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॥ विष्णुपुराणम् ॥

द्वितीयः अंशः

॥ पञ्चदशोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
इत्युक्ते मौनिनं भूयश्चिन्तयानं महीपतिम् ।
प्रत्युवाचाथ विप्रोऽसावद्वैतान्तर्गतां कथाम् ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! ऐसा कहनेपर, राजाको मौन होकर मन-ही-मन सोच-विचार करते देख वे विप्रवर यह अद्वैत-सम्बन्धिनी कथा सुनाने लगे ॥ १ ॥

ब्राह्मण उवाच
श्रूयतां नृपशार्दूल यद्‍गीतमृभुणा पुरा ।
अवबोधं जनयता निदाघस्य महात्मनः ॥ २ ॥
ब्राह्मण बोले-हे राजशार्दूल ! पूर्वकालमें महर्षि ऋभुने महात्मा निदाघको उपदेश करते हुए जो कुछ कहा था वह सुनो ॥ २ ॥

ऋभुनामाऽभवत्पुत्रो ब्रह्मणः परमेष्ठिनः ।
विज्ञाततत्त्वसद्‍भावो निसर्गादेव भूपते ॥ ३ ॥
हे भूपते ! परमेष्ठी श्रीब्रह्माजीका ऋभु नामक एक पुत्र था, वह स्वभावसे ही परमार्थतत्वको जाननेवाला था ॥ ३ ॥

तस्य शिष्यो निदाघोऽभूत्पुलस्त्यतनयः पुरा ।
प्रादादशेषविज्ञानं स तस्मै परया मुदा ॥ ४ ॥
पूर्वकालमें महर्षि पुलस्त्यका पुत्र निदाघ उन ऋभुका शिष्य था । उसे उन्होंने अति प्रसन्न होकर सम्पूर्ण तत्त्वज्ञानका उपदेश दिया था ॥ ४ ॥

अवाप्तज्ञानतन्त्रस्य न तस्याद्वैतवासना ।
स ऋभुस्तर्कयामास निदाघस्य नरेश्वर ॥ ५ ॥
हे नरेश्वर ! ऋभुने देखा कि सम्पूर्ण शास्त्रोंका ज्ञान होते हुए भी निदाघकी अद्वैतमें निष्ठा नहीं है ॥ ५ ॥

देविकायास्तटे वीरनगरं नाम वै पुरम् ।
समृद्धमतिरम्यं च पुलस्त्येन विवेशित्म ॥ ६ ॥
उस समय देविकानदीके तौरपर पुलस्त्यजीका बसाया हुआ वीरनगर नामक एक अति रमणीक और समृद्धि-सम्पन्न नगर था ॥ ६ ॥

रम्योपवनपर्यन्ते स तस्मिन्पार्थिवोत्तम ।
निदाघो नाम योगज्ञ ऋभुशिष्योऽवसत्पुरा ॥ ७ ॥
हे पार्थिवोत्तम ! रम्य उपवनोंसे सुशोभित उस पुरमें पूर्वकालमें ऋभुका शिष्य योगवेत्ता निदाघ रहता था ॥ ७ ॥

दिव्ये वर्षसहस्रे तु समतीतेऽस्य तत्पुरम् ।
जगाम स ऋभुः शिष्यं निदाघमवलोककः ॥ ८ ॥
महर्षि ऋभु अपने शिष्य निदाघको देखनेके लिये एक सहल दिव्यवर्ष बीतनेपर उस नगरमें गये ॥ ८ ॥

स तस्य वैश्वदेवान्ते द्वारालोकनगोचरे ।
स्थितस्तेन गृहीतार्घ्यो निजवेश्म प्रवेशितः ॥ ९ ॥
जिस समय निदाघ बलिवैश्वदेवके अनन्तर अपने द्वारपर [अतिथियोंकी] प्रतीक्षा कर रहा था, वे उसके दृष्टिगोचर हुए और वह उन्हें द्वारपर पहुँच अध्यंदानपूर्वक अपने घरमें ले गया ॥ ९ ॥

प्रक्षालिताङ्‌‍घ्रिपाणिं च कृतासनपरिग्रह्म ।
उवाच स द्विजाश्रेष्ठो भुज्यतामिति सादरम् ॥ १० ॥
उस द्विजश्रेष्ठने उनके हाथ-पैर धुलाये और फिर आसनपर बिठाकर आदरपूर्वक कहा-'भोजन कीजिये ॥ १० ॥

ऋभुरुवाच
भो विप्रवर्य भोक्तव्यं यदन्नं भवतो गृहे ।
तत्कथ्यतां कदन्नेषु न प्रीतिः सततं मम ॥ ११ ॥
ऋभु बोले-हे विप्रवर ! आपके यहाँ क्या-क्या अन्न भोजन करना होगा-यह बताइये, क्योंकि कुत्सित अन्नमें मेरी रुचि नहीं है ॥ ११ ॥

निदाघ उवाच
सक्तुयावकवाट्यानामपूपानां च मे गृहे ।
यद्‌रोचते द्विजश्रेष्ठ तत्त्वं भुक्ष्व यथेच्छया ॥ १२ ॥
निदाघने कहा-हे द्विज श्रेष्ठ ! मेरे घरमें सत्तू, जौकी लप्सी, कन्द-मूल-फलादि तथा पूए बने हैं । आपको इनमेंसे जो कुछ रुचे वही भोजन कीजिये ॥ १२ ॥

ऋभुरुवाच
कदन्नानि द्विजैतानि मृष्टमन्नं प्रयच्छ मे ।
संयावपायसादीनि द्रप्सफाणितवन्ति च ॥ १३ ॥
ऋभु बोले-हे द्विज ! ये तो सभी कुत्सित अन्न हैं, मुझे तो तुम हलवा, खीर तथा मट्टा और खाँड़से बने स्वादिष्ट भोजन कराओ ॥ १३ ॥

निदाघ उवाच
हे हे शालिनि मद्‍गेहे यत्किञ्चिदतिशोभनम् ।
भक्ष्योपसाधनं मृष्टं तेनास्यान्नं प्रसाधय ॥ १४ ॥
तब निदाघने [ अपनी स्त्रीसे ] कहा-हे गृहदेवि ! हमारे घरमें जो अच्छी-से-अच्छी वस्तु हो उसीसे इनके लिये अति स्वादिष्ट भोजन बनाओ ॥ १४ ॥

ब्राह्मण उवाच
इत्युक्ता तेन सा पत्‍नी मृष्टमन्नं द्विजस्य यत् ।
प्रसाधितवती तद्वै भर्तुर्वचनगौरवात् ॥ १५ ॥
ब्राह्मण (जडभरत)-ने कहा-उसके ऐसा कहनेपर उसकी पत्नीने अपने पतिकी आज्ञासे उन विप्रवरके लिये अति स्वादिष्ट अन्न तैयार किया ॥ १५ ॥

तं भुक्तवन्तमिच्छातो मृष्टमन्नं महामुनिम् ।
निदाधः प्राह भूपाल प्रश्रयावनतः स्थितः ॥ १६ ॥
हे राजन् ! ऋभुके यथेच्छ भोजन कर चुकनेपर निदाघने अति विनीत होकर उन महामुनिसे कहा ॥ १६ ॥

निदाघ उवाच
अपिते परमा तृप्तिरुत्पन्ना तुष्टिरेव च ।
अपि ते मानसं स्वस्थमाहारेण कृतं द्विज ॥ १७ ॥
निदाघ बोले-हे द्विज ! कहिये भोजन करके आपका चित्त स्वस्थ हुआ न ? आप पूर्णतया तृप्त और सन्तुष्ट हो गये न ? ॥ १७ ॥

क्वनिवासो भवान्विप्र क्व च गन्तुं समुद्यतः ।
आगम्यते च भवता यतस्तच्च द्विजोच्यताम् ॥ १८ ॥
हे विप्रवर ! कहिये आप कहाँ रहनेवाले हैं ? कहाँ जानेकी तैयारीमें हैं ? और कहाँसे पधारे हैं ? ॥ १८ ॥

ऋभुरुवाच
क्षुद्यस्य तस्य भुक्तेऽन्ने तृप्तिर्ब्राह्मण जायते ।
न मे क्षुन्नाभवत्तृप्तिः कस्मान्मां परिपृच्छसि ॥ १९ ॥
ऋभु बोले-हे ब्राह्मण ! जिसको क्षुधा लगती है उसीकी तृप्ति भी हुआ करती है । मुझको तो कभी क्षुधा ही नहीं लगी, फिर तृप्तिके विषयमें तुम क्या पूछते हो ? ॥ १९ ॥

वह्निना पार्थिवे धातौ क्षपिते क्षुत्समुद्‍भवः ।
भवत्यम्भसि च क्षीणे नृणां तृडपि जायते ॥ २० ॥
जठराग्निके द्वारा पार्थिव (ठोस) धातुओंके क्षीण हो जानेसे मनुष्यको क्षुधाकी प्रतीति होती है और जलके क्षीण होनेसे तृषाका अनुभव होता है ॥ २० ॥

क्षुत्तुष्णे देहधर्माख्ये न ममैते यतो द्विज ।
ततः क्षुत्सम्भवाभावात्तृप्तिरस्त्येव मे सदा ॥ २१ ॥
हे द्विज ! ये क्षुधा और तृषा तो देहके ही धर्म हैं, मेरे नहीं; अत: कभी क्षुधित न होनेके कारण मैं तो सर्वदा तृप्त ही हूँ ॥ २१ ॥

मनसः स्वस्थता तुष्टिश्चित्तधर्माविमौ द्विज ।
चेतसो यस्य तत्पृच्छ पुमानेभिर्न युज्यते ॥ २२ ॥
स्वस्थता और तुष्टि भी मनहीमें होते हैं, अत: ये मनहीके धर्म हैं; पुरुष (आत्मा)-से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है । इसलिये हे द्विज ! ये जिसके धर्म हैं उसीसे इनके विषयमें पूछो ॥ २२ ॥

क्व निवासस्तवेत्युक्तं क्व गन्तासि च यत्त्वया ।
कुताश्चागम्यते तत्र त्रितयेपि निबोध मेः ॥ २३ ॥
और तुमने जो पूछा कि 'आप कहाँ रहनेवाले हैं ? कहाँ जा रहे हैं ? तथा कहाँसे आये हैं' सो इन तीनोंके विषयमें मेरा मत सुनो- ॥ २३ ॥

पुमान्सर्वगतो व्यापी आकाशवदयं यतः ।
कुतः कुत्र क्व गन्तासीत्येतदप्यर्थवत्कथम् ॥ २४ ॥
आत्मा सर्वगत है, क्योंकि यह आकाशके समान व्यापक है; अत: 'कहाँसे आये हो, कहाँ रहते हो और कहाँ जाओगे ?' यह कथन भी कैसे सार्थक हो सकता है ? ॥ २४ ॥

सोऽहं गन्ता न चागन्ता नैकदेशनिकेतनः ।
त्वं चान्ये च न च त्वं च नान्ये नैवाहमप्यहम् ॥ २५ ॥
मैं तो न कहीं जाता हूँ,न आता हूँ और न किसी एक स्थानपर रहता हूँ । [तू , मैं और अन्य पुरुष भी देहादिके कारण जैसे पृथक्-पृथक् दिखायी देते हैं वास्तवमें वैसे नहीं हैं] वस्तुत: तू तू नहीं है, अन्य अन्य नहीं है और मैं मैं नहीं हूँ ॥ २५ ॥

मृष्टं न मृष्टमप्येषा जिज्ञासा मे कृता तव ।
किं वक्ष्यसीति तत्रापि श्रूयतां द्विजसत्तम ॥ २६ ॥
किमस्वाद्वथ वा मृष्टं भुञ्जतोऽस्ति द्विजोत्तम ।
मृष्टमेव यदामृष्टं तदेवोद्वेगकारकम् ॥ २७ ॥
वास्तवमें मधुर मधुर है भी नहीं; देखो, मैंने तुमसे जो मधुर अन्नकी याचना की थी उससे भी मैं यही देखना चाहता था कि 'तुम क्या कहते हो । ' हे द्विजश्रेष्ठ । भोजन करनेवालेके लिये स्वादु और अस्वादु भी क्या है ? क्योंकि स्वादिष्ट पदार्थ ही जब समयान्तरसे अस्वादु हो जाता है तो वही उद्वेगजनक होने लगता है ॥ २६-२७ ॥

अमृष्टं जायते मृष्टं मृष्टादुद्विजते जनः ।
आदिमध्यावसानेषु किमन्नं रुचिकारकम् ॥ २८ ॥
इसी प्रकार कभी अरुचिकर पदार्थ रुचिकर हो जाते हैं और रुचिकर पदार्थोंसे मनुष्यको उद्वेग हो जाता है । ऐसा अन भला कौन-सा है जो आदि, मध्य और अन्त तीनों कालमें रुचिकर ही हो ? ॥ २८ ॥

मृण्मयं हि गृहं यद्वन्मृदा लिप्तं स्थिरं भवेत् ।
पर्थिवोयं तथा देहः पार्थिवैः परमाणुभिः ॥ २९ ॥
जिस प्रकार मिट्टीका घर मिट्टीसे लीपने-पोतनेसे दृढ़ होता है, उसी प्रकार यह पार्थिव देह पार्थिव अन्नके परमाणुओंसे पुष्ट हो जाता है ॥ २९ ॥

यवगोधूममुद्‍गादि घृतं तैलं पयो दधि ।
गुडं फलादीनि तथा पार्थिवाः परमाणवः ॥ ३० ॥
जौ, गेहूँ, मूंग, घृत, तैल, दूध, दही, गुड़ और फल आदि सभी पदार्थ पार्थिव परमाणु ही तो हैं । [इनमेंसे किसको स्वादु कहें और किसको अस्वादु ?] ॥ ३० ॥

तदेतद्‍भवता ज्ञात्वा मृष्टामृष्टविचारि यत् ।
तन्मनःसमतालम्बि कार्यं साम्यं हि मुक्तये ॥ ३१ ॥
अतः ऐसा जानकर तुम्हें इस स्वादुअस्वादुका विचार करनेवाले चित्तको समदर्शी बनाना चाहिये, क्योंकि मोक्षका एकमात्र उपाय समता ही है ॥ ३१ ॥

ब्राह्मण उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य परमार्थश्रितं नृप ।
प्रणिपत्य महाभागो निदाघो वाक्यमब्रवीत् ॥ ३२ ॥
ब्राह्मण बोले-हे राजन् ! उनके ऐसे परमार्थमय वचन सुनकर महाभाग निदाघने उन्हें प्रणाम करके कहा- ॥ ३२ ॥

प्रसीद मद्धितार्थाय कथ्यतां यत्त्वमागतः ।
नष्टो मोहस्तवाकर्ण्य वचांस्येतानि मे द्वीज ॥ ३३ ॥
"प्रभो ! आप प्रसन्न होइये ! कृपया बतलाइये, मेरे कल्याणकी कामनासे आये हुए आप कौन हैं ? हे द्विज ! आपके इन वचनोंको सुनकर मेरा सम्पूर्ण मोह नष्ट हो गया है" ॥ ३३ ॥

ऋभुरुवाच
ऋभुरस्मि तवाचार्यः प्रज्ञादानाय ते द्विज ।
इहागतोऽहं यास्यामि परमार्थस्तवोदितः ॥ ३४ ॥
ऋभु बोले-हे द्विज ! मैं तेरा गुरु ऋभु हूँ : तुझको सदसद्विवेकिनी बुद्धि प्रदान करनेके लिये मैं यहाँ आया था । अब मैं जाता हूँ; जो कुछ परमार्थ है वह मैंने तुझसे कह ही दिया है ॥ ३४ ॥

एवमेकमिदं विद्धि न भेदि सकलं जगत् ।
वासुदेवाभिधेयस्य स्वरूपं परमात्मनः ॥ ३५ ॥
इस परमार्थतत्त्वका विचार करते हुए तू इस सम्पूर्ण जगत्को एक वासुदेव परमात्माहीका स्वरूप जान; इसमें भेद भाव बिलकुल नहीं है ॥ ३५ ॥

ब्राह्मण उवाच
तथेत्युक्त्वा निदाघेन प्रणिपातपुरःसरम् ।
पूजतः परया भक्त्या इच्छातः प्रययावृभुः ॥ ३६ ॥
ब्राह्मण बोले-तदनन्तर निदाधने 'बहुत अच्छा' कह उन्हें प्रणाम किया और फिर उससे परम भक्तिपूर्वक पूजित हो ऋभु स्वेच्छानुसार चले गये ॥ ३६ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे द्वितीयेंऽशे पञ्चदशोऽध्यायः (१५)
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥



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