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॥ विष्णुपुराणम् ॥ तृतीयः अंशः ॥ द्वादशोऽध्यायः ॥ और्व उवाच
देवगोब्राह्मणान्त्सिद्धान्वृद्धाचार्यांस्तथार्चयेत् । द्विकालं च नमेत्सन्ध्यामग्नीनुपचरेत्तथा ॥ १ ॥ और्व बोले-गृहस्थ पुरुषको नित्यप्रति देवता, गौ, ब्राह्मण, सिद्धगण, वयोवृद्ध तथा आचार्यकी पूजा करनी चाहिये और दोनों समय सन्ध्यावन्दन तथा अग्निहोत्रादि कर्म करने चाहिये ॥ १ ॥ सदाऽनुपहते वस्त्रे प्रशस्ताश्च महोषधीः ।
गारुडानि च रत्नानि बिभृयात्प्रयतो नरः ॥ २ ॥ गृहस्थ पुरुष सदा ही संयमपूर्वक रहकर बिना कहींसे कटे हुए दो वस्त्र, उत्तम ओषधियाँ और गारुड (मरकत आदि विष नष्ट करनेवाले) रत्न धारण करे ॥ २ ॥ प्रस्निग्धामलकेशश्च सुगन्धश्चारुवेषधृक् ।
सिताः सुमनसो हृद्या विभृयाच्च नरः सदा ॥ ३ ॥ वह केशोंको स्वच्छ और चिकना रखे तथा सर्वदा सुगन्धयुक्त सुन्दर वेष और मनोहर श्वेतपुष्प धारण करे ॥ ३ ॥ किञ्चित्परस्वं न हरेन्नल्पमप्यप्रियं वदेत् ।
प्रियं च नानृतं ब्रूयान्नान्यदोषानुदीरयेत् ॥ ४ ॥ किसीका थोडा-सा भी धन हरण न करे और थोड़ा-सा भी अप्रिय भाषण न करे । जो मिथ्या हो ऐसा प्रिय वचन भी कभी न बोले और न कभी दूसरोंके दोषोंको ही कहे ॥ ४ ॥ नान्यस्त्रियं तथा वैरं रोचयेत्पुरुषर्षभ ।
न दुष्टं यानमारोहेत्कूलच्छायां न संश्रयेत् ॥ ५ ॥ हे पुरुषश्रेष्ठ ! दूसरोंकी स्त्री अथवा दूसरोंके साथ वैर करने में कभी रुचि न करे, निन्दित सवारीमें कभी न चढ़े और नदीतीरकी छायाका कभी आश्रय न ले ॥ ५ ॥ विद्विष्टपतितोन्मत्तबहुवैरादिकीटकैः ।
बंधकी बन्धकीभर्तुः क्षुद्रानृतकथैः सह ॥ ६ ॥ तथातिव्ययशीलैश्च परिवादरतैः शठैः । बुधो मैत्रीं न कुर्वात नैकः पन्थानमाश्रयेत् ॥ ७ ॥ बुद्धिमान् पुरुष लोकविद्विष्ट, पतित, उन्मत्त और जिसके बहुत-से शत्रु हों ऐसे परपीडक पुरुषोंके साथ तथा कुलटा, कुलटाके स्वामी, क्षुद्र, मिथ्यावादी अति व्ययशील, निन्दापरायण और दुष्ट पुरुषोंके साथ कभी मित्रता न करे और न कभी मार्गमें अकेला चले ॥ ६-७ ॥ नावगाहेज्जलोघस्य वेगमग्रे नपेश्वर ।
प्रदीप्तं वेश्म न विशेन्नारोहेच्छिखरं तरोः ॥ ८ ॥ हे नरेश्वर ! जलप्रवाहके वेगमें सामने पड़कर स्नान न करे, जलते हुए घरमें प्रवेश न करे और वृक्षकी चोटीपर न चढे ॥ ८ ॥ न कुर्याद्दन्तसङ्घर्षं कुष्णियाच्च न नासिकाम् ।
नासंवृतमुखो जृम्भेच्छ्वासकासो विसर्जयेत् ॥ ९ ॥ दाँतोंको परस्पर न पिसे, नाकको न कुरेदे तथा मुखको बन्द किये हुए जमुहाई न ले और न बन्द मुखसे खाँसे या श्वास छोड़े ॥ ९ ॥ नोच्चैर्हसेत्सशब्दं च न मुञ्चेत्पवनं बुधः ।
नखान्न खादयेच्छिन्द्यान्न तृणं न महीं लिखेत् ॥ १० ॥ बुद्धिमान् पुरुष जोरसे न हँसे और शब्द करते हुए अधोवायु न छोड़े, तथा नोंको न चबावे, तिनका न तोड़े और पृथिवीपर भी न लिखे ॥ १० ॥ न श्मश्रु भक्षयेल्लोष्टं न मृद्नीयाद्विचक्षणः ।
ज्योतींष्यमेध्यशस्तानि नाभिवीक्षेत च प्रभो ॥ ११ ॥ हे प्रभो ! विचक्षण पुरुष मूंछ-दाढ़ीके बालोंको न चबावे, दो ढेलोको परस्पर न रगड़े और अपवित्र एवं निन्दित नक्षत्रोंको न देखे ॥ ११ ॥ नग्नां परस्त्रियं चैव सूर्यं चास्तमयोदये ।
न हुङ्कुर्याच्छवं गन्धं शवगन्धोहि सोमज ॥ १२ ॥ नग्न परस्त्रीको और उदय अथवा अस्त होते हुए सूर्यको न देखे तथा शव और शव-गन्धसे घृणा न करे, क्योंकि शव-गन्ध सोमका अंश है ॥ १२ ॥ चतुष्पथं चैत्यतरुं श्मशानोपवनानि च ।
दुष्टस्त्रीसन्निकर्षं च वर्जयेन्निशि सर्वदा ॥ १३ ॥ चौराहा, चैत्यवृक्ष, श्मशान, उपवन और दुष्टा स्त्रीकी समीपता-इन सबका रात्रिके समय सर्वदा त्याग करे ॥ १३ ॥ पूज्यदेवद्विजज्योतिश्छायां नातिक्रमेद् बुधः ।
नैकः शून्याटवीं गच्छेत्तथा शून्यगृहे वसेत् ॥ १४ ॥ बुद्धिमान् पुरुष अपने पूजनीय देवता, ब्राह्मण और तेजोमय पदार्थोकी छायाको कभी न लाँघे तथा शून्य वनखण्डी और शून्य घरमें कभी अकेला न रहे ॥ १४ ॥ केशास्थिकण्टकामेध्यबलिभस्मतुषांस्तथा ।
स्नानार्द्रधरणीं चैव दूरतः परिवर्जयेत् ॥ १५ ॥ केश, अस्थि, कण्टक, अपवित्र वस्तु, बलि, भस्म, तुष तथा स्नानके कारण भीगी हुई पृथिवीका दूरहीसे त्याग करे ॥ १५ ॥ नानार्यानाश्रयेत्कांश्चिन्न जिह्मं रोचयेद्बुधः ।
उपसर्पेन्न वै व्यालं चिरं तिष्ठेन्न वोत्थितः ॥ १६ ॥ प्राज्ञ पुरुषको चाहिये कि अनार्य व्यक्तिका संग न करे, कुटिल पुरुषमें आसक्त न हो, सर्पके पास न जाय और जग पड़नेपर अधिक देरतक लेटा न रहे ॥ १६ ॥ अतीव जागरस्वप्ने तद्वत्स्थानासने बुधः ।
न सेवेत तथा शय्यां व्यायामं च नरेश्वर ॥ १७ ॥ हे नरेश्वर ! बुद्धिमान् पुरुष जागने, सोने, स्नान करने, बैठने, शय्यासेवन करने और व्यायाम करने में अधिक समय न लगावे ॥ १७ ॥ दंष्ट्रिणः शृङ्गिणश्चैव प्राज्ञो दूरेण वर्जयेत् ।
अवश्यायं च राजेन्द्र पुरोवातातपौ तथा ॥ १८ ॥ हे राजेन्द्र ! प्राज्ञ पुरुष दाँत और सींगवाले पशुओंको, ओसको तथा सामनेकी वायु और धूपका सर्वदा परित्याग करे ॥ १८ ॥ न स्नायान्न स्वपेन्नग्नो न चैवोपस्पृशेद् बुधः ।
मुक्तकेशश्च नाचामेद्देवाद्यर्चां च वर्जयेत् ॥ १९ ॥ नग्न होकर स्नान, शयन और आचमन न करे तथा केश खोलकर आचमन और देव-पूजन न करे ॥ १९ ॥ होमदेवार्चनाद्यासु क्रियास्वाचमने तथा ।
नैकवस्त्रः प्रवर्तेत द्विजवाचनिके जपे ॥ २० ॥ होम तथा देवार्चन आदि क्रियाओंमें, आचमनमें, पुण्याहवाचनमें और जपमें एक वस्त्र धारण करके प्रवृत्त न हो ॥ २० ॥ नासमञ्जसशीलैस्तु सहासीत कथञ्चन ।
सद्बुत्तसन्निकर्षो हि क्षणार्धमपि शस्यते ॥ २१ ॥ संशयशील व्यक्तियोंके साथ कभी न रहे । सदाचारी पुरुषोंका तो आधे क्षणका संग भी अति प्रशंसनीय होता है ॥ २१ ॥ विरोधं नोत्तमैर्गच्छेन्नाधमैश्च सदा बुधः ।
विवाहश्च विवादश्च तुल्यशीलैर्नृपेष्यते ॥ २२ ॥ बुद्धिमान् पुरुष उत्तम अथवा अधम व्यक्तियोंसे विरोध न करे । हे राजन् । विवाह और विवाद सदा समान व्यक्तियोंसे ही होना चाहिये ॥ २२ ॥ नारभेत कलं प्राज्ञः शुष्कवैरं च वर्जयेत् ।
अप्यल्पहानिःसोढव्या वैरेणार्थागमं त्यजेत् ॥ २३ ॥ प्राज्ञ पुरुष कलहन बढ़ावे तथा व्यर्थ वैरका भी त्याग करे । थोड़ी-सी हानि सहले, किन्तु वैरसे कुछ लाभ होता हो तो उसे भी छोड़ दे ॥ २३ ॥ स्नातो नाङ्गानि संमार्जेत्स्नानशाट्या न पाणिना ।
न च निर्धूतयेत्केशान्नाचामेच्चैव चोत्थितः ॥ २४ ॥ स्नान करनेके अनन्तर स्नानसे भीगी हुई धोती अथवा हाथोंसे शरीरको न पोंछे तथा खड़े-खड़े केशोंको न झाड़े और आचमन भी न करे ॥ २४ ॥ पादेन नाक्रमेत्पादं न पूज्याविमुखं नयेत् ।
नोच्चासनं गुरोरग्रे भजेताविनयान्वितः ॥ २५ ॥ पैरके ऊपर पैर न रखे, गुरुजनोंके सामने पैर न फैलावे और धृष्टतापूर्वक उनके सामने कभी उच्चासनपर न बैठे ॥ २५ ॥ अपसव्यं न गच्छेच्च देवागारचतुष्पथान् ।
माङ्गल्यपूज्यांश्च तथा विपरीतान्न दक्षिणम् ॥ २६ ॥ देवालय, चौराहा, मांगलिक द्रव्य और पूज्य व्यक्ति-इन सबको बायीं ओर रखकर न निकले तथा इनके विपरीत वस्तुओंको दायीं ओर रखकर न जाय ॥ २६ ॥ सोमार्काग्न्यम्बुवायूनां पूज्यानां च न संमुखम् ।
कुर्यान्निष्ठीवविण्मुत्रसमुत्सर्गं च पण्डितः ॥ २७ ॥ चन्द्रमा, सूर्य, अग्नि, जल, वायु और पूज्य व्यक्तियोंके सम्मुख पण्डित पुरुष मल-मूत्र-त्याग न करे और न थूके ही ॥ २७ ॥ तिष्ठन्न मूत्रयेत्तद्वत्पथिष्वपि न मूत्रयेत् ।
श्लेष्मविण्मूत्ररक्तानि सर्वदैव न लङ्घयेत् ॥ २८ ॥ खड़े-खड़े अथवा मार्गमें मूत्र त्याग न करे तथा श्लेष्मा (थूक), विष्ठा, मूत्र और रक्तको कभी न लाँघे ॥ २८ ॥ श्लेष्मशिङ्घाणिकोत्सर्गो नान्नकाले प्रशस्यते ।
बलिमङ्गलजप्यादौ न होमे न महाजने ॥ २९ ॥ भोजन, देव-पूजा, मांगलिक कार्य और जप-होमादिके समय तथा महापुरुषोंके सामने थूकना और छींकना उचित नहीं है ॥ २९ ॥ योषितो नावमन्येत न चासां विश्वसेद्बुधः ।
न चैवेर्ष्या भवेत्तासु न धिक्कुर्यात्कदाचन ॥ ३० ॥ बुद्धिमान् पुरुष स्त्रियोंका अपमान न करे, उनका विश्वास भी न करे तथा उनसे ईर्ष्या और उनका तिरस्कार भी कभी न करे ॥ ३० ॥ मङ्गल्यपूर्वरत्नाज्यपूज्याननभिवाद्य च ।
न निष्क्रमेद् गृहात्प्राज्ञःसदाचारपरो नरः ॥ ३१ ॥ सदाचारपरायण प्राज्ञ पुरुष मांगलिक द्रव्य, पुष्प, रत्न, घृत और पूज्य व्यक्तियोंका अभिवादन किये बिना कभी अपने घरसे न निकले ॥ ३१ ॥ चतुष्पथान्नमस्कुर्यात्काले होमपरो भवेत् ।
दीनानभ्युद्धरेत्साधूनुपासीत बहुश्रुतान् ॥ ३२ ॥ चौराहोंको नमस्कार करे, यथासमय अग्निहोत्र करे, दीन-दुःखियोंका उद्धार करे और बहुश्रुत साधु पुरुषोंका सत्संग करे ॥ ३२ ॥ देवर्षिपूजकःसम्यक्पितृपिण्डोदकप्रदः ।
सत्कर्ता चातिथीनां यः स लोकानुत्तमान्व्रजेत् ॥ ३३ ॥ जो पुरुष देवता और ऋषियोंकी पूजा करता है, पितृगणको पिण्डोदक देता है और अतिथिका सत्कार करता है वह पुण्यलोकोंको जाता है ॥ ३३ ॥ हितं मितं प्रियं काले वश्यात्मा योऽभिभाषते ।
स याति लोकानाह्लादहेतुभूतान् नृपाक्षयान् ॥ ३४ ॥ जो व्यक्ति जितेन्द्रिय होकर समयानुसार हित, मित और प्रिय भाषण करता है, हे राजन् ! वह आनन्दके हेतुभूत अक्षय लोकोंको प्राप्त होता है ॥ ३४ ॥ धीमान्ह्रीमान्क्षमायुक्तो ह्यास्तिको विनयान्वितः ।
विद्याभिजनवृद्धानां याति लोकाननुत्तमान् ॥ ३५ ॥ बुद्धिमान् , लज्जावान् , क्षमाशील, आस्तिक और विनयी पुरुष विद्वान् और कुलीन पुरुषों के योग्य उत्तम लोकोंमें जाता है ॥ ३५ ॥ अकालगार्जितादौ च पर्वस्वाशौचकादिषु ।
अनध्यायं बुधः कुर्यादुपरागादिके तथा ॥ ३६ ॥ अकाल मेघगर्जनके समय, पर्व-दिनोंपर, अशौच कालमें तथा चन्द्र और सूर्यग्रहणके समय बुद्धिमान् पुरुष अध्ययन न करे ॥ ३६ ॥ समं नयति यः क्रुद्वान्सर्वबन्धुरमत्सरी ।
भीताश्वासनकृत्साधुःस्वर्गस्तस्याल्पकं फलम् ॥ ३७ ॥ जो व्यक्ति क्रोधितको शान्त करता है, सबका बन्धु है, मत्सरशून्य है, भयभीतको सान्त्वना देनेवाला है और साधु-स्वभाव है उसके लिये स्वर्ग तो बहुत थोड़ा फल है ॥ ३७ ॥ वर्षातपादिषु च्छत्री दण्डी रात्र्यटवीषु च ।
शरीरत्राणकामो वै सोपानत्कःसदा व्रजेत् ॥ ३८ ॥ जिसे शरीर-रक्षाकी इच्छा हो वह पुरुष वर्षा और धूपमें छाता लेकर निकले, रात्रिके समय और वनमें दण्ड लेकर जाय तथा जहाँ कहीं जाना हो सर्वदा जूते पहनकर जाय ॥ ३८ ॥ नोर्ध्वं न तिर्यग्दूरं वा न पश्यन्पर्यटेद् बुधः ।
युगमात्रं महीपृष्ठं नरो गच्छेद्विलोकयन् ॥ ३९ ॥ बुद्धिमान् पुरुषको ऊपरकी ओर, इधर-उधर अथवा दूरके पदार्थोको देखते हुए नहीं चलना चाहिये, केवल युगमात्र (चार हाथ) पृथिवीको देखता हुआ चले ॥ ३९ ॥ दोषहेतूनशेषांश्च वश्यात्मा यो निरस्यति ।
तस्य धर्मार्थकामानां हानिर्नाल्पापि जायते ॥ ४० ॥ जो जितेन्द्रिय दोषके समस्त हेतुओंको त्याग देता है उसके धर्म, अर्थ और कामकी थोड़ी-सी भी हानि नहीं होती ॥ ४० ॥ सदाचाररतः प्राज्ञो विद्याविनयशिक्षितः ।
पापेऽप्यपापः परुषे ह्यभिधत्ते प्रियाणि यः । मैत्रीद्रवान्तः करणस्तस्य मुक्तिः करे स्थिता ॥ ४१ ॥ जो विद्या-विनय-सम्पन्न, सदाचारी प्राज्ञ पुरुष पापीके प्रति पापमय व्यवहार नहीं करता, कुटिल पुरुषोंसे प्रिय भाषण करता है तथा जिसका अन्तःकरण मैत्रीसे द्रवीभूत रहता है, मुक्ति उसकी मुट्ठीमें रहती है । ४१ ॥ ये कामक्रोधलोभानां वीतरागा न गोचरे ।
सदाचारस्थितास्तेषामनुभावैर्धृता मही ॥ ४२ ॥ जो वीतरागमहापुरुष कभी काम, क्रोध और लोभादिके वशीभूत नहीं होते तथा सर्वदा सदाचारमें स्थित रहते हैं उनके प्रभावसे ही पृथिवी टिकी हुई है ॥ ४२ ॥ तस्मात्सत्यं वदेत्प्राज्ञो यत्परप्रीतिकारणम् ।
सत्यं यत्परदुःखाय तदा मौनपरो भवेत् ॥ ४३ ॥ अतः प्राज्ञ पुरुषको वही सत्य कहना चाहिये जो दूसरोकी प्रसन्नताका कारण हो । यदि किसी सत्य वाक्यके कहनेसे दूसरोंको दु:ख होता जाने तो मौन रहे ॥ ४३ ॥ प्रियमुक्तं हितं नैतदिति मत्वा न तद्वदेत् ।
श्रेयस्तत्र हितं वाच्यं यद्यप्यत्यन्तमप्रियम् ॥ ४४ ॥ यदि प्रिय वाक्यको भी अहितकर समझे तो उसे न कहे; उस अवस्थामें तो हितकर वाक्य ही कहना अच्छा है, भले ही वह अत्यन्त अप्रिय क्यों न हो ॥ ४४ ॥ प्राणीनामुपकाराय यथैवेह परत्र च ।
कर्मणा मनसा वाचा तदेव मतीमान्वदेत् ॥ ४५ ॥ जो कार्य इहलोक और परलोकमें प्राणियोंके हितका साधक हो मतिमान् पुरुष मन, वचन और कर्मसे उसीका आचरण करे ॥ ४५ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे तृतीयांशे द्वादशोऽध्यायः (१२)
इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥ |