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॥ विष्णुपुराणम् ॥ द्वितीयः अंशः ॥ चतुर्दशोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
निशम्य तस्येति वचः परमार्थसमन्वितम् । प्रश्रयावनतो भूत्वा तमाह नृपतिर्द्विजम् ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-उनके ये परमार्थमय वचन सुनकर राजाने विनयावनत होकर उन विप्रवरसे कहा ॥ १ ॥ राजोवाच
भगवन्यत्त्वया प्रोक्तं परमार्थमयं वचः । श्रुते तस्मिन्भ्रमन्तीव मनसो मम वृत्तयः ॥ २ ॥ राजा बोले-भगवन् ! आपने जो परमार्थमय वचन कहे हैं उन्हें सुनकर मेरी मनोवृत्तियाँ भ्रान्त-सी हो गयी हैं ॥ २ ॥ एतद्विवेकविज्ञानं यदशेषेषु जन्तुषु ।
भवता दर्शितं विप्र तत्परं प्रकृतेर्महत् ॥ ३ ॥ हे विप्र ! आपने सम्पूर्ण जीवॉमें व्याप्त जिस असंग विज्ञानका दिग्दर्शन कराया है वह प्रकृतिसे परे ब्रह्म ही है [इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं है] ॥ ३ ॥ नाहं वहामि शिबिकां शिबिका न मयि स्थिता ।
शरीरमन्यदस्मत्तौ योनेयं शिबिका धृता ॥ ४ ॥ गुणप्रवृत्त्या भूतानां प्रवृत्तिः कर्मचोदिता । प्रवर्तन्ते गुणा ह्येते किं ममेति त्वयोदितम् ॥ ५ ॥ परंतु आपने जो कहा कि मैं शिबिकाको वहन नहीं कर रहा हूँ, शिबिका मेरे ऊपर नहीं है, जिसने इसे उठा रखा है वह शरीर मुझसे अत्यन्त पृथक् है । जीवोंकी प्रवृत्ति गुणों (सत्व, रज, तम)-की प्रेरणासे होती है और गुण कर्मोसे प्रेरित होकर प्रवृत्त होते हैं-इसमें मेरा कर्तृत्व कैसे माना जा सकता है ? ॥ ४-५ ॥ एतस्मिन्परमार्थज्ञ मम श्रोत्रपथं गते ।
मनो विह्वलतामेति परमार्थार्थितां गतम् ॥ ६ ॥ हे परमार्थज्ञ ! यह बात मेरे कानोंमें पड़ते ही मेरा मन परमार्थका जिज्ञासु होकर बड़ा उतावला हो रहा है ॥ ६ ॥ पूर्वमेव महाभागं कपिलर्षिमहं द्विज ।
प्रष्टुमभ्युद्यतो गत्वा श्रेयः किं त्वत्र शंस मे ॥ ७ ॥ हे द्विज ! मैं तो पहले ही महाभाग कपिल मुनिसे यह पूछनेके लिये कि बताइये 'संसारमें मनुष्योंका श्रेय किसमें है' उनके पास जानेको तत्पर हुआ हूँ ॥ ७ ॥ तदन्तरे च भवता यदेतद्वाक्यमीरितम् ।
तेनैव परमार्थार्थं त्वयि चेतः प्रधावति ॥ ८ ॥ किन्तु बीचहीमें, आपने जो वाक्य कहे हैं उन्हें सुनकर मेरा चित्त परमार्थ-श्रवण करनेके लिये आपकी ओर झुक गया है ॥ ८ ॥ कपिलर्षिर्भगवतः सर्वभूतस्य वै द्विज ।
विष्णोरंशो जगन्मोहनाशायोर्वीमुपागतः ॥ ९ ॥ हे द्विज ! ये कपिल मुनि सर्वभूत भगवान् विष्णुके ही अंश हैं । इन्होंने संसारका मोह दूर करनेके लिये ही पृथिवीपर अवतार लिया है ॥ ९ ॥ स एव भगवान्नूनमस्माकं हितकाम्यया ।
प्रत्यक्षतामत्र गतो यथैतद्भवतोच्यते ॥ १० ॥ किन्तु आप जो इस प्रकार भाषण कर रहे हैं उससे मुझे निश्चय होता है कि वे ही भगवान् कपिलदेव मेरे हितकी कामनासे यहाँ आपके रूपमें प्रकट हो गये हैं ॥ १० ॥ तन्मह्यं प्रणताय त्वं यच्छ्रेयः परमं द्विजः ।
तद्वदाखिल विज्ञानजलवीच्युदधिर्भवान् ॥ ११ ॥ अतः हे द्विज ! हमारा जो परम श्रेय हो वह आप मुझ विनीतसे कहिये । हे प्रभो ! आप सम्पूर्ण विज्ञान-तरंगोंके मानो समुद्र ही हैं ॥ ११ ॥ ब्राह्मण उवाच
भूप पृच्छसि किं श्रेयः परमार्थं नु पृच्छसि । श्रेयांस्यपरमार्थानि अशेषाणि च भूपते ॥ १२ ॥ ब्राह्मण बोले-हे राजन् ! तुम श्रेय पूछना चाहते हो या परमार्थ ? क्योंकि हे भूपते ! श्रेय तो सब अपारमार्थिक ही हैं ॥ १२ ॥ देवताराधनं कृत्वा धनसम्पदमिच्छति ।
पुत्रानिच्छति राज्यं च श्रेयस्तस्यैव तन्नृप ॥ १३ ॥ हे नृप ! जो पुरुष देवताओंकी आराधना करके धन, सम्पत्ति, पुत्र और राज्यादिकी इच्छा करता है उसके लिये तो वे ही परम श्रेय हैं ॥ १३ ॥ कर्म यज्ञात्मकं श्रेयः फलं स्वर्गाप्तिलक्ष्णम् ।
श्रेयः प्रधानं च फले तदेवानभिसंहिते ॥ १४ ॥ जिसका फल स्वर्गलोककी प्राप्ति है वह यज्ञात्मक कर्म भी श्रेय है; किन्तु प्रधान श्रेय तो उसके फलकी इच्छा न करनेमें ही है ॥ १४ ॥ आत्मा ध्येयः सदा भूप योगयुक्तैस्तथा परम् ।
श्रेयस्तस्यैव संयोगः श्रेयो यः परमात्मनः ॥ १५ ॥ अतः हे राजन ! योगयक्त पुरुषको प्रकृति आदिसे अतीत उस आत्माका ही ध्यान करना चाहिये, क्योंकि उस परमात्माका संयोगरूप श्रेय ही वास्तविक श्रेय है ॥ १५ ॥ श्रेयांस्येवमनेकानि शतशोय सहस्रशः ।
सन्त्यत्र परमार्थस्तु न त्वेते श्रूयतां च मे ॥ १६ ॥ इस प्रकार श्रेय तो सैकड़ों-हजारों प्रकारके अनेकों हैं, किंतु ये सब परमार्थ नहीं हैं । अब जो परमार्थ है सो सुनो- ॥ १६ ॥ धर्माय त्यज्यते किन्तु परमार्थो धनं यदि ।
व्ययश्च क्रियते कस्मात्कामप्राप्त्युपलक्षणः ॥ १७ ॥ यदि धन ही परमार्थ है तो धर्मके लिये उसका त्याग क्यों किया जाता है ? तथा इच्छित भोगोंकी प्राप्तिके लिये उसका व्यय क्यों किया जाता है ? [अत: वह परमार्थ नहीं है] ॥ १७ ॥ पुत्रश्चेत्परमार्थः स्यात्सोऽप्यन्यस्य नरेश्वर ।
परमार्थभूतः सोऽन्यस्य परमार्थो हि तत्पिता ॥ १८ ॥ हे नरेश्वर ! यदि पुत्रको परमार्थ कहा जाय तो वह तो अन्य (अपने पिता)-का परमार्थभूत है, तथा उसका पिता भी दूसरेका पुत्र होनेके कारण उस (अपने पिता)-का परमार्थ होगा ॥ १८ ॥ एवं न परमार्थोऽस्ति जगत्यस्मिञ्चराचरे ।
परमार्थो हि कार्याणि कारणानामशेषतः ॥ १९ ॥ अतः इस चराचर जगत्में पिताका कार्यरूप पुत्र भी परमार्थ नहीं है । क्योंकि फिर तो सभी कारणोंके कार्य परमार्थ हो जायेंगे ॥ १९ ॥ राज्यादिप्राप्तिरत्रोक्ता परमार्थतया यदि ।
परमार्था भवन्त्यत्र न भवन्ति च वै ततः ॥ २० ॥ यदि संसारमें राज्यादिकी प्राप्तिको परमार्थ कहा जाय तो ये कभी रहते हैं और कभी नहीं रहते । अतः परमार्थ भी आगमापायी हो जायगा । [इसलिये राज्यादि भी परमार्थ नहीं हो सकते] ॥ २० ॥ ऋग्यजुःसामनिष्पाद्यं यज्ञकर्म मतं तव ।
परमार्थभूतं तत्रापि श्रुयतां गदतो मम ॥ २१ ॥ यदि ऋक्, यजुः और सामरूप वेदत्रयीसे सम्पन्न होनेवाले यज्ञकर्मको परमार्थ मानते हो तो उसके विषयमें मेरा ऐसा विचार है- ॥ २१ ॥ यत्तु निष्पाद्यते कार्यं मृदा कारणभूतया ।
तत्कारणानुगमनाज्ज्ञायते नृप मृण्मयम् ॥ २२ ॥ हे नृप ! जो वस्तु कारणरूपा मृत्तिकाका कार्य होती है वह कारणकी अनुगामिनी होनेसे मृत्तिकारूप ही जानी जाती है ॥ २२ ॥ एवं विनाशिभिर्द्रव्यैः समिदाज्यकुशादिभिः ।
निष्पाद्यते क्रिया या तु सा भवित्री विनाशिनी ॥ २३ ॥ अत: जो क्रिया समिध, घृत और कुशा आदि नाशवान् द्रव्योंसे सम्पन्न होती है वह भी नाशवान् ही होगी ॥ २३ ॥ अनाशो परमार्थश्च प्राज्ञौरभ्युपगम्यते ।
तत्तु नाशि न सन्देहो नाशिद्रव्योपपादितम् ॥ २४ ॥ किन्तु परमार्थको तो प्राज्ञ पुरुष अविनाशी बतलाते हैं और नाशवान् द्रव्योंसे निष्पन्न होनेके कारण कर्म [अथवा उनसे निष्पन्न होनेवाले स्वर्गादि] नाशवान् ही हैं-इसमें सन्देह नहीं ॥ २४ ॥ तदेवाफलदं कर्म परमार्थो मतस्तव ।
मुक्तिसाधनभूतत्वात्परमार्थो न साधनम् ॥ २५ ॥ यदि फलाशासे रहित निष्कामकर्मको परमार्थ मानते हो तो वह तो मुक्तिरूप फलका साधन होनेसे साधन ही है, परमार्थ नहीं ॥ २५ ॥ ध्यानं चैवात्मनो भूपु परमार्थार्थशब्दितम् ।
भेदकारि परेभ्यस्तु परमार्थो न भेदवान् ॥ २६ ॥ यदि देहादिसे आत्माका पार्थक्य विचारकर उसके ध्यान करनेको परमार्थ कहा जाय तो वह तो अनात्मासे आत्माका भेद करनेवाला है और परमार्थमें भेद है नहीं [अतः वह भी परमार्थ नहीं हो सकता ॥ २६ ॥ परमात्मात्मनोर्योगः परमार्थ इतीष्यते ।
मिथ्यैतदन्यद्द्रव्यं हि नैति तद्द्रव्यतां यतः ॥ २७ ॥ यदि परमात्मा और जीवात्माके संयोगको परमार्थ कहें तो ऐसा कहना सर्वथा मिथ्या है, क्योंकि अन्य द्रव्यसे अन्य द्रव्यकी एकता कभी नहीं हो सकती ॥ २७ ॥ तस्माच्छ्रेयांस्यशेषाणि नृपैतानि न संशयः ।
परमार्थस्तु भूपाल संक्षेपाच्छ्रूयतां मम ॥ २८ ॥ अत: हे राजन् ! नि:सन्देह ये सब श्रेय ही हैं, [परमार्थ नहीं] अब जो परमार्थ है वह मैं संक्षेपसे सुनाता हूँ, श्रवण करो ॥ २८ ॥ एको व्यापी समः शुद्धो निर्गुणः प्रकृतेः परः ।
जन्मवृद्ध्यादिरहित आत्मा सर्वगतोव्ययः ॥ २९ ॥ आत्मा एक, व्यापक, सम, शुद्ध, निर्गुण और प्रकृतिसे परे है; वह जन्म-वृद्धि आदिसे रहित, सर्वव्यापी और अव्यय है ॥ २९ ॥ परज्ञानमयो सद्भिर्नामजात्यादिभिर्विभुः ।
न योगवान्न युक्तोऽभून्नैव पार्थिव योक्ष्यते ॥ ३० ॥ हे राजन् ! वह परम ज्ञानमय है, असत् नाम और जाति आदिसे उस सर्वव्यापकका संयोग न कभी हुआ, न है और न होगा ॥ ३० ॥ तस्यात्मपरदेहेषु सतोऽप्येकमयं हि यत् ।
विज्ञानं परमार्थोऽसौ द्वैतिनोऽतथ्यदर्शिनः ॥ ३१ ॥ वह, अपने और अन्य प्राणियोंके शरीरमें विद्यमान रहते हुए भी, एक ही है'-इस प्रकारका जो बिशेष ज्ञान है वही परमार्थ है; द्वैत भावनावाले पुरुष तो अपरमार्थदर्शी हैं ॥ ३१ ॥ वेणुरन्ध्रप्रभेदेन भेदः षड्जादिसंज्ञितः ।
अभेदव्यापिनो वायोस्तथास्य परमात्मनः ॥ ३२ ॥ जिस प्रकार अभिन्न भावसे व्याप्त एक ही वायुके बाँसुरीके छिद्रोंके भेदसे षड्ज आदि भेद होते हैं उसी प्रकार [शरीरादि उपाधियोंके कारण] एक ही परमात्माके [देवता-मनुष्यादि] अनेक भेद प्रतीत होते हैं ॥ ३२ ॥ एकस्वरूपभेदश्च ब्राह्मकर्मावृत्तिजः ।
देवादिभेदेऽपध्वस्ते नास्त्येवावरणे हि सः ॥ ३३ ॥ एकरूप आत्माके जो नाना भेद हैं वे बाह्य देहादिकी कर्मप्रवृत्तिके कारण ही हुए हैं । देवादि शरीरोंके भेदका निराकरण हो जानेपर वह नहीं रहता । उसकी स्थिति तो अविद्याके आवरणतक ही है ॥ ३३ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे द्वितीयेंऽशे चतुर्दशोऽध्यायः (१४)
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेऽशे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥ |