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॥ विष्णुपुराणम् ॥

तृतीयः अंशः

॥ अष्टादशोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
तपस्यभिरतान्सोऽथ मायामोहो महासुरान् ।
मैत्रेय ददृशे गत्वा नर्मदातीरसंश्रितान् ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! तदनन्तर मायामोहने [देवताओंके साथ] जाकर देखा कि असुरगण नर्मदाके तटपर तपस्यामें लगे हुए हैं ॥ १ ॥

ततो दिगम्बरो मुण्डो बर्हिपिच्छधरो द्विज ।
मायामोहोऽसुरान् श्लक्ष्णमिदं वचनमब्रवीत् ॥ २ ॥
तब उस मयूरपिच्छधारी दिगम्बर और मुण्डितकेश मायामोहने असुरोंसे अति मधुर वाणीमें इस प्रकार कहा ॥ २ ॥

मायामोह उवाच
हे दैत्यपतयो ब्रूत यदर्थ तप्यते तपः ।
ऐहिकं वार्थ पारत्र्यं तपसः फलमिच्छथ ॥ ३ ॥
मायामोह बोला-हे दैत्यपतिगण ! कहिये आपलोग किस उद्देश्यसे तपस्या कर रहे हैं, आपको किसी लौकिक फलकी इच्छा है या पारलौकिक की ? ॥ ३ ॥

असुरा ऊचुः
पारत्र्यफललाभाय तपश्चर्या महामते ।
अस्माभिरियमारब्धा किं वा तेऽत्र विवक्षितम् ॥ ४ ॥
असुरगण बोले-हे महामते ! हमलोगोंने पारलौकिक फलकी कामनासे तपस्या आरम्भ की है । इस विषय में तुमको हमसे क्या कहना है ? ॥ ४ ॥

मायामोह उवाच
कुरुध्वं मम वाक्यानि यदि मुक्तिमभीप्सथ ।
अर्हध्वमेतं धर्मं च मुक्तिद्वारमसंवृतम् ॥ ५ ॥
मायामोह बोला-यदि आपलोगोंको मुक्तिकी इच्छा है तो जैसा मैं कहता हूँ वैसा करो । आपलोग मुक्तिके खुले द्वाररूप इस धर्मका आदर कीजिये ॥ ५ ॥

धर्मो विमुक्तेरर्होयं नैतस्मादपरो वरः ।
अत्रैव संस्थिताः स्वर्गं विमुक्तिं वा गमिष्यथ ॥ ६ ॥
अर्हध्वं धर्ममेतं च सर्वे यूयं महाबलाः ॥ ७ ॥
यह धर्म मुक्तिमें परमोपयोगी है । इससे श्रेष्ठ अन्य कोई धर्म नहीं है । इसका अनुष्ठान करनेसे आपलोग स्वर्ग अथवा मुक्ति जिसकी कामना करेंगे प्राप्त कर लेंगे । आप सब लोग महाबलवान् हैं, अतः इस धर्मका आदर कीजिये ॥ ६-७ ॥

श्रीपराशर उवाच
एवम्प्रकारैर्बहुभिर्युक्तिदर्शनचर्चितैः ।
मायामोहेन ते दैत्या वेदमार्गादपाकृताः ॥ ८ ॥
श्रीपराशरजी बोले-इस प्रकार नाना प्रकारकी युक्तियोंसे अतिरंजित वाक्योंद्वारा मायामोहने दैत्यगणको वैदिक मार्गसे भ्रष्ट कर दिया । ॥ ८ ॥

धर्मायैतदधर्माय सदेतन्न सदित्यपि ।
विमुक्तये त्विदं नैतद्विमुक्तिं सम्प्रयच्छति ॥ ९ ॥
परमार्थोऽयमत्यर्थं परमार्थो न चाप्ययम् ।
कार्यमेतदकार्यं च नैतदेवं स्फुटं त्विदम् ॥ १० ॥
दिग्वाससामयं धर्मो धर्मोऽयं बहुवाससाम् ॥ ११ ॥
इत्यनेकान्तवादं च मायामोहेन नैकधा ।
तेन दर्शयता दैत्याःस्वधर्मं त्याजिता द्विज ॥ १२ ॥
'यह धर्मयुक्त है और यह धर्मविरुद्ध है, यह सत् है और यह असत् है, यह मुक्तिकारक है और इससे मुक्ति नहीं होती, यह आत्यन्तिक परमार्थ है और यह परमार्थ नहीं है, यह कर्तव्य है और यह अकर्तव्य है, यह ऐसा नहीं है और यह स्पष्ट ऐसा ही है, यह दिगम्बरोंका धर्म है और यह साम्बरोंका धर्म है'-हे द्विज ! ऐसे अनेक प्रकारके अनन्त वादोंको दिखलाकर मायामोहने उन दैत्योंको स्वधर्मसे च्युत कर दिया ॥ ९-१२ ॥

अर्हतैतं महाधर्मं मायामोहेन ते यतः ।
प्रोक्तास्तमाश्रिता धर्ममर्हतास्तेन तेऽभवन् ॥ १३ ॥
मायामोहने दैत्योंसे कहा था कि आपलोग इस महाधर्मको 'अहंत' अर्थात् इसका आदर कीजिये । अतः उस धर्मका अवलम्बन करनेसे वे 'आहत' कहलाये ॥ १३ ॥

त्रयीधर्मसमुत्सर्गं मायामोहेन तेऽसुराः ।
कारीतास्तन्मया ह्यासंस्ततोन्ये तत्प्रचोदिताः ॥ १४ ॥
मायामोहने असुरगणको त्रयोधर्मसे विमुख कर दिया और वे मोहग्रस्त हो गये; तथा पीछे उन्होंने अन्य दैत्योंको भी इसी धर्ममें प्रवृत्त किया ॥ १४ ॥

तैरप्यन्ये परे तैश्च तैरप्यन्ये परे च तैः ।
अल्पैरहोभिः सन्त्यक्ता तैर्दैत्यैः प्रायशस्त्रयी ॥ १५ ॥
उन्होंने दूसरे दैत्योंको, दूसरोंने तीसरोंको, तीसरोंने चौथोंको तथा उन्होंने औरोंको इसी धर्ममें प्रवृत्त किया । इस प्रकार थोड़े ही दिनों में दैत्यगणने वेदत्रयीका प्राय: त्याग कर दिया ॥ १५ ॥

पुनश्च रक्ताम्बरधृङ्‍ मायामोहो जितेन्द्रियः ।
अन्यानाहासुरान् गत्वा मृद्‍वल्पमधुराक्षरम् ॥ १६ ॥
तदनन्तर जितेन्द्रिय मायामोहने रक्तवस्त्र धारणकर अन्यान्य असुरोंके पास जा उनसे मृदु, अल्प और मधुर शब्दोंमें कहा- ॥ १६ ॥

स्वर्गार्थं यदि वो वाञ्छा निर्वाणार्थमथासुराः ।
तदलं पशुघातादिदुष्टधर्मैर्निबोधत ॥ १७ ॥
"हे असुरगण ! यदि तुमलोगोंको स्वर्ग अथवा मोक्षकी इच्छा है तो पशुहिंसा आदि दुष्टकर्मोको त्यागकर बोध प्राप्त करो ॥ १७ ॥

विज्ञानमयमेवैतदशेषमवगच्छत ।
बुध्यध्वं मे वचः सम्यग्बुधैरेवमिहोदितम् ॥ १८ ॥
जगदेतदनाधारं भ्रान्तिज्ञानार्थतत्परम् ।
रागादिदुष्टमत्यर्थं भ्राम्यते भवसंकटे ॥ १९ ॥
यह सम्पूर्ण जगत् विज्ञानमय है-ऐसा जानो । मेरे वाक्योंपर पूर्णतया ध्यान दो । इस विषयमें बुधजनोंका ऐसा ही मत है कि यह संसार अनाधार है, भ्रमजन्य पदार्थोकी प्रतीतिपर ही स्थिर है तथा रागादि दोषोंसे दूषित है । इस संसारसंकटमें जीव अत्यन्त भटकता रहा है" ॥ १८-१९ ॥

एवं बुध्यत बुध्यध्वं बुध्यतैवमितीरयन् ।
मायामोहः स दैतेयान्धर्ममत्याञ्जयन्निजम् ॥ २० ॥
इस प्रकार 'बुध्यत (जानो), बुध्यध्वं (समझो), बुध्यत (जानो)' आदि शब्दोंसे बुद्धधर्मका निर्देश कर मायामोहने दैत्योंसे उनका निजधर्म छुड़ा दिया ॥ २० ॥

नानाप्रकारवचनं स तेषां युक्तियोजितम् ।
तथा तथा त्रयीधर्मं तत्यजुस्ते यथा यथा ॥ २१ ॥
मायामोहने ऐसे नाना प्रकारके युक्तियुक्त वाक्य कहे जिससे उन दैत्यगणने त्रयीधर्मको त्याग दिया ॥ २१ ॥

तेऽप्यन्येषां तथैवोचुरन्यैरन्ये तथोदिता ।
मैत्रेय तत्यजुर्धर्मं वेदेस्मृत्युदितं परम् ॥ २२ ॥
उन दैत्यगणने अन्य दैत्योंसे तथा उन्होंने अन्यान्यसे ऐसे ही वाक्य कहे । हे मैत्रेय ! इस प्रकार उन्होंने श्रुतिस्मृतिविहित अपने परम धर्मको त्याग दिया ॥ २२ ॥

अन्यानप्यन्यपाषण्डप्रकारैर्बहुहिर्द्विज ।
दैतेयान्मोहयामास मायामोहोदिमोहकृत् ॥ २३ ॥
हे द्विज ! मोहकारी मायामोहने और भी अनेकानेक दैत्योंको भिन्न-भिन्न प्रकारके विविध पाखण्डोंसे मोहित कर दिया ॥ २३ ॥

स्वल्पेनैव हि कालेन मायामोहेन तेऽसुराः ।
मोहितास्तत्यजुःसर्वां त्रयीमार्गाश्रितां कथाम् ॥ २४ ॥
इस प्रकार थोड़े ही समयमें मायामोहके द्वारा मोहित होकर असुरगणने वैदिक धर्मकी बातचीत करना भी छोड़ दिया ॥ २४ ॥

केचिद्विनिन्दां वेदानां देवानामपरे द्विज ।
यज्ञकर्मकलापस्य तथान्ते च द्विजन्मनाम् ॥ २५ ॥
हे द्विज ! उनसे कोई वेदोंकी, कोई देवताओंकी, कोई याज्ञिक कर्म-कलापोंकी तथा कोई ब्राह्मणों की निन्दा करने लगे ॥ २५ ॥

नैनद्युक्तिसहं वाक्यं हिंसा धर्माय चेष्यते ।
हवींष्यनलदग्धानि फलायेत्यर्भकोदितम् ॥ २६ ॥
[वे कहने लगे-] "हिंसासे भी धर्म होता है-यह बात किसी प्रकार युक्तिसंगत नहीं है । अग्निमें हवि जलानेसे फल होगा-यह भी बच्चोंकीसी बात है ॥ २६ ॥

यज्ञैरनेकैर्देवत्वमवाप्येन्द्रेण भुज्यते ।
शम्यादि यदि चेत्काष्ठं तद्वरं पत्रभुक्पशु ॥ २७ ॥
अनेको योंके द्वारा देवत्व लाभ करके यदि इन्द्रको शमी आदि काष्ठका ही भोजन करना पड़ता है तो इससे तो पत्ते खानेवाला पशु ही अच्छा है ॥ २७ ॥

निहतस्य पशोर्जज्ञे स्वर्गप्राप्तिर्यदीष्यते ।
स्वपिता यजमानेन किन्नु तस्मान्न हन्यते ॥ २८ ॥
यदि यज्ञमें बलि किये गये पशुको स्वर्गकी प्राप्ति होती है तो यजमान अपने पिताको ही क्यों नहीं मार डालता ? ॥ २८ ॥

तृप्तये जायते पुंसो भुक्तमन्येन चेत्ततः ।
कुर्याच्छ्राद्धं श्रमायान्नं न वहेयुः प्रवासिनः ॥ २९ ॥
यदि किसी अन्य पुरुषके भोजन करनेसे भी किसी पुरुषकी तृप्ति हो सकती है तो विदेशकी यात्राके समय खाद्यपदार्थ ले जानेका परिश्रम करनेकी क्या आवश्यकता है; पुत्रगण घरपर ही श्राद्ध कर दिया करें ॥ २९ ॥

जनश्रद्धेयमित्येतदवगम्य ततोऽत्र वः ।
उपेक्षा श्रेयसे वाक्यं रोचतां यन्मयेरितम् ॥ ३० ॥
अत: यह समझकर कि 'यह (प्राद्धादि कर्मकाण्ड) लोगोंकी अन्ध-श्रद्धा ही है' इसके प्रति उपेक्षा करनी चाहिये और अपने श्रेयःसाधनके लिये जो कुछ मैंने कहा है उसमें रुचि करनी चाहिये ॥ ३० ॥

न ह्यप्तवादा नभसो निपतन्ति महासुराः ।
युक्तिमद्वचनं ग्राह्यं मयान्यैश्च भवद्विधैः ॥ ३१ ॥
हे असुरगण ! श्रुति आदि आप्तवाक्य कुछ आकाशसे नहीं गिरा करते । हम, तुम और अन्य सबको भी युक्तियुक्त वाक्योंको ग्रहण कर लेना चाहिये' ॥ ३१ ॥

श्रीपराशर उवाच
मयामोहेन ते दैत्याः प्रकारैर्बहुभिस्तथा ।
वृथापिता यथा नैषां त्रयी कश्चिदरोचयत् ॥ ३२ ॥
श्रीपराशरजी बोले-इस प्रकार अनेक युक्तियोंसे मायामोहने दैत्योंको विचलित कर दिया जिससे उनमेंसे किसीकी भी वेदत्रयीमें रुचि नहीं रही ॥ ३२ ॥

इत्थमुन्मार्गयातेषु तेषु दैत्येषु तेऽमराः ।
उद्योगं परमं कृत्वा युद्धाय समुपस्थिताः ॥ ३३ ॥
इस प्रकार दैत्योंके विपरीत मार्गमें प्रवृत्त हो जानेपर देवगण खूब तैयारी करके उनके पास युद्धके लिये उपस्थित हुए ॥ ३३ ॥

ततो दैवासुरं युद्धं पुनरेवाभवद् द्विज ।
हताश्च तेऽसुरा दैवैः सन्मार्गपरिपन्थिनः ॥ ३४ ॥
हे द्विज ! तब देवता और असुरोंमें पुनः संग्राम छिड़ा । उसमें सन्मार्गविरोधी दैत्यगण देवताओंद्वारा मारे गये ॥ ३४ ॥

स्वधर्मकवचं तेषामभूद्यत्प्रथमं द्विज ।
तेन रक्षाभवत्पूर्वं नेशुर्नष्टे च तत्र ते ॥ ३५ ॥
हे द्विज ! पहले दैत्योंके पास जो स्वधर्मरूप कवच था उसीसे उनकी रक्षा हुई थी । अबकी बार उसके नष्ट हो जानेसे वे भी नष्ट हो गये ॥ ३५ ॥

ततो मैत्रेय तन्मार्गवर्तिनो येऽभवञ्जनाः ।
नग्नास्ते तैर्यतस्त्यक्तं त्रयीसंवरणं तथा ॥ ३६ ॥
हे मैत्रेय ! उस समयसे जो लोग मायामोहद्वारा प्रवर्तित मार्गका अवलम्बन करनेवाले हुए; वे नग्न' कहलाये क्योंकि उन्होंने वेदत्रयीरूप वस्वको त्याग दिया था ॥ ३६ ॥

ब्रह्मचारीगृहस्थश्च वानप्रस्थस्तथाश्रमी ।
परिव्राड् वा चतुर्थोऽत्र पञ्चमो नोपपद्यते ॥ ३७ ॥
ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी-ये चार ही आश्रमी हैं । इनके अतिरिक्त पाँचवाँ आश्रमी और कोई नहीं है ॥ ३७ ॥

वस्तु सन्त्यज्य गार्हस्थ्यं वानप्रस्थो न जायते ।
परिव्राट् चापि मैत्रेय स नग्नः पापकृन्नरः ॥ ३८ ॥
हे मैत्रेय ! जो पुरुष गृहस्थाश्रमको छोड़नेके अनन्तर वानप्रस्थ या संन्यासी नहीं होता वह पापी भी नग्न ही है ॥ ३८ ॥

नित्यानां कर्मणां विप्र यस्य हानिरहर्निशम् ।
अकुर्वन्विहितं कर्म शक्तः पतति तद्दिने ॥ ३९ ॥
हे विप्र ! सामर्थ्य रहते हुए भी जो विहित कर्म नहीं करता वह उसी दिन पतित हो जाता है और उस एक दिन-रातमें ही उसके सम्पूर्ण नित्यकर्मोका क्षय हो जाता है ॥ ३९ ॥

प्रायश्चित्तेन महता शुद्धिमाप्नोत्यनापदि ।
पक्षं नित्यक्रियाहानेः कर्ता मैत्रेय मानवः ॥ ४० ॥
हे मैत्रेय ! आपत्तिकालको छोड़कर और किसी समय एक पक्षतक नित्यकर्मका त्याग करनेवाला पुरुष महान् प्रायश्चित्तसे ही शुद्ध हो सकता है ॥ ४० ॥

संवत्सरं क्रियाहानिर्यस्य पुंसोऽभिजायते ।
तस्यावलोकनात्सूर्यो निरीक्ष्यःसाधुभिः सदा ॥ ४१ ॥
जो पुरुष एक वर्षतक नित्य-क्रिया नहीं करता उसपर दृष्टि पड़ जानेसे साधु पुरुषको सदा सूर्यका दर्शन करना चाहिये ॥ ४१ ॥

स्पृष्टे स्नानं सचैलस्य शुद्धेर्हेतुर्महामते ।
पुंसो भवति तस्योक्ता न शुद्धिः पापकर्मणः ॥ ४२ ॥
हे महामते ! ऐसे पुरुषका स्पर्श होनेपर वससहित स्नान करनेसे शुद्धि हो सकती है और उस पापात्माकी शुद्धि तो किसी भी प्रकार नहीं हो सकती ॥ ४२ ॥

देवर्षिपितृभूतानि यस्य निःश्वस्य वेश्मनि ।
प्रयान्त्यनर्चितान्यत्र लोके तस्मान्न पापकृत् ॥ ४३ ॥
जिस मनुष्यके घरसे देवगण, ऋषिगण, पितृगण और भूतगण बिना पूजित हुए निःश्वास छोड़ते अन्यत्र चले जाते हैं, लोकमें उससे बढ़कर और कोई पापी नहीं है ॥ ४३ ॥

सम्भाषणानुप्रश्नादि सहास्यां चैव कुर्वतः ।
जायते तुल्यता तस्य तेनैव द्विज वत्सरात् ॥ ४४ ॥
हे द्विज ! ऐसे पुरुषके साथ एक वर्षतक सम्भाषण, कुशलप्रश्न और उठने-बैठनेसे मनुष्य उसीके समान पापात्मा हो जाता है ॥ ४४ ॥

देवादिनिःश्वासहतं शरीरं यस्य वेश्म च ।
न तेन संकरं कुर्याद्‍ गृहासनपरिच्छदैः ॥ ४५ ॥
जिसका शरीर अथवा गृह देवता आदिके नि:श्वाससे निहत है उसके साथ अपने गृह, आसन और वस्त्र आदिको न मिलावे ॥ ४५ ॥

अथ भुक्तं गृहे तस्य करोत्यास्यां तथासने ।
शेते चाप्येकशयने स सद्यस्तत्समो भवेत् ॥ ४६ ॥
जो पुरुष उसके घरमें भोजन करता है, उसका आसन ग्रहण करता है अथवा उसके साथ एक ही शय्यापर शयन करता है वह शीघ्र ही उसीके समान हो जाता है ॥ ४६ ॥

देवतापितृभूतानि तथानभ्यर्च्य योऽतिथीन् ।
भुक्ते स पातकं भुङ्‍क्ते निष्कृतिस्तस्य नेष्यते ॥ ४७ ॥
जो मनुष्य देवता, पितर, भूतगण और अतिथियोंका पूजन किये बिना स्वयं भोजन करता है वह पापमय भोजन करता है । उसकी शुभगति नहीं हो सकती ॥ ४७ ॥

ब्राह्मणाद्यास्तु ये वर्णाःस्वधर्मादन्यतोमुखाः ।
यान्ति ते नग्नसंज्ञां तु हीनकर्मस्ववस्थिताः ॥ ४८ ॥
जो ब्राह्मणादि वर्ण स्वधर्मको छोड़कर परधर्मोमें प्रवृत्त होते हैं अथवा हीनवृत्तिका अवलम्बन करते हैं वे 'नग्न' कहलाते हैं । ४८ ॥

चतुर्णां यत्र वर्णानां मैत्रेयात्यन्तसंकरः ।
तत्रास्या साधुवृत्तिनामुपघाताय जायते ॥ ४९ ॥
हे मैत्रेय ! जिस स्थानमें चारों वर्णोका अत्यन्त मिश्रण हो उसमें रहनेसे पुरुषकी साधुवृत्तियाँका क्षय हो जाता है । ४९ ॥

अनभ्यर्च्य ऋषीन्देवान्पितृभूतातिथींस्तथा ।
यो भुङ्‍क्ते तस्य सँल्लापात्पतन्तिनरके नराः ॥ ५० ॥
जो पुरुष ऋषि, देव, पितृ, भूत और अतिथिगणका पूजन किये बिना भोजन करता है उससे सम्भाषण करनेसे भी लोग नरकमें पड़ते हैं ॥ ५० ॥

तस्मादेतान्नरो नग्नांस्त्रयीसन्त्यागदूषितान् ।
सर्वदा वर्जयेत्प्राज्ञ आलापस्पर्शनादिषु ॥ ५१ ॥
अतः वेदत्रयीके त्यागसे दूषित इन नानोंके साथ प्राज्ञपुरुष सर्वदा सम्भाषण और स्पर्श आदिका भी त्याग कर दे ॥ ५१ ॥

श्रद्धावद्‌‍भिः कृतं यत्‍नाद्‍देवान्पितृपितामहान् ।
न प्रीणयति तच्छ्राद्धं यद्येभिरवलोकितम् ॥ ५२ ॥
यदि इनकी दृष्टि पड़ जाय तो श्रद्धावान् पुरुषोंका यत्नपूर्वक किया हुआ श्राद्ध देवता अथवा पितृ-पितामहगणकी तृप्ति नहीं करता ॥ ५२ ॥

श्रूयते च पुरा ख्यातो राजा शतधनुर्भुवि ।
पत्‍नी च शैव्या तस्याभूदतिधर्मपरायणा ॥ ५३ ॥
सुना जाता है, पूर्वकालमें पृथिवीतलपर शतधनु नामसे विख्यात एक राजा था । उसकी पत्नी शैव्या अत्यन्त धर्मपरायणा थी ॥ ५३ ॥

पतिव्रता महाभागा सत्यशौचदयान्विता ।
सर्वलक्षणसम्पन्ना विनयेन यनेन च ॥ ५४ ॥
वह महाभागा पतिव्रता, सत्य, शौच और दयासे युक्त तथा विनय और नीति आदि सम्पूर्ण सुलक्षणोंसे सम्पन्ना थी ॥ ५४ ॥

स तु राजा तया सार्धं देवदेवं जनार्दनम् ।
आराधयामास विभुं परमेण समाधिना ॥ ५५ ॥
उस महारानीके साथ राजा शतधनुने परम समाधिद्वारा सर्वव्यापक, देवदेव श्रीजनार्दनकी आराधना की ॥ ५५ ॥

होमैर् जपैस्तथा दानैरुपवासैश्च भक्तितः ।
पुजाभिश्चानुदिवसं तन्मना नान्यमानसः ॥ ५६ ॥
वे प्रतिदिन तन्मय होकर अनन्यभावसे होम, जप, दान, उपवास और पूजन आदिद्वारा भगवान्की भक्तिपूर्वक आराधना करने लगे ॥ ५६ ॥

एकदा तु समं स्नातौ तौ तु भार्यापती जले ।
भागीरथ्याःसमुत्तीर्णौ कार्त्तिक्यां समुपोषितौ ।
पाषण्डिनमपश्येतामायान्तं संमुखं द्विज ॥ ५७ ॥
हे द्विज ! एक दिन कार्तिकी पूर्णिमाको उपवास कर उन दोनों पति-पत्नियोंने श्रीगंगाजीमें एक साथ ही स्नान करनेके अनन्तर बाहर आनेपर एक पाखण्डीको सामने आता देखा ॥ ५७ ॥

चापाचार्यस्य तस्यासौ सखा राज्ञो महात्मनः ।
अतस्तद्‍गौरवात्तेन सखाभावमथाकरोत् ॥ ५८ ॥
यह ब्राह्मण उस महात्मा राजाके धनुर्वेदाचार्यका मित्र था; अतः आचार्यके गौरववश राजाने भी उससे मित्रवत् व्यवहार किया ॥ ५८ ॥

न तु सा वाग्यता देवी तस्य पत्‍नी पतिव्रता ।
उपोषितास्मीति रविं तस्मिन्दृष्टे ददर्श च ॥ ५९ ॥
किन्तु उसकी पतिव्रता पत्नीने उसका कुछ भी आदर नहीं किया; वह मौन रही और यह सोचकर कि मैं उपोषिता (उपवासयुक्त) हूँ उसे देखकर सूर्यका दर्शन किया ॥ ५९ ॥

समागम्य यथान्यायं दम्पती तौ यथाविधि ।
विष्णोः पूजादिकं सर्वं कृतंवतौ द्विजोत्तम ॥ ६० ॥
हे द्विजोत्तम ! फिर उन स्त्री-पुरुषोंने यथारीति आकर भगवान् विष्णुके पूजा आदिक सम्पूर्ण कर्म विधिपूर्वक किये ॥ ६० ॥

कालेन गच्छता राजा ममारासौ सपत्‍नजित् ।
अन्वारुरोह तं देवी चितास्थं भूपतिं पतिम् ॥ ६१ ॥
कालान्तरमें वह शत्रुजित् राजा मर गया । तब देवी शैव्याने भी चितारूढ़ महाराजका अनुगमन किया ॥ ६१ ॥

स तु तेनापचारेण श्वा जज्ञे वसुधाधिपः ।
उपोषितेन पाषण्डसँल्लापो यत्कृतोऽभवत् ॥ ६२ ॥
राजा शतधनुने उपवास-अवस्थामें पाखण्डीसे वार्तालाप किया था । अतः उस पापके कारण उसने कुत्तेका जन्म लिया ॥ ६२ ॥

सा तु जातिस्मरा जज्ञे काशीराजसुता शुभा ।
सर्वविज्ञानसम्पूर्णा सर्वलक्षणपूजिता ॥ ६३ ॥
तथा वह शुभलक्षणा काशीनरेशकी कन्या हुई, जो सब प्रकारके विज्ञानसे युक्त, सर्वलक्षणसम्पन्ना और जातिस्मरा (पूर्वजन्मका वृत्तान्त जाननेवाली) थी ॥ ६३ ॥

तां पिता दातुकामोऽभूद्‌वराय विनिवारितः ।
तयैव तन्व्या विरतो विवाहारम्भतो नृपः ॥ ६४ ॥
राजाने उसे किसी वरको देनेकी इच्छा की, किन्तु उस सुन्दरीके ही रोक देनेपर वह उसके विवादिसे उपरत हो गये । ६४ ॥

ततःसा दिव्यया दृष्ट्या दृष्ट्‍वा श्वानं निजं पतिम् ।
विदिशाख्यं पुरं गत्वा तदवस्थं ददर्श तम् ॥ ६५ ॥
तब उसने दिव्य दृष्टिसे अपने पतिको श्वान हुआ जान विदिशा नामक नगरमें जाकर उसे वहाँ कुत्तेकी अवस्थामें देखा ॥ ६५ ॥

तं दृष्ट्‌वैव महाभागं श्वभूतं तु पतिं तदा ।
ददौ तस्मै वराहारं सत्कारप्रवणं शुभा ॥ ६६ ॥
अपने महाभाग पतिको श्वानरूपमें देखकर उस सुन्दरीने उसे सत्कारपूर्वक अति उत्तम भोजन कराया ॥ ६६ ॥

भुञ्जन्दत्तं तया सोऽन्नमतिमृष्टमभीप्सितम् ।
स्वजाति ललितं कुर्वन्बहु चाटु चकार वै ॥ ६७ ॥
उसके दिये हुए उस अति मधुर और इच्छित अन्नको खाकर वह अपनी जातिके अनुकूल नाना प्रकारकी चाटुता प्रदर्शित करने लगा ॥ ६७ ॥

अतीव व्रीडिता बला कुर्वता चाटु तेन सा ।
प्रणामपूर्वमाहेदं दयितं तं कुयोनिजम् ॥ ६८ ॥
उसके चाटुता करनेसे अत्यन्त संकुचित हो उस बालिकाने कुत्सित योनिमें उत्पन्न हुए उस अपने प्रियतमको प्रणाम कर उससे इस प्रकार कहा- ॥

स्मर्यतां तन्महाराज दाक्षिण्यललितं त्वया ।
येन श्वयोनिमापन्नो मम चाटुकरो भवान् ॥ ६९ ॥
६८ ॥ "महाराज ! आप अपनी उस उदारताका स्मरण कीजिये जिसके कारण आज आप श्वान-योनिको प्राप्त होकर मेरे चाटुकार हुए हैं ॥ ६९ ॥

पाषण्डिनं समाभाष्य तीर्थस्नानादनन्तरम् ।
प्राप्तोसि कुत्सितां योनिं किन्न स्मरसि तत्प्रभो ॥ ७० ॥
हे प्रभो ! क्या आपको यह स्मरण नहीं है कि तीर्थस्नानके अनन्तर पाखण्डीसे वार्तालाप करनेके कारण ही आपको यह कुत्सित योनि मिली है ?" ॥ ७० ॥

श्रीपराशर उवाच
तयैवं स्मारीति तस्मिन्पूर्वजातिकृते तदा ।
दध्यौ चिरमथावाप निर्वेदमतिदुर्लभम् ॥ ७१ ॥
श्रीपराशरजी बोले-काशिराजसुताद्वारा इस प्रकार स्मरण कराये जानेपर उसने बहुत देरतक अपने पूर्वजन्मका चिन्तन किया । तब उसे अति दुर्लभ निर्वेद प्राप्त हुआ ॥ ७१ ॥

निर्विण्णचित्तः स ततो निर्गम्य नगराद्‌बहिः ।
मरुत्प्रपतनं कृत्वा सार्गाली योनिमागतः ॥ ७२ ॥
उसने अति उदास चित्तसे नगरके बाहर आ प्राण त्याग दिये और फिर शृगाल-योनिमें जन्म लिया ॥ ७२ ॥

सापि द्वितीये सम्प्राप्ते वीक्ष्य दिव्येन चक्षुषा ।
ज्ञात्वा शृगालं तं द्रष्टुं ययौ कोलाहलं गिरिम् ॥ ७३ ॥
तब काशिराजकन्या दिव्य दृष्टिसे उसे दूसरे जन्ममें शृगाल हुआ जान उसे देखनेके लिये कोलाहल पर्वतपर गयी ॥ ७३ ॥

तत्रापि दृष्ट्‍वा तं प्राह शार्गालीं योनिमागतम् ।
भर्तारमपि चार्वङ्‍गी तनया पृथिवीक्षितः ॥ ७४ ॥
वहाँ भी अपने पतिको शृगाल-योनिमें उत्पन्न हुआ देख वह सुन्दरी राजकन्या उससे बोली- ॥ ७४ ॥

अपि स्मरसि राजेन्द्र श्वयोनिस्थस्य यन्मया ।
प्रोक्तं ते पूर्वचरितं पाषण्डालापसंश्रयम् ॥ ७५ ॥
"हे राजेन्द्र ! श्वान-योनिमें जन्म लेनेपर मैंने आपसे जो पाखण्डीसे वार्तालापविषयक पूर्वजन्मका वृत्तान्त कहा था क्या वह आपको स्मरण है ?" ॥ ७५ ॥

पुनस्तयोक्तं स ज्ञात्वा सत्यं सत्यवतां वरः ।
कानने स निराहारस्तत्याज स्वं कलेवरम् ॥ ७६ ॥
तब सत्यनिष्ठोंमें श्रेष्ठ राजा शतधनुने उसके इस प्रकार कहनेपर सारा सत्य वृत्तान्त जानकर निराहार रह वनमें अपना शरीर छोड़ दिया ॥ ७६ ॥

भूयस्ततो वृको जज्ञे गत्वा तं निर्जने वने ।
स्मारयामास भर्तारं पूर्ववृत्तमनिन्दिता ॥ ७७ ॥
फिर वह एक भेड़िया हुआ; उस समय भी अनिन्दिता राजकन्याने उस निर्जन वनमें जाकर अपने पतिको उसके पूर्वजन्मका वृत्तान्त स्मरण कराया ॥ ७७ ॥

न त्वं वृको महाभाग राजा शतधनुर्भवान् ।
श्वा भूत्वा त्वं सृगालोऽभूर्वृकत्वं साम्प्रतं गतः ॥ ७८ ॥
[उसने कहा-]"हे महाभाग ! तुम भेड़िया नहीं हो, तुम राजा शतधनु हो । तुम [अपने पूर्वजन्मोंमें] क्रमशः कुक्कुर और भृगाल होकर अब भेड़िया हुए हो" ॥ ७८ ॥

स्मारितेन यथा व्यक्तस्तेनात्मा गृध्रतां गतः ।
अपापा सा पुनश्चैनं बोधयामास भामिनी ॥ ७९ ॥
इस प्रकार उसके स्मरण करानेपर राजाने जब भेड़ियेके शरीरको छोड़ा तो गृध्र-योनिमें जन्म लिया । उस समय भी उसकी निष्पाप भार्याने उसे फिर बोध कराया ॥ ७९ ॥

नरेद्र स्मर्यतामात्मा ह्यलं ते गृध्रचेष्टया ।
पाषण्डालापजातोऽयं दोषो यद्‍गृध्रतां गतः ॥ ८० ॥
'हे नरेन्द्र ! तुम अपने स्वरूपका स्मरण करो; इन गृध्र-चेष्टाओंको छोड़ो । पाखण्डीके साथ वार्तालाप करनेके दोषसे ही तुम गृध्र हुए हो' ॥ ८० ॥

ततः काकत्वमापन्नं समनन्तरजन्मनि ।
उवाच तन्वी भर्तारमुपलभ्यात्मयोगतः ॥ ८१ ॥
फिर दूसरे जन्ममें काक-योनिको प्राप्त होनेपर भी अपने पत्तिको योगबलसे पाकर उस सुन्दरीने कहा- ॥ ८१ ॥

अशेषभूभृतः पूर्वं वश्या यस्मै बलिं ददुः ।
स त्वं काकत्वमापन्नो जातोद्य बलिभुक् प्रभो ॥ ८२ ॥
"हे प्रभो ! जिनके वशीभूत होकर सम्पूर्ण सामन्तगण नाना प्रकारको वस्तुएँ भेंट करते थे वही आप आज काक-योनिको प्राप्त होकर बलिभोजी हुए हैं" ॥ ८२ ॥

एवमेव बकत्वेपि स्मारितस्य पुरातनम् ।
तत् त्याज भूपतिः प्राणान्मयूरत्वमवाप च ॥ ८३ ॥
इसी प्रकार काकयोनिमें भी पूर्वजन्मका स्मरण कराये जानेपर राजाने अपने प्राण छोड़ दिये और फिर मयूर योनिमें जन्म लिया ॥ ८३ ॥

मयूरत्वे ततः सा वै चकारानुगतिं शुभा ।
दत्तैः प्रतिक्षणं भोज्यैर्बाला तज्जातिभोजनैः ॥ ८४ ॥
मयूरावस्थामें भी काशिराजकी कन्या उसे क्षण-क्षणमें अति सुन्दर मयूरोचित आहार देती हुई उसकी टहल करने लगी ॥ ८४ ॥

ततस्तु जनको राजा वाजिमेधं महाक्रतुम् ।
चकार तस्यावभृथे स्नापयामास तं तदा ॥ ८५ ॥
उस समय राजा जनकने अश्वमेध नामक महायज्ञका अनुष्ठान किया; उस यज्ञमें अवभृथ-स्नानके समय उस मयूरको स्नान कराया ॥ ८५ ॥

सस्नौ स्वयं च तन्वङ्‍गी स्मारयामास चापि तम् ।
यथासौ श्वसृगालादियोनिं जग्राह पार्थिवः ॥ ८६ ॥
तब उस सुन्दरीने स्वयं भी स्नान कर राजाको यह स्मरण कराया कि किस प्रकार उसने श्वान और शृगाल आदि योनियाँ ग्रहण की थीं ॥ ८६ ॥

स्मृतजन्मक्रमःसोऽथ तत्त्याज स्वकलेवरम् ।
जज्ञे स जनकस्यैव पुत्रोऽसौ सुमहात्मनः ॥ ८७ ॥
अपनी जन्म-परम्पराका स्मरण होनेपर उसने अपना शरीर त्याग दिया और फिर महात्मा जनकजीके यहाँ ही पुत्ररूपसे जन्म लिया ॥ ८७ ॥

ततः सा पितरं तन्वी विवाहार्थमचोदयत् ।
स चापि कारयामास तस्या राजा स्वयंवरम् ॥ ८८ ॥
तब उस सुन्दरीने अपने पिताको विवाहके लिये प्रेरित किया । उसकी प्रेरणासे राजाने उसके स्वयंवरका आयोजन किया ॥ ८८ ॥

स्वयंवरे कृते सा तं सम्प्राप्तं पतिमात्मनः ।
वरयामास भूयोऽपि भर्तृभावेन भामिनी ॥ ८९ ॥
स्वयंवर होनेपर उस राजकन्याने स्वयंवरमें आये हुए अपने उस पतिको फिर पतिभावसे वरण कर लिया ॥ ८९ ॥

बुभुजे च तया सार्धं सम्भोगान्नृपनन्दनः ।
पितर्युपरते राज्यं विदेहेषु चकार सः ॥ ९० ॥
उस राजकुमारने काशिराजसुताके साथ नाना प्रकारके भोग भोगे और फिर पिताके परलोकवासी होनेपर विदेहनगरका राज्य किया ॥ ९० ॥

इयाज जज्ञान्सुबहून्ददौ दानानि चार्थिनाम् ।
पुत्रानुत्पादयामास युयुधे च सहारिभिः ॥ ९१ ॥
उसने बहुत-से यज्ञ किये, याचकोंको नाना प्रकारसे दान दिये, बहुत-से पुत्र उत्पन्न किये और शत्रुओंके साथ अनेकों युद्ध किये ॥ ९१ ॥

राज्यं भुक्त्वा यथान्यायं पालयित्वा वसुन्धराम् ।
तत्त्याज स प्रियान्प्राणान्सङ्‍ग्रामे धर्मतो नृपः ॥ ९२ ॥
इस प्रकार उस राजाने पृथिवीका न्यायानुकूल पालन करते हुए राज्य-भोग किया और अन्तमें अपने प्रिय प्राणोंको धर्मयुद्धमें छोड़ा ॥ ९२ ॥

ततश्चितास्थं तं भूयो भर्तारं सा शुभेक्षणा ।
अन्वारुरोह विधिवद्यथापूर्वं मुदान्विता ॥ ९३ ॥
तब उस सुलोचनाने पहलेके समान फिर अपने चितारूढ पतिका विधिपूर्वक प्रसन्न-मनसे अनुगमन किया ॥ ९३ ॥

ततोऽवाप तया सार्धं राजपुत्र्या स पार्थिवः ।
ऐन्द्रानतीत्य वै लोकाँल्लोकान्प्राप तदाक्षयान् ॥ ९४ ॥
इससे वह राजा उस राजकन्याके सहित इन्द्रलोकसे भी उत्कृष्ट अक्षय लोकोंको प्राप्त हुआ ॥ ९४ ॥

स्वर्गाक्षयत्वमतुलं दाम्पत्यमतिदुर्लभम् ।
प्राप्तं पुण्यफलं प्राप्य संशुद्धिं तां द्विजोत्तम ॥ ९५ ॥
हे द्विजश्रेष्ठ ! इस प्रकार शुद्ध हो जानेपर उसने अतुलनीय अक्षय स्वर्ग, अति दुर्लभ दाम्पत्य और अपने पूर्वार्जित पुण्यका फल प्राप्त कर लिया ॥ ९५ ॥

एष पाषण्डसम्भाषाद्दोषः प्रोक्तो मया द्विज ।
तथाऽश्वमेधावभृथस्नानमाहात्म्यमेव च ॥ ९६ ॥
हे द्विज ! इस प्रकार मैंने तुमसे पाखण्डीसे सम्भाषण करनेका दोष और अश्वमेध यज्ञमें स्नान करनेका माहात्म्य वर्णन कर दिया ॥ ९६ ॥

तस्मात्पाषण्डिभिः पापैरालापस्पर्शनं त्यजेत् ।
विशेषतः क्रियाकाले यज्ञादौ चापि दीक्षितः ॥ ९७ ॥
इसलिये पाखण्डी और पापाचारियोंसे कभी वार्तालाप और स्पर्श न करे, विशेषतः नित्य-नैमित्तिक कर्मोके समय और जो यज्ञादि क्रियाओंके लिये दीक्षित हो उसे तो उनका संसर्ग त्यागना अत्यन्त आवश्यक है ॥ ९७ ॥

क्रियाहानिर्गृहे यस्य मासमेकं प्रजायते ।
तस्यावलोकनात्सूर्यं पश्येत मतिमान्नरः ॥ ९८ ॥
जिसके घरमें एक मासतक नित्यकर्मोका अनुष्ठान न हुआ हो उसको देख लेनेपर बुद्धिमान् मनुष्य सूर्यका दर्शन करे ॥ ९८ ॥

किं पुनर्यैस्तु सन्त्यक्ता त्रयी सर्वात्मना द्विज ।
पाषण्डभोजिभिः पापैर्वेदवादविरोधिभिः ॥ ९९ ॥
फिर जिन्होंने वेदत्रयीका सर्वथा त्याग कर दिया है तथा जो पाखण्डियोंका अन्न खाते और वैदिक मतका विरोध करते हैं उन पापात्माओंके दर्शनादि करनेपर तो कहना ही क्या है ? ॥ ९९ ॥

सहालापस्तु संसर्गः सहास्या चातिपापिनी ।
पाषण्डिभिर्दुराचारैस्तस्मात्तां परिवर्जयेत् ॥ १०० ॥
इन दुराचारी पाखण्डियोंके साथ वार्तालाप करने, सम्पर्क रखने और उठने-बैठनेमें महान् पाप होता है; इसलिये इन सब बातोंका त्याग करे ॥ १०० ॥

पाषण्डिनो विकर्मस्थान्वैडालव्रतिकाञ्छठान् ।
हैतुकान्बकवृत्तींश्च वाङ्‍मात्रेणापि नार्चयेत् ॥ १०१ ॥
पाखण्डी, विकर्मी, विडाल-व्रतवाले, ' दुष्ट, स्वार्थी और बगुलाभक्त लोगोंका वाणीसे भी आदर न करे ॥ १०१ ॥

द्वरतस्तैस्तु सम्पर्कस्त्याज्यश्चाप्यतिपापिभिः ।
पाषण्डिभिर् दुराचारैस्तस्मात्तान्परिवर्जयेत् ॥ १०२ ॥
इन पाखण्डी, दुराचारी और अति पापियोंका संसर्ग दूरहीसे त्यागने योग्य है । इसलिये इनका सर्वदा त्याग करे ॥ १०२ ॥

एते नग्नास्तवाख्याता दृष्टा श्राद्धोपघातकाः ।
येषां सम्भाषणात्पुंसां दिनपुण्यं प्रणश्यति ॥ १०३ ॥
इस प्रकार मैंने तुमसे नानोंकी व्याख्या की, जिनके दर्शनमात्रसे श्राद्ध नष्ट हो जाता है और जिनके साथ सम्भाषण करनेसे मनुष्यका एक दिनका पुण्य क्षीण हो जाता है ॥ १०३ ॥

एते पाषण्डिनः पापा न ह्येतानालपेद्‍ बुधः ।
पुण्यं नश्यति सम्भाषादेतेषां तद्दिनोद्‍भवम् ॥ १०४ ॥
ये पाखण्डी बड़े पापी होते हैं, बुद्धिमान् पुरुष इनसे कभी सम्भाषण न करे । इनके साथ सम्भाषण करनेसे उस दिनका पुण्य नष्ट हो जाता है ॥ १०४ ॥

पुंसां जटाधरणमैण्ड्यवतां वृथैव
    मोघाशिनामखिलशौचनिराकृतानाम् ।
तोयप्रदानपितृपिण्डबहिष्कृतानां
    सम्भाषणादपि नरा नरकं प्रयान्ति ॥ १०५ ॥
जो बिना कारण ही जटा धारण करते अथवा मुंड मुड़ाते हैं, देवता, अतिथि आदिको भोजन कराये बिना स्वयं ही भोजन कर लेते हैं, सब प्रकारसे शौचहीन हैं तथा जलदान और पितृ-पिण्ड आदिसे भी बहिष्कृत हैं, उन लोगोंसे वार्तालाप करनेसे भी लोग नरकमें जाते हैं ॥ १०५ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे तृतीयांशेऽष्टादशोऽध्यायः (१८)
इति श्रीविष्णुमहापुराणे तृतीयांऽशः समाप्तः ।
इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेंऽशे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
इति श्रीपराशरमुनिविरचिते श्रीविष्णुपरत्वनिर्णायके श्रीमति विष्णुमहापुराणे तृतीयोऽशः समाप्तः ॥



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