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॥ विष्णुपुराणम् ॥ तृतीयः अंशः ॥ सप्तमोऽध्यायः ॥ मैत्रेय उवाच
यथा वत्कथितं सर्वं यत्पृष्टोऽसि मया गुरो । श्रोतुमिच्छाम्यहं त्वेकं तद्भवान्प्रब्रवीतु मे ॥ १ ॥ श्रीमैत्रेयजी बोले-हे गुरो ! मैंने जो कुछ पूछा था वह सब आपने यथावत् वर्णन किया । अब मैं एक बात और सुनना चाहता हूँ, वह आप मुझसे कहिये ॥ १ ॥ सप्तद्वीपानि पातालविधयश्च महामुने ।
स्पतलोकाश्च येऽन्तस्था ब्रह्माण्डस्यास्य सर्वतः ॥ २ ॥ स्थूलैः सूक्ष्मैस्तथा सूक्ष्मसूक्ष्मात्सूक्ष्मतरैस्तथा । स्थूलात्स्थूलतरैश्चैव सर्वं प्राणिभिरावृतम् ॥ ३ ॥ हे महामुने ! सातों द्वीप, सातों पाताल और सातों लोक-ये सभी स्थान जो इस ब्रह्माण्डके अन्तर्गत हैं, स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मातिसूक्ष्म तथा स्थूल और स्थूलतर जीवोंसे भरे हुए हैं ॥ २-३ ॥ अङ्गुलस्याष्टभागोपि न सोऽस्ति मुनिसत्तम ।
न सन्ति प्राणिनो यत्र कर्मबन्धनिबन्धनाः ॥ ४ ॥ हे मुनिसत्तम ! एक अंगुलका आठवाँ भाग भी कोई ऐसा स्थान नहीं है जहाँ कर्म-बन्धनसे बँधे हुए जीव न रहते हों ॥ ४ ॥ सर्वे चैते वशं यान्ति यमस्य भगवन् किल ।
आयुष्याऽते तथा यान्ति यातनास्तत्प्रचोदिताः ॥ ५ ॥ किंतु हे भगवन् ! आयुके समाप्त होनेपर ये सभी यमराजके वशीभूत हो जाते हैं और उन्हीके आदेशानुसार नरक आदि नाना प्रकारकी यातनाएँ भोगते हैं ॥ ५ ॥ यातनाभ्यः परिभ्रष्टा देवाद्यास्वथ योनिषु ।
जन्तवः परिवर्तन्ते शास्त्राणामेष निर्णयः ॥ ६ ॥ तदनन्तर पाप-भोगके समाप्त होनेपर वे देवादि योनियोंमें घूमते रहते हैं-सकल शास्त्रोंका ऐसा ही मत है ॥ ६ ॥ सोहमिच्छामि तच्छ्रोतुं यमस्य वशवर्तिनः ।
न भवन्ति नरा येन तत्कर्म कथयस्व मे ॥ ७ ॥ अतः आप मुझे वह कर्म बताइये जिसे करनेसे मनुष्य यमराजके वशीभूत नहीं होता; मैं आपसे यही सुनना चाहता हूँ ॥ ७ ॥ श्रीपराशर उवाच
अयमेव मुने प्रश्नो नकुलेन महात्मना । पृष्टः पितामहः प्राह भीष्मो यत्तच्छृणुष्व मे ॥ ८ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे मुने ! यही प्रश्न महात्मा नकुलने पितामह भीष्मसे पूछा था । उसके उत्तरमें उन्होंने जो कुछ कहा था वह सुनो ॥ ८ ॥ भीष्म उवाच
पुरा ममागतो वत्स सखा कालिङ्गको द्विजः । स मामुवाच प्रष्टो वै मया जातिस्मरो मुनिः ॥ ९ ॥ तेनाख्यातमिदं सर्वमित्थं चैतद्भविष्यति । तथा च तदभूद्वत्स यथोक्तं तेन धीमता ॥ १० ॥ भीष्मजीने कहा-हे वत्स ! पूर्वकालमें मेरे पास एक कलिंगदेशीय ब्राह्मण-मित्र आया और मुझसे बोला-'मेरे पूछनेपर एक जातिस्मर मुनिने बतलाया था कि ये सब बातें अमुक-अमुक प्रकार ही होंगी । ' हे वत्स ! उस बुद्धिमान्ने जो-जो बातें जिस-जिस प्रकार होनेको कही थीं वे सब ज्यों-की-त्यों हुई ॥ ९-१० ॥ स पृष्टश्च मया भूयः श्रद्दधानेन वै द्विजः ।
यद्यदाह न तद्दृष्टमन्यथा हि मया क्वचित् ॥ ११ ॥ इस प्रकार उसमें श्रद्धा हो जानेसे मैंने उससे फिर कुछ और भी प्रश्न किये और उनके उत्तरमें उस द्विज श्रेष्ठने जो-जो बातें बतलायीं उनके विपरीत मैंने कभी कुछ नहीं देखा ॥ ११ ॥ एकदा तु मया पृष्टमेतद्यद्भवतोदितम् ।
प्राह कालिङ्गको विप्रःस्मृत्वा तस्य मुनेर्वचः ॥ १२ ॥ जातिस्मरेण कथितो रहस्यः परमो मम । यमकिङ्करयोर्योऽभूत्संवादस्तं ब्रवीमि ते ॥ १३ ॥ एक दिन, जो बात तुम मुझसे पूछते हो वही मैंने उस कालिंग ब्राह्मणसे पूछी । उस समय उसने उस मुनिके वचनोंको याद करके कहा कि उस जातिस्मर ब्राह्मणने, यम और उनके दूतोंके बीचमें जो संवाद हुआ था, वह अति गूढ रहस्य मुझे सुनाया था । वही मैं तुमसे कहता हूँ ॥ १२-१३ ॥ कालिङ्ग उवाच
स्वपुरुषमभिवीक्ष्य पाशहस्तं वदति यमः किल तस्य कर्णमूले । परिहर मधुसूदनप्रपन्नान्- प्रभुरहमन्यनृणामवैष्णवानाम् ॥ १४ ॥ कालिंग बोला-अपने अनुचरको हाथमें पाश लिये देखकर यमराजने उसके कानमें कहा "भगवान् मधुसूदनके शरणागत व्यक्तियोंको छोड़ देना, क्योंकि मैं वैष्णवोंसे अतिरिक्त और सब मनुष्योंका ही स्वामी हूँ ॥ १४ ॥ अहममरवरार्चितेन धात्रा
यम इति लोकहिताहिते नियुक्तः । हरिगुरुवशगोस्मि न स्वतन्त्रः प्रभवति संयमने ममापि विष्णुः ॥ १५ ॥ देव-पूज्य विधाताने मुझे 'यम' नामसे लोकोंके पाप-पुण्यका विचार करनेके लिये नियुक्त किया है । मैं अपने गुरु श्रीहरिके वशीभूत हूँ, स्वतन्त्र नहीं हूँ । भगवान् विष्णु मेरा भी नियन्त्रण करने में समर्थ हैं ॥ १५ ॥ कटकमुकुटकर्णिकादिभेदैः
कनकमभेदमपीष्यते यथैकम् । सुरपशुमनुजादिकल्पनाभि- र्हरिरखिलाभिरुदीर्यते तथैकः ॥ १६ ॥ जिस प्रकार सुवर्ण भेदरहित और एक होकर भी कटक, मुकुट तथा कर्णिका आदिके भेदसे नानारूप प्रतीत होता है उसी प्रकार एक ही हरिका देवता, मनुष्य और पशु आदि नाना-विध कल्पनाओंसे निर्देश किया जाता है ॥ १६ ॥ क्षितितलपरमाणवोऽनिलान्ते
पुनरुपयान्ति यथैकतां धरित्र्याः । सुरपशुमनुजादयस्तथान्ते गुणकलुषेण सनातनेन तेन ॥ १७ ॥ जिस प्रकार वायुके शान्त होनेपर उसमें उड़ते हुए परमाणु पृथिवीसे मिलकर एक हो जाते हैं उसी प्रकार गुण-क्षोभसे उत्पन्न हुए समस्त देवता, मनुष्य और पशु आदि [उसका अन्त हो जानेपर] उस सनातन परमात्मामें लीन हो जाते हैं ॥ १७ ॥ हरिममरवरार्चिताङ्घ्रिपद्मं-
प्रणमति यः परमार्थतो हि मर्त्यः । तमपगतसमस्तपापबन्धं व्रज परिहृत्य यथाग्निमाज्यसिक्तम् ॥ १८ ॥ जो भगवान्के सुरवरवन्दित चरणकमलोंकी परमार्थ-बुद्धिसे वन्दना करता है, घृताहुतिसे प्रज्वलित अग्निके समान समस्त पापबन्धनसे मुक्त हुए उस पुरुषको तुम दूरहीसे छोड़कर निकल जाना' ॥ १८ ॥ इति यमवचनं निशम्य पाशी
यम पुरुषस्तमुवाच धर्मराजम् । कथय मम विभो समस्तधातु- र्भवति हरेः खलु यादृशोऽस्य भक्तः ॥ १९ ॥ यमराजके ऐसे वचन सुनकर पाशहस्त यमदूतने उनसे पूछा-'प्रभो ! सबके विधाता भगवान् हरिका भक्त कैसा होता है, यह आप मुझसे कहिये' ॥ १९ ॥ यम उवाच
न चलति निजवर्णधर्मतो यः सममतिरात्मसुहृद्विपक्षपक्षे । न हरति न च हन्ति किञ्चिदुच्चैः स्थितमनसं तमवेहि विष्णुभक्तम् ॥ २० ॥ यमराज बोले-जो पुरुष अपने वर्णधर्मसे विचलित नहीं होता, अपने सुहद् और विपक्षियोंके प्रति समान भाव रखता है, किसीका द्रव्य हरण नहीं करता तथा किसी जीवकी हिंसा नहीं करता उस अत्यन्त रागादि-शून्य और निर्मलचित्त व्यक्तिको भगवान् विष्णुका भक्त जानो ॥ २० ॥ कलिकलुषमलेन यस्य नात्मा
विमलमतेर्मलिनीकृतस्तमेनम् । मनसि कृतजनार्दनं मनष्यं सततमवेहि हरेरतीवभक्तम् ॥ २१ ॥ जिस निर्मलमतिका चित्त कलि-कल्मषरूप मलसे मलिन नहीं हुआ और जिसने अपने हृदयमें श्रीजनार्दनको बसाया हुआ है उस मनुष्यको भगवानका अतीव भक्त समझो ॥ २१ ॥ कनकमपि रहस्यवेक्ष्य बुद्ध्या
तृणमिव यःसमवैति वै परस्वम् । भवति च भगवत्यनन्यचेताः पुरुषवरं तमवेहि विष्णुभक्तम् ॥ २२ ॥ जो एकान्तमें पड़े हुए दूसरेके सोनेको देखकर भी उसे अपनी बुद्धिद्वारा तृणके समान समझता है और निरन्तर भगवान्का अनन्यभावसे चिन्तन करता है उस नरश्रेष्ठको विष्णुका भक्त जानो ॥ २२ ॥ स्फटिकगिरिशिलामलः क्व विष्णु-
र्मनसि नृणां क्व च मत्सरादिदोषः । न हि तुहिनमयूखरश्मिपुञ्जे भवति हुताशनदीप्तिजः प्रतापः ॥ २३ ॥ कहाँ तो स्फटिकगिरि-शिलाके समान अति निर्मल भगवान् विष्णु और कहाँ मनुष्यों के चित्तमें रहनेवाले राग-द्वेषादि दोष ? [इन दोनोंका संयोग किसी प्रकार नहीं हो सकता] हिमकर (चन्द्रमा)के किरण जालमें अग्नि-तेजकी उष्णता कभी नहीं रह सकती है ॥ २३ ॥ विमलमतिरमत्सरः प्रशान्त-
श्शुचिचरितोखिलसत्त्वमित्रभूतः । प्रियहितवचनोऽस्तमानमायो वसति सदा हृदि तस्य वासुदेवः ॥ २४ ॥ जो व्यक्ति निर्मलचित्त, मात्सर्यरहित, प्रशान्त, शुद्ध-चरित्र, समस्त जीवोंका सुहृद्, प्रिय और हितवादी तथा अभिमान एवं मायासे रहित होता है उसके हृदयमें भगवान् वासुदेव सर्वदा विराजमान रहते हैं ॥ २४ ॥ वसति हृदिसनातने च तस्मिन्
भवति पुमाञ्जगतोस्य सौम्यरूपः । क्षितिरसमतिरम्यमात्मनोऽन्तः कथयति चारुतयैव शालपोतः ॥ २५ ॥ उन सनातन भगवान्के हृदय में विराजमान होनेपर पुरुष इस जगत्में सौम्यमूर्ति हो जाता है, जिस प्रकार नवीन शालवृक्ष अपने सौन्दर्यसे ही भीतर भरे हुए अति सुन्दर पार्थिव रसको बतला देता है ॥ २५ ॥ यमनियमविधूत कल्पषाणा-
मनुदिनमच्युतसक्तमानसानाम् । अपगतमदमानमत्सराणां त्यज भट दूरतरेण मानवानाम् ॥ २६ ॥ हे दूत । यम और नियमके द्वारा जिनकी पापराशि दूर हो गयी है, जिनका हृदय निरन्तर श्रीअच्युतमें ही आसक्त रहता है, तथा जिनमें गर्व, अभिमान और मात्सर्यका लेश भी नहीं रहा है: उन मनुष्योंको तुम दूरहीसे त्याग देना ॥ २६ ॥ हृदि यदि भगवाननादिरास्ते
हरिरसिशङ्खगदाधरोव्ययात्मा । तदघमघविघातकर्तृभिन्नं भवति कथं सति चान्धकारमर्के ॥ २७ ॥ यदि खड्ग, शंख और गदाधारी अव्ययात्मा भगवान् हरि हृदयमें विराजमान हैं तो उन पापनाशक भगवान्के द्वारा उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं । सूर्यके रहते हुए भला अन्धकार कैसे ठहर सकता है ? ॥ २७ ॥ हरति परधनं निहन्ति जन्तून्
वदति तथाऽनृतनिष्ठुराणि यश्च । अशुभजनितदुरमदस्य पुंसः कलुषमतेर्हृदि तस्य नास्त्यनन्तः ॥ २८ ॥ जो पुरुष दूसरोंका धन हरण करता है, जीवोंकी हिंसा करता है, तथा मिथ्या और कटुभाषण करता है उस अशुभ कर्मोन्मत्त दुष्टबुद्धिके हृदयमें भगवान् अनन्त नहीं टिक सकते ॥ २८ ॥ न सहति परसम्पदं विनिन्दां
कलुषमतिः कुरुते सतामसाधुः । न यजति न ददाति यश्च सन्तं मनसि न तस्य जनार्दनोऽधमस्य ॥ २९ ॥ जो कुमति दूसरोंके वैभवको नहीं देख सकता, जो दूसरोंकी निन्दा करता है, साधुजनोंका अपकार करता है तथा सम्पन्न होकर भी] न तो श्रीविष्णुभगवानकी पूजा ही करता है और न [उनके भक्तोंको] दान ही देता है; उस अधमके हृदयमें श्रीजनार्दनका निवास कभी नहीं हो सकता ॥ २९ ॥ परमसुहृदिबान्धवे कलत्रे
सुततनयापितृमातृभृत्यवर्गे । शठमतिरुपयाति योऽर्थतृष्णां तमधमचेष्टमवेहि नास्य भक्तम् ॥ ३० ॥ जो दुष्टबुद्धि अपने परम सुखद्, बन्धुबान्धव, स्त्री, पुत्र, कन्या, पिता तथा भृत्यवर्गके प्रति अर्थतृष्णा प्रकट करता है उस पापाचारीको भगवान्का भक्त मत समझो ॥ ३० ॥ अशुभमतिरसत्प्रवृत्ति सक्त-
स्सततमनार्यकुशीलसङ्गमत्तः । अनुदिनकृतपापबन्धयुक्तः परुषपशुर्न हि वासुदेवभक्तः ॥ ३१ ॥ जो दुर्बुद्धि पुरुष असत्कर्मोमें लगा रहता है, नीच पुरुषोंके आचार और उन्हींके संगमें उन्मत्त रहता है तथा नित्यप्रति पापमय कर्मबन्धनसे ही बैधता जाता है वह मनुष्यरूप पशु ही है; वह भगवान् वासुदेवका भक्त नहीं हो सकता ॥ ३१ ॥ सकलमिदमहं च वासुदेवः
परमपुमान्परमेश्वरः स एकः । इति मतिरचलाभवत्यनन्ते हृदयगते व्रजतान्विहाय दूरात् ॥ ३२ ॥ यह सकल प्रपंच और मैं एक परमपुरुष परमेश्वर वासुदेव ही हैं, हृदयमें भगवान् अनन्तके स्थित होनेसे जिनकी ऐसी स्थिर बुद्धि हो गयी हो, उन्हें तुम दूरहीसे छोड़कर चले जाना ॥ ३२ ॥ कमलनयन वासुदेव विष्णो
धरणिधराच्युत शङ्खचक्रपाणे । भवशरणमितिरयन्ति ये वै त्यज भट दूरतरेण तानपापान् ॥ ३३ ॥ 'हे कमलनयन ! हे वासुदेव ! हे विष्णो ! हे धरणिधर ! हे अच्युत ! हे शंख-चक्र-पाणे ! आप हमें शरण दीजिये-जो लोग इस प्रकार पुकारते हों उन निष्पाप व्यक्तियोंको तुम दूरसे ही त्याग देना ॥ ३३ ॥ वसति मनसि यस्य सोव्ययात्मा
पुरुषवरस्य न तस्य दृष्टिपाते । तव गतिरथ वा ममास्ति चक्र- प्रतिहतवीर्यबलस्य सोऽन्यलोक्यः ॥ ३४ ॥ जिस पुरुष श्रेष्ठके अन्त:करणमें वे अव्ययात्मा भगवान् विराजते हैं, उसका जहाँतक दृष्टिपात होता है वहाँतक भगवान्के चक्रके प्रभावसे अपने बल-वीर्य नष्ट हो जानेके कारण तुम्हारी अथवा मेरी गति नहीं हो सकती । वह (महापुरुष) तो अन्य (वैकुण्ठादि) लोकोंका पात्र है ॥ ३४ ॥ कालिङ्ग उवाच
इति निजभटशासनाय देवो रवितनयस्य किलाह धर्मराजः । मम कथितमिदं च तेन तुभ्यं कुरुवर सम्यगिदं मयापि चोक्तम् ॥ ३५ ॥ कालिंग बोला-हे कुरुवर ! अपने दूतको शिक्षा देनेके लिये सूर्यपुत्र धर्मराजने उससे इस प्रकार कहा । मुझसे यह प्रसंग उस जातिस्मर मुनिने कहा था और मैंने यह सम्पूर्ण कथा तुमको सुना दी है ॥ ३५ ॥ श्रीभीष्म उवाच
नकुलैतन्ममाख्यातं पूर्वं तेन द्विजन्मना । कलिङ्गदेशादभ्येत्य प्रीतेन सुमहात्मना ॥ ३६ ॥ श्रीभीष्मजी बोले-हे नकुल ! पूर्वकालमें कलिंगदेशसे आये हुए उस महात्मा ब्राह्मणने प्रसन्न होकर मुझे यह सब विषय सुनाया था ॥ ३६ ॥ मयाप्येतद्यथान्यायं सम्यग्वत्स तवोदितम् ।
यथा विष्णुमृते नान्यत्त्राणां संसारसागरे ॥ ३७ ॥ हे वत्स ! वही सम्पूर्ण वृत्तान्त, जिस प्रकार कि इस संसार-सागरमें एक विष्णुभगवान्को छोड़कर जीवका और कोई भी रक्षक नहीं है, मैंने ज्योंका-त्यों तुम्हें सुना दिया ॥ ३७ ॥ किङ्कराः पाशदण्डाश्च न यमो न च यातनाः ।
समर्थास्तस्य यस्यात्मा केशवालम्बनःसदा ॥ ३८ ॥ जिसका हृदय निरन्तर भगवत्परायण रहता है उसका यम, यमदूत, यमपाश, यमदण्ड अथवा यम-यातना कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते ॥ ३८ ॥ श्रीपराशर उवाच
एतन्मुने समाख्यातं गीतं वैवस्वतेन यत् । त्वत्प्रश्नानुगतं सम्यक्किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ॥ ३९ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे मुने ! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार जो कुछ यमने कहा था, वह सब मैंने तुम्हें भली प्रकार सुना दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ३९ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे तृतीयांशे सप्तमोऽध्यायः (७)
इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥ |