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॥ विष्णुपुराणम् ॥

चतुर्थः अंशः

॥ षष्ठोऽध्यायः ॥

मैत्रेय उवाच
सूर्यस्य वंश्या भगवन्कथिता भवता मम ।
सोमस्याप्यखिलान्वश्याञ्छ्रोतुमिच्छामि पार्थिवान् ॥ १ ॥
कीर्त्यते स्थिरकीर्तीनां येषामद्यापि सन्ततिः ।
प्रसादसुमुखस्तान्मे ब्रह्मन्नाख्यातुमर्हसि ॥ २ ॥
मैत्रेयजी बोले-भगवन् ! आपने सूर्यवंशीय राजाओंका वर्णन तो कर दिया, अब मैं सम्पूर्ण चन्द्रवंशीय भूपतियोंका वृत्तान्त भी सुनना चाहता हूँ । जिन स्थिरकीर्ति महाराजोंकी सन्ततिका सुयश आज भी गान किया जाता है, हे ब्रह्मन् ! प्रसन्न-मुखसे आप उन्हींका वर्णन मुझसे कीजिये ॥ १-२ ॥

श्रीपराशर उवाच
श्रूयतां मुनिशार्दूल वंशः प्रतिथतेजसः ।
सोमस्यानुक्रमात्ख्याता यत्रोर्वीपतयोऽभवन् ॥ ३ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मुनिशार्दूल ! परम तेजस्वी चन्द्रमाके वंशका क्रमशः श्रवण करो जिसमें अनेकों विख्यात राजालोग हुए हैं ॥ ३ ॥

अयं हि वंशोतिबलपराक्रमद्युतिशीलचेष्टवद्‍‌भिः अतिगुणान्वितैर्नहुषययातिकार्तवीर्यार्जुनादिभिः भूपालैरलङ्‍कृतस्तमहं कथयामि श्रूयताम् ॥ ४ ॥
यह वंश नहुष, ययाति, कार्तवीर्य और अर्जुन आदि अनेकों अति बल-पराक्रमशील, कान्तिमान् , क्रियावान् और सद्‌गुणसम्पन्न राजाओंसे अलंकृत हुआ है । सुनो, मैं उसका वर्णन करता हूँ ॥ ४ ॥

अखिलजगत्स्त्रष्टुर्भगवतो नारायणस्य नाभिकलोज समुद्‍भवाब्जयोनेर्ब्रह्मणः पुत्रोऽत्रिः ॥ ५ ॥
सम्पूर्ण जगत्के रचयिता भगवान् नारायणके नाभि-कमलसे उत्पन्न हुए भगवान् ब्रह्माजीके पुत्र अत्रि प्रजापति थे ॥ ५ ॥

अत्रेःसोमः ॥ ६ ॥
इन अत्रिके पुत्र चन्द्रमा हुए ॥ ६ ॥

तं च भगवानब्जयोनिः अशेषौषधीद्विजनक्षत्राणां आधिपत्येऽभ्यषेचयत् ॥ ७ ॥
कमल-योनि भगवान् ब्रह्माजीने उन्हें सम्पूर्ण औषधि, द्विजजन और नक्षत्रगणके आधिपत्यपर अभिषिक्त कर दिया था ॥ ७ ॥

स च राजसूयमकरोत् ॥ ८ ॥
चन्द्रमाने राजसूय-यज्ञका अनुष्ठान किया ॥ ८ ॥

तत्प्रभावादत्युत्कृष्ट अधिपत्याधिष्ठातृत्वाच्चैनं मद आविवेश ॥ ९ ॥
अपने प्रभाव और अति उत्कृष्ट आधिपत्यके अधिकारी होनेसे चन्द्रमापर राजमद सवार हुआ ॥ ९ ॥

मदावलेपाच्च सकलदेवगुरोर्बृस्पतेस्तारां नाम पत्‍नीं जहार ॥ १० ॥
तब मदोन्मत्त हो जानेके कारण उसने समस्त देवताओंके गुरु भगवान् बृहस्पतिजीकी भायाँ ताराको हरण कर लिया ॥ १० ॥

बहुशश्च बृहस्पतिचोदितेन भगवता ब्रह्मणा चोद्यमानसकलैश्च देवर्षिभिः याचमानोऽपि न मुमोच ॥ ११ ॥
तथा बृहस्पतिजीकी प्रेरणासे भगवान् ब्रह्माजीके बहुत कुछ कहने-सुनने और देवर्षियोंके माँगनेपर भी उसे न छोड़ा ॥ ११ ॥

तस्य चन्द्रस्य च बृहस्पतेर्द्वषादुशाना पार्ष्णिग्राहोऽभूत् ॥ १२ ॥
अङ्‍गीरसश्च सकाशादुपलब्धविद्यो भगवान्‌रुद्रो बृहस्पतेः सहाय्यमकरोत् ॥ १३ ॥
बृहस्पतिजीसे द्वेष करनेके कारण शक्रजी भी चन्द्रमाके सहायक हो गये और अंगिरासे विद्या-लाभ करनेके कारण भगवान् रुद्रने बृहस्पतिकी सहायता की [क्योंकि बृहस्पतिजी अंगिराके पुत्र हैं ॥ १२-१३ ॥

यतश्चोशना ततो जम्भकुम्भाद्याः समस्ता एव दैत्यदानवनिकाया महान्तमुद्यमं चक्रुः ॥ १४ ॥
जिस पक्षमें शुक्रजी थे उस ओरसे जम्भ और कुम्भ आदि समस्त दैत्य-दानवादिने भी [सहायता देनेमें] बड़ा उद्योग किया ॥ १४ ॥

बृहस्पतेरपि सकलदेवसैन्ययुतः सहायः शक्रोऽभवत् ॥ १५ ॥
तथा सकल देव-सेनाके सहित इन्द्र बृहस्पतिजीके सहायक हुए ॥ १५ ॥

एवं च तयोरतीवोग्रसङ्‍ग्रामः तारानिमित्तस्तारकामयो नामाभूत् ॥ १६ ॥
इस प्रकार ताराके लिये उनमें तारकामय नामक अत्यन्त घोर युद्ध छिड़ गया ॥ १६ ॥

ततश्च समस्तशस्त्राण्यसुरेषु रुद्रपुरोगमा देवा देवेषु चाशेषदानवा मुमुचुः ॥ १७ ॥
तब रुद्र आदि देवगण दानवोंके प्रति और दानवगण देवताओंके प्रति नाना प्रकारके शस्त्र छोड़ने लगे ॥ १७ ॥

एवं देवासुराहवसंक्षोभ क्षुब्धहृदयमशेषमेव जगद्‍ब्रह्माणं शरणं जगाम् ॥ १८ ॥
इस प्रकार देवासुर-संग्रामसे क्षुब्ध-चित्त हो सम्पूर्ण संसारने ब्रह्माजीकी शरण ली ॥ १८ ॥

ततश्च भगवानब्जयोनिरप्युशनसं शंकरमसुरान्देवांश्च निवार्य बृहस्पतये तारामदापयत् ॥ १९ ॥
तब भगवान् कमल-योनिने भी शुक्र, रुद्र, दानव और देवगणको युद्धसे निवृत्त कर बृहस्पतिजीको तारा दिलवा दी ॥ १९ ॥

तां चान्तःप्रसवामवलोक्य बृहस्पतिरप्याह ॥ २० ॥
उसे गर्भिणी देखकर बृहस्पतिजीने कहा- ॥ २० ॥

नैष मम क्षेत्रे भवत्यान्यस्य सुतो धार्यःसमुत्सृजैनमलमलमतिधार्ष्ट्येनेति ॥ २१ ॥
"मेरे क्षेत्रमें तुझको दूसरेका पुत्र धारण करना उचित नहीं है; इसे दूर कर, अधिक धृष्टता करना ठीक नहीं" ॥ २१ ॥

स च तेनैवमुक्तातिपतिव्रता भर्तृवचनानन्तरं तमिषीकास्तम्बे गर्भमुत्ससर्ज ॥ २२ ॥
बृहस्पतिजीके ऐसा कहनेपर उस पतिव्रताने पतिके वचनानुसार वह गर्भ इपीकास्तम्ब (सींककी झाड़ी)में छोड़ दिया ॥ २२ ॥

स चोत्सृष्टमात्र एवातितेजसा देवानां तेजांस्याचिक्षेप ॥ २३ ॥
उस छोड़े हुए गर्भने अपने तेजसे समस्त देवताओंके तेजको मलिन कर दिया ॥ २३ ॥

बृहस्पतिमिन्दुं च तस्य कुमारस्यातिचारुतया साभिलाषौ दृष्ट्‍वा देवास्समुत्पन्नसन्देहास्तारां पप्रच्छुः ॥ २४ ॥
तदनन्तर उस बालककी सुन्दरताके कारण बृहस्पति और चन्द्रमा दोनोंको उसे लेनेके लिये उत्सुक देख देवताओंने सन्देह हो जानेके कारण तारासे पूछा- ॥ २४ ॥

सत्यं कथयास्माकमिति सुभगे सोमस्याथ वा बृहस्पतेरयं पुत्र इति ॥ २५ ॥
" हे सुभगे ! तू हमको सच-सच बता, यह पुत्र बृहस्पतिका है या चन्द्रमाका ?" ॥ २५ ॥

एवं तैरुक्ता सा तारा ह्रिया किञ्चिन्नोवाच ॥ २६ ॥
उनके ऐसा कहनेपर ताराने लज्जावश कुछ भी न कहा ॥ २६ ॥

बहुशोऽप्यभिहिता यदासौ देवेभ्यो नाचचक्षे ततः स कुमारस्तां शप्तुमुद्यतः प्राह ॥ २७ ॥
जब बहुत कुछ कहनेपर भी वह देवताओंसे न बोली तो वह बालक उसे शाप देनेके लिये उद्यत होकर बोला- ॥ २७ ॥

दुष्टेऽम्ब कस्मान्मम तातं नाख्यासि ॥ २८ ॥
अद्यैव ते व्यलीकलज्जावत्यास्तथा शास्तिमहं करोमि ॥ २९ ॥
यथा च नैवमद्याप्यतिमन्थरवचनाभविष्यसीति ॥ ३० ॥
"अरी दुष्टा माँ ! तू मेरे पिताका नाम क्यों नहीं बतलाती ? तुझ व्यर्थ लज्जावतीकी मैं अभी ऐसी गति करूँगा जिससे तू आजसे ही इस प्रकार अत्यन्त धीरे-धीरे बोलना भूल जायगी" ॥ २८-३० ॥

अथाह भगवान् पितामहः तं कुमारं सन्निवार्य स्वयमपृच्छत्तां ताराम् ॥ ३१ ॥
तदनन्तर पितामह श्रीब्रह्माजीने उस बालकको रोककर तारासे स्वयं ही पूछा- ॥ ३१ ॥

कथय वत्से कस्यायमात्मजः सोमस्य वा बृहस्पतेर्वा इत्युक्ता लज्जमानाह सोमस्येति ॥ ३२ ॥
"बेटी ! ठीकठीक बता यह पुत्र किसका है—बृहस्पतिका या चन्द्रमाका ?" इसपर उसने लज्जापूर्वक कहा-"चन्द्रमाका" ॥ ३२ ॥

ततः प्रस्फुरदुच्छ्‍वसितामलकपोलकान्तिर्भगवानुडुपतिः कुमारमालिङ्‍ग्य साधु साधु वत्स प्राज्ञोऽसीतिबुध इति तस्य च नाम चक्रे ॥ ३३ ॥
तब तो नक्षत्रपति भगवान् चन्द्रने उस बालकको हृदयसे लगाकर कहा-"बहुत ठीक, बहुत ठीक, बेटा ! तुम बड़े बुद्धिमान् हो;" और उनका नाम 'बुध' रख दिया । इस समय उनके निर्मल कपोलोंकी कान्ति उच्छ्वसित और देदीप्यमान हो रही थी ॥ ३३ ॥

तदाख्यातमेवैतत् स च यथेलायामात्मजं पुरूरवममुत्पादयामास ॥ ३४ ॥
बुधने जिस प्रकार इलासे अपने पुत्र पुरूरवाको उत्पन्न किया था उसका वर्णन पहले ही कर चुके हैं ॥ ३४ ॥

पुरूरवास्त्वतिदानशीलोऽतियज्वातितेजस्वी यं सत्यवादिनमतिरूपवन्तं मनस्विनं मित्रावरुणशापान्मानुषे लोके मया वस्तव्यमिति कृतमतिरुर्वशी ददर्श ॥ ३५ ॥
पुरुरवा अति दानशील, अति याज्ञिक और अति तेजस्वी था । 'मित्रावरुणके शापसे मुझे मर्त्यलोकमें रहना पड़ेगा' ऐसा विचार करते हुए उर्वशी अप्सराकी दृष्टि उस अति सत्यवादी, रूपके धनी और मतिमान् राजा पुरूरवापर पड़ी ॥ ३५ ॥

दृष्टमात्रे च तस्मिन्नपहाय मानमशेषमपास्य स्वर्गसुखाभिलाषं तन्मनस्का भूत्वा तमेवोपतस्थे ॥ ३६ ॥
देखते ही वह सम्पूर्ण मान तथा स्वर्ग-सुखकी इच्छाको छोड़कर तन्मयभावसे उसीके पास आयी ॥ ३६ ॥

सोऽपि च तामतिशयित सकललोकस्त्रीकान्ति सौकुमार्यलावण्यगतिविलासहासादि गुणामवलोक्य तदायत्तचित्तवृत्तिर्बभूव ॥ ३७ ॥
राजा पुरूरवाका चित्त भी उसे संसारकी समस्त स्त्रियोंमें विशिष्ट तथा कान्ति-सुकुमारता, सुन्दरता, गतिविलास और मुसकान आदि गुणोंसे युक्त देखकर उसके वशीभूत हो गयः ॥ ३७ ॥

उभयमपि तन्मनस्कमनन्यदृष्टि परित्यक्त समस्तान्यप्रयोजनमभूत् ॥ ३८ ॥
इस प्रकार वे दोनों ही परस्पर तन्मय और अनन्यचित्त होकर और सब कामोंको भूल गये ॥ ३८ ॥

राजा तु प्रागल्भ्यात्तामाह ॥ ३९ ॥
निदान राजाने नि:संकोच होकर कहा- ॥ ३९ ॥

सुभ्रु त्वामहमभिकामोऽस्मि प्रसीदानुरागमुद्वहेत्युक्ता लज्जावखण्डितमुर्वशी तं प्राह ॥ ४० ॥
"हे सुभु ! मैं तुम्हारी इच्छा करता हूँ , तुम प्रसन्न होकर मुझे प्रेम-दान दो । " राजाके ऐसा कहनेपर उर्वशीने भी लज्जावश स्खलित स्वरमें कहा- ॥ ४० ॥

भवत्वेवं यदि मे समयपरिपालनं भवान् करोतीत्याख्याते पुनरपि तामाह ॥ ४१ ॥
"यदि आप मेरी प्रतिज्ञाको निभा सकें तो अवश्य ऐसा ही हो सकता है । " यह सुनकर राजाने कहा- ॥ ४१ ॥

आख्याहि मे समयमिति ॥ ४२ ॥
अच्छा, तुम अपनी प्रतिज्ञा मुझसे कहो ॥ ४२ ॥

अथ पृष्टा पुनरप्यब्रवीत् ॥ ४३ ॥
इस प्रकार पूछनेपर वह फिर बोली- ॥ ४३ ॥

शयनसमीपे ममोरणकद्वयं पुत्रभूतं नापनेयम् ॥ ४४ ॥
"मेरे पुत्ररूप इन दो मेषों (भेड़ों)-को आप कभी मेरी शय्यासे दूर न कर सकेंगे ॥ ४४ ॥

भवांश्च मया न नग्नो द्रष्टव्यः ॥ ४५ ॥
मैं कभी आपको नग्न न देखने पाऊँ ॥ ४५ ॥

घृतमात्रं च ममाहार इति ॥ ४६ ॥
और केवल घृत ही मेरा आहार होगा-[यही मेरी तीन प्रतिज्ञाएँ हैं]" ॥ ४६ ॥

एवमेवेति भूपातिरप्याह ॥ ४७ ॥
तव राजाने कहा-"ऐसा ही होगा" ॥ ४७ ॥

तया सह स चावनिपतिरलाकयां चैत्ररथादिवनेष्वमलपद्मखण्डेषु मानसादिसरःस्वतिरमणीयेषु रममाणः षष्टिवर्षसहस्राण्यनुदिन प्रवर्दधमानप्रमोदोऽनयत् ॥ ४८ ॥
तदनन्तर राजा पुरूरवाने दिन-दिन बढ़ते हुए आनन्दके साथ कभी अलकापुरीके अन्तर्गत चैत्ररथ आदि वनोंमें और कभी सुन्दर पद्मखण्डोंसे युक्त अति रमणीय मानस आदि सरोवरोंमें विहार करते हुए साठ हजार वर्ष बिता दिये ॥ ४८ ॥

उर्वशी च तदुपभोगात्प्रतिदिनप्रवर्धमानानुरागा अमरलोकवासेऽपि न स्पृहां चकार ॥ ४९ ॥
उसके उपभोगसुखसे प्रतिदिन अनुरागके बढ़ते रहनेसे उर्वशीको भी देवलोक में रहनेकी इच्छा नहीं रही ॥ ४९ ॥

विना चोर्वश्या सुरलोकोऽप्सरसां सिद्धगन्धर्वाणां च नातिरमणीयोऽभवत् ॥ ५० ॥
इधर उर्वशीके बिना अप्सराओं, सिद्धों और गन्धर्वोको स्वर्गलोक अत्यन्त रमणीय नहीं मालूम होता था ॥ ५० ॥

ततश्चोर्वशी पुरूरवसोः समयविद्विश्वासुर्गन्धर्वसमवेतो निशि शयनाभ्याशादेकमुरणकं जहार ॥ ५१ ॥
अत: उर्वशी और पुरूरवाकी प्रतिज्ञाके जाननेवाले विश्वावसुने एक दिन रात्रिके समय गन्धर्वोके साथ जाकर उसके शयनागारके पाससे एक मेषका हरण कर लिया ॥ ५१ ॥

तस्याकाशे नीयमानस्योर्वशी शब्दमशृणोत् ॥ ५२ ॥
उसे आकाशमें ले जाते समय उर्वशीने उसका शब्द सुना ॥ ५२ ॥

एवमुवाच च ममानाथायाः पुत्रः केनापह्रियते कं शरणमुपयामीति ॥ ५३ ॥
तब वह बोली-"मुझ अनाथाके पुत्रको कौन लिये जाता है, अब मैं किसकी शरण जाऊँ ?" ॥ ५३ ॥

तदाकर्ण्य राजा मां नग्नं देवी वीक्ष्यतीति न ययौ ॥ ५४ ॥
किन्तु यह सुनकर भी इस भयसे कि रानी मुझे नंगा देख लेगी, राजा नहीं उठा ॥ ५४ ॥

अथान्यमप्युरणकमादाय गन्धर्वा ययुः ॥ ५५ ॥
तदनन्तर गन्धर्वगण दूसरा भी मेष लेकर चल दिये ॥ ५५ ॥

तस्याप्यपह्रियमाणस्याकर्ण्य शब्दमाकाशे पुनरप्यनाथास्म्यहमभर्तृका कापुरुषाश्रयेत्यार्तराविणी बभूव ॥ ५६ ॥
उसे ले जाते समय उसका शब्द सुनकर भी उर्वशी 'हाय ! मैं अनाथा और भर्तृहीना हूँ तथा एक कायरके अधीन हो गयी हूँ । ' इस प्रकार कहती हुई वह आर्तस्वरसे विलाप करने लगी ॥ ५६ ॥

राजाप्यमर्षवशादन्धकारमेतदिति खड्गमादाय दुष्ट दुष्ट हतोऽसीति व्याहरन्नभ्यधावत् ॥ ५७ ॥
तब राजा यह सोचकर कि इस समय अन्धकार है [अतः रानी मुझे नग्न न देख सकेगी], क्रोधपूर्वक 'अरे दुष्ट ! तू मारा गया' यह कहते हुए तलवार लेकर पीछे दौड़ा ॥ ५७ ॥

तावच्च गन्धर्वैरप्यतीवोज्ज्वला विद्युज्जनिता ॥ ५८ ॥
इसी समय गन्धर्वने अति उञ्चल विद्युत् प्रकट कर दी ॥ ५८ ॥

तत्प्रभया चोर्वशी राजानमपगताम्बरं दृष्ट्‍वापवृत्तसमया तत्क्षणादेवापक्रान्ता ॥ ५९ ॥
उसके प्रकाशमें राजाको वस्त्रहीन देखकर प्रतिज्ञा टूट जानेसे उर्वशी तुरन्त ही वहाँसे चली गयी ॥ ५९ ॥

परित्यज्य तावप्युरणकौ गन्धर्वाःसुरलोकमुपगताः ॥ ६० ॥
गन्धर्वगण भी उन मेषोंको वहीं छोड़कर स्वर्गलोकमें चले गये ॥ ६० ॥

राजापि च तौ मेषावादायातिहृष्टमनाः स्वशयनमायातो नोर्वशीं ददर्श ॥ ६१ ॥
किन्तु जब राजा उन मेषोंको लिये हुए अति प्रसन्नचित्तसे अपने शयनागारमें आया तो वहाँ उसने उर्वशीको न देखा ॥ ६१ ॥

तां चापश्यन् व्यपगताम्बर एवोन्मत्तरूपो बभ्राम ॥ ६२ ॥
उसे न देखनेसे वह उस वस्त्रहीन अवस्थामें ही पागलके समान घूमने लगा ॥ ६२ ॥

कुरुक्षेत्रे चाम्भोजसरस्यन्याभिः चतसृभिरप्सरोभिः समवेतामुर्वशीं ददर्श ॥ ६३ ॥
घूमते-घूमते उसने एक दिन कुरुक्षेत्रके कमल-सरोवरमें अन्य चार अप्सराओंके सहित उर्वशीको देखा ॥ ६३ ॥

ततश्चोन्मत्तरूपो जाये हे तिष्ठ मनसि धोरे तिष्ठ वचसि कपटिके तिष्ठेत्येवमनेकप्रकारं सूक्तमवोचत् ॥ ६४ ॥
उसे देखकर वह उन्मत्तके समान 'हे जाये ! ठहर, अरी हृदयकी निष्ठुरे ! खड़ी हो जा, अरी कपट रखनेवाली ! वार्तालापके लिये तनिक ठहर जा'-ऐसे अनेक वचन कहने लगा ॥ ६४ ॥

आह चोर्वशी ॥ ६५ ॥
महाराजालमनेनाविवेकचेष्टितेन ॥ ६६ ॥
उर्वशी बोली-"महाराज ! इन अज्ञानियोंकी-सी चेष्टाओंसे कोई लाभ नहीं ॥ ६५-६६ ॥

अन्तर्वत्‍न्यहमब्दान्ते भवतात्रागन्तव्यं कुमारस्ते भबिष्यति एकां च निशामहं त्वया सह वत्स्यामीत्युक्तः प्रहृष्टःस्वपुरं जगाम ॥ ६७ ॥
इस समय मैं गर्भवती हूँ । एक वर्ष उपरान्त आप यहीं आ जावें, उस समय आपके एक पुत्र होगा और एक रात मैं भी आपके साथ रहूंगी । " उर्वशीके ऐसा कहनेपर राजा पुरूरवा प्रसन्नचित्तसे अपने नगरको चला गया ॥ ६७ ॥

तासां चाप्सरसामूर्वशी कथयामास ॥ ६८ ॥
तदनन्तर उर्वशीने अन्य अप्सराओंसे कहा- ॥ ६८ ॥

अयं स पुरुषोत्कृष्टो येनाहमेतावन्तं कालमनुरागाकृष्टमानसा सहोषितेति ॥ ६९ ॥
"ये वही पुरुषश्रेष्ठ हैं जिनके साथ मैं इतने दिनोंतक प्रेमाकृष्ट-चित्तसे भूमण्डलमें रही थी ॥ ६९ ॥

एवमुक्तास्ताश्चाप्सरस ऊचुः ॥ ७० ॥
इसपर अन्य अप्सराओंने कहा- ॥ ७० ॥

साधु साध्वस्य रूपमप्यनेन सहास्माकमपि सर्वकालमास्या भवेदिति ॥ ७१ ॥
"वाह ! वाह ! सचमुच इनका रूप बड़ा ही मनोहर है, इनके साथ तो सर्वदा हमारा भी सहवास हो" ॥ ७१ ॥

अब्दे च पूर्णे स राजा तत्राजगाम ॥ ७२ ॥
वर्ष समाप्त होनेपर राजा पुरुरवा वहाँ आये ॥ ७२ ॥

कुमारं चायुषमस्मै चोर्वशी ददौ ॥ ७३ ॥
उस समय उर्वशीने उन्हें 'आयु' नामक एक बालक दिया ॥ ७३ ॥

दत्त्वा चैकां निशां तेन राज्ञा सहोषित्वा पञ्च पुत्रोत्पत्तये गर्भमवाप ॥ ७४ ॥
तथा उनके साथ एक रात रहकर पाँच पुत्र उत्पन्न करनेके लिये गर्भ धारण किया ॥ ७४ ॥

उवाच चैनं राजानमस्मत्प्रीत्या महाराजाय सर्व एव गन्धर्वा वरदाःसंवृत्ताः व्रियतां च वर इति ॥ ७५ ॥
और कहा-'हमारे पारस्परिक स्नेहके कारण सकल गन्धर्वगण महाराजको वरदान देना चाहते हैं अत: आप अभीष्ट वर माँगिये ॥ ७५ ॥

आह च राजा ॥ ७६ ॥
विजितसकलाराति रविहतेन्द्रियसामर्थ्यो बन्धुमानमितबलकोशोऽस्मि नान्यदस्माकं उर्वशीसालोक्यात्प्राप्तव्यमस्तितदहमनया सहोर्वश्या कालं नेतुमभिलषामीत्युक्ते गन्धर्वा राज्ञेऽग्निस्थालीं ददुः ॥ ७७ ॥
ऊचुश्चैनमग्निमाम्नायानुसारी भूत्वा त्रिधा कृत्वेर्वशी सलोकतामनोरथमुद्दिश्य सम्यग्यजेथाः ततोऽवश्यमभिलषितमवाप्स्यतीत्युक्तः तामग्निस्तालीमादाय जगाम ॥ ७८ ॥
राजा बोले-"मैंने समस्त शत्रुओंको जीत लिया है, मेरी इन्द्रियोंकी सामर्थ्य नष्ट नहीं हुई है, मैं बन्धुजन, असंख्य सेना और कोशसे भी सम्पन्न हूँ, इस समय उर्वशीके सहवासके अतिरिक्त मुझे और कुछ भी प्राप्तव्य नहीं है । अतः मैं इस उर्वशीके साथ ही काल-यापन करना चाहता हूँ । " राजाके ऐसा कहनेपर गन्धोंने उन्हें एक अग्निस्थाली (अग्नियुक्त पात्र) दी और कहा"इस अग्निके वैदिक विधिसे गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्निरूप तीन भाग करके इसमें उर्वशीके सहवासको कामनासे भलीभाँति यजन करो तो अवश्य ही तुम अपना अभीष्ट प्राप्त कर लोगे । " गन्धर्वोके ऐसा कहनेपर राजा उस अग्निस्थालीको लेकर चल दिये ॥ ७६-७८ ॥

अन्तरटव्यामचिन्तयत् अहो मेऽतीव मुढता किमहमकरवम् ॥ ७९ ॥
वह्निस्थाली मयैषानीता नोर्वशीति ॥ ८० ॥
[मार्गमें] वनके अन्दर उन्होंने सोचा-'अहो ! मैं कैसा मूर्खहूँ ? मैंने यह क्या किया जो इस अग्निस्थालीको तो ले आया और उर्वशीको नहीं लाया' ॥ ७९-८० ॥

अथैनामटव्यामेवाग्निस्थालीं तत्याज स्वपुरं च जगाम् ॥ ८१ ॥
ऐसा सोचकर उस अग्निस्थालीको वनमें ही छोड़कर वे अपने नगरमें चले आये ॥ ८१ ॥

व्यतीतेर्द्धरात्रे विनिद्रश्चाचिन्तयत् ॥ ८२ ॥
आधीरात बीत जानेके बाद निद्रा टूटनेपर राजाने सोचा- ॥ ८२ ॥

ममोर्वशीसालोक्यप्राप्तयर्थमग्निस्थाली गन्धर्वैर्दत्ता सा च मयाटव्यां परित्यक्ता ॥ ८३ ॥
'उर्वशीकी सन्निधि प्राप्त करनेके लिये ही गन्धर्वोने मुझे वह अग्निस्थाली दी थी और मैंने उसे बनमें ही छोड़ दिया ॥ ८३ ॥

तदहं तत्र तदाहरणाय यास्यामीत्युत्थाय तत्राप्युपगतो नाग्निस्थालीमपश्यत् ॥ ८४ ॥
अतः अब मुझे उसे लानेके लिये जाना चाहिये ऐसा सोच उठकर वे वहाँ गये, किन्तु उन्होंने उस स्थालीको वहाँ न देखा ॥ ८४ ॥

शमीगर्भं चाश्वात्थमग्निस्थालीस्थाने दृष्ट्‍वाचिन्तयत् ॥ ८५ ॥
अग्निस्थालीके स्थानपर राजा पुरूरवाने एक शमीगर्भ पीपलके वृक्षको देखकर सोचा- ॥ ८५ ॥

मयात्राग्निस्थाली निक्षिप्ता सा चाश्वत्थः शमीगर्भोऽभूत् ॥ ८६ ॥
'मैंने यहीं तो वह अग्निस्थाली फेंकी थी । वह स्थाली ही शमीगर्भ पीपल हो गयी है ॥ ८६ ॥

तदेनमेवाहं अग्निरूपमादाय स्वपुरमभिगम्यारणीं कृत्वा तदुत्पन्नाग्नेरुपास्तिं करिष्यामीति ॥ ८७ ॥
अतः इस अग्निरूप अश्वत्थको ही अपने नगरमें ले जाकर इसकी अरणि बनाकर उससे उत्पन्न हुए अग्निकी ही उपासना करूं' ॥ ८७ ॥

एवमेव स्वपुरमभिगम्यारणिं चकार ॥ ८८ ॥
ऐसा सोचकर राजा उस अश्वत्थको लेकर अपने नगरमें आये और उसकी अरणि बनायी ॥ ८८ ॥

तत्प्रमाणं चाङ्‍गुलैः कुर्वन् गायत्रीमपठत् ॥ ८९ ॥
तदनन्तर उन्होंने उस काष्ठको एक-एक अंगुल करके गायत्री मन्त्रका पाठ किया । ८९ ॥

पठतश्चाक्षरसंख्यान्येवाङ्‍गुलान्यरण्यभवत् ॥ ९० ॥
उसके पाठसे गायत्रीकी अक्षर-संख्याके बराबर एकएक अंगुलकी अरणियाँ हो गयीं ॥ ९० ॥

तत्राग्निं निर्मथ्याग्नित्रयमाम्नायानुसारी भूत्वा जुहाव ॥ ९१ ॥
उनके मन्थनसे तीनों प्रकारके अग्नियोंको उत्पन्न कर उनमें वैदिक विधिसे हवन किया ॥ ९१ ॥

उर्वशीसालोक्यं फलमभिसन्धितवान् ॥ ९२ ॥
तथा उर्वशीके सहवासरूप फलकी इच्छा की ॥ ९२ ॥

तेनैव चाग्निविधिना बहुविधान् यज्ञानिष्ट्‌वा गान्धर्वलोकानवाप्योर्वश्या सहावियोगमवाप ॥ ९३ ॥
तदनन्तर उसी अग्निसे नाना प्रकारके यज्ञोंका बजन करते हुए उन्होंने गन्धर्व-लोक प्राप्त किया और फिर उर्वशीसे उनका वियोग न हुआ ॥ ९३ ॥

एकोऽग्निरादावभवत् एकेन त्वत्र मन्वन्तरे त्रेधा प्रवर्तिताः ॥ ९४ ॥
पूर्वकालमें एक ही अग्नि था, उस एकहीसे इस मन्वन्तरमें तीन प्रकारके अग्नियोंका प्रचार हुआ ॥ ९४ ॥

इति श्रिविष्णुमहापुराणे चतुर्थांशे षष्ठोऽध्यायः (६)
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥



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