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॥ विष्णुपुराणम् ॥

तृतीयः अंशः

॥ षोडशोऽध्यायः ॥

और्व उवाच
हविष्यमत्स्यमासैस्तु शशस्य नकुलस्य च ।
सोकरच्छाकलैणेयरौरवैर्गवयेन च ॥ १ ॥
औरभ्रगव्यैश्च तथा मासवृद्ध्या पितामहाः ।
प्रयान्ति तृप्तिं मांसैस्तु नित्यं वार्ध्रीणसामिषैः ॥ २ ॥
और्व बोले-हवि, मत्स्य, शशक (खरगोश), नकुल, शूकर, छाग, कस्तूरिया मृग, कृष्ण मृग, गवय (वनगाय) और मेषके मांसोंसे तथा गव्य (गौके दूध-घी आदि)-से पितृगण क्रमशः एक-एक मास अधिक तृप्ति लाभ करते हैं और वार्धाणस पक्षीके मांससे सदा तृप्त रहते हैं ॥ १-२ ॥

खड्गमांसमतीवात्र कालशाकं तथा मधु ।
शस्तानि कर्मण्यत्यन्ततृप्तिदानि नरेश्वर ॥ ३ ॥
हे नरेश्वर ! श्राद्धकर्ममें गेंडेका मांस, कालशाक और मधु अत्यन्त प्रशस्त और अत्यन्त तृप्तिदायक हैं * ॥ ३ ॥

गयामुपेत्य यः श्राद्धं करोति पृथिवीपते ।
सफलं तस्य तज्जन्म जायते पितृतुष्टिदम् ॥ ४ ॥
हे पृथिवीपते ! जो पुरुष गयामें जाकर श्राद्ध करता है, उसका पितृगणको तृप्ति देनेवाला वह जन्म सफल हो जाता है ॥ ४ ॥

प्रशान्तिकाःसमीवाराः श्यामाका द्विविधास्तथा ।
वन्यौषधीप्रधानास्तु श्राद्धार्हाः पुरुषर्षभ ॥ ५ ॥
हे पुरुषश्रेष्ठ ! देवधान्य, नीवार और श्याम तथा श्वेत वर्णके श्यामाक (सावाँ) एवं प्रधान-प्रधान वनौषधियाँ श्राद्धके उपयुक्त द्रव्य हैं ॥ ५ ॥

यवाः प्रियङ्‍गवो मुद्‍गा गोधूमा व्रीहयस्तिलाः ।
निष्पावाः कोविदाराश्च सर्षपाश्चात्र शोभनाः ॥ ६ ॥
जौ, काँगनी, मूंग, गेहूँ, धान, तिल, मटर, कचनार और सरसों-इन सबका श्राद्धमें होना अच्छा है ॥ ६ ॥

अकृताग्रयणं यच्च धान्यजातं नरेश्वर ।
राजमाषानणूंश्चैव मसूरांश्च विसर्जयेत् ॥ ७ ॥
अलाबुं गृञ्जनं चैव पलाण्डुं पिण्डमूलकम् ।
गान्धारककरंबादिलवाणान्यौषराणि च ॥ ८ ॥
आरक्ताश्चैव निर्यासाः प्रत्यक्षलवणानि च ।
वर्ज्यान्येतानि वै श्राद्धे यच्च वाचा न शस्यते ॥ ९ ॥
हे राजेश्वर ! जिस अन्नसे नवान्न यज्ञ न किया गया हो तथा बड़े उड़द, छोटे उड़द, मसूर, कडू, गाजर, प्याज, शलजम, गान्धारक (शालिविशेष) बिना तुपके गिरे हुए धान्यका आटा, ऊसर भूमिमें उत्पन्न हुआ लवण, हींग आदि कुछ-कुछ लाल रंगकी वस्तुएँ, प्रत्यक्ष लवण और कुछ अन्य वस्तुएँ जिनका शास्त्रमें विधान नहीं है, श्राद्धकर्ममें त्याज्य हैं ॥ ७-९ ॥

नक्ताहृतमनुच्छिन्नं तृप्यते न च यत्र गौः ।
दुर्घधिफेनिलं चाम्बु श्राद्धयोग्यं न पार्थिव ॥ १० ॥
हे राजन् ! जो रात्रिके समय लाया गया हो, अप्रतिष्ठित जलाशयका हो, जिसमें गौ तृप्त न हो सकती हो ऐसे गड्डेका अथवा दुर्गन्ध या फेनयुक्त जल श्राद्धके योग्य नहीं होता ॥ १० ॥

क्षिरमेकशफानां यदौष्ट्रमाविकमेव च ।
मार्गं च माहिषं चैव वर्जयेच्छ्राद्धकर्मणि ॥ ११ ॥
एक खुरवालोंका, ऊँटनीका, भेड़का, मृगीका तथा भैंसका दूध श्राद्धकर्ममें काममें न ले ॥ ११ ॥

षण्ढापविद्धचण्डालपापिपाषण्डरोगिभिः ।
कृकवाकुश्वननग्नैश्च वानरग्रामसूकरैः ॥ १२ ॥
उदक्यासूतिकाशौचिमृतहारैश्च वीक्षिते ।
श्राद्धे सुरा न पितरो भुञ्जते पुरुषर्षभ ॥ १३ ॥
हे पुरुषर्षभ ! नपुंसक, अपविद्ध (सत्पुरुषोंद्वारा बहिष्कृत), चाण्डाल, पापी, पाषण्डी, रोगी, कुक्कुट, श्वान, नग्न (वैदिक कर्मको त्याग देनेवाला पुरुष) वानर, ग्राम्यशूकर, रजस्वला स्त्री, जन्म अथवा मरणके अशौचसे युक्त व्यक्ति और शव ले जानेवाले पुरुष-इनमेंसे किसीकी भी दृष्टि पड़ जानेसे देवगण अथवा पितृगण कोई भी श्राद्ध में अपना भाग नहीं लेते ॥ १२-१३ ॥

तस्मात्परीश्रिते कुर्याच्छ्राद्धं श्रद्धासमन्वितः ।
उर्व्यां च तिलविक्षेपाद्यातुधानान्निवारयेत् ॥ १४ ॥
अत: किसी घिरे हुए स्थानमें श्रद्धापूर्वक श्राद्धकर्म करे तथा पृथिवीमें तिल छिड़ककर राक्षसोंको निवृत्त कर दे ॥ १४ ॥

नखादिना चोपपन्नं केशकीटादिभिर्नृप ।
न चैवाभिषवैर्मिश्रमन्नं पर्युषितं तथा ॥ १५ ॥
हे राजन् ! श्राद्धमें ऐसा अन्न न दे जिसमें नख, केश या कीड़े आदि हों या जो निचोड़कर निकाले हुए रससे युक्त हो या बासी हो ॥ १५ ॥

श्रद्धासमन्वितैर्दत्तं पितृभ्यो नामगोत्रतः ।
यदाहारास्तु ते जातास्तदाहारत्वमेति तत् ॥ १६ ॥
श्रद्धायुक्त व्यक्तियोंद्वारा नाम और गोत्रके उच्चारणपूर्वक दिया हुआ अन्न पितृगणको वे जैसे आहारके योग्य होते हैं वैसा ही होकर उन्हें मिलता है ॥ १६ ॥

श्रूयते चापि पितृर्भिगीता गाथा महीपते ।
इक्ष्वाकोर्मनुपुत्रस्य कलापोपवने पुरा ॥ १७ ॥
हे राजन् ! इस सम्बन्धमें एक गाथा सुनी जाती है जो पूर्वकालमें मनुपुत्र महाराज इक्ष्वाकुके प्रति पितृगणने कलाप उपवन में कही थी ॥ १७ ॥

अपि नस्ते भविष्यन्ति कुले सन्मार्गशीलिनः ।
गयामुपेत्य ये पिण्डान्दास्यन्त्यस्माकमादरात् ॥ १८ ॥
क्या हमारे कुलमें ऐसे सन्मार्ग-शील व्यक्ति होंगे जो गयामें जाकर हमारे लिये आदरपूर्वक पिण्डदान करेंगे ? ॥ १८ ॥

अपि नः स कुले जायाद्यो नो दद्यात्त्रयोदशीम् ।
पायसं मधुसर्पिर्भ्यां वर्षासु च मघासु च ॥ १९ ॥
क्या हमारे कुलमें कोई ऐसा पुरुष होगा जो वर्षाकालकी मघानक्षत्रयुक्त त्रयोदशीको हमारे उद्देश्यसे मधु और घृतयुक्त पावस (खीर) का दान करेगा ? ॥ १९ ॥

गौरीं वाप्युद्वहेत्कन्यां नीलं वा वृषमुत्सृजेत् ।
यजेत वाश्वमेधेन विधिवद्‌दक्षिणावता ॥ २० ॥
अथवा गौरी कन्यासे विवाह करेगा, नीला वृषभ छोड़ेगा या दक्षिणासहित विधिपूर्वक अश्वमेध यज्ञ करेगा ?' ॥ २० ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे तृतीयांशे षोडशोऽध्यायः (१६)
इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥



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