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॥ विष्णुपुराणम् ॥

द्वितीयः अंशः

॥ त्रयोदशोऽध्यायः ॥

मैत्रेय उवाच
भगवन्सम्यगाख्यातं यत्पृष्टोसि मया किल ।
भूसमुद्रादिसरितां संस्थानं ग्रहसंस्थितिः ॥ १ ॥
श्रीमैत्रेयजी बोले-हे भगवन् ! मैंने पृथिवी, समुद्र, नदियों और ग्रहगणकी स्थिति आदिके विषयमें जो कुछ पूछा था सो सब आपने वर्णन कर दिया ॥ १ ॥

विष्ण्वाधारं यथा चैतत्त्रैलोक्यं समवस्थितम् ।
परमार्थस्तु ते प्रोक्तो यथाज्ञानं प्रधानतः ॥ २ ॥
उसके साथ ही आपने यह भी बतला दिया कि किस प्रकार यह समस्त त्रिलोकी भगवान् विष्णुके ही आश्रित है और कैसे परमार्थस्वरूप ज्ञान ही सबमें प्रधान है ॥ २ ॥

यत्त्वेतद्‍भगवानाह भरतस्य महीपतेः ।
श्रोतुमिच्छमि चरितं तन्ममाख्यातुमर्हसि ॥ ३ ॥
किन्तु भगवन् ! आपने पहले जिसकी चर्चा की थी वह राजा भरतका चरित्र मैं सुनना चाहता हूँ, कृपा करके कहिये ॥ ३ ॥

भरतः स महीपालः शालग्रामेऽवसत्किल ।
योगयुक्तः समाधाय वासुदेवे सदा मनः ॥ ४ ॥
कहते हैं, वे राजा भरत निरन्तर योगयुक्त होकर भगवान् वासुदेवमें चित्त लगाये शालग्रामक्षेत्रमें रहा करते थे ॥ ४ ॥

पुण्येदेशप्रभावेण ध्यायतश्च सदा हरिम् ।
कथं तु नाभवन्मुक्तिर्यदभूत्स द्विजः पुनः ॥ ५ ॥
इस प्रकार पुण्यदेशके प्रभाव और हरिचिन्तनसे भी उनकी मुक्ति क्यों नहीं हुई, जिससे उन्हें फिर ब्राह्मणका जन्म लेना पड़ा ॥ ५ ॥

विप्रत्वे च कृतं तेन यद्‍भूयः सुमहात्मना ।
भरतेन मुनिश्रेष्ठ तत्सर्वं वक्तुमर्हसि ॥ ६ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! ब्राह्मण होकर भी उन महात्मा भरतजीने फिर जो कुछ किया वह सब आप कृपा करके मुझसे कहिये ॥ ६ ॥

श्रीपराशर उवाच
शालग्रामे महाभागो भगवन्न्यस्तमानसः ।
स उवास चिरं कालं मैत्रेय पृथिवीपतिः ॥ ७ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! वे महाभाग पृथिवीपति भरतजी भगवान्में चित्त लगाये चिरकालतक शालग्रामक्षेत्रमें रहे ॥ ७ ॥

अहिंसादिष्वशेषेषु गुणेषु गुणिनां वरः ।
अवाप परमां काष्ठां मनसश्चापि संयमे ॥ ८ ॥
गुणवानों में श्रेष्ठ उन भरतजीने अहिंसा आदि सम्पूर्ण गुण और मनके संयममें परम उत्कर्ष लाभ किया ॥ ८ ॥

यज्ञेशाच्युत गोविन्द माधवानन्त केशव ।
कृष्ण विष्णो हृषीकेश वासुदेव नमोस्तु ते ॥ ९ ॥
इति राजाह भरतो हरेर्नामानि केवलम् ।
नान्यज्जगाद मैत्रेय किञ्चित्स्वप्रान्तरेपि च ।
एतत्पदं तदर्थं च विना नान्यदचिन्तयत् ॥ १० ॥
'हे यज्ञेश ! हे अच्युत ! हे गोविन्द ! हे माधव ! हे अनन्त ! हे केशव ! हे कृष्ण ! हे विष्णो ! हे हृषीकेश ! हे वासुदेव ! आपको नमस्कार है-इस प्रकार राजा भरत निरन्तर केवल भगवन्नामोंका ही उच्चारण किया करते थे । हे मैत्रेय ! वे स्वप्नमें भी इस पदके अतिरिक्त और कुछ नहीं कहते थे और न कभी इसके अर्थक अतिरिक्त और कुछ चिन्तन ही करते थे ॥ ९-१० ॥

समित्पुष्पकुशादानं चक्रे देवक्रियाकृते ।
नान्यानि चक्रे कर्माणि निःसङ्‍गो योगतापसः ॥ ११ ॥
वे नि:संग, योगयुक्त और तपस्वी राजा भगवान्की पूजाके लिये केवल समिथ, पुष्प और कुशाका ही संचय करते थे । इसके अतिरिक्त वे और कोई कर्म नहीं करते थे ॥ ११ ॥

जगाम सोभिषेकार्थमेकदा तु महानदीम् ।
सस्नौ तत्र तदा चक्रे स्नानस्यानन्तरक्रियाः ॥ १२ ॥
एक दिन वे स्नानके लिये नदीपर गये और वहाँ स्नान करनेके अनन्तर उन्होंने स्नानोत्तर क्रियाएँ की ॥ १२ ॥

अथाजगाम तत्तीरं जलं पातुं पिपासिता ।
आसन्नप्रसवा ब्रह्मन्नेकैव हरिणी वनात् ॥ १३ ॥
हे ब्रह्मन् ! इतनेहीमें उस नदी-तीरपर एक आसन्नप्रसवा (शीघ्र ही बच्चा जननेवाली) प्यासी हरिणी बनमेंसे जल पीनेके लिये आयी ॥ १३ ॥

ततः समभवत्तत्र पीतप्राये जले तथा ।
सिंहस्य नादः सुमहान्सर्वप्राणिभयङ्‍करः ॥ १४ ॥
उस समय जब वह प्राय: जल पी चुकी थी, वहाँ सब प्राणियोंको भयभीत कर देनेवाली सिंहको गम्भीर गर्जना सुनायी पड़ी ॥ १४ ॥

ततः सा सहसा त्रासादाप्लुता निम्नगातटम् ।
अत्युच्चारोहणेनास्या नद्यां गर्भः पपात ह ॥ १५ ॥
तब वह अत्यन्त भयभीत हो अकस्मात् उछलकर नदीके तटपर चढ़ गयी; अतः अत्यन्त उच्च स्थानपर चढ़नेके कारण उसका गर्भ नदीमें गिर गया ॥ १५ ॥

तमूह्यमानं वेगेन वीचिमालापरिप्लुतम् ।
जग्राह स नृपो गर्भात्पतितं मृगपोतकम् ॥ १६ ॥
नदीकी तरंगमालाओंमें पड़कर बहते हुए उस गर्भभ्रष्ट मृगबालकको राजा भरतने पकड़ लिया ॥ १६ ॥

गर्भप्रच्युतिदोषेण प्रोत्तुङ्‍गाक्रमणेन च ।
मैत्रेय सापि हरिणी पपात च ममार च ॥ १७ ॥
हे मैत्रेय ! गर्भपातके दोषसे तथा बहुत ऊँचे उछलनेके कारण वह हरिणी भी पछाड़ खाकर गिर पड़ी और मर गयी ॥ १७ ॥

हरिणीं तां विलोक्याथ विपन्नां नृपतापसः ।
मृगपोतं समादाय निजमाश्रममागतः ॥ १८ ॥
उस हरिणीको मरी हुई देख तपस्वी भरत उसके बच्चेको अपने आश्रमपर ले आये ॥ १८ ॥

चकारानुदिनं चासौ मृगपोतस्य वै नृपः ।
पोषणं पुष्यमाणश्च स तेन ववृधे मुने ॥ १९ ॥
हे मुने ! फिर राजा भरत उस मृगछौनेका नित्यप्रति पालन-पोषण करने लगे और वह भी उनसे पोषित होकर दिन-दिन बढ़ने लगा ॥ १९ ॥

चचाराश्रमपर्यन्ते तृणानि गहनेषु सः ।
दूरं गत्वा च शार्दुलत्रासादभ्याययौ पुनः ॥ २० ॥
वह बच्चा कभी तो उस आश्रमके आस-पास ही घास चरता रहता और कभी वनमें दूरतक जाकर फिर सिंहके भयसे लौट आता ॥ २० ॥

प्रातर्गत्वातिदूरं च सायमायात्यथाश्रमम् ।
पुनश्च भरतस्यभूदाश्रमस्योटजाजिरे ॥ २१ ॥
प्रात:काल वह बहुत दूर भी चला जाता, तो भी सायंकालको फिर आश्रममें ही लौट आता और भरतजीके आश्रमकी पर्णशालाके आँगनमें पड़ रहता ॥ २१ ॥

तस्य तस्मिन्मृगे दूरसमीपपरिवर्तिनि ।
आसीच्चेतः समासक्तं न ययावन्यतो द्विज ॥ २२ ॥
हे द्विज ! इस प्रकार कभी पास और कभी दूर रहनेवाले उस मृगमें ही राजाका चित्त सर्वदा आसक्त रहने लगा, वह अन्य विषयोंकी ओर जाता ही नहीं था ॥ २२ ॥

विमुक्तराज्यतनयः प्रोज्झिताशेषबान्धवः ।
ममत्वं स चकारोच्चैस्तस्मिन्हरिणबालके ॥ २३ ॥
जिन्होंने सम्पूर्ण राज-पाट और अपने पुत्र तथा बन्धुबान्धवोंको छोड़ दिया था वे ही भरतजी उस हरिणके बच्चेपर अत्यन्त ममता करने लगे ॥ २३ ॥

किं वृकैर्भक्षितो व्याघ्रैः किं सिंहेन निपातितः ।
चिरायमाणे निष्क्रान्ते तस्यासीदिति मानसम् ॥ २४ ॥
उसे बाहर जानेके अनन्तर यदि लौटने में देरी हो जाती तो वे मनही-मन सोचने लगते –'अहो ! उस बच्चेको आज किसी भेड़ियेने तो नहीं खा लिया ? किसी सिंहके पंजेमें तो आज वह नहीं पड़ गया ? ॥ २४ ॥

एषा वसुमती तस्य खुराग्रक्षतकर्बुरा ॥ २५ ॥
प्रीतये मम जातोसौ क्व ममैणकबालकः ।
देखो, उसके खुरॉके चिलोंसे यह पृथिवी कैसी चित्रित हो रही है ? मेरी ही प्रसन्नताके लिये उत्पन्न हुआ वह मृगछौना न जाने आज कहाँ रह गया है ? ॥ २५ ॥

विषामाग्रेण मद्‍बाहुं कण्डूयनपरो हि सः ।
क्षेमेणाभ्यागतोरण्यादपि मां सुखयिष्यति ॥ २६ ॥
क्या वह वनसे कुशलपूर्वक लौटकर अपने सींगोंसे मेरी भुजाको खुजलाकर मुझे आनन्दित करेगा ? ॥ २६ ॥

एते लूनशिखास्तस्य दशनैरचिरोद्‍गतैः ।
कुशाः काशा विराजन्ते बटवः सामागा इव ॥ २७ ॥
देखो, उसके नवजात दाँतोंसे कटी हुई शिखावाले ये कुश और काश सामाध्यायी [शिखाहीन] ब्रह्मचारियोंके समान कैसे सुशोभित हो रहे हैं ? ॥ २७ ॥

इत्थं चिरगते तस्मिन्स चक्रे मानसं मुनिः ।
प्रीतिप्रसन्नवदनः पार्श्वस्थे चाभवन्मृगे ॥ २८ ॥
देरके गये हुए उस बच्चेके निमित्त भरत मुनि इसी प्रकार चिन्ता करने लगते थे और जब वह उनके निकट आ जाता तो उसके प्रेमसे उनका मुख खिल जाता था ॥ २८ ॥

समाधिभङ्‍गस्तस्यासीत्तन्मयत्वादृतात्मनः ।
सन्त्यक्तराज्यभोगर्धिस्वजनस्यापि भूपतेः ॥ २९ ॥
इस प्रकार उसीमें आसक्तचित्त रहनेसे, राज्य, भोग, समृद्धि और स्वजनोंको त्याग देनेवाले भी राजा भरतकी समाधि भंग हो गयी ॥ २९ ॥

चपलं चपले तस्मिन्दूरगं दूरगामिनि ।
मृगपोतेऽभवच्चित्तं स्थैर्यवत्तस्य भूपतेः ॥ ३० ॥
उस राजाका स्थिरचित्त उस मृगके चंचल होनेपर चंचल हो जाता - और दूर चले जानेपर दूर चला जाता ॥ ३० ॥

कालेन गच्छता सोऽथ कालं चक्रे महीपतिः ।
पितेव सास्त्रं पुत्रेण मृगपोतेन वीक्षितः ॥ ३१ ॥
कालान्तरमें राजा भरतने, उस मृगबालकद्वारा पुत्रके सजल नयनोंसे देखे जाते हुए पिताके समान अपने प्राणोंका त्याग किया ॥ ३१ ॥

मृगमेव तदाद्राक्षीत्त्यजन्प्राणानसावपि ।
तन्मयत्वेन मैत्रेय नान्यत्किञ्चिदचिन्तयत् ॥ ३२ ॥
हे मैत्रेय ! राजा भी प्राण छोड़ते समय स्नेहवश उस मृगको ही देखता रहा तथा उसीमें तन्मय रहनेसे उसने और कुछ भी चिन्तन नहीं किया ॥ ३२ ॥

ततश्च तत्कालकृतां भावनां प्राप्य तादृशीम् ।
जम्बूमार्गे महारण्ये जातो जातिस्मरो मृगः ॥ ३३ ॥
तदनन्तर, उस समयको सुदृढ़ भावनाके कारण वह जम्बूमार्ग (कालंजरपर्वत)-के घोर वनमें अपने पूर्वजन्मकी स्मृतिसे युक्त एक मृग हुआ ॥ ३३ ॥

जातिस्मरत्वदुद्विग्नः संसारस्य द्विजोत्तम ।
विहाय मातरं भूयः सालग्राममुपाययो ॥ ३४ ॥
हे द्विजोत्तम ! अपने पूर्वजन्मका स्मरण रहनेके कारण वह संसारसे उपरत हो गया और अपनी माताको छोड़कर फिर शालग्रामक्षेत्रमें आकर ही रहने लगा ॥ ३४ ॥

शुष्कैस्तृणैस्तथा पर्णैः स कुर्वन्नात्मपोषणम् ।
मृगत्वहेतुभूतस्य कर्मणो निष्कृतिं ययौ ॥ ३५ ॥
वहाँ सूखे घास-फूस और पत्तोंसे ही अपना शरीर-पोषण करता हुआ वह अपने मृगत्व-प्राप्तिके हेतुभूत कर्मोका निराकरण करने लगा ॥ ३५ ॥

तत्र चोत्सृष्टदेहोऽसौ जज्ञे जातिस्मरो द्विजः ।
सदाचारवतां शुद्धे योगिनां प्रवरे कुले ॥ ३६ ॥
तदनन्तर, उस शरीरको छोड़कर उसने सदाचारसम्पन्न योगियोंके पवित्र कुलमें ब्राह्मण-जन्म ग्रहण किया । उस देहमें भी उसे अपने पूर्वजन्मका स्मरण बना रहा ॥ ३६ ॥

सर्वविज्ञानसम्पन्नः सर्वशास्त्रार्थतत्त्ववित् ।
अपश्यत्स च मैत्रेय आत्मानं प्रकृतेः परम् ॥ ३७ ॥
हे मैत्रेय ! वह सर्वविज्ञानसम्पन्न और समस्त शास्त्रोंके मर्मको जाननेवाला था तथा अपने आत्माको निरन्तर प्रकृतिसे परे देखता था ॥ ३७ ॥

आत्मनोऽधिगतज्ञानो देवादीनि महामुने ।
सर्वभूतान्यभेदेन स ददर्श तदात्मनः ॥ ३८ ॥
हे महामुने ! आत्मज्ञानसम्पन्न होनेके कारण वह देवता आदि सम्पूर्ण प्राणियोंको अपनेसे अभिन्नरूपसे देखता था ॥ ३८ ॥

न पपाठ गुरुप्रोक्तं कृतोपनयनः श्रुतिम् ।
न ददर्श च कर्माणि शास्त्राणि जगृहे न च ॥ ३९ ॥
उपनयन संस्कार हो जानेपर वह गुरुके पढ़ानेपर भी वेद-पाठ नहीं करता था तथा न किसी कर्मकी ओर ध्यान देता और न कोई अन्य शास्त्र ही पढ़ता था ॥ ३९ ॥

उक्तोपि बहुशः किञ्चिज्जडवाक्यमभाषत ।
तदप्यसंस्कारगुणं ग्राम्यवाक्योक्तिसंश्रितम् ॥ ४० ॥
जब कोई उससे बहुत पूछताछ करता तो जड़के समान कुछ असंस्कृत, असार एवं ग्रामीण वाक्योंसे मिले हुए वचन बोल देता ॥ ४० ॥

अपध्वस्तवपुः सोऽपि मलिनाम्बरधृग्द्विजः ।
क्लिन्नदन्तान्तरः सर्वैः परिभूतः स नागरैः ॥ ४१ ॥
निरन्तर मैला कुचैला शरीर, मलिन वस्त्र और अपरिमार्जित दन्तयुक्त रहनेके कारण वह ब्राह्मण सदा अपने नगरनिवासियोंसे अपमानित होता रहता था ॥ ४१ ॥

संमाननापरां हानिं योगर्धे कुरुते यतः ।
जनेनावमतो योगी योगसिद्धं च विन्दति ॥ ४२ ॥
हे मैत्रेय ! योगबीके लिये सबसे अधिक हानिकारक सम्मान ही है, जो योगी अन्य मनुष्योंसे अपमानित होता है वह शीघ्र ही सिद्धि लाभ कर लेता है । ॥ ४२ ॥

तस्माच्चरेत वै योगी सतां धर्ममदूषयन् ।
जना यथावमन्येरन्गच्छेयुर्नैव सङ्‍गतिम् ॥ ४३ ॥
अत: योगीको, सन्मार्गको दूषित न करते हुए ऐसा आचरण करना चाहिये जिससे लोग अपमान करें और संगतिसे दूर रहें ॥ ४३ ॥

हिरण्यगर्भवचनं विचिन्त्येत्थं महामतिः ।
आत्मानं दर्शयामास जडोन्मत्ताकृतिं जने ॥ ४४ ॥
हिरण्यगर्भक इस सारयुक्त वचनको स्मरण रखते हुए वे महामति विप्रवर अपने-आपको लोगोंमें जड और उन्मत-सा ही प्रकट करते थे ॥ ४४ ॥

भुक्ते कुल्माषव्रीह्यादिशाकं वन्यं फलं कणान् ।
यद्यदाप्नोति सुबहु तदत्ते कालसंयमम् ॥ ४५ ॥
कुल्माघ (जौ आदि) धान, शाक, जंगली फल अथवा कण आदि जो कुछ भक्ष्य मिल जाता उस थोड़े-सेको भी बहुत मानकर वे उसीको खा लेते और अपना कालक्षेप करते रहते ॥ ४५ ॥

पितर्युपरते सोऽथ भ्रातृभ्रातृव्यबान्धवैः ।
कारितः क्षेत्रकर्मादि कदन्नाहारपोषितः ॥ ४६ ॥
फिर पिताके शान्त हो जानेपर उनके भाई-बन्धु उनका सड़े-गले अन्नसे पोषण करते हुए उनसे खेती बारीका कार्य कराने लगे ॥ ४६ ॥

समाक्षपीनावयवो जडकारी च कर्मणि ।
सर्वलोकोपकरणं बभूवाहारचेतनः ॥ ४७ ॥
वे बैलके समान पुष्ट शरीरवाले और कर्ममें जडवत् निश्चेष्ट थे । अतः केवल आहारमात्रसे ही वे सब लोगॉक यन्त्र बन जाते थे । [अर्थात् सभी लोग उन्हें आहारमात्र देकर अपना-अपना काम निकाल लिया करते थे] ॥ ४७ ॥

तं तादृशमसंस्कारं विप्राकृतिविचेष्टितम् ।
क्षत्ता पृषतराजस्य काल्यै पशुमकल्पयत् ॥ ४८ ॥
रात्रौ तं समलङ्‍कृत्य वैशसस्य विधानतः ।
अधिष्ठितं महाकाली ज्ञात्वा योगेश्वरं तथा ॥ ४९ ॥
ततः खङ्‍गं समादाय निशितं निशि सा तथा ।
क्षत्तारं क्रूरकर्माणमच्छिनत्कण्ठमूलतः ।
स्वपार्षदयुता देवी पपौ रुधिरमुल्बणम् ॥ ५० ॥
उन्हें इस प्रकार संस्कारशून्य और ब्राह्मणवेषके विरुद्ध आचरणवाला देख रात्रिके समय पृषतराजके सेवकोंने बलिकी विधिसे सुसज्जितकर कालीका बलिपशु बनाया । किन्तु इस प्रकार एक परम योगीश्वरको बलिके लिये उपस्थित देख महाकालीने एक तीक्ष्ण खड्ग ले उस क्रूरकर्मा राजसेवकका गला काट डाला और अपने पार्षदोंसहित उसका तीखा रुधिर पान किया ॥ ४८-५० ॥

ततःसौवीरराजस्य प्रयातस्य महात्मनः ।
विष्टकर्ताथ मन्येत विष्टियोग्योऽयमित्यपि ॥ ५१ ॥
तदनन्तर, एक दिन महात्मा सौवीरराज कहीं जा रहे थे । उस समय उनके बेगारियोंने समझा कि यह भी बेगारके ही योग्य है ॥ ५१ ॥

तं तादृशं महात्मानं भस्मच्छन्नमिवानलम् ।
क्षत्ता सौवीरराजस्य विष्टियोग्यममन्यत ॥ ५२ ॥
राजाके सेवकोंने भी भस्ममें छिपे हुए अग्निके समान उन महात्माका रंग-ढंग देखकर उन्हें बेगारके योग्य समझा ॥ ५२ ॥

स राजा शिबिकारूढो गन्तुं कृतमतिर्द्विज ।
बभूवेक्षुमतीतीरे कपिलर्षेर्वराश्रमम् ॥ ५३ ॥
श्रेयः किमत्र संसारे दुःखप्राये नृणामिति ।
प्रष्टुं तं मोक्षधर्मज्ञं कपिलाख्यं महामुनिम् ॥ ५४ ॥
हे द्विज ! उन सौवीरराजने मोक्षधर्मके ज्ञाता महामुनि कपिलसे यह पूछनेके लिये कि 'इस दुःखमय संसारमें मनुष्योंका श्रेय किसमें है' शिबिकापर चढ़कर इक्षुमती नदीके किनारे उन महर्षिके आश्रमपर जानेका विचार किया ॥ ५३-५४ ॥

उवाह शिबिकां तस्य क्षत्तुर्वचनचोदितः ।
नृणां विष्टिगृहीतानामन्येषां सोऽपि मध्यगः ॥ ५५ ॥
तब राजसेवकके कहनेसे भरत मुनि भी उसकी पालकीको अन्य बेगारियोंके बीचमें लगकर वहन करने लगे ॥ ५५ ॥

गृहीतो विष्टिना विप्रः सर्वज्ञानैकभाजनम् ।
जातिस्मरोसौ पपास्य क्षयकाम उवाह ताम् ॥ ५६ ॥
इस प्रकार बेगारमें पकड़े जाकर अपने पूर्वजन्मका स्मरण रखनेवाले, सम्पूर्ण विज्ञानके एकमात्र पात्र वे विप्रवर अपने पापमय प्रारब्धका क्षय करनेके लिये उस शिविकाको उठाकर चलने लगे ॥ ५६ ॥

ययौ जडमतिः सोथ युगमात्रावलोकनम् ।
कुर्वन्मतिमतां श्रेष्ठस्तदन्ये त्वरितं ययुः ॥ ५७ ॥
वे बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ द्विजवर तो चार हाथ भूमि देखते हुए मन्द गतिसे चलते थे, किन्तु उनके अन्य साथी जल्दीजल्दी चल रहे थे ॥ ५७ ॥

विलोक्य नृपतिः सोथ विषमां शिबिकागतिम् ।
किमेतदित्याह समं गम्यतां शिबिकावहाः ॥ ५८ ॥
इस प्रकार शिविकाकी विषम-गत्ति देखकर राजाने कहा-"अरे शिविकावाहको ! यह क्या करते हो ? समान गतिसे चलो" ॥ ५८ ॥

पुनस्तथैव शिबिकं विलोक्य विषमां हि सः ।
नृपः किमेतदित्याह भवद्‍भिर्गम्यतेन्यथा ॥ ५९ ॥
किन्तु फिर भी उसकी गति उसी प्रकार विषम देखकर राजाने फिर कहा-"अरे क्या है ? इस प्रकार असमान भावसे क्यों चलते हो ?" ॥ ५९ ॥

भूपतेर्वदतस्तस्य श्रुत्वेत्थं बहुशो वचः ।
शिबिकावाहकाः प्रोचुरयं यातीत्यसत्वरम् ॥ ६० ॥
राजाके बार-बार ऐसे वचन सुनकर वे शिबिकावाहक [भरतजीको दिखाकर कहने लगे-"हममेंसे एक यही धीरे-धीरे चलता है" ॥ ६० ॥

राजोवाच
किं श्रान्तोऽस्यल्पमध्वानं त्वयोढा शिबिका मम ।
किमाया ससहो न त्वं पीवानसि निरीक्ष्यसे ॥ ६१ ॥
राजाने कहा-अरे, तूने तो अभी मेरी शिबिकाको थोड़ी ही दूर वहन किया है; क्या इतनेहीमें थक गया ? तू वैसे तो बहुत मोटा-मुष्टण्डा दिखायी देता है, फिर क्या तुझसे इतना भी श्रम नहीं सहा जाता ? ॥ ६१ ॥

ब्राह्मण उवाच
नाहं पीवा न चैवोढा शिबिका भवतो मया ।
न श्रान्तोस्मि न चायासो सोढव्योस्ति महीपते ॥ ६२ ॥
ब्राह्मण बोले-राजन् ! मैं न मोटा हूँ और न मैंने आपकी शिविका ही उठा रखी है । मैं थका भी नहीं हूँ और न मुझे श्रम सहन करनेकी ही आवश्यकता है ॥ ६२ ॥

राजोवाच
प्रत्यक्षं दृश्यसे पीवानद्यापि शिबिका त्वयि ।
श्रमश्च भारोद्वहने भवत्येव हि देहिनाम् ॥ ६३ ॥
राजा बोले-अरे, तू तो प्रत्यक्ष ही मोटा दिखायी दे रहा है, इस समय भी शिविका तेरे कन्धेपर रखी हुई है और वोझा ढोनेसे देहधारियोंको श्रम होता ही है ॥ ६३ ॥

ब्राह्मण उवाच
प्रत्यक्षं भवता भूप यद्दृष्टं मम तद्वद ।
बलवानबलश्चेति वाच्यं पश्चाद्विशेषणम् ॥ ६४ ॥
ब्राह्मण बोले-राजन् ! तुम्हें प्रत्यक्ष क्या दिखायी दे रहा है, मुझे पहले यही बताओ । उसके 'बलवान्' अथवा 'अबलवान्' आदि विशेषणोंकी बात तो पीछे करना ॥ ६४ ॥

त्वयोढा शिबिका चेति त्वय्यद्यापि च संस्थिता ।
मिथ्यैतदत्र तु भवाञ्चृणोतु वचनं मम ॥ ६५ ॥
'तूने मेरी शिबिकाका वहन किया है, इस समय भी वह तेरे ही कन्धोंपर रखी हुई है'-तुम्हारा ऐसा कहना सर्वथा मिथ्या है, अच्छा मेरी बात सुनो ॥ ६५ ॥

भूमौ पादयुगं त्वास्ते जङ्‍घे पादद्वये स्थिते ।
ऊर्वोर्जङ्‍घाद्वयावस्थौ तदाधारं तथोदरम् ॥ ६६ ॥
देखो, पृथिवीपर तो मेरे पैर रखे हैं, पैरोंके ऊपर जंघाएँ हैं और जंघाओंके ऊपर दोनों करु तथा ऊरुओंके ऊपर उदर है ॥ ६६ ॥

वक्षस्थलं तथा बाहू स्कन्धौ चोदरसंस्थितौ ।
स्कन्धाश्रितेयं शिबिका मम भारोत्र किं कृतः ॥ ६७ ॥
उदरके ऊपर वक्षःस्थल, बाहु और कन्धोंकी स्थिति है तथा कन्धोंके ऊपर यह शिबिका रखी है । इसमें मेरे ऊपर कैसे बोझा रहा ? ॥ ६७ ॥

शिबिकायां स्थितं चेदं वपुस्त्वदुपलक्षितम् ।
तत्र त्वमहमप्यत्र प्रोच्यते चेदमन्यथा ॥ ६८ ॥
इस शिबिकामें जिसे तुम्हारा कहा जाता है वह शरीर रखा हुआ है । वास्तवमें तो 'तुम वहाँ (शिबिकामें) हो और मैं यहाँ (पृथिवीपर) हूँ'-ऐसा कहना सर्वथा मिथ्या है ॥ ६८ ॥

अहं त्वं च तथान्ये च भूतैरुह्याम पार्थिव ।
गुणप्रवाहपतितो भूतवर्गोऽपि यात्ययम् ॥ ६९ ॥
हे राजन् ! मैं, तुम और अन्य भी समस्त जीव पंचभूतोंसे ही वहन किये जाते हैं । तथा यह भूतवर्ग भी गुणोंके प्रवाहमें पड़कर ही बहा जा रहा है ॥ ६९ ॥

कर्मवश्या गुणश्चैते सत्त्वाद्याः पृथिवीपते ।
अविद्यासञ्चितं कर्म तच्चाशेषेषु जन्तुषु ॥ ७० ॥
हे पृथिवीपते ! ये सत्त्वादि गुण भी कोंके वशीभूत हैं और समस्त जीवोंमें कर्म अविद्याजन्य ही हैं ॥ ७० ॥

आत्मा शुद्धोक्षरः शान्तो निर्गुणः प्रकृतेः परः ।
प्रवृद्ध्यपचयौ नास्य एकस्याखिलजन्तुषु ॥ ७१ ॥
आत्मा तो शुद्ध, अक्षर, शान्त, निर्गुण और प्रकृतिसे परे है तथा समस्त जीवोंमें वह एक ही ओत-प्रोत है । अतः उसके वृद्धि अथवा क्षय कभी नहीं होते ॥ ७१ ॥

यदा नोपचयस्तस्य न चैवापचयो नृप ।
तदा पीवानसीतीत्थं कया युक्त्या त्वयेरितम् ॥ ७२ ॥
हे नृप ! जब उसके उपचय (वृद्धि), अपचय (क्षय) ही नहीं होते तो तुमने यह बात किस युक्तिसे कही कि 'तू मोटा है ?' ॥ ७२ ॥

भूपादजङ्‍घाकट्यूरुजठरादिषु संस्थिते ।
शिबिकेयं यथा स्कन्धे तथा भारः समस्त्वया ॥ ७३ ॥
यदि क्रमशः पृथिवी, पाद, जंघा, कटि. ऊर और उदरपर स्थित कन्धोंपर रखी हुई यह शिबिका मेरे लिये भाररूप हो सकती है तो उसी प्रकार तुम्हारे लिये भी तो हो सकती है ? [क्योंकि ये पृथिवी आदि तो जैसे तुमसे पृथक् हैं वैसे ही मुझ आत्मासे भी सर्वथा भिन्न हैं] ॥ ७३ ॥

तथान्यैर्जन्तुभिर्भूप शिबिकोढा न केवलम् ।
शैलद्रुमगृहोत्थोऽपि पृथिवी सम्भवोपि वा ॥ ७४ ॥
तथा इस युक्तिसे तो अन्य समस्त जीवोंने भी केवल शिबिका ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण पर्वत, वृक्ष, गृह और पृथिवी आदिका भार उठा रखा है ॥ ७४ ॥

यदा पुंसः पृथग्भावः प्राकृतैः कारणेर्नृप ।
सोढव्यस्तु तदायासः कथं वा नृपते मया ॥ ७५ ॥
हे राजन् ! जब प्रकृतिजन्य कारणोंसे पुरुष सर्वथा भिन्न है तो उसका परिश्रम भी मुझको कैसे हो सकता है ? ॥ ७५ ॥

यद्द्रव्या शिबिका चेयं तद्द्रव्यो भूतसङ्‍ग्रहः ।
भवतो मेऽकिलस्यास्य ममत्वेनोपबृंहितः ॥ ७६ ॥
और जिस द्रव्यसे यह शिचिका बनी हुई है उसीसे यह आपका, मेरा अथवा और सबका शरीर भी बना है, जिसमें कि ममत्वका आरोप किया हुआ है ॥ ७६ ॥

श्रीपराशर उवाच
एवमुक्त्वाभवन्मौनी स वहञ्छिबिकां द्विज ।
सोऽपि राजावतीर्योव्यां तत्पादौ जगृहे त्वरन् ॥ ७७ ॥
श्रीपराशरजी बोले-ऐसा कह वे द्विजवर शिविकाको धारण किये हुए ही मौन ह्ये गये; और राजाने भी तुरन्त पृथिवीपर उतरकर उनके चरण पकड़ लिये ॥ ७७ ॥

राजोवाच
भो भो विसृज्य शिबिकां प्रसादं कुरु मे द्विजः ।
कथ्यतां को भवानत्र जाल्मरूपधरः स्थितः ॥ ७८ ॥
राजा बोला-अहो द्विजराज ! इस शिबिकाको छोड़कर आप मेरे ऊपर कृपा कीजिये । प्रभो ! कृपया बताइये, इस जडवेषको धारण किये आप कौन हैं ? ॥ ७८ ॥

यो भवान्यन्निमित्तं वा यदागमनकारणम् ।
तत्सर्वं कथ्यतां विद्वन्मह्यं शुश्रूषवे त्वया ॥ ७९ ॥
हे विद्वन् ! आप कौन हैं ? किस निमित्तसे वहाँ आपका आना हुआ ? तथा आनेका क्या कारण है ? यह सब आप मुझसे कहिये । मुझे आपके विषयमें सुननेकी बड़ी उत्कण्ठा हो रही है ॥ ७९ ॥

ब्राह्मण उवाच
श्रूयतां सोऽहमित्येतद्वक्तुं भूप न शक्यते ।
उपभोगनिमित्तं च सर्वत्रागमनक्रिया ॥ ८० ॥
ब्राह्मण बोले-हे राजन् ! सुनो, मैं अमुक हूँ-यह बात कही नहीं जा सकती और तुमने जो मेरे यहाँ आनेका कारण पूछा सो आना-जाना आदि सभी क्रियाएँ कर्मफलके उपभोगके लिये ही हुआ करती हैं ॥ ८० ॥

सुखदुःखोपभोगौ तु तौ देहाद्युपपादकौ ।
धर्माधर्मोद्‍भवौ भोक्तुं जन्तुर्देहादिमृच्छति ॥ ८१ ॥
सुख-दुःखका भोग ही देह आदिकी प्राप्ति करानेवाला है तथा धर्माधर्मजन्य सुख-दुःखोंको भोगनेके लिये ही जीव देहादि धारण करता है ॥ ८१ ॥

सर्वस्यैव हि भूपाल जन्तोः सर्वत्र कारणम् ।
धर्माधर्मौ यतः कस्मात्कारणं पृच्छते त्वया ॥ ८२ ॥
हे भूपाल ! समस्त जीवोंकी सम्पूर्ण अवस्थाओंके कारण ये धर्म और अधर्म ही हैं, फिर विशेषरूपसे मेरे आगमनका कारण तुम क्यों पूछते हो ? ॥ ८२ ॥

राजोवाच
धर्माधर्मौ न सन्देहःसर्वकार्येषु कारणम् ।
उपभोगनिमित्तं च देहाद्देहान्तरागमः ॥ ८३ ॥
राजा बोला-अवश्य ही, समस्त कार्यों में धर्म और अधर्म ही कारण हैं और कर्मफलके उपभोगके लिये ही एक देहसे दूसरे देहमें जाना होता है ॥ ८३ ॥

यस्त्वेतद्‍भवता प्रोक्तं सोहमित्येतदात्मनः ।
वक्तुं न शक्यते श्रोतुं तन्ममेच्छा प्रवर्तते ॥ ८४ ॥
किन्तु आपने जो कहा कि मैं कौन हूँ-यह नहीं बताया जा सकता' इसी बातको सुननेकी मुझे इच्छा हो रही है ॥ ८४ ॥

योस्ति सोऽहमिति ब्रह्मन्कथं वक्तुं न शक्यते ।
आत्मन्येष न दोषाय शब्दोहमिति यो द्विज ॥ ८५ ॥
हे ब्रहान् । 'जो है [अर्थात् जो आत्मा कर्ताभोक्तारूपसे प्रतीत होता हुआ सदा सत्तारूपसे वर्तमान है] वही मैं हूँ'-ऐसा क्यों नहीं कहा जा सकता ? हे द्विज ! यह 'अहम्' शब्द तो आत्मामें किसी प्रकारके दोषका कारण नहीं होता ॥ ८५ ॥

ब्राह्मण उवाच
शब्दोहमिति दोषाय नात्मन्येष तथैव तत् ।
अनात्मन्यात्मविज्ञानं शब्दो वा भ्रान्तिलक्षणः ॥ ८६ ॥
ब्राह्मण बोले-हे राजन् ! तुमने जो कहा कि - 'अहम्' शब्दसे आत्मामें कोई दोष नहीं आता सो ठीक ही है, किन्तु अनात्मामें ही आत्मत्वका ज्ञान करानेवाला भ्रान्तिमूलक 'अहम्' शब्द ही दोषका कारण है ॥ ८६ ॥

जिह्वा ब्रवीत्यहमिति दन्तोष्ठौ तालुके नृप ।
एतेनाहं यतः सर्वे वाङ्‍‌निष्पादनहेतवः ॥ ८७ ॥
हे नृप ! 'अहम्' शब्दका उच्चारण जिह्वा, दन्त, ओष्ठ और तालुसे ही होता है, किन्तु ये सब उस शब्दके उच्चारणके कारण हैं, 'अहम्' (मैं) नहीं ॥ ८७ ॥

किं हेतुभिर्वदत्येषा वागेवाहमिति स्वयम् ।
अतः पीवानसीत्येतद् वक्तुमित्थं न युज्यते ॥ ८८ ॥
तो क्या जिह्यदि कारणोंके द्वारा यह वाणी ही स्वयं अपनेको 'अहम्' कहती है ? नहीं । अतः ऐसी स्थिति में 'तू मोटा है' ऐसा कहना भी उचित नहीं है ॥ ८८ ॥

पिण्डः पृथग्यतः पुंसः शिरःपाण्यादिलक्षणः ।
ततोहमिति कुत्रैतां संज्ञां राजन्करोम्यहम् ॥ ८९ ॥
सिर तथा कर-चरणादिरूप यह शरीर भी आत्मासे पृथक् ही है । अतः हे राजन् ! इस 'अहम्' शब्दका में कहाँ प्रयोग करूं. ॥ ८९ ॥

यद्यन्योस्ति परः कोऽपि मत्तः पार्थिवसत्तम ।
तदैषोऽहमयं चान्यो वक्तुमेवमपीष्यते ॥ ९० ॥
तथा हे नृपश्रेष्ठ ! यदि मुझसे भिन्न कोई और भी सजातीय आत्मा हो तो भी यह मैं हूँ और यह अन्य है'-ऐसा कहा जा सकता था ॥ ९० ॥

यदा समस्तदेहेषु पुमानेको व्यवस्थितः ।
तदा हि को भवान्सोहमित्येतद्विफलं वचः ॥ ९१ ॥
किन्तु , जब समस्त शरीरों में -एक ही आत्मा विराजमान है तब आप कौन हैं ? मैं वह हूँ । ' ये सब वाक्य निष्फल ही हैं ॥ ९१ ॥

त्वं राजा शिबिका चेयमिमे वाहाः पुरःसराः ।
अयं च भवतो लोको न सदेतन्नृपोच्यते ॥ ९२ ॥
'तू राजा है, यह शिबिका है, ये सामने शिविकावाहक हैं तथा ये सब तेरी प्रजा हैं' हे नृप ! इनमेंसे कोई भी बात परमार्थतः सत्य नहीं है ॥ ९२ ॥

वृक्षाद्दारु ततश्चेयं शिबिका त्वदधिष्ठिता ।
किं वृक्षसंज्ञा वास्याः स्याद्दारुसंज्ञाथ वा नृप ॥ ९३ ॥
हे राजन् ! वृक्षसे लकड़ी हुई और उससे तेरी यह शिविका बनी; तो बता इसे लकड़ी कहा जाय या वृक्ष ? ॥ ९३ ॥

वृक्षारूढो महाराजो नायं वदति ते जनः ।
न च दारुणि सर्वस्त्वां ब्रवीति शिबिकागतम् ॥ ९४ ॥
किन्तु 'महाराज वृक्षपर बैठे हैं' ऐसा कोई नहीं कहता और न कोई तुझे लकड़ीपर बैठा हुआ ही बताता है ! सब लोग शिविकामें बैठा हुआ ही कहते हैं ॥ ९४ ॥

शिबिकादारुसङ्‍घातो रचनास्थितिसंस्थितः ।
अन्विष्यतां नृपश्रेष्ठ तद्‍भेदे शिबिका त्वया ॥ ९५ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! रचनाविशेषमें स्थित लकड़ियोंका समूह ही तो शिबिका है । यदि वह उससे कोई भिन्न वस्तु है तो काष्ठको अलग करके उसे ढूंढो ॥ ९५ ॥

एवं छत्रशलाकानां पृथग्भावे विमृश्यताम् ।
क्व यातं छत्रमित्येष न्यायस्त्वयि तथा मयि ॥ ९६ ॥
इसी प्रकार छत्रकी शलाकाओंको अलग रखकर छत्रका विचार करो कि वह कहाँ रहता है । यही न्याय तुममें और मुझमें लागू होता है [अर्थात् मेरे और तुम्हारे शरीर भी पंचभूतसे अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं हैं] ॥ ९६ ॥

पुमान् स्त्री गौरजो वाजी कुञ्जरो विहगस्तरुः ।
देहेषु लोकसंज्ञेयं विज्ञेया कर्महेतुषु ॥ ९७ ॥
पुरुष, स्त्री, गौ, अज (बकरा), अश्व, गज, पक्षी और वृक्ष आदि लौकिक संज्ञाओंका प्रयोग कर्महेतुक शरीरोंमें ही जानना चाहिये ॥ ९७ ॥

पुमान्न देवो न नरो न पशुर्न च पादपः ।
शरीराकृतिभेदास्तु भूपैते कर्मयोनयः ॥ ९८ ॥
हे राजन् ! पुरुष (जीव) तो न देवता है, न मनुष्य है, न पशु है और न वृक्ष है । ये सब तो कर्मजन्य शरीरोंकी आकृतियोंके ही भेद हैं ॥ ९८ ॥

वस्तु राजेति यल्लोके यच्च राजभटात्मकम् ।
तथान्यच्च नृपेत्थं तन्न सत्संकल्पनामयम् ॥ ९९ ॥
लोकमें धन, राजा, राजाके सैनिक तथा और भी जो-जो वस्तुएँ हैं, हे राजन् ! वे परमार्थतः सत्य नहीं हैं, केवल कल्पनामय ही हैं ॥ ९९ ॥

यत्तु कालान्तेरेणापि नान्यां संज्ञामुपैति वै ।
परिणामादिसम्भूतां तद्वस्तु नृप तच्च किम् ॥ १०० ॥
जिस वस्तुकी परिणामादिके कारण होनेवाली कोई संज्ञा कालान्तरमें भी नहीं होती, वही परमार्था-वस्तु है । हे राजन् ! ऐसी वस्तु कौन-सी है ? ॥ १०० ॥

त्वं राजा सर्वलोकस्य पितुः पुत्रो रिपो रिपुः ।
पत्‍न्याः पतिः पिता सूनोः किं त्वं भूप वदाम्यहम् ॥ १०१ ॥
[तू अपनेहीको देख] समस्त प्रजाके लिये तू राजा है, पिताके लिये पुत्र है, शत्रुके लिये शत्रु है, पत्नीका पति है और पुत्रका पिता है । हे राजन् ! बतला, मैं तुझे क्या कहूँ ? ॥ १०१ ॥

त्वं किमेतच्छिरः किं नु ग्रीवा तव तथोदरम् ।
किमु पादादिकं त्वं वा तवैतत्किं महीपते ॥ १०२ ॥
हे महीपते ! तू क्या यह सिर है, अथवा ग्रीवा है या पेट अथवा पादादिमेंसे कोई है ? तथा ये सिर आदि भी 'तेरे' क्या हैं ? ॥ १०२ ॥

समस्तावयवेभ्यस्त्वं पृथग्भूय व्यवस्थितः ।
कोऽहमित्यत्र निपुणो भूत्वा चिन्तय पर्थिव ॥ १०३ ॥
हे पृथिवीश्वर ! तू इन समस्त अवयवोंसे पृथक् है; अत: सावधान होकर विचार कि 'मैं कौन हूँ' ॥ १०३ ॥

एवं व्यवस्थिते तत्त्वे मयाहमिति भाषितुम् ।
पृथक्करणनिष्पाद्यं शक्यते नृपते कथम् ॥ १०४ ॥
हे महाराज ! आत्मतत्त्व इस प्रकार व्यवस्थित है । उसे सबसे पृथक् करके ही बताया जा सकता है । तो फिर, मैं उसे 'अहम्' शब्दसे कैसे बतला सकता हूँ ? ॥ १०४ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे द्वितीयेंऽशे त्रयोदशोऽध्यायः (१३)
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेऽशे त्रयोदशोध्यायः ॥ १३ ॥



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