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॥ विष्णुपुराणम् ॥

चतुर्थः अंशः

॥ चतुर्थोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
काश्यपदुहिता मुमतिर्विदर्भराजतनया केशिनी च द्वे भार्ये सगरस्यास्ताम् ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-काश्यपसुता समति और विदर्भराज-कन्या केशिनी ये राजा सगरकी दो स्त्रियाँ थीं ॥ १ ॥

ताभ्यां चापत्यार्थमौर्वः परमेण समाधिनाराधितो वरमदात् ॥ २ ॥
उनसे सन्तानोत्पत्तिके लिये परम समाधिद्वारा आराधना किये जानेपर भगवान् और्वने यह वर दिया ॥ २ ॥

एका वंशकरमेकं पुत्रमपरा षष्टिं पुत्रसहस्राणां जनयिष्यतीति यस्या यदभिमतं तदिच्छया गृह्यतामित्युक्ते केशिन्येकं वरयामास ॥ ३ ॥
सुमतिः पुत्रसहस्राणि षष्टिं वव्रे ॥ ४ ॥
'एकसे वंशकी वृद्धि करनेवाला एक पुत्र तथा दूसरीसे साठ हजार पुत्र उत्पन्न होंगे, इनमेंसे जिसको जो अभीष्ट हो वह इच्छापूर्वक उसीको ग्रहण कर सकती है । ' उनके ऐसा कहनेपर केशिनीने एक तथा सुमतिने साठ हजार पुत्रोंका वर माँगा ॥ ३-४ ॥

तथेत्युक्ते अल्पैरहोभिः केशिनी पुत्रमेकमसमञ्जसनामानं वंशकरमसूत ॥ ५ ॥
काश्यपतनयायास्तु सुमत्याः षष्टिः पुत्रसहस्राण्यभवन् ॥ ६ ॥
महर्षिके 'तथास्तु' कहनेपर कुछ ही दिनोंमें केशिनीने वंशको बढ़ानेवाले असमंजस नामक एक पुत्रको जन्म दिया और काश्यपकुमारी सुमतिसे साठ सहस पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ५-६ ॥

तस्मादसमञ्जसादंशुमान्नाम कुमारो जज्ञे ॥ ७ ॥
राजकुमार असमंजसके अंशुमान् नामक पुत्र हुआ ॥ ७ ॥

स त्वसमञ्जसो बालो बाल्यादेवासद्वृत्तोऽभूत् ॥ ८ ॥
यह असमंजस बाल्यावस्थासे ही बड़ा दुराचारी था ॥ ८ ॥

पिता चास्याचिन्तयदयमतीतबाल्यः सुबुद्धिमान् भविष्यतीति ॥ ९ ॥
पिताने सोचा कि बाल्यावस्थाके बीत जानेपर यह बहुत समझदार होगा ॥ ९ ॥

अथ तत्रापि च वयस्यतीते असच्चारीतमेनं पिता तत्याज ॥ १० ॥
किन्तु यौवनके बीत जानेपर भी जब उसका आचरण न सुधरा तो पिताने उसे त्याग दिया ॥ १० ॥

तान्यपि षष्टिः पुत्रसहस्राण्यसमञ्जसचारितमेवानुचक्रुः ॥ ११ ॥
उनके साठ हजार पुत्रोंने भी असमंजसके चरित्रका ही अनुकरण किया ॥ ११ ॥

ततश्चासमञ्जसचरितानुकारिभिः सागरैरपध्वस्तयज्ञादिसन्मार्गे जगति देवाःसकलविद्यामयमसंस्पृष्टमशेषदोषैर्भगवतः पुरुषोत्तमस्यांशभूतं कपिलं प्रणम्य तदर्थमूचुः ॥ १२ ॥
तब असमंजसके चरित्रका अनुकरण करनेवाले उन सगरपुत्रों द्वारा संसारमें यज्ञादि सन्मार्गका उच्छेद हो जानेपर सकल-विद्यानिधान, अशेषदोषहीन, भगवान् पुरुषोत्तमके अंशभूत श्रीकपिलदेवसे देवताओंने प्रणाम करनेके अनन्तर उनके विषयमें कहा- ॥ १२ ॥

भगवन्नेऽभिः सगरतनयैरसमञ्जसचरितमनुगम्यते ॥ १३ ॥
"भगवन् ! राजा सगरके ये सभी पुत्र असमंजसके चरित्रका ही अनुसरण कर रहे हैं ॥ १३ ॥

कथमेभिरसद्वृत्तमनुसरद्‍‍भिर्जगद्‍भविष्यतीति ॥ १४ ॥
इन सबके असन्मार्गमें प्रवृत्त रहनेसे संसारकी क्या दशा होगी ? ॥ १४ ॥

अत्यार्तजगत्परित्राणाय च भगवतोऽत्र शरीरग्रहणमित्याकर्ण्य भगवानाहाल्पैरेव दिनैर्विनङ्‍क्ष्यन्तीति ॥ १५ ॥
प्रभो ! संसारमें दीनजनोंकी रक्षाके लिये ही आपने यह शरीर ग्रहण किया है [अत: इस घोर आपत्तिसे संसारको रक्षा कीजिये] । " यह सुनकर भगवान् कपिलने कहा-"ये सब थोड़े ही दिनोंमें नष्ट हो जायेंगे" ॥ १५ ॥

अत्रान्तरे च सगरो हयमेधमारभत ॥ १६ ॥
इसी समय सगरने अश्वमेध-यज्ञ आरम्भ किया ॥ १६ ॥

तस्य च पुत्रैरधिष्ठितमस्याश्वं कोऽप्यपहृत्य भुवो बिलं प्रविवेश ॥ १७ ॥
उसमें उसके पुत्रों द्वारा सुरक्षित घोड़ेको कोई व्यक्ति चुराकर पृथिवीमें घुस गया ॥ १७ ॥

ततस्तत्तनयाश्चाश्वखुरगतिनिर्वन्धेनावनीमेकैको योजनं चख्नुः ॥ १८ ॥
तब उस घोड़ेके खुरोंके चिोंका अनुसरण करते हुए उनके पुत्रोंमेंसे प्रत्येकने एक-एक योजन पृथिवी खोद डाली ॥ १८ ॥

पाताले चाश्वं परिभ्रमन्तं तमवनीपतितनयास्ते ददृशुः ॥ १९ ॥
तथा पातालमें पहुंचकर उन राजकुमारोंने अपने घोड़ेको फिरता हुआ देखा ॥ १९ ॥

नातिदूरेऽवस्थितं च भगवन्तमपघने शरत्कालेऽर्कमिव तेजोभिरनवरतमूर्ध्वमधश्चाशेष दिशश्चोद्‍भासयमानं हयहर्तारं कपिलर्षिमपश्यन् ॥ २० ॥
पासहीमें मेघावरणहीन शरत्कालके सूर्यके समान अपने तेजसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित करते हए घोड़ेको चुरानेवाले परमर्षि कपिलको सिर झुकाये बैठे देखा ॥ २० ॥

ततश्चोद्यतायुधा दुरात्मानोऽयमस्मदपकारी यज्ञविध्नकारी हन्यतां हयहर्ता हन्यतामीत्यवोचन्नभ्यधावंश्च ॥ २१ ॥
। तब तो वे दुरात्मा अपने अस्त्र-शस्त्रोंको उठाकर । 'यही हमारा अपकारी और यज्ञमें विघ्न डालनेवाला है, इस घोड़ेको चुरानेवालेको मारो, मारो' ऐसा चिल्लाते हुए उनकी ओर दौड़े ॥ २१ ॥

ततस्तेनापि भगवता किञ्चिदीषत्परिवर्तितलोचनेनावलोकिताःस्वशरीरसमुत्थेनाऽग्निनादह्यमाना विनेशुः ॥ २२ ॥
तब भगवान् कपिलदेवके कुछ आँख बदलकर देखते ही वे सब अपने ही शरीरसे उत्पन्न हुए अग्निमें जलकर नष्ट हो गये ॥ २२ ॥

सगरोप्यवगम्याश्वानुसारि तत्पुत्रबलमशेषं परमर्षिणा कपिलेन तेजसा दग्धं ततोंऽशुमन्तमसमञ्जसपुत्रमश्वानयनाय युयोज ॥ २३ ॥
महाराज सगरको जब मालूम हुआ कि घोड़ेका अनुसरण करनेवाले उसके समस्त पुत्र महर्षि कपिलके तेजसे दग्ध हो गये हैं तो उन्होंने असमंजसके पुत्र अंशुमान्को घोड़ा ले आनेके लिये नियुक्त किया ॥ २३ ॥

स तु सगरकतयखातमार्गेण कपिलमुपगम्य भक्तिनम्रस्तदा तृष्टाव ॥ २४ ॥
वह सगर-पुत्रोंद्वारा खोदे हुए मार्गसे कपिलजीके पास पहुँचा और भक्तिविनम्र होकर उनकी स्तुति की ॥ २४ ॥

अथैनं भगवानाह ॥ २५ ॥
गच्छैनं पितामहायाश्वं प्रापय वरं वृणीष्व च पुत्रक पौत्रश्च ते स्वर्गाद्‍गङ्‍गां भुवमानेष्यत इति ॥ २६ ॥
तब भगवान् कपिलने उससे कहा-"बेटा ! जा, इस घोड़ेको ले जाकर अपने दादाको दे और तेरी जो इच्छा हो वही वर माँग ले । तेरा पौत्र गंगाजीको स्वर्गसे पृथिवीपर लायेगा" ॥ २५-२६ ॥

अथांशुमानपि स्वर्यातानां ब्रह्मदण्डहतानामस्मत्पितॄणामस्वर्गयोग्यानां स्वर्गप्राप्तिकरं वरमस्माकं प्रयच्छेति प्रत्याह ॥ २७ ॥
इसपर अंशुमान्ने यही कहा कि मुझे ऐसा वर दीजिये जो ब्रह्मदण्डसे आहत होकर मरे हुए मेरे अस्वयं पितृगणको स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला हो ॥ २७ ॥

तदाकर्ण्य तं च भगवानाह उक्तमेवैतन्मयाद्य पौत्रस्ते त्रिदिवाद्‍गङ्‍गाम्भुवमानयिष्यतीति ॥ २८ ॥
यह सुनकर भगवान्ने कहा-"मैं तुझसे पहले ही कह चुका हूँ कि तेरा पौत्र गंगाजीको स्वर्गसे पृथिवीपर लायेगा ॥ २८ ॥

तदम्भसा च संस्पृष्टेष्वस्थिभस्मसु एते च स्वर्गमारोक्ष्यन्ति ॥ २९ ॥
उनके जलसे इनकी अस्थियोंकी भस्मका स्पर्श होते ही ये सब स्वर्गको चले जायेंगे ॥ २९ ॥

भगवद्विष्णुपादाङ्‍गुष्ठनिर्गतस्य हि जलस्यैतन्माहात्म्यम् ॥ ३० ॥
यन्न केवलमभिसन्धिपूर्वकं स्नानाद्युपभोगेषूपकारकमनभिसंहितं अप्यपेतप्राणस्य अस्थिचर्मस्नायुकेशाद्युपस्पृष्टं शरीरजमपि पतितं सद्यः शरीरिणं स्वर्गं नयतीत्युक्तः प्रणम्य भवगतेऽश्वमादाय पितामहायज्ञमाजगाम् ॥ ३१ ॥
भगवान् विष्णुके चरणनखसे निकले हुए उस जलका ऐसा माहात्म्य है कि वह कामनापूर्वक केवल स्नानादि कार्योंमें ही उपयोगी हो-सो नहीं, अपितु, बिना कामनाके मृतक पुरुषके अस्थि, चर्म, स्नायु अथवा केश आदिका स्पर्श हो जानेसे या उसके शरीरका कोई अंग गिरनेसे भी वह देहधारीको तुरंत स्वर्गमें ले जाता है । भगवान् कपिलके ऐसा कहनेपर वह उन्हें प्रणाम कर घोड़ेको लेकर अपने पितामहकी यज्ञशालामें आया ॥ ३०-३१ ॥

सगरोप्यश्वमासाद्य तं यज्ञं समापयामास ॥ ३२ ॥
सागरं चात्मजप्रीत्या पुत्रत्वे कल्पितवान् ॥ ३३ ॥
राजा सगरने भी घोड़ेके मिल जानेपर अपना यज्ञ समाप्त किया और [अपने पुत्रोंके खोदे हुए] सागरको ही अपत्य-स्नेहसे अपना पुत्र माना ॥ ३२-३३ ॥

तस्यांशुमतो दिलीपः पुत्रोऽभवत् ॥ ३४ ॥
दिलीपस्य भगीरथः योऽसौ गङ्‍गां स्वर्गादिहानीय भगीरथीसंज्ञां चकार ॥ ३५ ॥
उस अंशुमान्के दिलीप नामक पुत्र हुआ और दिलीपके भगीरथ हुआ जिसने गंगाजीको स्वर्गसे पृथिवीपर लाकर उनका नाम भागीरथी कर दिया ॥ ३४-३५ ॥

भगीरथात्सुहोत्रः सुहोत्राच्छुतः, तस्यापि नाभागः ततोऽम्बरीषः तत्पुत्रःसिन्धुद्वीपः सिन्धुद्वीपादयुतायुः ॥ ३६ ॥
तत्पुत्रश्च ऋतुपर्णः योऽसौ नलसहायोऽक्षहृदयज्ञोऽभूत् ॥ ३७ ॥
भगीरथसे सुहोत्र, सुहोत्रसे श्रुति, श्रुतिसे नाभाग, नाभागसे अम्बरीष, अम्बरीषसे सिन्धुदीप, सिन्धुदीपसे अयुतायु और अयुतायुसे ऋतुपर्ण नामक पुत्र हुआ जो राजा नलका सहायक और द्यूतक्रीडाका पारदर्शी था ॥ ३६-३७ ॥

ऋतुपर्णपुत्रःसर्वकामः ॥ ३८ ॥
तत्तनयःसुदासः ॥ ३९ ॥
सुदासात्सौदासो मित्रसहनामा ॥ ४० ॥
ऋतुपर्णका पुत्र सर्वकाम था, उसका सुदास और सुदासका पुत्र सौदास मित्रसह हुआ ॥ ३८-४० ॥

स चाटव्यां मृगयार्थो पर्यटन् व्याघ्रद्वयमपश्यत् ॥ ४१ ॥
एक दिन मृगयाके लिये वनमें घूमते-घूमते उसने दो व्याघ्र देखे ॥ ४१ ॥

ताभ्यां तद्वनमपमृगं कृतं मत्वैकं तयोर्बाणेन जघान ॥ ४२ ॥
इन्होंने सम्पूर्ण वनको मृगहीन कर दिया है ऐसा समझकर उसने उनमेंसे एकको बाणसे मार डाला ॥ ४२ ॥

म्रियमाणश्चासावतिभीषणाकृतिरतिकरालवदनो राक्षसोऽभूत् ॥ ४३ ॥
मरते समय वह अति भयंकररूप क्रूर-वदन राक्षस हो गया ॥ ४३ ॥

द्वितीयोऽपि प्रतिक्रियां ते करिष्यामीत्युक्त्वान्तर्धानं जगाम ॥ ४४ ॥
तथा दूसरा भी 'मैं इसका बदला लूंगा' ऐसा कहकर अन्तर्धान हो गया ॥ ४४ ॥

कालेन गच्छता सौदासो यज्ञमयजत् ॥ ४५ ॥
कालान्तरमें सौदासने एक यज्ञ किया ॥ ४५ ॥

परिनिष्ठितयज्ञे आचार्ये वसिष्ठे निष्क्रान्ते तद्‌रक्षो वसिष्ठरूपमास्थाय यज्ञावसाने मम नरमांसभोजनं देयमिति तत्संस्क्रियतां क्षणादागमिष्यामीत्युक्त्वा निष्क्रान्तः ॥ ४६ ॥
यज्ञ समाप्त हो जानेपर जब आचार्य वसिष्ठ बाहर चले गये तब वह राक्षस वसिष्ठजीका रूप बनाकर बोला-'यज्ञके पूर्ण होनेपर मुझे नर-मांसयुक्त भोजन कराना चाहिये; अतः तुम ऐसा अन्न तैयार कराओ, मैं अभी आता हूँ' ऐसा कहकर वह बाहर चला गया ॥ ४६ ॥

भूयश्च सूदवेषं कृत्वा राजाज्ञया मानुषं मांसं संस्कृत्य राज्ञे न्यवेदयत् ॥ ४७ ॥
फिर रसोइयेका वेष बनाकर राजाकी आज्ञासे उसने मनुष्यका मांस पकाकर उसे निवेदन किया ॥ ४७ ॥

असावपि हिरण्यपात्रे मांसमादाय वसिष्ठागमनप्रतीक्षकोऽभवत् ॥ ४८ ॥
आगताय वसिष्ठाय निवेदितवान् ॥ ४९ ॥
राजा भी उसे सवर्णपात्रमें रखकर वसिष्ठजीके आनेकी प्रतीक्षा करने लगा और उनके आते ही वह मांस निवेदन कर दिया ॥ ४८-४९ ॥

स चाप्यचिन्तयदहो अस्य राज्ञो दौःशील्यं येनैतन्मांसमस्माकं प्रयच्छति किमेतद्द्रव्यजातमिति ध्यानपरोऽभवत् ॥ ५० ॥
वसिष्ठजीने सोचा-'अहो ! इस राजाकी कुटिलता तो देखो जो यह जान-बूझकर भी मुझे खानेके लिये यह मांस देता है । ' फिर यह जाननेके लिये कि यह किसका है वे ध्यानस्थ हो गये ॥ ५० ॥

अपश्यच्च तन्मांसंमानुषम् ॥ ५१ ॥
ध्यानावस्थामें उन्होंने देखा कि वह तो नरमास है ॥ ५१ ॥

अतः क्रोधकलुषीकृतचेता राजनि सापमुत्ससर्ज ॥ ५२ ॥
तब तो क्रोधके कारण क्षुब्धचित्त होकर उन्होंने राजाको यह शाप दिया ॥ ५२ ॥

यस्मादभोज्यमेतदस्मद्विधानां तपस्विनामवगच्छन्नपि भवान्मह्यं ददाति तस्मात्तवैवात्र लोलुपता भविष्यतीति ॥ ५३ ॥
क्योंकि तूने जान-बूझकर भी हमारे-जैसे तपस्वियोंके लिये अत्यन्त अभक्ष्य यह नरमांस मुझे खानेको दिया है इसलिये तेरी इसीमें लोलुपता होगी [अर्थात् तू राक्षस हो जायगा] ॥ ५३ ॥

अनन्तरं च तेनापि भगवतैवाभिहितोस्मीत्युक्ते किं किं मयाभहितमिति मुनिः पुनरपि समाधौ तस्थौ ॥ ५४ ॥
तदनन्तर राजाके यह कहनेपर कि 'भगवन् ! आपहीने ऐसी आज्ञा की थी,' वसिष्ठजी यह कहते हुए कि क्या मैंने ही ऐसा कहा था ?' फिर समाधिस्थ हो गये ॥ ५४ ॥

समाधिविज्ञानावगतार्थश्चानुग्रहं तस्मै चकार नात्यन्तिकमेतद्‍द्वादशाब्दं तव भोजनं भविष्यतीति ॥ ५५ ॥
समाधिद्वारा यथार्थ बात जानकर उन्होंने राजापर अनुग्रह करते हुए कहा-"तू अधिक दिन नरमांस भोजन न करेगा, केवल बारह वर्ष ही तुझे ऐसा करना होगा" ॥ ५५ ॥

असावपि प्रतिगृह्योदकाञ्जलिं मुनिशापप्रदानायोद्यतो भगवन्नयमस्मद्‍गुरुर्नार्हस्येनं कुलदेवताभूतमाचार्यं शप्तुमिति मदयन्त्या स्वपत्‍न्या प्रसादितःसस्याम्बुदरक्षणार्थं तच्छापाम्बु नोर्व्यां न चाकाशे चिक्षेप किं तु तेनैव स्वपदौ सिषेच ॥ ५६ ॥
वसिष्ठजीके ऐसा कहनेपर राजा सौदास भी अपनी अंजलिमें जल लेकर मुनीश्वरको शाप देनेके लिये उद्यत हुआ । किन्तु अपनी पत्नी मदयन्तीद्वारा भगवन् ! ये हमारे कुलगुरु हैं, इन कुलदेवरूप आचार्यको शाप देना उचित नहीं है'-ऐसा कहे जानेसे शान्त हो गया तथा अन्न और मेघकी रक्षाके कारण उस शाप-जलको पृथिवी या आकाशमें नहीं फेंका, बल्कि उससे अपने पैरोंको ही भिगो लिया ॥ ५६ ॥

तेन च क्वोधाश्रितेनाम्बुना दग्धच्छायौ तत्पादौ कल्माषतामुपगतौ ततःस कल्माषपादसंज्ञामवाप ॥ ५७ ॥
उस क्रोधयुक्त जलसे उसके पैर झुलसकर कल्माषवर्ण (चितकबरे) हो गये । तभीसे उनका नाम कल्माषपाद हुआ ॥ ५७ ॥

वसिष्ठशापाच्च षष्ठे षष्ठे काले राक्षसस्वभावमेत्याटव्यां पर्यटन्ननेकशो मानुषानभक्षयत् ॥ ५८ ॥
तथा वसिष्ठजीके शापके प्रभावसे छठे कालमें अर्थात् तीसरे दिनके अन्तिम भागमें वह राक्षस-स्वभाव धारणकर वनमें घूमते हुए अनेकों मनुष्यों को खाने लगा ॥ ५८ ॥

एकदा तु कञ्चिन्मुनिमृतुकाले भार्यासङ्‍गतं ददर्श ॥ ५९ ॥
एक दिन उसने एक मुनीश्वरको ऋतुकालके समय अपनी भार्यासे संगम करते देखा ॥ ५९ ॥

तयोश्च तमतिभीषणं राक्षसस्वरूपमवलोक्य त्रासाद्दम्पत्योः प्रधावितयोर्ब्रह्मणं जग्रह ॥ ६० ॥
उस अति भीषण राक्षस-रूपको देखकर भयसे भागते हुए उन दम्पत्तियों से उसने ब्राह्मणको पकड़ लिया ॥ ६० ॥

ततःसा ब्रह्मणी बहुशस्तमभियाचितवती ॥ ६१ ॥
प्रसीदेक्ष्वाकुकुलतिलकभूतस्त्वं महाराजो मियत्रसहो न राक्षसः ॥ ६२ ॥
तब ब्राह्मणीने उससे नाना प्रकारसे प्रार्थना की और कहा"हे राजन् । प्रसन्न होइये । आप राक्षस नहीं हैं बल्कि इक्ष्वाकुकुलतिलक महाराज मित्रसह हैं ॥ ६१-६२ ॥

नार्हसि स्त्रीधर्मसुखाभिज्ञो मय्यकृतार्थायामस्मद्‍भर्तारं हन्तुमित्येवं बहुप्रकारं विलपन्त्यां व्याघ्रः पशुमिवारण्येऽभिमतं तं ब्राह्मणमभक्षयत् ॥ ६३ ॥
आप स्त्री-संयोगके सुखको जाननेवाले हैं; मैं अतृप्त हूँ, मेरे पतिको मारना आपको उचित नहीं है । ' इस प्रकार उसके नाना प्रकारसे विलाप करनेपर भी उसने उस ब्राह्मणको इस प्रकार भक्षण कर लिया जैसे बाघ अपने अभिमत पशुको वनमें पकड़कर खा जाता है । ६३ ॥

ततश्चातिकोपसमन्विता ब्राह्मणी तं राजानं शशाप ॥ ६४ ॥
तब ब्राह्मणीने अत्यन्त क्रोधित होकर राजाको शाप दिया- ॥ ६४ ॥

यस्मादेवं मय्यतृप्तायां त्वयायं मत्पतिर्भक्षितः तस्मात्त्वमपि कामोपभोगप्रवृत्तोऽन्तं प्राप्स्यसीति ॥ ६५ ॥
'अरे ! तूने मेरे अतृप्त रहते हुए भी इस प्रकार मेरे पतिको खा लिया, इसलिये कामोपभोगमें प्रवृत्त होते ही तेरा अन्त हो जायगा' ॥ ६५ ॥

शप्त्वा चैव साग्निं प्रविवेश ॥ ६६ ॥
इस प्रकार शाप देकर वह अग्निमें प्रविष्ट हो गयी ॥ ६६ ॥

ततस्तस्य द्वादशाब्दपर्यये विमुक्तशापस्य स्त्रीविषयाभिलाषिणो मदयन्ती तं स्मारयामास ॥ ६७ ॥
तदनन्तर बारह वर्षके अन्तमें शापमुक्त हो जानेपर एक दिन विषय-कामनामें प्रवृत्त होनेपर रानी मदयन्तीने उसे ब्राह्मणीके शापका स्मरण करा दिया ॥ ६७ ॥

ततः परमसौ स्त्रीभोगं तत्याज ॥ ६८ ॥
तभीसे राजाने स्त्री-सम्भोग त्याग दिया ॥ ६८ ॥

वसिष्ठश्चापुत्रेण राज्ञा पुत्रार्थमभ्यर्थितो मदयन्त्यां गर्भाधानं चकार ॥ ६९ ॥
पीछे पुत्रहीन राजाके प्रार्थना करनेपर वसिष्ठजीने मदयन्तीके गर्भाधान किया ॥ ६९ ॥

यदा च सप्तवर्षाण्यसौ गर्भेण जज्ञे ततस्तं गर्भमश्मना सा देवी जघान ॥ ७० ॥
जब उस गर्भने सात वर्ष व्यतीत होनेपर भी जन्म न लिया तो देवी मदयन्तीने उसपर पत्थरसे प्रहार किया ॥ ७० ॥

पुत्रश्चाजायत ॥ ७१ ॥
तस्य चाश्मक इत्येव नामाभवत् ॥ ७२ ॥
इससे उसी समय पुत्र उत्पन्न हुआ और उसका नाम अश्मक हुआ ॥ ७१-७२ ॥

अश्मस्य मूलको नाम पुत्रोऽभवत् ॥ ७३ ॥
अश्मकके मूलक नामक पुत्र हुआ ॥ ७३ ॥

योसौ निःक्षत्रे क्ष्मातलेऽस्मिन् क्रियमाणे स्त्रीभिर्विवस्त्रभिः परिवार्य रक्षितस्ततस्तं नारीकवचमुदाहरन्ति ॥ ७४ ॥
जब परशुरामजीद्वारा यह पृथिवीतल क्षत्रियहीन किया जा रहा था उस समय उस (मूलक)-को रक्षा वस्त्रहीना स्त्रियोंने घेरकर की थी, इससे उसे नारीकवच भी कहते हैं ॥ ७४ ॥

मूलकाद्दशरथस्तस्मादिलिविलस्ततश्च विश्वसहः ॥ ७५ ॥
तस्माच्च खट्वाङ्‍गो योऽसौ देवासुरसङ्‍ग्रामे देवैरभ्यर्थितोऽसुराञ्जघान ॥ ७६ ॥
मूलकके दशरथ, दशरथके इलिविल, इलिविलके विश्वसह और विश्वसहके खट्वांग नामक पुत्र हुआ, जिसने देवासुरसंग्राममें देवताओंके प्रार्थना करनेपर दैत्योंका वध किया था ॥ ७५-७६ ॥

स्वर्गे च कृतप्रियैर्देवैर्वरग्रहणाय चोदितः प्राह ॥ ७७ ॥
इस प्रकार स्वर्गमें देवताओंका प्रिय करनेसे उनके द्वारा वर माँगनेके लिये प्रेरित किये जानेपर उसने कहा- ॥ ७७ ॥

यद्यवश्यं वरो ग्राह्यस्तन्ममायुः कथ्यतामिति ॥ ७८ ॥
"यदि मुझे वर ग्रहण करना ही पड़ेगा तो आपलोग मेरी आयु बतलाइये" ॥ ७८ ॥

अनन्तरं च तैरुक्तं एकमुहूर्तप्रमाणं तवायुरित्युक्तोऽथाःस्खलितगतिना विमानेन लघिमगुणो मर्त्यलोकमागम्येदमाह ॥ ७९ ॥
तब देवताओंके यह कहनेपर कि तुम्हारी आयु केवल एक मुहूर्त और रही है वह [देवताओंके दिये हुए] एक अनवरुद्धगति विमानपर बैठकर बड़ी शीघ्रतासे मर्त्यलोकमें आया और कहने लगा- ॥ ७९ ॥

यथा न ब्राह्मणेभ्यः सकाशादात्मापि मे प्रियतरो न च स्व धर्मोल्लङ्‍घनं मया कदाचिदप्यनुष्ठितं न च सकलदेवमानुषपशुपक्षिवृक्षादिकेषु अच्युतव्यतिरेकवती दृष्टिर्ममाभूत् तथा तमेवं मुनिजनानुस्मृतं भगवन्तमस्खलितगतिः प्रापयेयमित्यशेषदेवगुरौ भगवत्यनिर्देश्यवपुषि सत्तामात्रात्मन्यात्मानं परमात्मनि वासुदेवाख्ये युयोज तत्रैव च लयमवाप ॥ ८० ॥
'यदि मुझे ब्राह्मणोंकी अपेक्षा कभी अपना आत्मा भी प्रियतर नहीं हुआ, यदि मैंने कभी स्वधर्मका उल्लंघन नहीं किया और सम्पूर्ण देव, मनुष्य, पशु, पक्षी और वृक्षादिमें श्रीअच्युतके अतिरिक्त मेरी अन्य दृष्टि नहीं हुई तो मैं निर्विघ्नतापूर्वक उन मुनिजनवन्दित प्रभुको प्राप्त होऊँ । ' ऐसा कहते हुए राजा खट्वांगने सम्पूर्ण देवताओंके गुरु, अकथनीयस्वरूप, सत्तामात्र शरीर, परमात्मा भगवान् वासुदेवमें अपना चित्त लगा दिया और उन्हींमें लीन हो गये ॥ ८० ॥

अत्रापि श्रूयते श्लोको गीतःसप्तर्षिभिः पुरा ।
खट्वाङ्‍गेन समो नान्यः कश्चिदुर्व्यां भविष्यति ॥ ८१ ॥
येन स्वर्गादिहागम्य मुहूर्तं प्राप्य जीवितम् ।
त्रयोऽभिसंहिता लोका बुद्ध्या सत्येन चैव हि ॥ ८२ ॥
इस विषयमें भी पूर्वकालमें सप्तर्षियोंद्वारा कहा हुआ श्लोक सुना जाता है । [उसमें कहा है-] 'खट्वांगके समान पृथिवीतलमें अन्य कोई भी राजा नहीं होगा, जिसने एक मुहूर्तमात्र जीवनके रहते ही स्वर्गलोकसे भूमण्डलमें आकर अपनी बुद्धिद्वारा तीनों लोकोंको सत्यस्वरूप भगवान् वासुदेवमय देखा' ॥ ८१-८२ ॥

खट्वाङ्‍गाद्दीर्घबाहुः पुत्रोऽभवत् ॥ ८३ ॥
ततो रघुरभवत् ॥ ८४ ॥
तस्मादप्यजः ॥ ८५ ॥
अजाद्दशरथः ॥ ८६ ॥
खट्वांगसे दीर्घबाहु नामक पुत्र हुआ । दीर्घबाहुसे रघु, रघुसे अज और अजसे दशरथने जन्म लिया ॥ ८३-८६ ॥

तस्यापि भगवानब्जनाभो जगतः स्थित्यर्थमात्मांशेन रामलक्ष्मणभरतशत्रुघ्नरूपेण चतुर्धा पुत्रत्वमायासीत् ॥ ८७ ॥
दशरथजीके भगवान् कमलनाभ जगत्की स्थितिके लिये अपने अंशोंसे राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न-इन चार रूपोंसे पुत्र-भावको प्राप्त हुए ॥ ८७ ॥

रामोपि बाल एव विश्वमित्रयागरक्षणाय गच्छंस्ताटकां जघान ॥ ८८ ॥
यज्ञे च मारीचमिषुवाताहतं समुद्रे चिक्षेप ॥ ८९ ॥
सुबाहुप्रमुखांश्च क्षयमनयत् ॥ ९० ॥
रामजीने बाल्यावस्थामें ही विश्वामित्रजीकी यज्ञरक्षाके लिये जाते हुए मार्गमें ही ताटका राक्षसीको मारा, फिर यज्ञशालामें पहुँचकर मारीचको बाणरूपी वायुसे आहत कर समुद्र में फेंक दिया और सुबाहु आदि राक्षसोंको नष्ट कर डाला ॥ ८८-९० ॥

दर्शनमात्रेणाहल्यामपापां चकार ॥ ९१ ॥
जनकगृहे च माहेश्वरं चापमनायासेन बभञ्ज ॥ ९२ ॥
सीतामयोनिजां जनकराजतनयां वीर्यशुल्कां लेभे ॥ ९३ ॥
उन्होंने अपने दर्शनमात्रसे अहल्याको निष्पाप किया, जनकजीके राजभवनमें बिना श्रम ही महादेवजीका धनुष तोड़ा और पुरुषार्थसे ही प्राप्त होनेवाली अयोनिजा जनकराजनन्दिनी श्रीसीताजीको पत्नीरूपसे प्राप्त किया ॥ ९१-९३ ॥

सकलक्षत्रियक्षयकारिणं अशेषहैहयकुलधूमकेतुभूतं च परशुराममपास्तवीर्यबलावलेपं चकार ॥ ९४ ॥
और तदनन्तर सम्पूर्ण क्षत्रियोंको नष्ट करनेवाले, समस्त हैहयकुलके लिये अग्निस्वरूप परशुरामजीके बल-वीर्यका गर्व नष्ट किया ॥ ९४ ॥

पितृवचनाच्चागणितराज्याभिलाषो भ्रातृभार्यासमेतो वनं प्रविवेश ॥ ९५ ॥
फिर पिताके वचनसे राज्यलक्ष्मीको कुछ भी न गिनकर भाई लक्ष्मण और धर्मपत्नी सीताके सहित वनमें चले गये ॥ ९५ ॥

विराधखरदूषणादीन् कबन्धवालिनौ च निजघान ॥ ९६ ॥
बद्धा चाम्भोनिधिमशेषराक्षसकुलक्षयं कृत्वा दशाननापहृतां भार्यं तद्वधादपहृतकलङ्‍कामपि अनलप्रवेशशुद्धामशेषदेवसङ्‍घैः स्तूयमानशीलां जनकराजकन्यामयोध्यामानिन्ये ॥ ९७ ॥
वहाँ विराध, खर, दूषण आदि राक्षस तथा कबन्ध और वालीका वध किया और समुद्रपर पुल बाँधकर सम्पूर्ण राक्षसकुलका विध्वंस किया तथा रावणद्वारा हरी हुई और उसके वधसे कलंकहीना होनेपर भी अग्निप्रवेशसे शुद्ध हुई समस्त देवगणोंसे प्रशंसित स्वभाववाली अपनी भार्या जनकराजकन्या सीताको अयोध्या ले आये ॥ ९६-९७ ॥

ततश्चाभिषेकमङ्‍गलं मैत्रेय वर्षशतेनापि वक्तुं न शक्यते संक्षेपेण श्रूयताम् ॥ ९८ ॥
हे मैत्रेय ! उस समय उनके राज्याभिषेकजैसा मंगल हुआ उसका तो सौ वर्षमें भी वर्णन नहीं किया जा सकता; तथापि संक्षेपसे सुनो । ९८ ॥

लक्ष्मणभरतशत्रुघ्न विभीषणसुग्रीवाङ्‍गदजाम्बवद् हनुमत्प्रभृतिभिः समुत्फुल्लवदनैश्छत्रचामरादियुतैः सेव्यमानो दाशरथिर्ब्रह्मेन्द्राग्नि यमनिर्ऋतिवरुणवायुकुबेरेशानप्रभृतिभिः सर्वामरैः वसिष्ठवामदेववाल्मीकि मार्कण्डेयविश्वामित्रभरद्वाजागस्तयप्रभृतिभिः मुनिवरैः ऋग्यजुसामाथर्वभिः संस्तूयमानो नृत्यगीतवाद्यादि अखिललोकमङ्‍गलवाद्यैः वीणावेणुमृदङ्‍गभेरीपटह शङ्‍खकाहलगोमुखप्रभृतिभिः सुनादैः समस्तभूभृतां मध्ये सकललोकरक्षार्थं यथोचितमभिषिक्तो दाशरथिः कोसलेन्द्रो रघुकुलतिलको जानकीप्रियो भ्रातृत्रयप्रियः सिंहासनगत एकादशाब्दसहस्रं राज्यमकरोत् ॥ ९९ ॥
दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्रजी प्रसन्नवदन लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, विभीषण, सुग्रीव, अंगद, जाम्बवान् और हनुमान् आदिसे छत्र-चामरादिद्वारा सेवित हो, ब्रह्मा, इन्द्र, अग्नि, यम, निति, वरुण, वायु, कुबेर और ईशान आदि सम्पूर्ण देवगण, वसिष्ठ, वामदेव, वाल्मीकि, मार्कण्डेय, विश्वामित्र, भरद्वाज और अगस्त्य आदि मुनिजन तथा ऋक्, यजुः, साम और अधर्ववेदोंसे स्तुति किये जाते हुए तथा नृत्य, गीत, वाद्य आदि सम्पूर्ण मंगलसामग्रियोंसहित वीणा, वेणु, मृदंग, भेरी, पटह, शंख, काहल और गोमुख आदि बाजोंके घोषके साथ समस्त राजाओंके मध्यमें सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षाके लिये विधिपूर्वक अभिषिक्त हुए । इस प्रकार दशरथकुमार कोसलाधिपति, रघुकुलतिलक, जानकीवल्लभ, तीनों भ्राताओंके प्रिय श्रीरामचन्द्रजीने सिंहासनारूढ़ होकर ग्यारह हजार वर्ष राज्य-शासन किया ॥ ९९ ॥

भरतोऽपि गन्धर्वविषयसाधनाय गच्छन् सङ्‍ग्रामे गन्धर्वकोटीस्तिस्त्रो जघान ॥ १०० ॥
शत्रुघ्नेनाप्यमितबलपराक्रमो मधुपुत्रो लवणो नाम राभसो निहातो मथुरा च निवेशिता ॥ १०१ ॥
भरतजीने भी गन्धर्वलोकको जीतनेके लिये जाकर युद्धमें तीन करोड़ गन्धर्वोका वध किया और शत्रुघ्नजीने भी अतुलित बलशाली महापराक्रमी मधुपुत्र लवण राक्षसका संहार किया और मथुरा नामक नगरकी स्थापना की ॥ १००-१०१ ॥

इत्येवमाद्यतिबलपराक्रमविक्रमणैः अतिदुष्टसंहारिणोऽशेषस्य जगतो निष्पादितस्थितयो रामलक्षमण भरतशत्रुघ्नाः पुनरपि दिवमारूढाः ॥ १०२ ॥
इस प्रकार अपने अतिशय बल-पराक्रमसे महान् दुष्टोंको नष्ट करनेवाले भगवान् राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न सम्पूर्ण जगत्की यथोचित व्यवस्था करनेके अनन्तर फिर स्वर्गलोकको पधारे ॥ १०२ ॥

येऽपि तेषु भगवदंशेष्वनुरागिणः कोसलनगरजानपदास्तेऽपि तन्मनसस्तत्सालोक्यतामवापुः ॥ १०३ ॥
उनके साथ ही जो अयोध्यानिवासी उन भगवर्दशस्वरूपोंके अतिशय अनुरागी थे उन्होंने भी तन्मय होनेके कारण सालोक्य-मुक्ति प्राप्त की ॥ १०३ ॥

अतिदुष्टसंहारिणो रामस्य कुशलवो द्वौ पुत्रौ लक्ष्मणस्य अङ्‍गदचन्द्रकेतू तक्षपुष्कलौ भरतस्य सुबाहुशुरसेनौ शत्रुघ्नस्य ॥ १०४ ॥
दुष्ट-दलन भगवान् रामके कुश और लव नामक दो पुत्र हुए । इसी प्रकार लक्ष्मणजीके अंगद और चन्द्रकेतु, भरतजीके तक्ष और पुष्कल तथा शत्रुघ्नजीके सुबाहु और शूरसेन नामक पुत्र हुए ॥ १०४ ॥

कुशस्यातिथिरतिथेरपि निषधः पुत्रोऽभूत् ॥ १०५ ॥
निषधस्याप्यनलस्तस्मादपि नभाः नभसः पुण्डरीकस्तत्तनयः क्षेमधन्वा तस्य च देवानीकस्तस्याप्यहीनकोऽहीनकस्यापि रुरुस्तस्य च पारियात्रकः पारियात्रकाद्देवलो देवलाद्वच्चलः तस्याप्युत्कः उत्काच्च वज्रनाभः तस्माच्छङ्‍खणः तमाद्युषिताश्वस्ततश्च विश्वसहो जज्ञे ॥ १०६ ॥
कुशके अतिथि, अतिथिके निघध, निषधके अनल, अनलके नभ, नभके पुण्डरीक, पुण्डरीकके क्षेमधन्वा, क्षेमधन्वाके देवानीक, देवानीकके अहीनक, अहीनकके रुरु, रुरुके पारियात्रक, पारियात्रकके देवल, देवलके वच्चल, वच्चलके उत्क, उत्कके वज्रनाभ, वज्रनाभके शंखण, शंखणके युषिताश्व और युषिताश्वके विश्वसह नामक पुत्र हुआ ॥ १०५-१०६ ॥

तस्माद्धिरण्यनाभः यो महायोगीश्वराज्जैमिनेः शिष्याद्याज्ञवल्क्याद्योगमवाप ॥ १०७ ॥
विश्वसहके हिरण्यनाभ नामक पुत्र हुआ जिसने जैमिनिके शिष्य महायोगीश्वर याज्ञवल्क्यजीसे योगविद्या प्राप्त की थी ॥ १०७ ॥

हिरण्यनाभस्य पुत्रः पुष्यस्तस्माद् ध्रुवसन्धिस्ततःसुदर्शनः तस्मादग्निवर्णस्ततः शीघ्रगस्तस्मादपि मरुः पुत्रोऽभवत् ॥ १०८ ॥
योऽसौ योगमास्थायाद्यापि कलापग्राममाश्रित्य तिष्ठति ॥ १०९ ॥
हिरण्यनाभका पुत्र पुष्य था, उसका ध्रुवसन्धि, ध्रुवसन्धिका सुदर्शन, सुदर्शनका अग्निवर्ण, अग्निवर्णका शीघ्रग तथा शीघ्रगका पुत्र मरु हुआ जो इस समय भी योगाभ्यासमें तत्पर हुआ कलापग्राममें स्थित है ॥ १०८-१०९ ॥

आगामियुगे सूर्यवंशक्षत्रप्रवर्तयिता भविष्यति ॥ ११० ॥
आगामी युगमें यह सूर्यवंशीय क्षत्रियोंका प्रवर्तक होगा ॥ ११० ॥

तस्यात्मजः प्रसुश्रुतस्तस्यापि सुसन्धिस्ततश्चाप्यमर्षस्तस्य च सहस्वांस्ततश्च विश्वभवः ॥ १११ ॥
तस्य बृहद्‍बलः योऽर्जुनतनयेनाभिमन्युनाभारतयुद्धे क्षयमनीयत ॥ ११२ ॥
मरुका पुत्र प्रसुश्रुत, प्रसुश्रुतका सुसन्धि, सुसन्धिका अमर्ष, अमर्षका सहस्वान् , सहस्वान्का विश्वभव तथा विश्वभवका पुत्र वृद्धल हुआ जिसको भारत युद्ध में अर्जुनके पुत्र अभिमन्युने मारा था ॥ १११-११२ ॥

एते इक्ष्वाकुभूपालाः प्राधान्येन मयेरिताः ।
एतेषां चरितं शृण्वन् सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ११३ ॥
इस प्रकार मैंने यह इक्ष्वाकुकुलके प्रधान-प्रधान राजाओंका वर्णन किया । इनका चरित्र सुननेसे मनुष्य सकल पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ११३ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे चतुर्थेंऽशे चतुर्थोऽध्यायः (४)
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥



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