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॥ विष्णुपुराणम् ॥

चतुर्थः अंशः

॥ तृतीयोऽध्यायः ॥

अतश्च मान्धातुः पुत्रसन्ततिरभिधीयते ॥ १ ॥
अब हम मान्धाताके पुत्रोंको सन्तानका वर्णन करते हैं ॥ १ ॥

अम्बरीषस्य मान्धातृतनयस्य युवनाश्वः पुत्रोऽभूत् ॥ २ ॥
मान्धाताके पुत्र अम्बरीषके युवनाश्व नामक पुत्र हुआ ॥ २ ॥

तस्माद्धारीतः यतोऽङ्‌‍गिरसो हारीताः ॥ ३ ॥
उससे हारीत हुआ जिससे अंगिरा-गोत्रीय हारीतगण हुए ॥ ३ ॥

रसातले मौनेया नाम गन्धर्वा बभूवुःषट्कोटिसंख्यातास्तैरशेषाणि नागकुलान्यपहृतप्रधानरत्‍नाधिपत्यान्यक्रियन्त ॥ ४ ॥
पूर्वकालमें रसातलमें मौनेय नामक छ: करोड़ गन्धर्व रहते थे । उन्होंने समस्त नागकुलोंके प्रधान-प्रधान रत्न और अधिकार छीन लिये थे ॥ ४ ॥

तैश्च गन्धर्ववीर्यावधूतैरुरगेश्वरैः स्तूयमानो भगवानशेषदेवेशः स्तवच्छ्रवणोन्मीलितोन्निद्रपुण्डरीकनयनो जलशयनो निद्रावसानात् प्रबुद्धः प्रणिपत्याभिहितः । भगवन्नस्माकमेतेभ्यो गन्धर्वेभ्यो भयमुत्पन्नं कथमुपशममेष्यतीति ॥ ५ ॥
गन्धर्वोके पराक्रमसे अपमानित उन नागेश्वरीद्वारा स्तुति किये जानेपर उसके श्रवण करनेसे जिनकी विकसित कमलसदृश आँखें खुल गयी हैं निद्राके अन्तमें जगे हुए उन जलशायी भगवान् सर्वदेवेश्वरको प्रणाम कर उनसे नागगणने कहा-"भगवन् ! इन गन्धर्वोसे उत्पन्न हुआ हमारा भय किस प्रकार शान्त होगा ?" ॥ ५ ॥

आह च भगवाननादिनिधनपुरुषोत्तमो योऽसौ यौवनाश्वस्य मान्धातुः पुरुकुत्सनामा पुत्रस्तमहामनुप्रविश्य तानशेषान् दुष्टगन्धर्वानुपशमं नयिष्यामीति ॥ ६ ॥
तब आदि-अन्तरहित भगवान् पुरुषोत्तमने कहा-'युवनाश्वके पुत्र मान्धाताका जो यह पुरुकुत्स नामक पुत्र है उसमें प्रविष्ट होकर मैं उन सम्पूर्ण दुष्ट गन्धर्वोका नाश कर दूंगा' ॥ ६ ॥

तदाकर्ण्य भगवते जलशायिने कृतप्रणामाः पुनर्नागलोकमागताः पन्नगाधिपतयो नर्मदां च पुरुकुत्सानयनाय चोदयामासुः ॥ ७ ॥
यह सुनकर भगवान् जलशायीको प्रणाम कर समस्त नागाधिपतिगण नागलोकमें लौट आये और पुरुकुत्सको लानेके लिये [अपनी बहिन एवं पुरुकुत्सकी भार्या] नर्मदाको प्रेरित किया ॥ ७ ॥

सा चैनं रसातलं नीतवती ॥ ८ ॥
तदनन्तर नर्मदा पुरुकुत्सको रसातलमें ले आयी ॥ ८ ॥

रसातलगतश्चासौ भगवत्तेजसाप्यायितात्मवीर्यःसकलगन्धर्वान्निजघान ॥ ९ ॥
पुनश्च स्वपुरमाजगाम ॥ १० ॥
रसातलमें पहुँचनेपर पुरुकुत्सने भगवान्के तेजसे अपने शरीरका बल बढ़ जानेसे सम्पूर्ण गन्धर्वोको मार डाला और फिर अपने नगरमें लौट आया ॥ ९-१० ॥

सकलपन्नगाधिपतयश्च नर्मदायै वरं ददुः ।
यस्तेऽनुस्मरणसमवेतं नामग्रहणं करिष्यति न तस्य सर्पविषभयं भविष्यतीति ॥ ११ ॥
उस समय समस्त नागराजोंने नर्मदाको यह वर दिया कि जो कोई तेरा स्मरण करते हुए तेरा नाम लेगा उसको सर्प-विषसे कोई भय न होगा ॥ ११ ॥

अत्र च श्लोकः ॥ १२ ॥
इस विषयमें यह श्लोक भी है- ॥ १२ ॥

नर्मदायै नमः प्रातर्नर्मदायै नमो निशि ।
नमोऽस्तु नर्मदे तुभ्यं त्राहि मां विषसर्पतः ॥ १३ ॥
'नर्मदाको प्रात:काल नमस्कार है और रात्रिकालमें भी नर्मदाको नमस्कार है । हे नर्मदे ! तुमको बारम्बार नमस्कार है, तुम मेरी विष और सर्पसे रक्षा करो' ॥ १३ ॥

इत्युच्चार्याहर्निशमन्धकारप्रवेशे वा सर्पैर्न दश्यते न चापि कृतानुस्मरणभुजो विषमपि भुक्तमुपघाताय भवति ॥ १४ ॥
इसका उच्चारण करते हुए दिन अथवा रात्रिमें किसी समय भी अन्धकारमें जानेसे सर्प नहीं काटता तथा इसका स्मरण करके भोजन करनेवालेका खाया हुआ विष भी घातक नहीं होता ॥ १४ ॥

पुरुकुत्साय सन्ततिविच्छेदो न भविष्यतीत्युरगपतयो परं ददुः ॥ १५ ॥
पुरुकुत्सको नागपतियोंने यह वर दिया कि तुम्हारी सन्तानका कभी अन्त न होगा ॥ १५ ॥

पुरुकुत्सो नर्मदायां त्रसद्दस्युमजीजनत् ॥ १६ ॥
पुरुकुत्सने नर्मदासे त्रसदस्यु नामक पुत्र उत्पन्न किया ॥ १६ ॥

त्रसद्दस्युतःसम्भूतोऽनरण्यः, यं रावणोदिग्विजये जघान ॥ १७ ॥
सहस्युसे अनरण्य हुआ, जिसे दिग्विजयके समय रावणने मारा था ॥ १७ ॥

अनरण्यस्य पृषटश्वः पृषदश्वस्य हर्यश्वः पुत्रोऽभवत् ॥ १८ ॥
तस्य च हस्तः पुत्रोऽभवत् ॥ १९ ॥
ततश्च सुमनास्तस्यापि त्रिधन्वा त्रिधन्वनस्त्रय्यारुणिः ॥ २० ॥
त्रय्यारुणेःसत्यव्रतः योऽसौ त्रिशङ्‍कुसंज्ञामवाप ॥ २१ ॥
अनरण्यके पृषदश्व, पृषदश्वके हर्यश्च, हर्यश्वके हस्त, हस्तके सुमना, सुमनाके त्रिधन्वा, त्रिधन्वाके त्रय्यारुणि और त्रय्यारुणिके सत्यव्रत नामक पुत्र हुआ, जो पीछे त्रिशंकु कहलाया ॥ १८-२१ ॥

स चण्डालतामुपगतश्च ॥ २२ ॥
वह त्रिशंकु चाण्डाल हो गया था ॥ २२ ॥

द्वादशवर्षिक्यामनावृष्ट्यां विश्वामित्रकलत्रापत्यपोषणार्थं चण्डालप्रतिग्रहपरिहरणाय च जाह्नवीतीरन्यग्रोधे मृगमांसमनुदिनं बबन्ध ॥ २३ ॥
एक बार बारह वर्षतक अनावृष्टि रही । उस समय विश्वामित्र मुनिके स्त्री और बाल-बच्चोंके पोषणार्थ तथा अपनी चाण्डालताको छुड़ानेके लिये वह गंगाजीके तटपर एक वटके वृक्षपर प्रतिदिन मृगका मांस बाँध आता था ॥ २३ ॥

स तु परितुष्टेन विश्वामित्रेण सशरीरःस्वर्गमारोपितः ॥ २४ ॥
इससे प्रसन्न होकर विश्वामित्रजीने उसे सदेह स्वर्ग भेज दिया ॥ २४ ॥

त्रिशङ्‍कोर्हरिश्चन्द्रस्तस्माच्च रोहिताश्वस्ततश्च हरितो हरितस्य चञ्चुश्चञ्चोर्विजयवसुदेवौ रुरुको विजयाद्‌रुकस्य वृकः ॥ २५ ॥
त्रिशंकुसे हरिश्चन्द्र, हरिश्चन्द्रसे रोहिताश्व, रोहिताश्वसे हरित, हरितसे चंचु, चंचुसे विजय और वसुदेव, विजयसे रुरुक और रुरुकसे वृकका जन्म हुआ ॥ २५ ॥

ततो वृकस्य बाहुः योऽसौ हैहयतालजङ्‍घादिभिः पराजितोऽन्तर्वत्‍न्या महिष्या सह वनं प्रविवेश ॥ २६ ॥
वृकके बहु नामक पुत्र हुआ जो हैहय और तालजंघ आदि क्षत्रियोंसे पराजित होकर अपनी गर्भवती पटरानीके सहित वनमें चला गया था ॥ २६ ॥

तस्याश्च सपत्‍न्या गर्भस्तम्भनाय गरो दत्तः ॥ २७ ॥
पटरानीकी सौतने उसका गर्भ रोकनेकी इच्छासे उसे विष खिला दिया ॥ २७ ॥

तेनास्य गर्भःसप्तवर्षाणि जठर एव तस्थौ ॥ २८ ॥
उसके प्रभावसे उसका गर्भ सात वर्षतक गर्भाशयहीमें रहा ॥ २८ ॥

स च बाहुर्वृद्धभावादौर्वाश्रमसमीपे ममार ॥ २९ ॥
अन्त में, बाहु वृद्धावस्थाके कारण और्व मुनिके आश्रमके समीप मर गया ॥ २९ ॥

सा तस्य भार्या चितां कृत्वा तमारोप्यानुमरणकृतनिश्चयाऽभूत् ॥ ३० ॥
तब उसकी पटरानीने चिता बनाकर उसपर पतिका शव स्थापित कर उसके साथ सती होनेका निश्चय किया ॥ ३० ॥

अथैतामतीतानागतवर्तमानकालत्रयवेदी भगवानौर्वःस्वाश्रमान्निर्गत्याब्रवीत् ॥ ३१ ॥
उसी समय भूत,भविष्यत् और वर्तमान तीनों कालके जाननेवाले भगवान् और्वने अपने आश्रमसे निकलकर उससे कहा- ॥ ३१ ॥

अलमलमनेनासद्‍ग्राहेणाखिलभूमण्डलपतिरतिवीर्यपराक्रमो नैकयज्ञकृदरातिपक्षक्षयकर्ता तवोदरे चक्रवर्ती तिष्ठति ॥ ३२ ॥
अयि साध्वि ! इस व्यर्थ दुराग्रहको छोड़ा तेरे उदरमें सम्पूर्ण भूमण्डलका स्वामी, अत्यन्त बल-पराक्रमशील, अनेक यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाला और शत्रुओंका नाश करनेवाला चक्रवर्ती राजा है ॥ ३२ ॥

नैवमतिसाहसाध्यवसायिनी भवती भवत्वित्युक्ता सा तस्मादनुमरणनिर्बन्धाद्विरराम ॥ ३३ ॥
तू ऐसे दुस्साहसका उद्योग न कर । ' ऐसा कहे जानेपर वह अनुमरण (सती होने)-के आग्रहसे विरत हो गयी ॥ ३३ ॥

तेनैव च भगवता स्वाश्रममानीता ॥ ३४ ॥
और भगवान् और्व उसे अपने आश्रमपर ले आये ॥ ३४ ॥

तत्र कतिपयदिनाभ्यन्तरे च सहैव तेन गरेणाति तेजस्वी बालको जज्ञे ॥ ३५ ॥
वहाँ कुछ ही दिनोंमें, उसके उस गर (विष) के साथ ही एक अति तेजस्वी बालकने जन्म लिया ॥ ३५ ॥

तस्यौर्वो जातकर्मादिक्रिया निष्पाद्य सगर इति नाम चकार ॥ ३६ ॥
कृतोपनयनं चैनमौर्वो वेदशास्त्राण्यस्त्रं चाग्नेयं भार्गवाख्यमध्यापयामास ॥ ३७ ॥
भगवान् और्वने उसके जातकर्म आदि संस्कार कर उसका नाम 'सगर' रखा तथा उसका उपनयनसंस्कार होनेपर और्वने ही उसे वेद, शास्त्र एवं भार्गव नामक आग्नेय शस्त्रोंको शिक्षा दी ॥ ३६-३७ ॥

उत्पन्नबुद्धिश्च मातरमब्रवीत् ॥ ३८ ॥
बुद्धिका विकास होनेपर उस बालकने अपनी मातासे कहा- ॥ ३८ ॥

अम्ब कथमत्र वयं क्व वा तातोऽस्माकमित्येवमादिपृच्छन्तं माता सर्वमेवावोचत् ॥ ३९ ॥
"माँ ! यह तो बता, इस तपोवनमें हम क्यों रहते हैं और हमारे पिता कहाँ हैं ?" इसी प्रकारके और भी प्रश्न पूछनेपर माताने उससे सम्पूर्ण वृत्तान्त कह दिया ॥ ३९ ॥

ततश्च पितृराज्यपहरणादमर्षितो हैहयतालजङ्‍घादिवधाय प्रतिज्ञामकरोत् ॥ ४० ॥
प्रायशश्च हैहयतालजङ्‍घाञ्जघान ॥ ४१ ॥
तब तो पिताके राज्यापहरणको सहन न कर सकनेके कारण उसने हैहय और तालजंध आदि क्षत्रियोंको मार डालनेकी प्रतिज्ञा की और प्रायः सभी हैहय एवं तालजयवंशीय राजाओंको नष्ट कर दिया ॥ ४०-४१ ॥

शकयवनकाम्बोजपारदपह्लवाः हन्यमानास्तत्कुलगुरुं वसिष्ठं शरणं जग्मुः ॥ ४२ ॥
उनके पश्चात् शक, यवन, काम्बोज, पारद और पलवगण भी हताहत होकर सगरके कुलगुरु वसिष्ठजीकी शरणमें गये ॥ ४२ ॥

अथैनान्वसिष्ठो जीवनमृतकान् कृत्वा सगरमाह ॥ ४३ ॥
वसिष्ठजीने उन्हें जीवन्मृत (जीते हुए ही मरेके समान) करके सगरसे कहा ॥ ४३ ॥

वत्सालमेभिर्जीवन्मृतकैरनुसृतैः ॥ ४४ ॥
"बेटा ! इन जीते-जी मरे हुओंका पीछा करनेसे क्या लाभ है ?" ॥ ४४ ॥

एते च मयैव त्वत्प्रतिज्ञापरिपालनाय निजधर्मद्विजसङ्‍गपरित्यागं कारिताः ॥ ४५ ॥
"देख, तेरी प्रतिज्ञाको पूर्ण करनेके लिये मैंने ही इन्हें स्वधर्म और द्विजातियोंके संसर्गसे वंचित कर दिया है" ॥ ४५ ॥

तथेति तद्‍गुरुवचनभिनन्द्य तेषां वेषान्यत्वमकारयत् ॥ ४६ ॥
राजाने जो आज्ञा' कहकर गुरुजीके कथनका अनुमोदन किया और उनके वेष बदलवा दिये ॥ ४६ ॥

यवनान्मुण्डितशिरसोऽर्धमुण्डिताञ्च्छकान् प्रलम्बकेशान् पारदान् पह्लवाञ्श्मश्रुधरान् निःस्वाध्यायवषट्कारानेतानन्यांश्च क्षत्रियांश्चकार ॥ ४७ ॥
उसने यवनोंके सिर मुड़वा दिये, शकोंको अर्द्धमुण्डित कर दिया, पारदोंके लम्बे-लम्बे केश रखवा दिये, पहवोंके मूंछ-दाढ़ी रखवा दी तथा इनको और इनके समान अन्यान्य क्षत्रियोंको भी स्वाध्याय और वषट्कारादिसे बहिष्कृत कर दिया ॥ ४७ ॥

एते चात्मधर्मपरित्यागाद्‍बाह्मणैः परित्यक्ता म्लेच्छतां ययुः ॥ ४८ ॥
अपने धर्मको छोड़ देनेके कारण ब्राह्मणोंने भी इनका परित्याग कर दिया; अत: ये म्लेच्छ हो गये ॥ ४८ ॥

सगरोपि स्वमधिष्ठानमागम्यास्खलितचक्रःसप्तद्वीपवतीमिमामुर्वीं प्रशशास ॥ ४९ ॥
तदनन्तर महाराज सगर अपनी राजधानीमें आकर अप्रतिहत सैन्यसे युक्त हो । इस सम्पूर्ण सप्तद्वीपवती पृथिवीका शासन करने लगे ॥ ४९ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणेचतुर्थेंऽशे तृतीयोऽध्यायः (३)
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥



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