रयात्मके ।
संवत्सरमये कृत्स्त्रं कालचक्रं प्रतिष्ठितम् ॥ ४ ॥
उस पूर्वान, मध्याहन और पराहनरूप तीन नाभि, परिवत्सरादि पाँच अरे और षड्-ऋतुरूप छ: नेमिवाले अक्षयस्वरूप संवत्सरात्मक चक्रमें सम्पूर्ण कालचक्र स्थित है ॥ ४ ॥

हयाश्च सप्तच्छदांसि तेषां नामानि मे शृणु ।
गायत्री च बृहत्युष्णिग्जगती त्रिष्टुभेव च ।
अनुष्टुप्पङ्‍क्तिरित्युक्ता छन्दांसि हरयो रवेः ॥ ५ ॥
सात छन्द ही उसके घोड़े हैं, उनके नाम सुनो-गायत्री, बृहती, उष्णिक्, जगती, त्रिष्टुप् अनुष्टुप् और पंक्ति-ये छन्द ही सूर्यके सात घोड़े कहे गये हैं ॥ ५ ॥

चत्वारिंशत्सहस्राणि द्वितीयोऽक्षो विवस्वतः ।
पञ्चान्यानि तु सार्धानि स्यन्दनस्य महामते ॥ ६ ॥
हे महामते ! भगवान् सूर्यके रथका दूसरा धुरा साड़े पैंतालीस सहल योजन लम्बा है ॥ ६ ॥

अक्षप्रमाणमुभयोः प्रमाणं तद्युगार्धयो ।
ह्रस्वोऽक्षस्तद्युगार्धेन ध्रुवाधारो रथस्य वै ।
द्वितीयेऽक्षे तु तच्चक्रं सस्थितं मानसाचले ॥ ७ ॥
दोनों धुरोंके परिमाणके तुल्य ही उसके युगाडौं (जूओं)-का परिमाण है, इनमेंसे छोटा धुरा उस रथके एक युगाई (जूए)-के सहित ध्रुवके आधारपर स्थित है और दूसरे धुरेका चक्र मानसोत्तरपर्वतपर स्थित है ॥ ७ ॥

मानसोत्तरशैलस्य पूर्वतो वासवी पुरी ।
दक्षिणे तु यमस्यान्या प्रतीच्यां वरुणस्य च ।
उत्तरेण च सोमस्य तासां नामानि मे शृणु ॥ ८ ॥
इस मानसोत्तरपर्वतके पूर्वमें इन्द्रकी, दक्षिणमें यमकी, पश्चिममें वरुणकी और उत्तरमें चन्द्रमाकी पुरी है; उन पुरियोंके नाम सुनो ॥ ८ ॥

वस्वौकसारा शक्रस्य याम्या संयमनी तथा ।
पुरी सुखा जलेशस्य सोमस्य च विभावरी ॥ ९ ॥
इन्द्रकी पुरी वस्वौकसारा है, यमकी संयमनी है, वरुणकी सुखा है तथा चन्द्रमाकी विभावरी है ॥ ९ ॥

काष्ठां गतो दक्षिणतः क्षिप्तेषुरिव सर्पति ।
मैत्रेय भगवान्भानुर्ज्योतिषां चक्रसंयुतः ॥ १० ॥
हे मैत्रेय ! ज्योतिश्चक्रके सहित भगवान् भानु दक्षिण-दिशामें प्रवेशकर छोड़े हुए बाणके समान तीव्र वेगसे चलते हैं ॥ १० ॥

अहोरात्रव्यवस्थानकारणं भगवान् रविः ।
देवयानः परः पन्था योगिनां क्लेशसंक्षये ॥ ११ ॥
भगवान् सूर्यदेव दिन और रात्रिकी व्यवस्थाके कारण हैं और रागादि क्लेशोंके क्षीण हो जानेपर वे ही क्रममुक्तिभागी योगिजनोंके देवयान नामक श्रेष्ठ मार्ग हैं ॥ ११ ॥

दिवसस्य वरिर्मध्ये सर्वाकालं व्यवस्थितः ।
सर्वद्वीपेषु मैत्रेय निशार्धस्य च सन्मुखः ॥ १२ ॥
हे मैत्रेय ! सभी द्वीपोंमें सर्वदा मध्यान तथा मध्यरात्रिके समय सूर्यदेव मध्य आकाशमें सामनेकी ओर रहते हैं ॥ १२ ॥

उदयास्तमने चैव सर्वकालं तु सम्मुखे ।
विदिशासु त्वशेषासु तथा ब्रह्मन् दिशासु च ॥ १३ ॥
यैर् यत्र दृश्यते भास्वान्स तेषामुदयः स्मृतः ।
तिरोभावं च यत्रैति तत्रैवास्तमनं रवेः ॥ १४ ॥
इसी प्रकार उदय और अस्त भी सदा एक-दूसरेके सम्मुख ही होते हैं । हे ब्रह्मन् ! समस्त दिशा और विदिशाओंमें जहाँके लोग [रात्रिका अन्त होनेपर सूर्यको जिस स्थानपर देखते हैं उनके लिये वहाँ उसका उदय होता है और जहाँ दिनके अन्तमें सूर्यका तिरोभाव होता है वहीं उसका अस्त कहा जाता है ॥ १३-१४ ॥

नैवास्तमनमर्कस्य नोदयः सर्वदा सतः ।
उदयास्तमनाख्यं हि दर्शनादर्शनं रवेः ॥ १५ ॥
सर्वदा एकरूपसे स्थित सूर्यदेवका 'वास्तवमें न उदय होता है और न अस्त; बस, उनका देखना और न देखना ही उनके उदय और अस्त हैं ॥ १५ ॥

शक्रादीनां पुरे तिष्ठन् स्पृशत्येष पुरत्रयम् ।
विकोणौ द्वौ विकोणस्थस्त्रीन् कोणान्द्वे पुरे तथा ॥ १६ ॥
मध्याह्नकालमें इन्द्रादिमेंसे किसीकी पुरीपर प्रकाशित होते हुए । सूर्यदेव [पार्श्ववर्ती दो पुरियोंके सहित] तीन पुरियों और दो कोणों (विदिशाओं)-को प्रकाशित करते हैं, इसी प्रकार अग्नि आदि कोणों से किसी एक कोणमें प्रकाशित होते हुए वे [पार्श्ववर्ती दो कोणोंके सहित] तीन कोण और दो पुरियोंको प्रकाशित करते हैं ॥ १६ ॥

उदितो वर्धमानाभिरामध्याह्नात्तपन् रविः ।
ततः परं ह्रसन्तीभिर्गोभिरस्तं नियच्छति ॥ १७ ॥
सूर्यदेव उदय होनेके अनन्तर मध्याह्नपर्यन्त अपनी बढ़ती हुई किरणोंसे तपते हैं और फिर क्षीण होती हुई किरणोंसे अस्त हो जाते हैं * ॥ १७ ॥

उदयास्तमनाभ्यां च स्मृते पूर्वापरे दिशौ ।
यावत्पुरस्तात्तपति तावत्पृष्ठे च पार्श्वयोः ॥ १८ ॥
सूर्यके उदय और अस्तसे ही पूर्व तथा पश्चिम दिशाओंकी व्यवस्था हुई है । वास्तवमें तो, वे जिस प्रकार पूर्वमें प्रकाश करते हैं उसी प्रकार पश्चिम तथा पार्श्ववर्तिनी [उत्तर और दक्षिण दिशाओंमें भी करते हैं ॥ १८ ॥

ऋतेऽमरगिरेर्मेरोरुपरि ब्रह्मणः सभाम् ।
ये ये मरीचयोर्कस्य प्रयान्ति ब्रह्मणः सभाम् ।
ते ते निरस्तास्तद्‍भासा प्रतीपमुपयान्ति वै ॥ १९ ॥
सूर्यदेव देवपर्वत सुमेरुके ऊपर स्थित ब्रह्माजीकी सभाके अतिरिक्त और सभी स्थानोंको प्रकाशित करते हैं; उनकी जो किरणें ब्रह्माजीकी सभामें जाती हैं वे उसके तेजसे निरस्त होकर उलटी लौट आती हैं ॥ १९ ॥

तस्माद्दिश्युत्तरस्यां वै दिवारात्रिः सदैव हि ।
सर्वेषां द्वीपवर्षाणां सेरुरुत्तरतो यतः ॥ २० ॥
सुमेरुपर्वत समस्त द्वीप और वर्षोंके उत्तरमें है इसलिये उत्तरदिशामें (मेरुपर्वतपर) सदा [ एक ओर ] दिन और [ दूसरी ओर ] रात रहते हैं ॥ २० ॥

प्रभा विवस्वतो रात्रावस्तं गच्छति भास्करे ।
विशत्यग्निमतो रात्रौ वह्निर्दूरात्प्रकाशते ॥ २१ ॥
रात्रिके समय सूर्यके अस्त हो जानेपर उसका तेज अग्निमें प्रविष्ट हो जाता है । इसलिये उस समय अग्नि दूरहीसे प्रकाशित होने लगता है ॥ २१ ॥

वह्नोः प्रभा तथा भानुर्दिनेष्वाविशति द्विज ।
अतीव वह्निसंयोगादतः सूर्यः प्रकाशते ॥ २२ ॥
इसी प्रकार, हे द्विज ! दिनके समय अग्निका तेज सूर्यमें प्रविष्ट हो जाता है; अत: अग्निके संयोगसे ही सूर्य अत्यन्त प्रखरतासे प्रकाशित होता है ॥ २२ ॥

तेजसी भास्कराग्नेये प्रकाशोष्णस्वरूपिणी ।
परस्परानुप्रवेशादाप्यायेते दिवानिशम् ॥ २३ ॥
इस प्रकार सूर्य और अग्निके प्रकाश तथा उष्णतामय तेज परस्पर मिलकर दिन-रातमें वृद्धिको प्राप्त होते रहते हैं ॥ २३ ॥

दक्षिणोत्तरभूम्यर्धे समुत्तिष्ठति भास्करे ।
आहोरात्रं विशत्यम्भस्तमः प्राकाश्यशीलवत् ॥ २४ ॥
मेरुके दक्षिणी और उत्तरी भूम्यर्द्ध में सूर्यके प्रकाशित होते समय अन्धकारमयी रात्रि और प्रकाशमय दिन क्रमशः जलमें प्रवेश कर जाते हैं ॥ २४ ॥

आताम्रा हि भवत्यापो दिवानक्तप्रवेशनात् ।
दिनं विशति चैवाम्भो भास्करेस्तमुपेयुषि ।
तस्माच्छुक्ला भवन्त्यापो नक्तमह्नः प्रवेशनात् ॥ २५ ॥
दिनके समय रात्रिके प्रवेश करनेसे ही जल कुछ ताम्रवर्ण दिखायी देता है, किन्तु सूर्य-अस्त हो जानेपर उसमें दिनका प्रवेश हो जाता है । इसलिये दिनके प्रवेशके कारण ही रात्रिके समय वह शुक्लवर्ण हो जाता है ॥ २५ ॥

एवं पुष्करमध्येन यदा याति दिवाकरः ।
त्रिंशद्‍भागन्तु मेदिन्यास्तदा मौहूर्तिकी गतिः ॥ २६ ॥
इस प्रकार जय सूर्य पुष्करद्वीपके मध्यमें पहुंचकर पृथ्वीका तीसवाँ भाग पार कर लेता है तो उसकी वह गति एक मुहूर्तकी होती है । [ अर्थात् उतने भागके अतिक्रमण करने में उसे जितना समय लगता है वही मुहूर्त कहलाता है ] ॥ २६ ॥

कुलालचक्रपर्यन्तो भ्रमन्नेष दिवाकरः ।
करोत्यहस्तथा रात्रिं विमुञ्चन्मेदिनीं द्विजः ॥ २७ ॥
हे द्विज ! कुलाल-चक्र (कुम्हारके चाक) के सिरेपर घूमते हुए जीवके समान भ्रमण करता हुआ यह सूर्य पृथिवीके तीसों भागोंका अतिक्रमण करनेपर एक दिन रात्रि करता है ॥ २७ ॥

अयनस्योत्तरस्यादौ मकरं याति भास्करः ।
ततः कुम्भं च मीनं च राशे राश्यन्तरं द्विज ॥ २८ ॥
हे द्विज ! उत्तरायणके आरम्भमें सूर्य सबसे पहले मकरराशिमें जाता है, उसके पश्चात् वह कुम्भ और मीन राशियोंमें एक राशिसे दूसरी राशिमें जाता है ॥ २८ ॥

त्रिष्वेतेष्वथ भुक्तेषु ततो वैषुवतीं गतिम् ।
प्रयाति सविता कुर्वन्नहोरात्रं ततः समम् ॥ २९ ॥
इन तीनों राशियोंको भोग चुकनेपर सूर्य रात्रि और दिनको समान करता हुआ वैषुवती गतिका अवलम्बन करता है, [ अर्थात् वह भूमध्य-रेखाके बीच ही चलता है ] ॥ २९ ॥

ततो रात्रिः क्षयं याति वर्धतेऽनुदिनं दिनम् ॥ ३० ॥
ततश्च मिथुनस्यान्ते परां काष्ठामुपागतः ।
राशिं कर्कटकं प्राप्य कुरुते दक्षिणायनम् ॥ ३१ ॥
उसके अनन्तर नित्यप्रति रात्रि क्षीण होने लगती है और दिन बढ़ने लगता है । फिर [ मेष तथा वृष राशिका अतिक्रमण कर ] मिथुनराशिसे निकलकर उत्तरायणको अन्तिम सीमापर उपस्थित हो वह कर्कराशिमें पहुंचकर दक्षिणायनका आरम्भ करता है ॥ ३०-३१ ॥

कुलालचक्रपर्यन्तो यथाशीघ्रं प्रवर्तते ।
दक्षिणप्रक्रमे सूर्यस्तथा शीघ्रं प्रवर्तते ॥ ३२ ॥
जिस प्रकार कुलाल-चक्रके सिरेपर स्थित जीव अति शीघ्रतासे घूमता है उसी प्रकार सूर्य भी दक्षिणायनको पार करनेमें अति शीघ्रतासे चलता है ॥ ३२ ॥

अतिवेगितया कालं वायुवेगबलाच्चरन् ।
तस्मात्प्रकृष्टां भूमिं तु कालेनाल्पेन गच्छति ॥ ३३ ॥
अत: वह अति शीघ्रतापूर्वक वायुवेगसे चलते हुए अपने उत्कृष्ट मार्गको थोड़े समयमें ही पार कर लेता है ॥ ३३ ॥

सूर्यो द्वादशभिः शैघ्र्यान्मुहूर्ते दक्षिणायने ।
त्रयोदशार्धमृक्षाणामह्ना तु चरति द्विज ।
मुहूर्तैस्तावदृक्षाणि नक्तमष्टादशैश्चरन् ॥ ३४ ॥
हे द्विज दक्षिणायनमें दिनके समय शीघ्रतापूर्वक चलनेसे उस समयके साढ़े तेरह नक्षत्रों को सूर्य बारह मुहूर्तोमें पार कर लेता है, किन्तु रात्रिके समय (मन्दगामी होनेसे) उतने ही नक्षत्रोंको अठारह मुहतोंमें पार करता है ॥ ३४ ॥

कुलालचक्रमध्यस्थो यथा मन्दं प्रसर्पति ।
तथोदगयने सूर्यः सर्पते मन्दविक्रमः ॥ ३५ ॥
कुलाल-चक्रके मध्यमें स्थित जीव जिस प्रकार धीरे-धीरे चलता है उसी प्रकार उत्तरायणके समय सूर्य मन्दगतिसे चलता है ॥ ३५ ॥

तस्माद्दीर्घेण कालेन भूमिमल्पां तु गच्छति ।
अष्टादशसुहूर्तं यदुत्तरायणपश्चिमम् ॥ ३६ ॥
अहर्भवति तच्चापि चरते मन्दविक्रमः ॥ ३७ ॥
त्रयोदशार्धमह्ना तु ऋक्षाणां चरते रविः ।
मुहूर्तैस्तावदृक्षाणि रात्रौ द्वादशभिश्चरन् ॥ ३८ ॥
इसलिये उस समय वह थोड़ी-सी भूमि भी अति दीर्घकालमें पार करता है, अतः उत्तरायणका अन्तिम दिन अठारह मुहूर्तका होता है, उस दिन भी सूर्य अति मन्दगतिसे चलता है और ज्योतिश्चक्रार्धके साढ़े तेरह नक्षत्रों को एक दिनमें पार करता है किन्तु रात्रिके समय वह उतने ही (साढ़े तेरह) नक्षत्रोंको बारह मुहूतोंमें ही पार कर लेता है । ३६-३८ ॥

अतो मन्दतरं नाभ्यां चक्रं भ्रमति वै यथा ।
मृत्पिण्ड इव मध्यस्थो ध्रुवो भ्रमति वै तथा ॥ ३९ ॥
अत: जिस प्रकार नाभिदेशमें चक्रके मन्द-मन्द घूमनेसे वहाँका मृत्-पिण्ड भी मन्दगतिसे घूमता है उसी प्रकार ज्योतिश्चक्रके मध्य में स्थित ध्रुव अति मन्द गतिसे घूमता है ॥ ३९ ॥

कुलालचक्रनाभिस्तु यथा तत्रैववर्तते ।
ध्रुवस्तथा हि मैत्रेय तत्रैव परिवर्तते ॥ ४० ॥
हे मैत्रेय ! जिस प्रकार कुलाल-चक्रकी नाभि अपने स्थानपर ही घूमती रहती है, उसी प्रकार ध्रुव भी अपने स्थानपर ही घूमता रहता है ॥ ४० ॥

उभयोः काष्ठयोर्मध्ये भ्रमतो मण्डलानि तु ।
दिवा नक्तं च सूर्यस्य मन्दा शीघ्रा च वै गतिः ॥ ४१ ॥
इस प्रकार उत्तर तथा दक्षिण सीमाओंके मध्यमें मण्डलाकार घूमते रहनेसे सूर्यकी गति दिन अथवा रात्रिके समय मन्द अथवा शीघ्र हो जाती है ॥ ४१ ॥

मन्दाह्नि यस्मिन्नयने शीघ्रा नक्तं तदा गतिः ।
शीघ्रा निशि यदा चास्य तदा मन्दा दिवा गतिः ॥ ४२ ॥
जिस अयनमें सूर्यको गति दिनके समया मन्द होती है उसमें रात्रिके समय शीघ्र होती है तथा जिस समय रात्रि-कालमें शीघ्र होती है उस समय दिनमें मन्द हो जाती है ॥ ४२ ॥

एक प्रमाणमेवैष मार्गं याति दिवाकरः ।
अहोरात्रेण यो भुङ्‍क्ते समस्ता राशयो द्विज ॥ ४३ ॥
हे द्विज सूर्यको सदा एक बराबर मार्ग ही पार करना पड़ता है; एक दिन-रात्रिमें यह समस्त राशियोंका भोग कर लेता है ॥ ४३ ॥

षडेव राशीन् यो भुङ्‍क्ते रात्रावन्यांश्च षड्दिवा ॥ ४४ ॥
राशिप्रमाणजनिता दीर्घह्रस्वात्मता दिने ।
तथा निशायां राशीनां प्रमाणैर्लघुदीर्घता ॥ ४५ ॥
सूर्य छ: राशियोंको रात्रिके समय भोगता है और छःको दिनके समय । राशियोंके परिमाणानुसार ही दिनका बढ़ना-घटना होता है तथा रात्रिकी लघुता-दीर्घता भी राशियोंके परिमाणसे ही होती है ॥ ४४-४५ ॥

दिनादेर्दिर्घह्रस्वत्वं तद्‍भोगेनैव जायते ।
उत्तरे प्रक्रमे शीघ्रा निशि मन्दा गतिर्दिवा ॥ ४६ ॥
दक्षिणे त्वयने चैव विपरीतां विवस्वतः ॥ ४७ ॥
राशियोंके भोगानुसार ही दिन अथवा रात्रिकी लघुता अथवा दीर्घता होती है । उत्तरायणमें सूर्यकी गति रात्रिकालमें शीघ्र होती है तथा दिनमें मन्द । दक्षिणायनमें उसकी गति इसके विपरीत होती है । ४६-४७ ॥

उषा रात्रिः समाख्याता व्युष्टिश्चाप्युच्यते दिनम् ।
प्रोच्यते च तथा सन्ध्या उषाव्युष्ट्योर्यदन्तरम् ॥ ४८ ॥
रात्रि उषा कहलाती है तथा दिन व्युष्टि (प्रभात) कहा जाता है; इन उषा तथा व्युष्टिके बीचके समयको सन्ध्या कहते हैं * ॥ ४८ ॥

सन्ध्याकाले च सम्प्राप्ते रौद्रे परमदारुणे ।
मन्देहा राक्षसा घोराः सूर्यमिच्छन्ति खादितुम् ॥ ४९ ॥
इस अति दारुण और भयानक सन्ध्याकालके उपस्थित होनेपर मन्देहा नामक भयंकर राक्षसगण सूर्यको खाना चाहते हैं ॥ ४९ ॥

प्रजापतिकृतः शापस्तेषां मैत्रेय रक्षसाम् ।
अक्षयत्वं शरीराणां मरणं च दिने दिने ॥ ५० ॥
हे मैत्रेय ! उन राक्षसोंको प्रजापतिका यह शाप है कि उनका शरीर अक्षय रहकर भी मरण नित्यप्रति हो ॥ ५० ॥

ततः सूर्यस्य तैर्युद्धं भवत्यत्यन्तदारुणम् ।
ततो द्विजोत्तमास्तोयं संक्षिपन्ति महामुने ॥ ५१ ॥
ओङ्‍कारब्रह्मसंयुक्तं गायत्र्या चाभिमन्त्रितम् ।
तेन दह्यन्ति ते पापा वज्रीभूतेन वारिणा ॥ ५२ ॥
अतः सन्ध्याकालमें उनका सूर्यसे अति भीषण युद्ध होता है; हे महामुने ! उस समय द्विजोत्तमगण जो ब्रह्मस्वरूप ॐकार तथा गायत्रीसे अभिमन्त्रित जल छोड़ते हैं, उस वज्रस्वरूप जलसे वे दुष्ट राक्षस दग्ध हो जाते हैं ॥ ५१-५२ ॥

अग्निहोत्रे हूयते या समन्त्रा प्रथमाहुतिः ।
सूर्योज्योतिः सहस्रांशुस्तया दीप्यति भास्करः ॥ ५३ ॥
अग्निहोत्रमें जो 'सूर्यो ज्योतिः' इत्यादि मन्त्रसे प्रथम आहुति दी जाती है उससे सहस्रांशु दिननाथ देदीप्यमान हो जाते हैं ॥ ५३ ॥

ओङ्‍कारो भगवान्विष्णुस्त्रिधामा वचसां पतिः ।
तदुच्चारणतस्ते तु विनाशं यान्ति राक्षसाः ॥ ५४ ॥
ॐकार विश्व, तेजस् और प्राज्ञरूप तीन धामोंसे युक्त भगवान् विष्णु है तथा सम्पूर्ण वाणियों (वेदों) का अधिपति है, उसके उच्चारणमात्रसे ही वे राक्षसगण नष्ट हो जाते हैं ॥ ५४ ॥

वैष्णुवोंऽशः परः सूर्यो योऽन्तर्ज्योतिरसम्प्लवम् ।
अभिधायक ओङ्‍कारस्तस्य तत्प्रेरकं परः ॥ ५५ ॥
सूर्य विष्णुभगवान्का अति श्रेष्ठ अंश और विकाररहित अन्तज्योतिःस्वरूप है । ॐकार उसका वाचक है और वह उसे उन राक्षसोंके वध अत्यन्त प्रेरित करनेवाला है ॥ ५५ ॥

तेन सम्प्रेरितं ज्योतिरोंकारेणाथ दीप्तिमत् ।
दहत्यशेषरक्षांसि मन्देहाख्यान्यघानि वै ॥ ५६ ॥
उस ॐकारकी प्रेरणासे अति प्रदीप्त होकर वह ज्योति मन्देहा नामक सम्पूर्ण पापी राक्षसोंको दग्ध कर देती है ॥ ५६ ॥

तस्मान्नोल्लङ्‍घनं कार्यं सन्ध्योपासनकर्मणः ।
स हन्ति सूर्यं सन्ध्याया नोपास्तिं कुरुते तु यः ॥ ५७ ॥
इसलिये सन्ध्योपासन-कर्मका उल्लंघन कभी न करना चाहिये । जो पुरुष सन्ध्योपासन नहीं करता वह भगवान् सूर्यका घात करता है ॥ ५७ ॥

ततः प्रयाति भगवान्ब्राह्मणैरभिरक्षितः ।
वालखिल्यादिभिश्चैव जगतः पालनोद्यतः ॥ ५८ ॥
तदनन्तर [उन राक्षसोंका वध करनेके पश्चात्] भगवान् सूर्य संसारके पालनमें प्रवृत्त हो बालखिल्यादि ब्राह्मणोंसे सुरक्षित होकर गमन करते हैं ॥ ५८ ॥

काष्ठा निमेषा दश पञ्च चैव
     त्रिंशच्च काष्ठा गणयेत्कलां च ।
त्रिंशत्कलश्चैव भवेन्मुहूर्त-
     स्तैस्त्रिंशता रात्र्यहनी समेते ॥ ५९ ॥
पन्द्रह निमेषकी एक काष्ठा होती है और तीस काष्ठाकी एक कला गिनी जाती है । तीस कलाओंका एक मुहूर्त होता है और तीस मुहूतोंके सम्पूर्ण रात्रि-दिन होते हैं । ॥ ५९ ॥

ह्रासवृद्धी त्वहर्भागैर्दिवसानां यथाक्रमम् ।
सन्ध्यामुहूर्तमात्रा वै ह्रासवृद्धौ समा स्मृता ॥ ६० ॥
दिनोंका हास अथवा वृद्धि क्रमशः प्रात:काल, मध्याह्नकाल आदि दिवसांशोंके हास-वृद्धिके कारण होते हैं; किन्तु दिनोंके घटते-बढ़ते रहनेपर भी सन्ध्या सर्वदा समान भावसे एक मुहूर्तकी ही होती है ॥ ६० ॥

रेखाप्रभृत्यथादित्ये त्रिमुहूर्तगते रवौ ।
प्रातः स्मृतस्ततः कालो भागश्चाह्नः स पञ्चमः ॥ ६१ ॥
उदबसे लेकर सूर्यको तीन मुहूर्तकी गतिके कालको 'प्रात:काल' कहते हैं, यह सम्पूर्ण दिनका पाँचवाँ भाग होता है ॥ ६१ ॥

तस्मात्प्रातस्तनात्कालात्त्रिमुहूर्तस्तु सङ्‍गवः ।
मध्याह्नस्त्रिमुहूर्तस्तु तस्मात्कालात्तु सङ्‍गवात् ॥ ६२ ॥
इस प्रात:कालके अनन्तर तीन मुहूर्तका समय 'संगव' कहलाता है तथा संगवकालके पश्चात् तीन मुहूर्तका मध्यान' होता है ॥ ६२ ॥

तस्मान्माध्याह्निकात्कालादपराह्न इति स्मृतः ।
त्रय एव मुहूर्तास्तु कालभागः स्मृतो बुधैः ॥ ६३ ॥
मध्याहनकालसे पीछेका समय अपराह' कहलाता है इस काल-भागको भी बुधजन तीन मुहूर्तका ही बताते हैं ॥ ६३ ॥

आपराह्णे व्यतीते तु कालः सायाह्न एव च ।
दशपञ्च मुहूर्तं वै मुहूर्तास्त्रय एव च ॥ ६४ ॥
अपराहके बीतनेपर 'सायास्त' आता है । इस प्रकार [सम्पूर्ण दिनमें] पन्द्रह मुहूर्त और [प्रत्येक दिवसांशमें] तीन मुहूर्त होते हैं ॥ ६४ ॥

दशपञ्च मुहूर्तं वै अहर्वैषुवतं स्मृतम् ॥ ६५ ॥
वर्धते ह्रसेत चैवाप्ययने दक्षिणोत्तरे ।
अहस्तु ग्रसते रात्रिं रात्रिर्ग्रसति वासरम् ॥ ६६ ॥
वैषुवत दिवस पन्द्रह मुहूर्तका होता है, किन्तु उत्तरायण और दक्षिणायनमें क्रमशः उसके वृद्धि और बस होने लगते हैं । इस प्रकार उत्तरायणमें दिन रात्रिका ग्रास करने लगता है और दक्षिणायनमें रात्रि दिनका ग्रास करती रहती है ॥ ६५-६६ ॥

शरद्वसन्तयोर्मध्ये विषुवं तु विभाव्यते ।
तुलामेषगते भानौ समरात्रिदिनं तु तत् ॥ ६७ ॥
शरद् और वसन्त-ऋतुके मध्यमें सूर्यके तुला अथवा मेषराशिमें जानेपर 'विषुव' होता है । उस समय दिन और रात्रि समान होते हैं ॥ ६७ ॥

कर्कटावस्थिते भानौ दक्षिणायनमुच्यते ।
उत्तरायणमप्युक्तं मकरस्थे दिवाकरे ॥ ६८ ॥
सूर्यके कर्कराशिमें उपस्थित होनेपर दक्षिणायन कहा जाता है और उसके मकरराशिपर आनेसे उत्तरायण कहलाता है ॥ ६८ ॥

त्रिंशन्मुहूर्तं कथितमहोरात्रं तु यन्मया ।
तानिपञ्चदश ब्रह्मन् पक्ष इत्यभिधीयते ॥ ६९ ॥
हे ब्रह्मन् ! मैंने जो तीस मुहूर्तके एक रात्रि-दिन कहे हैं, ऐसे पन्द्रह रात्रि-दिवसका एक 'पक्ष' का जाता है ॥ ६९ ॥

मासः पक्षद्वयेनोक्तो द्वौ मासौ चार्कजावृतुः ।
ऋतुत्रयं चाप्ययनं द्वेऽयने वर्षसंज्ञिते ॥ ७० ॥
दो पक्षका एक मास होता है, दो सौरमासकी एक ऋतु और तीन ऋतुका एक अयन होता है तथा दो अयन ही [मिलाकर] एक वर्ष कहे जाते हैं ॥ ७० ॥

संवत्सरादयः पञ्च चतुर्मासविकल्पिताः ।
निश्चयः सर्वकालस्य युगमित्यभिधीयते ॥ ७१ ॥
[सौर, सावन, चान्द्र तथा नाक्षत्र-इन] चार प्रकारके मासोंके अनुसार विविधरूपसे कल्पित संवत्सरादि पाँच प्रकारके वर्ष 'युग' कहलाते हैं यह युग ही [मलमासादि] सब प्रकारके काल-निर्णयका कारण कहा जाता है ॥ ७१ ॥

संवत्सरस्तु प्रथमो द्वितीयः परिवत्सरः ।
इद्वत्सरस्तृतीयस्तु चतुर्थश्चानुवत्सरः ।
वत्सरः पञ्चमश्चात्र कालोयं युगसंज्ञितः ॥ ७२ ॥
उनमें पहला संवत्सर, दूसरा परिवत्सर, तीसरा इद्वत्सर, दौथा अनुवत्सर और पाँचवाँ वत्सर है । यह काल 'युग' नामसे विख्यात है ॥ ७२ ॥

यः श्वेतस्योत्तरः शैलः शृङ्‍गवानिति विश्रुतः ।
त्रीणि तस्य तु शृङ्‍गाणि यैरयं शृङ्‍गवान्स्मृतः ॥ ७३ ॥
श्वेतवर्षके उत्तरमें जो शृंगवान् नामसे विख्यात पर्वत है उसके तीन श्रृंग हैं, जिनके कारण यह शृंगवान् कहा जाता है ॥ ७३ ॥

दक्षिणं चोत्तरं चैव मध्यं वैषुवतं तथा ।
शरद्वसन्तयोर्मध्ये तद्‍भानुः प्रतिपद्यते ।
मेषादौ च तुलादौ च मैत्रेय विषुवस्थितम् ॥ ७४ ॥
तदा तुल्यमहोरात्रं करोति तिमिरापहः ।
दशपञ्च मुहूर्तं वै तदेतदुभयं स्मृतम् ॥ ७५ ॥
उनमेंसे एक शृंग उत्तरमें, एक दक्षिणमें तथा एक मध्यमें है । मध्यशृंग ही 'वैषुवत' है । शरद् और वसन्त-ऋतुके मध्यमें सूर्य इस वैषुवतशृंगपर आते हैं; अतः हे मैत्रेय ! मेष अथवा तुलाराशिके आरम्भमें तिमिरापहारी सूर्यदेव विषुवत्पर स्थित होकर दिन और रात्रिको समान परिमाण कर देते हैं । उस समय ये दोनों पन्द्रह-पन्द्रह मुहूर्तके होते हैं ॥ ७४-७५ ॥

प्रथमे कृत्तिकाभागे यदा भास्वांस्तदा शशी ।
विशाखानां चतुर्थेंऽशे मुने तिष्ठत्यसंशयम् ॥ ७६ ॥
विशाखानां यदा सूर्यश्चरत्यंशं तृतीयकम् ।
तदा चन्द्रं विजानीयात्कृत्तिकाशिरसि स्थितम् ॥ ७७ ॥
तदैव विषुवाख्योऽयं कालः पुण्योऽभिधीयते ।
तदा दानादि देयानि देवेभ्यः प्रयतात्मभिः ॥ ७८ ॥
ब्रह्मणेभ्यः पितृभ्यश्च मुखमेतत्तु दानजम् ।
दत्तदानस्तु विषुवे कृतकृत्योऽभिजायते ॥ ७९ ॥
हे मुने ! जिस समय सूर्य कृत्तिकानक्षत्रके प्रथम भाग अर्थात् मेषराशिके अन्तमें तथा चन्द्रमा निश्चय ही विशाखाके चतुर्थांश [अर्थात् वृश्चिकके आरम्भ ]-में हों; अथवा जिस समय सूर्य विशाखाके तृतीय भाग अर्थात् तुलाके अन्तिमांशका भोग करते हों और चन्द्रमा कृत्तिकाके प्रथम भाग अर्थात् मेषान्तमें स्थित जान पड़ें तभी यह 'विषुव' नामक अति पवित्र काल कहा जाता है । इस समय देवता, ब्राह्मण और पितृगणके उद्देश्यसे संयतचित्त होकर दानादि देने चाहिये । यह समय दानग्रहणके लिये मानो देवताओंके खुले हुए मुखके समान है । अत: 'विषुव' कालमें दान करनेवाला मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है ॥ ७६-७९ ॥

अहोरात्रार्धमासास्तु कलाः काष्ठाः क्षणास्तथा ।
पौर्णमासी तथा ज्ञेया अमावास्या तथैव च ।
सिनीवाली कुहूश्चैव राका चानुमतिस्तथा ॥ ८० ॥
यागादिके काल-निर्णयके लिये दिन, रात्रि, पक्ष, कला, काष्ठा और क्षण आदिका विषय भली प्रकार जानना चाहिये । राका और अनुमति दो प्रकारको पूर्णमासी' तथा सिनीवाली और कुहू दो प्रकारकी अमावास्या होती हैं ॥ ८० ॥

तपस्तपस्यै मधुमाधवौ च
     शुक्रः शुचिश्चायनमुत्तरं स्यात् ।
नभोनभस्यौ च इषस्तथोर्ज-
     स्सहसहस्याविति दक्षिणं तत् ॥ ८१ ॥
माघ-फाल्गुन, चैत्र-वैशाख तथा ज्येष्ठ-आषाढ़-ये छ: मास उत्तरायण होते हैं और श्रावण-भाद्र, आश्विन-कार्तिक तथा अगहन-पौष-ये छ: दक्षिणायन कहलाते हैं ॥ ८१ ॥

लोका लोकश्च यश्शैलः प्रागुक्तो भवतो मया ।
लोकपालास्तु चत्वारस्तत्र तिष्ठन्ति सुव्रताः ॥ ८२ ॥
मैंने पहले तुमसे जिस लोकालोकपर्वतका वर्णन किया है, उसीपर चार व्रतशील लोकपाल निवास करते हैं ॥ ८२ ॥

सुधामा शङ्‍खपाच्चैव कर्दमस्यात्मजो द्विज ।
हिरण्यरोमा चैवान्यश्चतुर्थः केकुमानपि ॥ ८३ ॥
निर्द्वन्द्वा निरभीमाना निस्तन्द्रा निष्परिग्रहाः ।
लोकपालाः स्थिता ह्येते लोकालोके चतुर्दिशम् ॥ ८४ ॥
हे द्विज ! सुधामा, कर्दमके पुत्र शंखपाद और हिरण्यरोमा तथा केतुमान्-ये चारों निईन्छ, निरभिमान, निरालस्य और निष्परिग्रह लोकपालगण लोकालोक पर्वतकी चारों दिशाओंमें स्थित हैं ॥ ८३-८४ ॥

उत्तरं यदगस्त्यस्य अजवीथ्याश्च दक्षिणम् ।
पितृयानः स वै पन्था वैश्वानरपथाद्‍बहिः ॥ ८५ ॥
जो अगस्त्यके उत्तर तथा अजवीथिके दक्षिणमें वैश्वानरमार्गसे भिन्न [ मृगवीथि नामक ] मार्ग है वही पित्यानपथ है ॥ ८५ ॥

तत्रासते महात्मान ऋषयो येऽग्निहोत्रिणः ।
भूतारम्भकृतं ब्रह्म शंसन्तो ऋत्विगुद्यताः ।
प्रारभन्ते तु ये लोकास्तेषां पन्थाः स दक्षिणः ॥ ८६ ॥
उस पितृयानमार्गमें महात्मामुनिजन रहते हैं । जो लोग अग्निहोत्री होकर प्राणियोंकी उत्पत्तिके आरम्भक ब्रह्म (वेद)-की स्तुति करते हुए यज्ञानुष्ठानके लिये उद्यत हो कर्मका आरम्भ करते हैं वह (पित्यान) उनका दक्षिणमार्ग है ॥ ८६ ॥

चलितं ते पुनर्ब्रह्म स्थापयन्ति युगेयुगे ।
सन्तत्या तपसा चैव मर्यादाभिः श्रुतेन च ॥ ८७ ॥
वे युगयुगान्तरमें विच्छिन्न हुए वैदिक धर्मकी सन्तान, तपस्या, वर्णाश्रम-मर्यादा और विविध शास्त्रोंके द्वारा पुनः स्थापना करते हैं ॥ ८७ ॥

जायमानास्तु पूर्वे च पश्चिमानां गृहेषु वै ।
पश्चिमाश्चैव पूर्वेषां जायन्ते निधनेष्विह ॥ ८८ ॥
पूर्वतन धर्मप्रवर्तक ही अपनी उत्तरकालीन सन्तानके यहाँ उत्पन्न होते हैं और फिर उत्तरकालीन धर्म-प्रचारकगण अपने यहाँ सन्तानरूपसे उत्पन्न हुए अपने पितृगणके कुलोंमें जन्म लेते हैं ॥ ८८ ॥

एवमावर्तमानास्ते तिष्ठन्ति नियतव्रताः ।
सवितुर्दक्षिणं मार्गं श्रिता ह्याचन्द्रतारकम् ॥ ८९ ॥
इस प्रकार, वे व्रतशील महर्षिगण चन्द्रमा और तारागणकी स्थितिपर्यन्त सूर्यके दक्षिणमार्गमें पुन:-पुनः आतेजाते रहते हैं ॥ ८९ ॥

नागावीथ्युत्तरं यच्च सप्तर्षिभ्यश्च दक्षिणम् ।
उत्तरः सवितुः पन्था देवयानश्च स स्मृतः ॥ ९० ॥
नागीथिके उत्तर और सप्तर्षियोंके दक्षिणमें जो सूर्यका उत्तरीय मार्ग है उसे देवयानमार्ग कहते हैं ॥ ९० ॥

तत्र ते वासिनः सिद्धा विमला ब्रह्मचारिणः ।
सन्ततिं ते जुगुप्सन्ति तस्मान्मृत्युर्जितश्च तैः ॥ ९१ ॥
उसमें जो प्रसिद्ध निर्मलस्वभाव और जितेन्द्रिय ब्रह्मचारिगण निवास करते हैं वे सन्तानकी इच्छा नहीं करते, अत: उन्होंने मृत्युको जीत लिया है ॥ ९१ ॥

अष्टाशीतिसहस्राणि मुनीनामूर्ध्वरेतसाम् ।
उदक्पन्थानमर्यम्णः स्थितान्याभूतसम्प्लवम् ॥ ९२ ॥
सूर्यके उत्तरमार्गमें अस्सी हजार ऊर्ध्वरेता मुनिगण प्रलयकालपर्यन्त निवास करते हैं ॥ ९२ ॥

ते सम्प्रयोगाल्लोभस्य मैथुनस्य च वर्जनात् ।
इच्छाद्वेषाप्रवृत्त्या च भूतारम्भविवर्जनात् ॥ ९३ ॥
पुनश्च कामासंयोगाच्छब्दादेर्देषदर्शनात् ।
इत्येभिः कारणैः शुद्धास्तेऽमृतत्वं हि भेजिरे ॥ ९४ ॥
उन्होंने लोभके असंयोग, मैथुनके त्याग, इच्छा और द्वेषकी अप्रवृत्ति, कर्मानुष्ठानके त्याग, काम वासनाके असंयोग और शब्दादि विषयोंके दोषदर्शन इत्यादि कारणोंसे शुद्धचित्त होकर अमरता प्राप्त कर ली है ॥ ९३-९४ ॥

आभूतसम्प्लवं स्थानममृतत्वं विभाव्यते ।
त्रैलोक्यस्थितिकालोऽयमपुनर्मार उच्यते ॥ ९५ ॥
भूतोंके प्रलयपर्यन्त स्थिर रहनेको ही अमरता कहते हैं । त्रिलोकीकी स्थितितकके इस कालको ही अपुनार (पुनर्मृत्युरहित) कहा जाता है ॥ ९५ ॥

ब्रह्महत्याश्वमेधाभ्यां पापपुण्यकृतो विधिः ।
आभूतसम्प्लवान्तन्तु फलमुक्तं तयोर्द्विज ॥ ९६ ॥
हे द्विज ! ब्रह्महत्या और अश्वमेधयज्ञसे जो पाप और पुण्य होते हैं उनका फल प्रलयपर्यन्त कहा गया है ॥ ९६ ॥

यावन्मात्रे प्रदेशे तु मैत्रेयावस्थितो ध्रुवः ।
क्षयमायाति तावत्तु भूमेराभूतसम्प्लवात् ॥ ९७ ॥
हे मैत्रेय ! जितने प्रदेशमें ध्रुव स्थित है, पृथिवीसे लेकर उस प्रदेशपर्यन्त सम्पूर्ण देश प्रलयकालमें नष्ट हो जाता है । ॥ ९७ ॥

ऊर्ध्वोत्तरमृषिभ्यस्तु ध्रुवो यत्र व्यवस्थितः ।
एतद्विष्णुपदं दिव्यं तृतीयं व्योम्नि भासुरम् ॥ ९८ ॥
सप्तर्षियोंसे उत्तर दिशामें ऊपरकी ओर जहाँ ध्रुव स्थित है वह अति तेजोमय स्थान ही आकाशमें विष्णुभगवान्का तीसरा दिव्यधाम है ॥ ९८ ॥

निर्धूतदोषपङ्‍कानां यतीनां संयतात्मनाम् ।
स्थानं तत्परमं विप्र पुण्यपापपरिक्षये ॥ ९९ ॥
हे विप्र ! पुण्य-पापके क्षीण हो जानेपर दोष-पंकशून्य संयतात्मा मुनिजनोंका यही परमस्थान है ॥ ९९ ॥

अपुण्यपुण्योपरमे क्षीणाशेषाप्तिहेतवः ।
यत्र गत्वा न शोचन्ति तद्विष्णोः परपं पदम् ॥ १०० ॥
पाप-पुण्यके निवृत्त हो जाने तथा देह-प्राप्तिके सम्पूर्ण कारणोंके नष्ट हो जानेपर प्राणिगण जिस स्थानपर जाकर फिर शोक नहीं करते वही भगवान् विष्णुका परमपद है ॥ १०० ॥

धर्मध्रुवाद्यास्तिष्ठन्ति यत्र ते लोकसाक्षिणः ।
तत्सार्ष्ट्योत्पन्नयोगेद्धास्तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ १०१ ॥
जहाँ भगवान्की समान ऐश्वर्यतासे प्राप्त हुए योगद्वारा सतेज होकर धर्म और ध्रुव आदि लोक-साक्षिगण निवास करते हैं वही भगवान् विष्णुका परमपद है ॥ १०१ ॥

यत्रोतमेतत्प्रोतं च यद्‍भूतं सचराचरम् ।
भव्यं य विश्वं मैत्रेय तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ १०२ ॥
हे मैत्रेय ! जिसमें यह भूत, भविष्यत् और वर्तमान चराचर जगत् ओत-प्रोत हो रहा है वही भगवान् विष्णुका परमपद है ॥ १०२ ॥

दिवीव चक्षुराततं योगिनां तन्मयात्मनाम् ।
विवेकज्ञानदृष्टं च तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ १०३ ॥
जो तल्लीन योगिजनोंको आकाश मण्डलमें देदीप्यमान सूर्यके समान सबके प्रकाशकरूपसे प्रतीत होता है तथा जिसका विवेक-ज्ञानसे ही प्रत्यक्ष होता है वही भगवान् विष्णुका परमपद है ॥ १०३ ॥

यस्मिन्प्रतिष्ठितो भास्वान्मेढीभूतः स्वयं ध्रुवः ।
ध्रुवे च सर्वज्योतींषि ज्योतिष्वम्भोमुचो द्विज ॥ १०४ ॥
मेघेषु सङ्‍गता वृष्टिर्वृष्टेः सृष्टेश्च पोषणम् ।
आप्यायनं च सर्वेषां देवादीनां महामुने ॥ १०५ ॥
हे द्विज ! उस विष्णुपदमें ही सबके आधारभूत परम तेजस्वी ध्रुव स्थित हैं, तथा ध्रुवजीमें समस्त नक्षत्र, नक्षत्रों में मेघ और मेघोंमें वृष्टि आश्रित है । हे महामुने ! उस वृष्टिसे ही समस्त सृष्टिका पोषण और सम्पूर्ण देवमनुष्यादि प्राणियोंकी पुष्टि होती है ॥ १०४-१०५ ॥

ततश्चाज्याहुतिद्वारा पोषितास्ते हविर्भुजः ।
वृष्टेः कारणतां यान्ति भूतानां स्थितये पुनः ॥ १०६ ॥
तदनन्तर गौ आदि प्राणियोंसे उत्पन्न दुग्ध और घृत आदिकी आहुतियोंसे परितुष्ट अग्निदेव ही प्राणियोंकी स्थितिके लिये पुन:वृष्टिके कारण होते हैं ॥ १०६ ॥

एवमेतत्पदं विष्णोस्तृतीयममलात्मकम् ।
आधारभूतं लोकानां त्रयाणां वृष्टिकारणम् ॥ १०७ ॥
इस प्रकार विष्णुभगवान्का यह निर्मल तृतीय लोक (ध्रुव) ही त्रिलोकीका आधारभूत और वृष्टिका आदिकारण है ॥ १०७ ॥

ततः प्रभवति ब्रह्मन्सर्वपापहरा सरित् ।
गङ्‍गा देवाङ्‍गनाङ्‍गानामनुलेपनपिञ्जरा ॥ १०८ ॥
हे ब्रह्मन् ! इस विष्णुपदसे ही देवांगनाओंके अंगरागसे पाण्डुरवर्ण हुई-सी सर्वपापापहारिणी श्रीगंगाजी उत्पन्न हुई हैं ॥ १०८ ॥

वामपादाम्बुजाङ्‍गुष्ठनखस्त्रोतोविनिर्गताम् ।
विष्णोर्बिभार्ति यां भक्त्या शिरस्साहर्निशं ध्रुवः ॥ १०९ ॥
विष्णुभगवान्के वाम चरणकमलके अँगूठेके नखरूप स्रोतसे निकली हुई उन गंगाजीको ध्रुव दिन-रात अपने मस्तकपर धारण करता है ॥ १०९ ॥

ततः सप्तर्षयो यस्याः प्राणायामपरायणाः ।
तिष्ठन्ति वीचिमालाभिरुह्यमानजटाजले ॥ ११० ॥
वार्योघैः सन्ततैर्यस्याः प्लावितं शशिमण्डलम् ।
भूयोधिकतरां कान्तिं वहत्येतदुह क्षये ॥ १११ ॥
मेरुपृष्टे पतत्युच्चैर्निष्क्रान्ता शशिमण्डलात् ।
जगतः पावनार्थाय प्रयाति च चतुर्दिशम् ॥ ११२ ॥
तदनन्तर जिनके जलमें खड़े होकर प्राणायामपरायण सप्तर्षिगण उनकी तरंगभंगीसे जटाकलापके कम्पायमान होते हुए, अघमर्षण-मन्त्रका जप करते हैं तथा जिनके विस्तृत जलसमूहसे आप्लावित होकर चन्द्रमण्डल क्षयके अनन्तर पुन: पहलेसे भी अधिक कान्ति धारण करता है, वे श्रीगंगाजी चन्द्रमण्डलसे निकलकर मेरुपर्वतके ऊपर गिरती हैं और संसारको पवित्र करनेके लिये चारों दिशाओंमें जाती हैं ॥ ११०-११२ ॥

सीता चालकनन्दा च चक्षुर्भद्रा च संस्थिता ।
एकैव या चतुर्भेदा दिग्भेदगतिलक्षणा ॥ ११३ ॥
चारों दिशाओमें जानेसे वे एक ही सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्र-इन चार भेदोंवाली हो जाती हैं ॥ ११३ ॥

भेदं चालकनन्दाख्यं यस्याः शर्वोपि दक्षिणाम् ।
दधार शिरसा प्रीत्या वर्षाणामधिकं शतम् ॥ ११४ ॥
शम्भोर्जटाकलापाच्च विनिष्क्रान्तास्थिशर्कराः ।
प्लावयित्वा दिवं निन्ये या पापान्सगरात्मजान् ॥ ११५ ॥
स्त्रातस्य सलिले यस्याः सद्यः पापं प्रणश्यति ।
अपूर्वपुण्यप्राप्तिश्च सद्यो मैत्रेय जायते ॥ ११६ ॥
जिसके अलकनन्दा नामक दक्षिणीय भेदको भगवान् शंकरने अत्यन्त प्रीतिपूर्वक सौ वर्षसे भी अधिक अपने मस्तकपर धारण किया था, जिसने श्रीशंकरके जटाकलापसे निकलकर पापी सगरपुत्रोंके अस्थिचूर्णको आप्लावित कर उन्हें स्वर्गमें पहुँचा दिया । हे मैत्रेय ! जिसके जलमें स्नान करनेसे शीघ्र ही समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और अपूर्व पुण्यकी प्राप्ति होती है ॥ ११४-११६ ॥

दत्ताः पितृभ्यो यत्रापस्तनयैः श्रद्धयान्वितैः ।
समाशतं प्रयच्छन्ति तृप्तिं मैत्रेय दुर्लभाम् ॥ ११७ ॥
जिसके प्रवाहमें पुत्रोंद्वारा पितरों के लिये श्रद्धापूर्वक किया हुआ एक दिनका भी तर्पण उन्हें सौ वर्षतक दुर्लभ तृप्ति देता है ॥ ११७ ॥

यस्यामिष्ट्‌वा महायज्ञैर्यज्ञेशं पुरुषोत्तमम् ।
द्विजभूपाः परां सिद्धिमवापुर्दिवि चेह च ॥ ११८ ॥
हे द्विज ! जिसके तटपर राजाओंने महायज्ञोंसे यज्ञेश्वर भगवान् पुरुषोत्तमका यजन करके इहलोक और स्वर्गलोकमें परमसिद्धि लाभ की है ॥ ११८ ॥

स्नानाद्विधूतपापाश्च यज्जलैर्यतयस्तथा ।
केशवासक्तमनसः प्राप्ता निर्वाणमुत्तमम् ॥ ११९ ॥
जिसके जलमें स्नान करनेसे निष्पाप हुए यतिजनोंने भगवान् केशवमें चित्त लगाकर अत्युत्तम निर्वाणपद प्राप्त किया है ॥ ११९ ॥

श्रुताऽभिलषिता दृष्टा स्पृष्टा पीताऽवगाहिता ।
या पावयति भूतानि कीर्तिता च दिने दिने ॥ १२० ॥
जो अपना श्रवण, इच्छा, दर्शन, स्पर्श, जलपान, स्नान तथा यशोगान करनेसे ही नित्यप्रति प्राणियोंको पवित्र करती रहती है ॥ १२० ॥

गङ्‌गा गङ्‍गेति यैर्नाम योजनानां शतेष्वपि ।
स्थितैरुच्चारितं हन्ति पापं जन्मत्रयार्जितम् ॥ १२१ ॥
तथा जिसका 'गंगा, गंगा' ऐसा नाम सौ योजनकी दूरीसे भी उच्चारण किये जानेपर [ जीवके ] तीन जन्मोंके संचित पापोंको नष्ट कर देता है ॥ १२१ ॥

यतः सा पावनायालं त्रयाणां जगतामपि ।
समुद्‍भूता परं तत्तु तृतीयं भगवत्पदम् ॥ १२२ ॥
त्रिलोकीको पवित्र करने में समर्थ वह गंगा जिससे उत्पन्न हुई है, वही भगवान्का तीसरा परमपद है ॥ १२२ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे द्वितीयेंऽशेऽष्टमोऽध्यायः (८)
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेऽशे अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥



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