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॥ विष्णुपुराणम् ॥

द्वितीयः अंशः

॥ सप्तमोऽध्यायः ॥

मैत्रेय उवाच
कथितं भूतलं ब्रह्मन्भमैतदखिलं त्वया ।
भुवर्लोकादिकांल्लोकाञ्छ्रोतुमिच्छाम्यहं मुने ॥ १ ॥
श्रीमैत्रेयजी बोले-ब्रह्मन् ! आपने मुझसे समस्त भूमण्डलका वर्णन किया । हे मुने ! अब मैं भुवर्लोक आदि समस्त लोकोंके विषयमें सुनना चाहता हूँ ॥ १ ॥

तथैव ग्रहसंस्थानं प्रमाणानि यथा तथा ।
समाचक्ष्व महाभाग तन्मह्यं परिपृच्छते ॥ २ ॥
हे महाभाग ! मुझ जिज्ञासुसे आप ग्रहगणकी स्थिति तथा उनके परिमाण आदिका यथावत् वर्णन कीजिये ॥ २ ॥

श्रीपराशर उवाच
रविचन्द्रमसोर्यावन्मयूखैरवभास्यते ।
ससमुद्रसरिच्छैला तावती पृथिवी स्मृता ॥ ३ ॥
श्रीपराशरजी बोले-जितनी दूरतक सूर्य और चन्द्रमाकी किरणोंका प्रकाश जाता है; समुद्र, नदी और पर्वतादिसे युक्त उतना प्रदेश पृथिवी कहलाता है ॥ ३ ॥

यावत्प्रमाणा पृथिवी विस्तारपरिमण्डलात् ।
नभस्तावन्प्रमाणं वै व्यासमण्डलतो द्विज ॥ ४ ॥
हे द्विज ! जितना पृथिवीका विस्तार और परिमण्डल (घेरा) है उतना ही विस्तार और परिमण्डल भुवर्लोकका भी है ॥ ४ ॥

भूमेर्योजनलक्षे तु सौरं मैत्रेय मण्डलम् ।
लक्षाद्दिवाकरस्यापि मण्डलं शशिनः स्थितम् ॥ ५ ॥
हे मैत्रेय ! पृथिवीसे एक लाख योजन दूर सूर्यमण्डल है और सूर्यमण्डलसे भी एक लक्ष योजनके अन्तरपर चन्द्रमण्डल है ॥ ५ ॥

पूर्णे शतसहस्रे तु योजनानां निशाकरात् ।
नक्षत्रमण्डलं कृत्स्नमुपरिष्टात्प्रकाशते ॥ ६ ॥
चन्द्रमासे पूरे सौ हजार (एक लाख) योजन ऊपर सम्पूर्ण नक्षत्रमण्डल प्रकाशित हो रहा है ॥ ६ ॥

द्वे लक्षे चोत्तरे ब्रह्मन् बुधो नक्षत्रमण्डलात् ।
तावत्प्रमाणभागे तु बुधस्याप्युशनाः स्थितः ॥ ७ ॥
हे ब्रह्मन् ! नक्षत्रमण्डलसे दो लाख योजन ऊपर बुध और बुधसे भी दो लक्ष योजन ऊपर शुक्र स्थित हैं ॥ ७ ॥

अङ्‍गारकोपि शुक्रस्य तत्प्रमाणे व्यवस्थितः ।
लक्षद्वये तु भौमस्य स्थितो देवपुरोहितः ॥ ८ ॥
शुक्रसे इतनी ही दूरीपर मंगल हैं और मंगलसे भी दो लाख योजन ऊपर बृहस्पतिजी हैं ॥ ८ ॥

सौरिर्बृहस्पतेश्चोर्ध्वं द्विलक्षे समवस्थितः ।
सप्तर्षिमण्डलं तस्माल्लक्षमेकं द्विजोत्तमा ॥ ९ ॥
हे द्विजोत्तम ! बृहस्पतिजीसे दो लाख योजन ऊपर शनि हैं और शनिसे एक लक्ष योजनके अन्तरपर सप्तर्षिमण्डल है ॥ ९ ॥

ऋषिभ्यस्तु सहस्राणां शतादूर्ध्वं व्यवस्थितः ।
मेढीभूतः समस्तस्य ज्योतिश्चक्रस्य वै ध्रुवः ॥ १० ॥
तथा सप्तर्षियोंसे भी सौ हजार योजन ऊपर समस्त ज्योतिश्चक्रकी नाभिरूप ध्रुवमण्डल स्थित है ॥ १० ॥

त्रैलोक्यमेतत्कथितमुत्सेधेन महामुने ।
इज्याफलस्य भूरेषा इज्या चात्र प्रतिष्ठिता ॥ ११ ॥
हे महामुने ! मैंने तुमसे यह त्रिलोकीको उच्चताके विषयमें वर्णन किया । यह त्रिलोकी यज्ञफलको भोग-भूमि है और यज्ञानुष्ठानकी स्थिति इस भारतवर्षमें ही है ॥ ११ ॥

ध्रुवादूर्ध्वं महर्लोको यत्र ते कल्पवासिनाः ।
एकयोजनकोटिस्तु यत्र ते कल्पवासिनः ॥ १२ ॥
ध्रुवसे एक करोड़ योजन ऊपर महर्लोक है, जहाँ कल्यान्त-पर्यन्त रहनेवाले भृगु आदि सिद्धगण रहते हैं ॥ १२ ॥

द्वे कोटी तु जनो लोको यत्र ते ब्रह्मणः सुताः ।
सनन्दनाद्याः प्रथिता मैत्रेयामलचेतसः ॥ १३ ॥
हे मैत्रेय ! उससे भी दो करोड़ योजन ऊपर जनलोक है जिसमें ब्रह्माजीके प्रख्यात पुत्र निर्मलचित्त सनकादि रहते हैं ॥ १३ ॥

चतुर्गणोत्तरे चोर्ध्वं जनलोकात्तपः स्थितम् ।
वैराजा यत्र ते देवाः स्थिता दाहविवर्जिताः ॥ १४ ॥
जनलोकसे चौगुना अर्थात् आठ करोड़ योजन ऊपर तपलोक है; वहाँ वैराज नामक देवगणोंका निवास है जिनका कभी दाह नहीं होता ॥ १४ ॥

षड्गुणेन तपोलोकान्सत्यलोको विराजते ।
अपुनर्मारका यत्र ब्रह्मलोको हि स स्मृतः ॥ १५ ॥
तपलोकसे छःगुना अर्थात् बारह करोड़ योजनके अन्तरपर सत्यलोक सुशोभित है जो ब्रह्मलोक भी कहलाता है और जिसमें फिर न मरनेवाले अमरगण निवास करते हैं ॥ १५ ॥

पादगम्यन्तु यत्किञ्चिद्वस्त्वस्ति पृथिवीमयम् ।
स भूर्लोकः समाख्यातो विस्तरोऽस्य मयोदितः ॥ १६ ॥
जो भी पार्थिव वस्तु चरणसंचारके योग्य है वह भूर्लोक ही है । उसका विस्तार मैं कह चुका ॥ १६ ॥

भूमिसूर्यान्तरं यच्च सिद्धादिमुनिसेवितम् ।
भुवर्लोकस्तु सोऽप्युक्तो द्वितीयो मुनिसत्तम ॥ १७ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! पृथिवी और सूर्यके मध्यमें जो सिद्धगण और मुनिगण-सेवित स्थान है, वही दूसरा भुवर्लोक है ॥ १७ ॥

ध्रुवसूर्यान्तरं यच्च नियुतानि चतुर्दश ।
स्वर्लोकः सोऽपि गदितो लोकसंस्थानचिन्तकैः ॥ १८ ॥
सूर्य और ध्रुवके बीचमें जो चौदह लक्ष योजनका अन्तर है, उसीको लोकस्थितिका विचार करनेवालोंने स्वर्लोक कहा है ॥ १८ ॥

त्रैलोक्यमेतत्कृतकं मैत्रेय परिपठ्यते ।
जनस्तपस्तथा सत्यमिति चाकृतकं त्रयम् ॥ १९ ॥
हे मैत्रेय ! ये (भूः, भुवः, स्वः) 'कृतक' त्रैलोक्य कहलाते हैं और जन, तप तथा सत्य-ये तीनों 'अकृतक' लोक हैं ॥ १९ ॥

कृतकाकृतयोर्मध्ये महर्लोक इति स्मृतः ।
शुन्यो भवति कल्पान्ते योऽत्यन्तं न विनश्यति ॥ २० ॥
इन कृतक और अकृतक त्रिलोकियोंके मध्यमें महर्लोक कहा जाता है, जो कल्पान्तमें केवल जनशून्य हो जाता है, अत्यन्त नष्ट नहीं होता [इसलिये यह 'कृतकाकृत' कहलाता है] ॥ २० ॥

एते सप्त मया लोका मैत्रेय कथितास्तव ।
पातालानि च सप्तैव ब्रह्माण्डस्यैष विस्तरः ॥ २१ ॥
हे मैत्रेय ! इस प्रकार मैंने तुमसे ये सात लोक और सात ही पाताल कहे । इस ब्रह्माण्डका बस । इतना ही विस्तार है ॥ २१ ॥

एतदण्डकटाहेन तिर्यक् चोध्वमधस्तथा ।
कपित्थस्य यथा बीजं सर्वतो वै समावृतम् ॥ २२ ॥
यह ब्रह्माण्ड कपित्थ (कैथे)-के बीजके समान ऊपर-नीचे सब ओर अण्डकटाहसे घिरा हुआ है ॥ २२ ॥

दशोत्तरेण पयसा मैत्रेयाण्डं च तद्वृतम् ।
सर्वोम्बुपरिधानोऽसौ वह्निना वेष्टितो बहिः ॥ २३ ॥
हे मैत्रेय ! यह अण्ड अपनेसे दसगुने जलसे आवृत है और वह जलका सम्पूर्ण आवरण अग्निसे घिरा हुआ है ॥ २३ ॥

वह्निश्च वायुना वायुर्मैत्रेय नभसा वृतः ।
भूतादिना नभः सोऽपि महता परिवेष्टितः ।
देशोत्तराम्यशेषाणि मैत्रेयैतानि सप्त वै ॥ २४ ॥
अग्नि वायुसे और वायु आकाशसे परिवेष्टित है तथा आकाश भूतोंके कारण तामस अहंकार और अहंकार महत्तत्त्वसे घिरा हुआ है । हे मैत्रेय ! ये सातों उत्तरोत्तर एक-दूसरेसे दसगुने हैं ॥ २४ ॥

महान्तं च समावृत्य प्रधानं समवस्थितम् ।
अनन्तस्य न तस्यान्तः संख्यानं चापि विद्यते ॥ २५ ॥
तदनन्तमसंख्यातप्रमाणं चापि वै यतः ।
हेतुभूतमशेषस्य प्रकृतिः सा परा मुने ॥ २६ ॥
महत्तत्त्वको भी प्रधानने आवृत कर रखा है । वह अनन्त है; तथा उसका न कभी अन्त (नाश) होता है और न कोई संख्या ही है; क्योंकि हे मुने ! वह अनन्त, असंख्येय, अपरिमेय और सम्पूर्ण जगत्का कारण है और वही परा प्रकृति है ॥ २५-२६ ॥

अण्डानां तु सहस्राणां सहस्राण्ययुतानि च ।
ईदृशानां तथा तत्र कोटिकोटिशतानि च ॥ २७ ॥
उसमें ऐसे-ऐसे हजारों, लाखों तथा सैकड़ों करोड़ ब्रह्माण्ड हैं ॥ २७ ॥

दारुण्यग्निर्यथा तैलं तिले तद्वत्पुमानपि ।
प्रधानेऽवस्थितो व्यापी चेतनात्मात्मवेदनः ॥ २८ ॥
जिस प्रकार काष्ठमें अग्नि और तिलमें तैल रहता है उसी प्रकार स्वप्रकाश चेतनात्मा व्यापक पुरुष प्रधानमें स्थित है ॥ २८ ॥

प्रधानं च पुमांश्चैव सर्वभूतात्मभूतया ।
विष्णुशक्त्या महाबुद्धे वृतौ संश्रयधर्मिणौ ॥ २९ ॥
हे महाबुद्धे ! ये संश्रयशील (आपसमें मिले हुए) प्रधान और पुरुष भी समस्त भूतोंकी स्वरूपभूता विष्णु-शक्तिसे आवृत हैं ॥ २९ ॥

तयोः सैव पृथग्भावकारणं संश्रयस्य च ।
क्षोभकारणभूता च सर्गकाले महामते ॥ ३० ॥
हे महामते ! वह विष्णु-शक्ति ही [प्रलयके समय] उनके पार्थक्य और [स्थितिके समय] उनके सम्मिलनकी हेतु है तथा सर्गारम्भके समय वही उनके क्षोभकी कारण है ॥ ३० ॥

यथा सक्तं जले वातो बिभर्ति कणिकाशतम् ।
शक्तिः सापि तथा विष्णोः प्रधानपुरुषात्मकम् ॥ ३१ ॥
जिस प्रकार जलके संसर्गसे वायु सैकड़ों जलकोंको धारण करता है उसी प्रकार भगवान् विष्णुकी शक्ति भी प्रधान-पुरुषमय जगत्को धारण करती है ॥ ३१ ॥

यथा च पादपो मूलस्कन्धशाखादिसंयुतः ।
आदिबीजात्प्रभवति बीजान्यन्यानि वै ततः ॥ ३२ ॥
प्रभवन्ति ततस्तेभ्यः सम्भवन्त्यपरे द्रुमाः ।
तेपि तल्लक्षणद्रव्यकारणानुगता मुने ॥ ३३ ॥
एवमव्याकृतात्पूर्वं जायन्ते महदादयः ।
विशेषान्तास्ततस्तेभ्यः सम्भवन्त्यसुरादयः ।
तेभ्यश्च पुत्रास्तेषां च पुत्राणामपरे सुताः ॥ ३४ ॥
हे मुने ! जिस प्रकार आदि-बीजसे ही मूल, स्कन्ध और शाखा आदिके सहित वृक्ष उत्पन्न होता है और तदनन्तर उससे और भी बीज उत्पन्न होते हैं, तथा उन बीजोंसे अन्यान्य वृक्ष उत्पन्न होते हैं और वे भी उन्हीं लक्षण, द्रव्य और कारणोंसे युक्त होते हैं, उसी प्रकार पहले अव्याकृत (प्रधान)-से महत्तत्त्वसे लेकर पंचभूतपर्यन्त [सम्पूर्ण विकार उत्पन्न होते हैं तथा उनसे देव, असुर आदिका जन्म होता है और फिर उनके पुत्र तथा उन पुत्रोंके अन्य पुत्र होते हैं ॥ ३२-३४ ॥

बीजाद्वृक्षप्ररोहेण यथा नापचयस्तरोः ।
भूतानां भूतसर्गेण नैवास्त्यपचयस्तथा ॥ ३५ ॥
अपने बीजसे अन्य वृक्षके उत्पन्न होनेसे जिस प्रकार पूर्ववक्षकी कोई क्षति नहीं होती उसी प्रकार अन्य प्राणियोंके उत्पन्न होनेसे उनके जन्मदाता प्राणियोंका ह्रास नहीं होता ॥ ३५ ॥

सन्निधानाद्यथाकाशकालाद्याः कारणं तरोः ।
तथैवापरिणामेव विश्वस्य भगवान्हरिः ॥ ३६ ॥
जिस प्रकार आकाश और काल आदि सन्निधिमात्रसे ही वृक्षके कारण होते हैं उसी प्रकार भगवान् श्रीहरि भी बिना परिणामके ही विश्वके कारण हैं ॥ ३६ ॥

व्रीहिबीजे यथा मूलं नालं पत्राङ्‍कुरौ तथा ।
काण्डं कोषस्तु पुष्पं च क्षीरं तद्वच्च तण्डुलाः ॥ ३७ ॥
तुषाः कणाश्च सन्तो वै यान्त्याविर्भावमात्मनः ।
प्ररोहहेतुसामग्रीमासाद्य मुनिसत्तम ॥ ३८ ॥
तथा कर्मस्वनेकेषु देवाद्याः समवस्थिताः ।
विष्णुशक्तिं समासाद्य प्ररोहमुपयान्ति वै ॥ ३९ ॥
हे मुनिसत्तम ! जिस प्रकार धानके बीजमें मूल, नाल, पत्ते, अंकुर, तना, कोष, पुष्प, क्षीर, तण्डुल, तुष और कण सभी रहते हैं; तथा अंकुरोत्पत्तिकी हेतुभूत [ भूमि एवं जल आदि] सामग्रीके प्राप्त होनेपर वे प्रकट हो जाते हैं, उसी प्रकार अपने अनेक पूर्वकोंमें स्थित देवता आदि विष्णु-शक्तिका आश्रय पानेपर आविर्भूत हो जाते हैं ॥ ३७-३९ ॥

स च विष्णुः परं ब्रह्म यतः सर्वमिदं जगत् ।
जगच्च यो यत्र चेदं यस्मिंश्च लयमेष्यति ॥ ४० ॥
जिससे यह सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है, जो स्वयं जगतरूपसे स्थित है, जिसमें यह स्थित है तथा जिसमें यह लीन हो जायगा वह परब्रह्म ही विष्णुभगवान् हैं ॥ ४० ॥

तद्‍ब्रह्म तत्परं धाम सदसत्परमं पदम् ।
यस्य सर्वमभेदेन यतश्चैतच्चराचरम् ॥ ४१ ॥
वह ब्रह्म ही उन (विष्णु)-का परमधाम (परस्वरूप) है, वह पद सत् और असत् दोनोंसे विलक्षण है तथा उससे अभिन्न हुआ ही यह सम्पूर्ण चराचर जगत् उससे उत्पन्न हुआ है ॥ ४१ ॥

स एव मूल प्रकृतिर्व्यक्तरूपी जगच्च सः ।
तस्मिन्नेव लयं सर्वं याति तत्र च तिष्ठति ॥ ४२ ॥
वही अव्यक्त मूलप्रकृति है, वही व्यक्तस्वरूप संसार है, उसीमें यह सम्पूर्ण जगत् लीन होता है तथा उसीके आश्रय स्थित है । ॥ ४२ ॥

कर्ता क्रियाणां स च इज्यते क्रतुः
     स एवतत्कर्मफलं च तस्य ।
स्त्रुगादियत्साधनमप्यशेषं
     हरेर्न किञ्चिद्‌व्यतिरिक्तमस्ति ॥ ४३ ॥
यज्ञादि क्रियाओंका कर्ता वही है, यज्ञरूपसे उसीका यजन किया जाता है, और उन यज्ञादिका फलस्वरूप भी वही है तथा यज्ञके साधनरूप जो सुवा आदि हैं वे सब भी हरिसे अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं ॥ ४३ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे द्वितीयेंऽशे सप्तमोऽध्यायः (७)
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥



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