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॥ विष्णुपुराणम् ॥

तृतीयः अंशः

॥ पञ्चदशोऽध्यायः ॥

और्व उवाच
ब्राह्मणान्भोजयेच्छ्राद्धे यद्‍गुणांस्तान्निबोध मे ॥ १ ॥
त्रिणाचिकेतस्त्रिमधुस्त्रिसुपर्णष्षडङ्‍गवित् ।
वेदविच्छ्रोत्रियो योगी तथा वै ज्येष्ठसामगः ॥ २ ॥
ऋत्विक्स्वस्त्रेयदौहित्रजामातृश्वशुरास्तथा ।
मातुलोऽथ तपोनिष्ठः पञ्चाग्न्यभिरतस्तथा ।
शिष्याःसम्बन्धिनश्चैव मातापितृरतश्च यः ॥ ३ ॥
एतान्नियोजयेच्छ्राद्धे पूर्वोक्तान्प्रथमे नृप ।
ब्राह्मणान्पितृतुष्ट्यर्थमनुकल्पेष्वनन्तरान् ॥ ४ ॥
और्व बोले-हे राजन् ! श्राद्धकालमें जैसे गुणशील ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये वह बतलाता हूँ, सुनो । त्रिणाचिकेत, त्रिमधुरे, त्रिसुपर्ण२, छहों वेदांगोंके जाननेवाले, वेदवेत्ता, श्रोत्रिय, योगी और ज्येष्ठसामग तथा ऋत्विक, भानजे, दौहित्र, जामाता, श्वशुर, मामा, तपस्वी, पंचाग्नि तपनेवाले, शिष्य, सम्बन्धी और माता-पिताके प्रेमी इन ब्राह्मणोंको श्राद्धकर्ममें नियुक्त करे । इनमेंसे [त्रिणाचिकेत आदि] पहले कहे हुओंको पूर्वकालमें नियुक्त करे और [ऋत्विक् आदि] पीछे बतलाये हुओंको पितरोंकी तृप्तिके लिये उत्तरकर्ममें भोजन करावे ॥ १-४ ॥

मित्रध्रुक्कुनखी क्लीबः श्यावदन्तस्तथा द्विजः ।
कन्यादूषयिता वह्निवेदोज्झःसोमविक्रयी ॥ ५ ॥
अभिशस्तस्तथा स्तेनः पिशुनो ग्रामयाजकः ।
भृतकाध्यापकस्तद्वद्‍भृतकाध्यापितश्च यः ॥ ६ ॥
परपूर्वापतिश्चैव मातापित्रोस्तथोज्झकः ।
वृषलीसूतिपोष्टा च वृषलीपतिरेव च ॥ ७ ॥
तथा देवलकश्चैव श्राद्धे नार्हति केतनम् ॥ ८ ॥
मित्रघाती, स्वभावसे ही विकृत नोंवाला, नपुंसक, काले दाँतोंवाला, कन्यागामी, अग्नि और वेदका त्याग करनेवाला, सोमरस बेचनेवाला, लोकनिन्दित, चोर, चुगलखोर, ग्रामपुरोहित, वेतन लेकर पढ़ानेवाला अथवा पढ़नेवाला, पुनर्विवाहिताका पति, माता-पिताका त्याग करनेवाला, शूद्रकी सन्तानका पालन करनेवाला, शूद्राका पति तथा देवोपजीवी ब्राह्मण श्राद्धमें निमन्त्रण देनेयोग्य नहीं है ॥ ५-८ ॥

प्रथमेह्नि बुधः शस्ताञ्छ्रोत्रियादीन्निमन्त्रयेत् ।
कथयेच्च तथैवैषां नियोगान्पितृदैविकान् ॥ ९ ॥
श्राद्धके पहले दिन बुद्धिमान् पुरुष श्रोत्रिय आदि विहित ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे और उनसे यह कह दे कि 'आपको पितृ-श्राद्धमें और आपको विश्वेदेव-श्राद्धमें नियुक्त होना है' ॥ ९ ॥

ततः क्रोधव्यवायादीनायासं तैर्द्विजैः सह ।
यजमानो न कुर्वीत दोषस्तत्र महानयम् ॥ १० ॥
उन निमन्त्रित ब्राह्मणोंके सहित श्राद्ध करनेवाला पुरुष उस दिन क्रोधादि तथा स्त्रीगमन और परिश्रम आदि न करे, क्योंकि श्राद्ध करनेमें यह महान दोष माना गया है ॥ १० ॥

श्राद्धे नियुक्तो भुक्त्वा वा भोजयित्वा नियुज्य च ।
व्यवायी रेतसो गर्ते मज्जयत्यात्मनः पितॄन् ॥ ११ ॥
श्राद्धमें निमन्त्रित होकर या भोजन करके अथवा निमन्त्रण करके या भोजन कराकर जो पुरुष स्त्री-प्रसंग करता है वह अपने पितृगणको मानो वीर्यके कुण्डमें डुबोता है ॥ ११ ॥

तस्मात्प्रथममत्रोक्तं द्विजाग्र्याणां निमन्त्रणम् ।
अनिमन्त्र्य द्विजानेवमागतान्भोजयेद्यतीन् ॥ १२ ॥
अतः श्राद्धके प्रथम दिन पहले तो उपरोक्त गुणविशिष्ट द्विजश्रेष्ठोंको निमन्त्रित करे और यदि उस दिन कोई अनिमन्त्रित तपस्वी ब्राह्मण घर आ जाये तो उन्हें भी भोजन करावे ॥ १२ ॥

पादशौचादिना गेहमागतान्पूजयेद्‌ द्विजान् ॥ १३ ॥
पवित्रपाणिराचान्तानासनेषूपवेशयेत् ।
पितॄणामयुजो युग्मान्देवानामिच्छया द्विजान् ॥ १४ ॥
देवानामेकमेकं वा पितॄणां च नियोजयेत् ॥ १५ ॥
घर आये हुए ब्राह्मणोंका पहले पाद-शुद्धि आदिसे सत्कार करे; फिर हाथ धोकर उन्हें आचमन करानेके अनन्तर आसनपर बिठावे । अपनी सामर्थ्यानुसार पितृगणके लिये अयुग्म और देवगणके लिये युग्म ब्राहाण नियुक्त करे अथवा दोनों पक्षोंके लिये एक-एक ब्राह्मणकी ही नियुक्ति करे ॥ १३-१५ ॥

तथा मातामहश्राद्धं वैश्वदेवसमन्वितम् ।
कुर्वीत भक्तीसम्पन्नस्तन्त्रं वा वैश्वदैविकम् ॥ १६ ॥
और इसी प्रकार वैश्वदेवके सहित मातामह-श्राद्ध करे अथवा पितृपक्ष और मातामह पक्ष दोनोंके लिये भक्तिपूर्वक एक ही वैश्वदेव-श्राद्ध करे ॥ १६ ॥

प्राङ्‍मुखान्भोजयेद्विप्रान्देवानामुभयात्मकान् ।
पितृमातामहानां च भोजयेच्चाप्युदङ्‍मुखान् ॥ १७ ॥
देव-पक्षके ब्राह्मणोंको पूर्वाभिमुख बिठाकर और पितृ-पक्ष तथा मातामह-पक्षके ब्राह्मणोंको उत्तर मुख बिठाकर भोजन करावे ॥ १७ ॥

पृथक्तयोः केचिदाहुः श्राद्धस्य करणं नृप ।
एकत्रैकेन पाकेन वदन्त्यन्ये महर्षयः ॥ १८ ॥
हे नृप ! कोई तो पितृ-पक्ष और मातामह-पक्षके श्राद्धोंको अलग-अलग करनेके लिये कहते हैं और कोई महर्षि दोनोंका एक साथ एक पाकमें ही अनुष्ठान करनेके पक्षमें हैं ॥ १८ ॥

विष्टरार्थं कुशं दत्त्वा सम्पूज्यार्घ्यं विधानतः ।
कुर्यादावाहनं प्राज्ञो देवानां तदनुज्ञया ॥ १९ ॥
विज्ञ व्यक्ति प्रथम निमन्त्रित ब्राह्मणों के बैठनेके लिये कुशा बिछाकर फिर अर्घ्यदान आदिसे विधिपूर्वक पूजा कर उनकी अनुमत्तिसे देवताओंका आवाहन करे ॥ १९ ॥

यवाम्बुना च देवानां दद्यादर्घ्यं विधानवित् ।
स्रग्गन्धधूपदीपांश्च तेभ्यो दद्याद्यथाविधि ॥ २० ॥
तदनन्तर श्राद्धविधिको जाननेवाला पुरुष यव-मिश्रित जलसे देवताओंको अर्घ्यदान करे और उन्हें विधिपूर्वक धूप, दीप, गन्ध तथा माला आदि निवेदन करे ॥ २० ॥

पितॄ्णामपसव्यं तत्सर्वमेवोपकल्पयेत् ।
अनुज्ञां च ततः प्राप्य दत्त्वा दर्भान्द्विधाकृतान् ॥ २१ ॥
मन्त्रपूर्वं पितॄणां तु कुर्याच्चावाहनं बुधः ।
तिलाम्बुना चापसव्यं दद्यादर्घ्यादिकं नृप ॥ २२ ॥
ये समस्त उपचार पितृगणके लिये अपसव्य भावसे' निवेदन करे; और फिर ब्राह्मणोंकी अनुमतिसे दो भागोंमें बँटे हुए कुशाओंका दान करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक पितृगणका आवाहन करे, तथा हे राजन ! अपसव्य-भावसे तिलोदकसे अादि दे ॥ २१-२२ ॥

काले तत्रातिथिं प्राप्तमन्नकामं नृपाध्वगम् ।
ब्रह्मणैरभ्यनुज्ञातः कामं तमपि भोजयेत् ॥ २३ ॥
हे नृप ! उस समय यदि कोई भूखा पथिक अतिथिरूपसे आ जाय तो निमन्त्रित ब्राह्मोकी आज्ञासे उसे भी यथेच्छ भोजन करावे ॥ २३ ॥

योगिनो विविधै रूपैर्नरामामुपकारिणः ।
भ्रमन्ति पृथिवीमेतामविज्ञातस्वरूपिणः ॥ २४ ॥
अनेक अज्ञात-स्वरूप योगिगण मनुष्योंके कल्याणको कामनासे नाना रूप धारणकर पृथिवीतलपर विचरते रहते हैं ॥ २४ ॥

तस्मादभ्यर्चयेत्प्राप्तं श्राद्धकालेऽतिथिं बुधः ।
श्राद्धक्रियाफलं हन्ति नरेद्रापूजितोऽतिथिः ॥ २५ ॥
अतः विज्ञ पुरुष श्राद्धकालमें आये हुए अतिथिका अवश्य सत्कार करे । हे नरेन्द्र ! उस समय अतिथिका सत्कार न करनेसे वह श्राद्धक्रियाके सम्पूर्ण फलको नष्ट कर देता है ॥ २५ ॥

जुहुयाद्‌व्यञ्जनक्षारवर्जमन्नं ततोऽनले ।
अनुज्ञातो द्विजैस्तैस्तु त्रिकृत्वः पुरुषर्षभ ॥ २६ ॥
हे पुरुषश्रेष्ठ ! तदनन्तर उन ब्राह्मणोंकी आज्ञासे शाक और लवणहीन अन्नसे अग्निमें तीन बार आहुति दे ॥ २६ ॥

अग्नये कव्यवाहाय स्वधेत्यादौ नृपाहुतिः ।
सोमाय वै पितृमते दातव्या तदनन्तरम् ॥ २७ ॥
वैवस्वताय चैवान्या तृतीया दीयते ततः ।
हुतावशिष्टमल्पान्नं विप्रपात्रेषु निर्वपेत् ॥ २८ ॥
हे राजन् ! उनमेंसे 'अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा' इस मन्त्रसे पहली आहुति, 'सोमाय पितृमते स्वाहा' इससे दूसरी और 'वैवस्वताय स्वाह' इस मन्त्रसे तीसरी आहुति दे । तदनन्तर आहुतियोंसे बचे हुए अन्नको थोड़ा-थोड़ा सब ब्राह्मण के पात्रोंमें परोस दे ॥ २७-२८ ॥

ततोन्नं मृष्टमत्यर्थमभीष्टमतिसंस्कृतम् ।
दत्त्वा जुषध्वमिच्छातो वाच्यमेतदनिष्ठुरम् ॥ २९ ॥
फिर रुचिके अनुकूल अति संस्कारयुक्त मधुर अन्न सबको परोसे और अति मृदुल वाणीसे कहे कि 'आप भोजन कीजिये' ॥ २९ ॥

भोक्तव्यं तैश्च तच्चित्तैर्मौनिभिः सुमुखैः सुखम् ।
अक्रुद्ध्यता चात्वरता देयं तेनापि भक्तितः ॥ ३० ॥
ब्राह्मणोंको भी तद्‌गतचित्त और मौन होकर प्रसन्नमुखसे सुखपूर्वक भोजन करना चाहिये तथा यजमानको क्रोध और उतावलेपनको छोड़कर भक्तिपूर्वक परोसते रहना चाहिये ॥ ३० ॥

रक्षोघ्नमन्त्रपठनं भूमेरास्तरणं तिलैः ।
कृत्वाध्येयाःस्वपितरस्त एव द्विजसत्तमाः ॥ ३१ ॥
फिर 'रक्षोन'' मन्त्रका पाठ कर श्राद्धभूमिपर तिल छिड़के तथा अपने पितरूपसे उन द्विजश्रेष्ठोंका ही चिन्तन करे ॥ ३१ ॥

पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः ।
मम तृप्तिं प्रयान्त्वद्य विप्रदेहेषु संस्थिताः ॥ ३२ ॥
[और कहे कि] 'इन ब्राह्मणों के शरीरोंमें स्थित मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह आदि आज तृप्ति लाभ करें ॥ ३२ ॥

पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः ।
मम तृप्तिं प्रयान्त्वद्य होमाप्यायितमूर्तयः ॥ ३३ ॥
होमद्वारा सबल होकर मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह आज तृप्ति लाभ करें ॥ ३३ ॥

पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः ।
तृप्तिं प्रयान्तु पिण्डेन मया दत्तेन भूतले ॥ ३४ ॥
मैंने जो पृथिवीपर पिण्डदान किया है उससे मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह तृप्ति लाभ करें ॥ ३४ ॥

पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः ।
तृप्तिं प्रयान्तु मे भक्त्या मयैतत्समुदाहृतम् ॥ ३५ ॥
[श्राद्धरूपसे कुछ भी निवेदन न कर सकनेके कारण] मैंने भक्तिपूर्वक जो कुछ कहा है उस मेरे भक्तिभावसे ही मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह तृप्ति लाभ करें ॥ ३५ ॥

मातामहस्तृप्तिमुपैतु तस्य
    तथा पिता तस्य पिता ततोऽन्यः ।
विश्वे च देवाः परमां प्रयान्तु
    तृप्तिं प्रणश्यन्तु च यातुधानाः ॥ ३६ ॥
मेरे मातामह (नाना), उनके पिता और उनके भी पिता तथा विश्वेदेवगण परम तृप्ति लाभ करें तथा समस्त राक्षसगण नष्ट हों ॥ ३६ ॥

यज्ञेश्वरो हव्यसमस्तकव्य-
     भोक्ताव्ययात्मा हरिरीश्वरोऽत्र ।
तत्संनिधानादपयान्तु सद्यो
    रक्षांस्यशेषण्यसुराश्च सर्वे ॥ ३७ ॥
यहाँ समस्त हव्यकव्यके भोक्ता यज्ञेश्वर भगवान् हरि विराजमान हैं, अतः उनकी सन्निधिके कारण समस्त राक्षस और असुरगण यहाँसे तुरन्त भाग जाय ॥ ३७ ॥

तृप्तेष्वेतेषु विकिरेदन्नं विप्रेषु भूतले ।
दद्यादाचमनार्थाय तेभ्यो वारी सकृत्सकृत् ॥ ३८ ॥
तदनन्तर ब्राह्मणोंके तृप्त हो जानेपर थोड़ा-सा अन्न पृथिवीपर डाले और आचमनके लिये उन्हें एक-एक बार और जल दे ॥ ३८ ॥

सुतृप्तैस्तैरनुज्ञातःसर्वेणान्नेन भूतले ।
सतिलोन ततः पिण्डान्सम्यग्दद्यात्समाहितः ॥ ३९ ॥
फिर भलीप्रकार तृप्त हुए उन ब्राह्मणोंकी आज्ञा होनेपर समाहितचित्तसे पृथिवीपर अन्न और तिलके पिण्ड-दान करे ॥ ३९ ॥

पितृतीर्थेन सतिलं तथैव सलिलाञ्जलिम् ।
मातामहेभ्यस्तेनैव पिण्डांस्तीर्थेन निर्वपेत् ॥ ४० ॥
और पितृतीर्थसे तिलयुक्त जलांजलि दे तथा मातामह आदिको भी उस पितृतीर्थसे ही पिण्ड-दान करे ॥ ४० ॥

दक्षिणाग्रेषु दर्भेषु पुष्पधूपादिपूजितम् ।
स्वपित्रे प्रथमं पिण्डं दद्यादुच्छिष्टसन्निधौ ॥ ४१ ॥
ब्राह्मणों के उच्छिष्ट (जूठन)-के निकट दक्षिणकी ओर अग्रभाग करके बिछाये हुए कुशाओंपर पहले अपने पिताके लिये पुष्प-धूपादिसे पूजित पिण्डदान करे ॥ ४१ ॥

पितामहाय चैवान्यं तत्पित्रे च तथापरम् ।
दर्भमूले लेपभुजः प्रीणयेल्लेपघर्षणैः ॥ ४२ ॥
तत्पश्चात् एक पिण्ड पितामहके लिये और एक प्रपितामहके लिये दे और फिर कुशाओंके मूलमें हाथमें लगे अन्नको पोंछकर ['लेपभागभुजस्तृप्यन्ताम्' ऐसा उच्चारण करते हुए ] लेपभोजी पितृगणको तृप्त करे ॥ ४२ ॥

पिण्डैर्मातामहांस्तद्वद्‍गन्धमाल्यादिसंयुतैः ।
पूजयित्वा द्विजाग्र्याणां दद्याच्चाचमनं ततः ॥ ४३ ॥
इसी प्रकार गन्ध और मालादियुक्त पिण्डोंसे मातामह आदिका पूजन कर फिर द्विजश्रेष्ठोंको आचमन करावे ॥ ४३ ॥

पितृभ्यः प्रथमं भक्त्या तन्मनस्को नरेश्वर ।
सुस्वधेत्याशिषा युक्तां दद्याच्छक्त्या च दक्षिणाम् ॥ ४४ ॥
और हे नरेश्वर ! इसके पीछे भक्तिभावसे तन्मय होकर पहले पितृपक्षीय ब्राह्मणोंका 'सुस्वधा' यह आशीर्वाद ग्रहण करता हुआ यथाशक्ति दक्षिणा दे ॥ ४४ ॥

दत्त्वा च दक्षिणां तेभ्यो वाचयेद्‌वैश्वदेविकान् ।
प्रीयन्तामिह ये विश्वेदेवास्तेन इतीरयेत् ॥ ४५ ॥
फिर वैश्वदेविक ब्राह्मणों के निकट जा उन्हें दक्षिणा देकर कहे कि 'इस दक्षिणासे विश्वेदेवगण प्रसन्न हों' ॥ ४५ ॥

तथेति चोक्ते तैर्विप्रैः प्रार्थनीयास्तथाशिषः ।
पश्चाद्विसर्जयेद्देवान्पूर्वं पित्र्यान्महीपते ॥ ४६ ॥
उन ब्राह्मणोंके 'तथास्तु' कहनेपर उनसे आशीर्वादके लिये प्रार्थना करे और फिर पहले पितृपक्षके और पीछे देवपक्षके ब्राहाणोंको विदा करे ॥ ४६ ॥

मातामहानामप्येवं सह देवैः क्रमः स्मृतः ।
भोजयेच्च स्वशक्त्या च दाने तद्वद्विसर्जने ॥ ४७ ॥
विश्वेदेवगणके सहित मातामह आदिके श्राद्धमें भी ब्राह्मण-भोजन, दान और विसर्जन आदिकी यही विधि बतलायी गयी है ॥ ४७ ॥

आपादशौचनात्पूर्वं कुर्याद्देवद्विजन्मसु ।
विसर्जनं तु प्रथमं पैत्रमातामहेषु वै ॥ ४८ ॥
पितृ और मातामह दोनों ही पक्षोंके श्राद्धोंमें पादशौच आदि सभी कर्म पहले देवपक्षके ब्राह्मणोंके करे; परन्तु विदा पहले पितृपक्षीय अथवा मातामहपक्षीय ब्राह्मणोंकी ही करे ॥ ४८ ॥

विसर्जयेत्प्रीतिवचःसंमान्याभ्यर्थितास्ततः ।
निवर्तेताभ्यनुज्ञात आद्वारं ताननुव्रजेत् ॥ ४९ ॥
तदनन्तर प्रीतिवचन और सम्मानपूर्वक ब्राह्मणों को विदा करे और उनके जानेके समय द्वारतक उनके पीछेपीछे जाय तथा जब वे आज्ञा दें तो लौट आवे ॥ ४९ ॥

ततस्तु वैश्वदेवाख्यं कुर्यान्नित्यक्रियं बुधः ।
भुञ्ज्याच्चैव समं पूज्य भृत्यबन्धुभिरात्मनः ॥ ५० ॥
फिर विज्ञ पुरुष वैश्वदेव नामक नित्यकर्म करे और अपने पूज्य पुरुष, बन्धुजन तथा भृत्यगणके सहित स्वयं भोजन करे ॥ ५० ॥

एवं श्राद्धं बुधः कुर्यात्पैत्र्यं मातामहं तथा ।
श्राद्धैराप्यायिता दद्युःसर्वान्कामान्पितामहाः ॥ ५१ ॥
बुद्धिमान् पुरुष इस प्रकार पैत्र्य और मातामहश्राद्धका अनुष्ठान करे । श्राद्धसे तृप्त होकर पितृगण समस्त कामनाओंको पूर्ण कर देते हैं ॥ ५१ ॥

त्रीणि श्राद्धे पवित्राणि दौहित्रः कुतपस्तिलाः ।
रजतस्य कथा दानं तथा संकीर्तनादिकम् ॥ ५२ ॥
दौहित्र (लड़कीका लड़का), कुतप (दिनका आठवाँ मुहूर्त) और तिल-ये तीन तथा चाँदीका दान और उसकी बातचीत करना-ये सब श्राद्धकालमें पवित्र माने गये हैं ॥ ५२ ॥

वर्ज्यानि कुर्वता श्राद्धं क्रोधोध्वगमनं त्वरा ।
भोक्तुरप्यत्र राजेन्द्र त्रयमेतन्न शस्यते ॥ ५३ ॥
हे राजेन्द्र ! श्राद्धकर्ताके लिये क्रोध, मार्गगमन और उतावलापन-ये तीन बातें वर्जित हैं; तथा श्राद्धमें भोजन करनेवालोंको भी इन तीनोंका करना उचित नहीं है ॥ ५३ ॥

विश्वेदेवाःसपितरस्तथा मातामहा नृप ।
कुलं चाप्यायते पुंसां सर्वं श्राद्धं प्रकुर्वताम् ॥ ५४ ॥
हे राजन् ! श्राद्ध करनेवाले पुरुषसे विश्वेदेवगण, पितृगण, मातामह तथा कुटुम्बीजन-सभी सन्तुष्ट रहते हैं ॥ ५४ ॥

सोमाधारः पितृगणो योगाधारश्च चन्द्रमाः ।
श्राद्धे योगिनियोगस्तु तस्माद्‍भूपाल शस्यते ॥ ५५ ॥
हे भूपाल ! पितृगणका आधार चन्द्रमा है और चन्द्रमाका आधार योग हैं, इसलिये श्राद्ध में योगिजनको नियुक्त करना अति उत्तम है ॥ ५५ ॥

सहस्रस्यापि विप्राणां योगी चेत्पुरतःस्थितः ।
सर्वान्भोक्तॄंस्तारयति यजमानं तथा नृप ॥ ५६ ॥
हे राजन् ! यदि श्राद्धभोजी एक सहस्र ब्राह्मणोंके सम्मुख एक योगी भी हो तो वह यजमानके सहित उन सबका उद्धार कर देता है ॥ ५६ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे तृतीयांशे पञ्चदशोऽध्यायः (१५)
इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेंऽशे पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥



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